Tuesday, December 30, 2014

कांग्रेस को विचार करना होगा

-अशोक मिश्र
इस बात से कतई इनकार नहीं किया जा सकता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लहर अभी तक बरकरार है। इस बात को जम्मू-कश्मीर और झारखंड विधानसभाओं के आए चुनाव परिणाम से भी साबित होता है। लेकिन यह भी सच है कि मोदी की लोकप्रियता की चमक थोड़ी-सी फीकी अवश्य पड़ी है। ऐसा इसलिए माना जा रहा है क्योंकि झारखंड में तो भाजपा और आजसू गठबंधन को पूर्ण बहुमत मिला, लेकिन जम्मू-कश्मीर में उसे दूसरे नंबर पर ही संतोष करना पड़ा। इसी वर्ष हुए लोकसभा चुनाव के दौरान जिस तरह भारतीय मतदाताओं ने उन पर विश्वास किया, शायद कश्मीर के मतदाताओं का विश्वास जीतने में वे सफल नहीं हो पाए। हां, लोकसभा चुनाव के बाद वे हरिणाया में अपनी सफलता को जरूर दोहराने में कामयाब रहे। महाराष्ट्र में भी उन्हें शिवसेना से गठबंधन करने को मजबूर होना पड़ा। कुल मिलाकर अगर देखें, तो एक बात साफ है कि अभी नरेंद्र मोदी के करिश्माई व्यक्तित्व की लहर खत्म नहीं हुई है। १६ मई को लोकसभा चुनाव परिणाम आने के बाद राजनीति के विशेषज्ञ यह मानने लगे थे कि अब केंद्र और राज्यों में गठबंधन की राजनीति का युग समाप्त हो गया। लेकिन झारखंड, महाराष्ट्र और जम्मू-कश्मीर राज्यों के चुनाव परिणाम से साफ है कि अभी राज्यों में गठबंधन युग की समाप्ति नहीं हुई है।
इसके कुछ महत्वपूर्ण कारण भी हैं। मतदाता अपना सांसद चुनते समय तो राष्ट्रीय मुद्दों को तवज्जो देते हैं। उनके लिए तब विकास, विदेश नीति, महंगाई, बेरोजगारी जैसे मुद्दे प्रमुख होते हैं, लेकिन जब उन्हें अपना विधायक चुनना होता है, तो स्थानीय मुद्दे उनके लिए प्रमुख हो जाते हैं। वे राष्ट्रीय मुद्दों को दरकिनार कर देते हैं। वे यह आकलन करने लगते हैं कि उनके इलाके का विकास, बिजली, पानी, सड़क और शिक्षा जैसी मूलभूत सुविधाओं को कौन दिला सकता है? उनके दुख-दर्द कौन सुन सकता है। क्षेत्रीय मुद्दों को प्रमुखता देने की वजह से ही कई बार चुनाव परिणाम बिलकुल अप्रत्याशित आते हैं। कश्मीर में भाजपा की लहर इसलिए भी प्रभावी नहीं हो पाई क्योंकि उसकी छवि हिंदूवादी पार्टी की बन गई थी। इसके लिए किसी हद तक भाजपा और संघ के लोग जिम्मेदार हैं। पिछले कुछ महीनों में संघ और भाजपा नेताओं ने हिंदू राष्ट्र, धर्म परिवर्तन और अल्पसंख्यकों में अविश्वास पैदा करने वाले जो बयान दिए, उससे देश के अल्पसंख्यकों में मोदी के प्रति पैदा होता विश्वास डगमगा गया। विहिप, बजरंग दल और  संघ को पहले यह तय करना होगा कि उन्हें भाजपा और प्रधानमंत्री मोदी को विकास के एजेंडे पर काम करने देना है या फिर देश को हिंदू राष्ट्र बनाने के एजेंडे पर। जिन मुद्दों पर चुनाव लड़कर मोदी ने सफलता हासिल की है, वह रास्ता उन्हें  और भाजपा को कई दशक सत्ता का हकदार बना सकता है। भाजपा और लोकसभा चुनावों के बाद कांग्रेस की स्थिति अवश्य कमजोर हुई है। उसने अपने कई राज्यों की सत्ता गंवाई है। कांग्रेस लगातार हाशिये पर सिमटती जा रही है। उसे अपनी स्थिति पर गंभीरता से विचार करना होगा। आत्ममंथन करना होगा कि आखिर ऐसी स्थितियां पैदा हो रही हैं, तो क्यों? और इसका कारण क्या है? इन कारणों की पहचान और उसके बाद तदनुरूप क्रियान्वयन बहुत जरूरी है। झारखंड के चुनाव परिणाम तो उन लोगों को भी सोचने पर मजबूर करने वाले हैं जिन्होंने मोदी के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए एक महागठबंधन का निर्माण किया है। झारखंड में उनका तो खाता तक नहीं खुल पाया। उन्हें अपने बड़बोलेपन पर लगाम लगाकर गंभीरता से अपनी हार के कारणों की तलाश करनी होगी। अपनी कमजोरियों से निजात पानी होगी। तभी वे राजनीति में अपनी पुरानी साख कायम रख पाने में सफल होंगे।

