Thursday, September 17, 2015

मेढक तौलने की कवायद

अशोक मिश्र
आपने कभी मेढक को तुलते देखा है। एक तो बड़ी मशक्कत के बाद पकड़ में आता है। चलो, किसी तरह पकड़ में भी आ गया, तो उस पर काबू रखना तो और भी कठिन। इतना चिकना कि जरा सा हाथ ढीला पड़ा, तो फिसल जाता है। फिर उसे तौलने के लिए तराजू पर रखा और दूसरे को उठाकर रखने चले नहीं कि पहला 'धप्प' से पलड़े के बाहर। दूसरे को पकड़कर तराजू पर रखने के बाद पहले को पकडऩे चले, तो दूसरा भी धप्प से बाहर। मतलब यह कि इस दुनिया में सबसे कठिन काम है तराजू पर जिंदा मेढक तौलना। अब कोई महारथी हो और वह बिना हाथ-पांव बांधे, ऐसा करने में सफल हो जाए, तो निस्संदेह वह मेढक तौलने का नोबेल पुरस्कार पाने का हकदार है।
कुछ ऐसा ही हो रहा है बिहार में। बिहार का हर राजनीतिक दल गठबंधन रूपी तराजू पर तुलने को तैयार है, लेकिन होड़ इस बात की है कि उसका ही पलड़ा भारी रहे। अब देखिए न! कुछ महीने पहले चार-पांच दलों को मिलाकर एक महागठबंधन बना था। वैसे तो इस महागठबंधन का हर दल 'मुंडे-मुंडे मर्तिभिन्न:' वाली कहावत चरितार्थ कर रहा था। लेकिन इस महागठबंधन में शामिल दलों ने अपने निकटतम प्रतिद्वंद्वी दलों के विजय के भय को रस्सी बनाकर अपने पांवों में बांध ली और चुनावी तराजू पर तुलने के लिए बैठ गए। पांवों में बंधी रस्सी ढीली थी या पांवों में जानबूझकर रस्सी ढीली बांधी गई थी, दो दल मेढकों की तरह कूद ही गए, धप्प। एक दल के मुखिया ने तो समधियाने का भी ख्याल नहीं रखा। सारा रायता ही बिखेर दिया।
अब बात करते हैं दूसरे गठबंधन की। इस गठबंधन के सबसे बड़ा दल अपने को बड़ा भाई कहता है। सभी अपनी हैसियत के हिसाब से मंझले, संझले और छोटे भाई बने हुए हैं। अभी हाल ही में बड़े भाई ने अपने से छोटे दलों की मीटिंग बुलाई और कहा, 'देखो भइया..मैं बड़ा हूं। मेरे पास राष्ट्रीय जनाधार है, एक से बढ़कर एक शानदार, जानदार और लोकलुभावन जुमले हैं, केंद्र में सत्ता है, तो मेरा सबसे बड़ा हिस्सा बनता है कि नहीं।' छोटे दलों ने हुंकारा भरा, 'बनता है..बिल्कुल बनता है।' तो बड़े दल ने कहा, 'तो भइया 243 सीटों में से 160 मैं अपने पास रख लेता हूं। बाकी 40 मंझले भइया को दे देता हूं, 23 संझले भइया के और बाकी 20 छोटे भइया के। बोलो मंजूर है?' यह सुनते ही मंझले भइया तो खुश हो गए, लेकिन संझले और छोटे का मुंह बन गया। संझले और छोटे ने खड़े होते हुए कहा, 'सारा हिस्सा तुम्हीं दोनों रख लो, मैं तो चला'
यह सुनते ही बड़े भइया ने दोनों का हाथ पकड़कर बिठा लिया, 'अरे सुनो तो! अगर कोई बात है, तो हम से कहो। मैं बैठा हू न! चलो अच्छा..मंझले को 30 सीटें दे देते हैं, मंझले को 28 और छोटे को 25 देने की घोषणा करता हूं। अब तो खुश?' इतना कहना था कि मंझले भाई ने गुर्राते हुए कहा, 'खबरदार..जो मेरी सीटों में कमी की..। मेरे पास क्या नहीं है, दाता हैं, मतदाता हैं..। अब तक कई बार बिहार की बैंड बजाने के बाद केंद्र में भी कई बार बैंड बजा चुका हूं। तुम्हारी यह जुर्रत..मेरी सीटें कम करने चले हो।' तब छोटे भाई ने बड़े से कहा, 'आप बड़े हैं, तो अपनी सीटों में से कुछ दीजिए न! हम लोगों की सीटों में से ही कतरब्योंत करके हमें बेवकूफ बनाने की कोशिश क्यों कर रहे हैं।' इतना सुनते ही बड़े भाई ने कहा, 'देखो! मेरी तो 160 सीटों में से आधी सीट भी कम नहीं होगी। गठबंधन में रहना है, तो रहो..नहीं तो अपना रास्ता नापो।' बड़े भाई के उखड़ते ही संझले और छोटे ने बात संभालने की कोशिश की। इसके बाद कई दौर की बैठक हुई, कई फार्मूले ईजाद किए गए, लेकिन बात नहीं बननी थी, तो नहीं बनी। हर बार मीटिंग इस निर्देश के साथ बर्खास्त होती रही कि हम भले ही भीतर-भीतर लड़ते रहें, लेकिन बाहर वालों के सामने दांत निपोरना नहीं छोड़ेंगे। सुना है कि कल उनकी एक बार फिर मीटिंग होने वाली है।