चटपटे वर्ष 2015 का कुरकुरा राशिफल

-अशोक मिश्र 
मेष: इस वर्ष मेष राशि के जातकों को अपनी प्रेमिका से बचकर रहना होगा, बतोले बाबा जी प्रेमिका से पिटने की आशंका व्यक्त कर रहे हैं। शुक्र के वक्री होने के चलते बीवी नाराज होकर मायके जा सकती है। काले कपड़े पहनकर जातक ऑफिस जाएं, तो आफिस में कार्यरत प्रेमिका के प्रभावित होने की संभावना है।
वृष: इस राशि के जातकों को अपने दोस्त को उधार देने से बचना चाहिए। कुंडली के नवें घर में बृहस्पति के कुचाली होने के चलते ससुराल वाले नाराज रहेंगे। सालियां और सलहजें थोड़ा वक्री रहेंगी। अगर जातक ससुराल में ही छह महीने के लिए डेरा डाल ले, तो वर्ष का उत्तरार्ध उसके लिए शुभ फलदायक रहेगा।
मिथुन : इस राशि के जातकों को इस वर्ष साली से कोई बड़ा उपहार मिलने का योग है। बस थोड़ा साले से बचकर रहना होगा, ऐसा बतोलेबाबा जी का कहना है। बीवी द्वारा पाकेटमारी की आशंका भी बतोलेबाबा जी व्यक्त कर रहे हैं। महिला जातकों को अपने पूर्व प्रेमियों से सावधान रहना होगा, वे गड़बड़ कर सकते हैं। जून के बाद प्रेमी या प्रेमिका में से किसी एक के विदेश जाने का योग बन रहा है।
कर्क : इस राशि के जातकों का भविष्य इस वर्ष बड़ा उज्जवल रहेगा। शनि और मंगल की ढइया उन्हें प्रधानमंत्री नहीं, तो किसी राज्य का राज्यपाल बनाने की ओर इशारा कर रही है। बड़े थोड़ी सी राजनीति की एबीसीडी सीखने की जरूरत पर बतोलेबाबा जी जोर दे रहे हैं। यदि जातक घोटालों में निपुण हो, तो किसी राष्ट्रीय पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष भी बन सकता है। बस, हर सुबह काले गधे को तीन सेर बेसन का लड्ड़ू खिलाना होगा।
सिंह-इस राशि के जातकों को चाहिए कि वे अपने आफिस में काम कम और अधिकारी की चमचागिरी ज्यादा करें, वर्ष भर अपने घर की छोड़, अधिकारी के घर की सब्जियां लाने, गैस बुक कराने, बच्चों की फीस जमा कराने को प्राथमिकता दें, तो विदेश यात्रा के योग बन सकते हैं। वैसे इस राशि के जातकों के सातवें घर में बैठा मंगल तीसरे घर के राहु से नैन मटक्का कर रहा है, इससे सावधानी न बरतने पर यह दांव उल्टा पड़ सकता है। ऐसा बतोलेबाबा जी इशारा कर रहे हैं। 
कन्या-इस राशि में जन्मे जातकों के भाग्य इस वर्ष बड़े प्रबल हैं। भ्रष्टाचार के कई अवसर आपके द्वार खटखटाएंगे, आप देश और प्रदेश के घोटाला शिरोमणि कहलाए जा सकते हैं। बस, आत्मा और ईमानदारी के कीटाणुओं से बचकर रहने की जरूरत पर बल दे रहे हैं बतोलेबाबा जी। भ्रष्टाचार से कमाई गई संपत्ति में से दसवां भाग भी अगर आप अपने से ज्यादा भ्रष्ट को दान में देते हैं, तो वर्ष भर मौज करने के आसार है।
तुला-इस राशि के जातकों को सबसे पहले आत्मा-परमात्मा जैसे संक्रमण से बचना होगा। बतोलेबाबा जी का कहना है कि यदि आत्मा की आवाज अनसुनी करने में जातक सफल हुए, तो उनके विधायक बनने के योग हैं। दिल्ली का मुख्यमंत्री भी इस राशि के जातक बन सकते हैं। बस, केजरीवाल मार्का नेता बनने की हिमाकत करने से बचना होगा। धरना-प्रदर्शन के दौरान अपना हानि-लाभ देखकर ही जिंदाबाद-मुर्दाबाद के नारे लगाने पर लाभ हो सकता है।
वृश्चिक-आपके विदेश जाने के योग हैं, बशर्ते आपने कहीं लंबा हाथ मारा हो। विदेश जाने के इच्छुक जातक पूरी जनवरी सुबह चार बजे बर्फीले पानी से मुंह धोने के बाद बीवी के पांच बार चरण स्पर्श करें, तो विदेश जाने और वहां किसी गोरी मेम से प्रेम प्रसंग की संभावना बतोलेबाबा जी जता रहे हैं।
धनु--इस राशि के जातकों को परस्त्री या परपुरुष को देखने से बचना होगा। यदि भीड़ भरा चौराहा पार करते समय बीच रास्ते में भी यदि पर (पुरुष या स्त्री) दिख जाए, तो आंख बंद करके चुपचाप खड़े रह जाना उचित है। यदि इस वर्ष आप ऐसा करने में सफल हो गए, तो अगले वर्ष में आपको कम से कम बीस हजार करोड़ रुपये की संपत्ति के स्वामी बनने के योग बन रहे हैं। ऐसा बतोलबाबा जी के संकेत हैं।
मकर-इस राशि के जातकों के तो पूरे वर्ष पांचों अंगुलियां घी में और सिर कढ़ाई में रहने के योग बन रहे हैं। सालियां भले ही हो या न हों, लेकिन सलहजों और देवरों की कुंडली में शनि की ढइया और साढ़ेसाती की वजह से आप अपने विपरीत जातकों से घिरे रहेंगे। इस राशि के जातकों के पति या पत्नी आपके प्रति प्रेमभाव बनाए रखेंगे/रखेंगी।
कुम्भ-इस राशि के जातकों को रिश्वत लेने-देने से बचना होगा। बिना रिश्वत दिए इस वर्ष कोई भी काम पूरा नहीं होने की आशंका बतोलेबाबा जी जता रहे हैं। सुबह-शाम पत्नी की चरणों में गिरकर अपने पूर्व जन्म में किए गए पापों के शमन के लिए माफी मांगने से होलिकोत्सव के बाद पुुरुष जातकों की स्थिति में सुधार होगा।
मीन--इस राशि के जातकों के लिए यह वर्ष शुभफल दायक है। घर, दुकान और अन्य इमारतों को पहले तुड़वाकर जमीन की खुदाई करवाएं, उसमें पूर्वजों का गड़ा धन मिलने की संभावना बतोलेबाबा जी जता रहे हैं। कुंडली में राहु के पंचमेश में होने से कई बार आता हुआ धन जाता दिखाई पड़ सकता है, लेकिन बतोलेबाबा जी का कहना है कि घबड़ाएं नहीं, अंतत: यह धन आपको ही मिलेगा।