Monday, September 14, 2015

पुलिस भी अब हो गई महान

अशोक मिश्र
पहले कुछ भी रही हो, लेकिन अब 'हमारा भारत महान' की तर्ज पर 'हमारी पुलिस महान' हो गई है। अब तो देशवासी पुलिसिया शराफत और कर्तव्यनिष्ठा की कसमें तक खाते हैं। दूसरे विभागों में कार्यरत सरकारी कर्मचारियों को नसीहत दी जा रही है कि पुलिस वालों की तरह विनम्र और कर्तव्य पारायण होना सीखो। अब पुलिस वालों की कर्तव्य परायणता देखिए। अधिकारियों ने कहा, जंतर-मंतर पर जितने भी भूतपूर्व सैनिक धरने पर बैठे हैं, उनको तितर-बितर कर दो। आदेश भर की देर थी, पुलिस वाले जुट गए अपने कार्य को पूरी निष्ठा से अंजाम देने में। किसी का सिर फोड़ा, तो किसी की टांग तोड़ी, लेकिन मजाल है कि कोई भूतपूर्व सैनिक उसके सामने टिक पाया हो। अपना काम बेहद ईमानदारी से करके पुलिस लौट गई।
कुछ दिन बाद पुलिस अधिकारियों के मन में अपराध बोध पैदा हुआ कि भूतपूर्व हों या वर्तमान, ये सैनिक हैं तो हमारे ही भाई-बंधु। हमारे ही देश के नागरिक। इनकी ही बदौलत तो हमारी सीमाएं सुरक्षित रही हैं। बस, फिर क्या था? पहुंच गए पुलिस अधिकारी जंतर-मंतर। पूर्व सैनिकों से माफी मांगने। आखिर पुलिस वाले भी तो इंसान ही होते हैं। उनमें भी तो भावनाएं होती हैं। वे किसी इंसान की जब हड्डी पसली एक कर देते हैं, तो उन्हें कोई अच्छा थोड़े न लगता है। उत्तर प्रदेश में जब कांग्रेस के नेता बब्बर साहब की दो-चार पसलियां चटकाई, तो उन्हें सहारा देकर पुलिस वाले ही तो अस्पताल ले गए। अब इससे ज्यादा महानता का क्या सुबूत चाहिए।
बलात्कार चाहे थाने में हो या थाने के बाहर। हमारे देश की पुलिस हमेशा बाप-बड़े भाई की भूमिका में रही है। पीडि़ता को थाने में बिठा लिया, आरोपी को पकड़ मंगाया, पीडि़ता के सामने आरोपी को तीन-चार थप्पड़ लगाए और पीडि़ता से कहा, 'लो जी! सजा दे दी। अब आप भी माफ कर दो। बच्चे हैं गलती हो गई।' चोर-पाकेटमारों को पकड़ा और जिसका सामान चोरी या छीना गया था, उसे उसका सामान वापस दिला दिया, हो गया न्याय। अब इससे ज्यादा...क्या बच्चे की जान लोगे? ऐसा किसी और देश में होता हो, तो बताओ। इतनी महान किसी दूसरे देश की पुलिस हो, तो आलोचना करो, वरना अब अपनी चोंच बंद रखो।

धीरज रखो, सबका विकास होई

अशोक मिश्र
गांव पहुंचा, तो रास्ते में मिल गए मुसई काका। मैंने उन्हें देखते ही प्रणाम किया, तो उन्होंने किसी लोक लुभावन सरकार की तरह आशीर्वाद से लाद दिया। मैंने देखा कि  जिंदगी भर गटापारचा (प्लास्टिक) की चप्पल पहनने वाले मुसई काका स्पोट्र्स शूज पहने मुस्कुरा रहे हैं। मैंने मजाक करते हुए कहा, 'नथईपुरवा तो बहुत विकास कर गया है, गटापारची चप्पल से स्पोट्र्स शूज तक।' मेरी बात सुनते ही मुसई काका हंस पड़े और मेरा हाथ पकड़कर सड़क के किनारे बनी पुलिया पर छांव के नीचे घसीट ले गए और पुलिस पर बैठने का इशारा किया। बोले, 'विकास की बात भले किया। मैं तो तुमसे पूछने ही वाला था कि हम लोगों का विकास कब होगा? यह विकास-विकास तो हम बचपन से सुनते आ रहे हैं। जो भी प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री बनता है, तो सबसे पहले विकास करने की बात करता है। यह विकास आखिर है क्या? और कैसे होगा?'
मैंने अपने चेहरे पर बत्तीस इंची परमहंसी मुस्कान सजा ली, 'काका! बचपन से लेकर पूरी जवानी तक आपने गटापारचा की चप्पल पहनकर काट ली, जवानी में जब आप बंगाल, पंजाब कमाने जाते थे, तो काकी को आपका हाल-खबर मिलने में महीनों लग जाते थे, लेकिन अब देखिए, आप बुढ़ापे में स्पोट्र्स शूज पहनकर घूम रहे हैं। परदेश कमाने जाते हैं, तो घर से निकलते ही बस स्टैंड तक पहुंचने से लेकर जहां आप मजदूरी करते हैं, वह तक पहुंचने की राई-रत्ती खबर जो फोन पर देते रहते हैं, वह विकास नहीं है क्या? चमचमाती सड़कें, साफ-सुथरे अस्पताल, घर-घर में दिन भर चिल्लपों मचाते टेलीविजन सेट। यही तो विकास है काका।'
मुसई काका ने अपनी गुद्दी खुजलाई। कुछ सकुचाते हुए बोले, 'बेटा! हम आधा पेट खाए, फटी धोती पहन के जिंदगी काटे, तब जाकर चार पैसा जोड़ पाए और टीवी-फीवी, मोबाइल वगैरह खरीद पाए। इसमें सरकार का क्या है? पैसा लगाया, तो यह सुविधा मिल गई। सरकार हमारा विकास कब करेगी?' मुसई काका ने तो मुझे फंसा ही दिया। मैंने उन्हें समझाते हुए कहा, 'काका! यह बताओ, जब सरकार कहती है कि सबका विकास करना उसका पहला काम है, तो वह पहला काम कर रही है। आजादी के बाद से कर रही है। अब तक करती आ रही है। आपने यह तो सुना कि वह सबका विकास करेगी, लेकिन यह नहीं सुना कि वह अल्पसंख्यकों का सबसे पहले विकास करेगी। कहती है कि नहीं?' अब फंसने की बारी मुसई काका की थी।
मुसई काका ने असमंजस भरे स्वर में कहा, 'हां...कहती तो है, लेकिन इस देश के अल्पसंख्यक तो आजादी के बाद से अब तक वैसे ही हैं, जैसे पहले थे। उनमें राई-रत्ती फर्क आया हो, तो बताओ।' मैंने मुस्कुराते हुए कहा, 'काका! आप अल्पसंख्यक किसको मानते हैं?'
'अरे हम सब ही तो हैं अल्पसंख्यक।' मुसई काका झुंझला उठे। मैंने कहा, 'नहीं।।देश में न हिंदू अल्पसंख्यक हैं, न मुस्लिम। न सिख अल्पसंख्यक हैं, न जैन, पारसी, ईसाई, बौद्ध। अल्पसंख्यक हैं, तो इस देश के पूंजीपति, उद्योगपति, अफसर और नेता। आप सोचिए काका, इस देश की एक सौ इक्कीस करोड़ की आबादी में पूंजीपतियों, उद्योगपतियों, अफसरों, नेताओं की आबादी कितनी होगी? मुश्किल से कुल आबादी का एक फीसदी।।अब सरकार पहले इन अल्पसंख्यकों का विकास करेगी कि आप जैसे बहुसंख्यकों का। पहले इन लोगों का विकास हो जाने दो, आपका भी करेगी। जब सरकार ने कहा है, तो विकास जरूर करेगी। काका, धीरज रखो।' इतना कहकर मैं आगे बढ़ गया। काका चिल्लाए, 'ऐसे तो तीन-चार सौ साल में भी हम लोगों का नंबर नहीं आएगा। तब तक तो मुझे मरे हुए चार-साढ़े चार सौ साल हो चुके होंगे।' मैंने पलटकर जवाब दिया, 'तो इसमें सरकार क्या करे? सरकार ने कोई ठेका ले रखा है आप लोगों का।Ó इतना कहकर मैं लंबे डग भरता हुआ घर चला आया।

Tuesday, September 1, 2015

विकास का फट गया ढोल

अशोक मिश्र
आपने ढोल देखा है! अरे वही जिसे औरतें शादी-ब्याह, मूडऩ, छेदन या तीज-त्योहारों पर बड़ी उमंग और उत्साह के साथ बजाती थीं। अब तो औरतों को ठीक से ढोल बजाना ही नहीं आता। शादी-ब्याह में भी अब तो सिर्फ रस्म अदायगी होती है, वह भी गांव-देहातों में। शहरों में तो ढोल का अब कोई काम ही नहीं रहा। जी हां, मैं वही ढोल हूं। बात दरअसल यह है कि शादी-ब्याह, तीज-त्योहारों पर ढोल की जैसे-जैसे उपयोगिता घटती गई, राजनीति में इसकी उपयोगिता वैसे-वैसे बढ़ती गई। अब आप कहेंगे कि मैं क्या ऊटपटांग बक रहा हंू? तो साहब..बात यह है कि जिस दिन आजादी मिली, नेहरू जी ने अपनी पीठ पर एक ढोल बांध लिया और लगे पीटने, 'मुझे इस देश में समाजवाद लाना है। मुझे इस देश को स्वर्ग बनना है।' जब तक वे जिंदा रहे, यह समाजवाद का ढोल बजता ही रहा। मजाल है कि कोई उनके इस ढोल को छू भी ले। जब वे जनता के दुख से दुखी हो, तो बड़ी जोर-जोर से समाजवादी ढोल पीटने लगते, जनता समझ जाती कि जिल्ले सुबहानी उनके दुख से आज दुखी हैं। उसके बाद तो यह परंपरा हो गई। जो भी प्रधानमंत्री बनता, अपनी पीठ पर एक ढोल बांध लेता, वह ढोल बजाता, उसके लगुए-भगुओं में से कोई बीन बजाता, तो कोई ढफली। नतीजा, यह होता कि इस कौवा रोर में जनता यह नहीं जान पाती थी कि उसे ध्यान किस पर देना है, ढोल पर, बीन पर या ढफली पर। वह बेवकूफों की तरह मुंह बाए नेताओं और मंत्रियों का यह करिश्मा देखती रहती थी। 
अपने देश में एक प्रधानमंत्री तो ऐसी हुई हैं, जिन्होंने 'कांग्रेस लाओ, गरीबी मिटाओ' का ढोल इतनी बार बजाया कि जनता ही बहरी हो गई। उसके बाद तो किसिम-किसिम के ढोल ईजाद कर लिए गए। जैसे-जैसे राजनीति में भ्रष्टाचार, अनाचार, भाई-भतीजावाद, प्रांतवाद, जातिवाद, सांप्रदायिकता बढ़ती गई, ढोल का आकार-प्रकार बदलता गया। 
अभी जो जिल्ले सुबहानी दिल्ली में  हैं, वे विकास का ढोल तब से पीट रहे हैं, जब वे किसी राज्य के जिल्ले सुबहानी थे। उन्होंने अपनी पीठ पर 'जन धन योजना', 'मेक इन इंडिया', 'स्टैंड अप इंडिया, स्टार्ट अप इंडिया', 'स्किल इंडिया' जैसे न जाने कितने अंग्रेजी नाम वाले ढोल बांध रखा है। जब मर्जी होती है, तो वे कोई एक ढोल बजाने लगते हैं, जब मर्जी होती है, तो सारे ढोल एक साथ पीटने लगते हैं। सवा साल-डेढ़ साल पहले उन्होंने 'न खाऊंगा, न खाने दूंगा' का ढोल पीटा था, लेकिन उनके साथियों ने खाया भी और दूसरो को खिलाया भी। उनका एक ढोल था कि आन नहीं मिटने देंगे। लेकिन यह ढोल कुछ ऐसे बजा कि आज रोज आन मिट रही है, वे टुकुर-टुकुर निहार रहे हैं। वे जब ढोल बजाने से ऊब जाते हैं, तो मन की बात करने लगते हैं। इससे भी मन भर जाता है, तो वे फिर विकास का ढोल पीटने लगते हैं। वे यह भी नहीं देखते हैं कि ढोल की डोरियां कब की ढीली हो चुकी हैं। उन्हें कसने की जरूरत है। भला आप लोग ही बताइए, ऐसी हालत में मैं भला ढोल कब तक बजता? जब बर्दाश्त नहीं हुआ, तो मैं फूट गया। तब से जिल्ले सुबहानी परेशान हैं। एक-एक कर सारे ढोल फूट गए, तो जिल्ले सुबहानी की खुल गई पोल।