Saturday, December 27, 2014

यू-टर्न बहुत जरूरी है जनाब!

अशोक मिश्र
सोचिए, अगर जिंदगी में यू-टर्न नहीं होता, तो जिंदगी कितनी नीरस और बेमजा होती। कल्पना कीजिए, आप पैदल या किसी वाहन पर बैठे बस नाक की सीध में चले जा रहे हैं, कोई मोड़ नहीं, कोई यू-टर्न (घुमाव) नहीं, तो आपका सफर कैसा होगा? बस..एक सरल रेखा में भागे चले जा रहे हैं। जीवन अगर सरल रेखीय हो, कोई सम-विषम परिस्थितियां न हों, तो जीवन का आनंद क्या रह जाएगा? इसलिए, एक बात तो तय मानिए, जीवन का कोई भी क्षेत्र हो, यू-टर्न बहुत जरूरी है, चाय में चीनी और दाल में नमक और सरकारी-गैर सरकारी कामों में ली गई रिश्वत की तरह। अगर यू-टर्न नहीं, तो सब कुछ बेकार। बेस्वाद..बेमजा..बेलज्जत। भले ही वह राजनीति हो, पारिवारिक जीवन हो या फिर सामाजिक, यू-टर्न के बिना कोई मजा नहीं। जरा दिल पर हाथ रखकर सोचिए, अगर मोदी सरकार किसी भी मामले में यू-टर्न नहीं मारती, अपने सभी चुनावी वायदे पूरे करती, तो संसद का दृश्य क्या होता? संसद सत्र के दौरान सारे पक्षी-विपक्षी संसद में आते, एक दूसरे से 'हाय-हेल्लोÓ करते, बिल-शिल पेश होते, सारे सांसद हाथ उठाकर या मेज थपथपाकर उसका समर्थन करते और फिर घर चले जाते। संसद के बाहर रैलियां विपक्षी दलों की होतीं और प्रशंसा की जाती सरकार की। देश-प्रदेश की सरकार ने यह किया, वह किया आदि..आदि। संसद में इतना हंगामा हो पाता? संसद में किस्म-किस्म के डायलॉग, छीना-झपटी, हाथापाई और विपक्षियों का छाती पीट-पीटकर हाय-हाय करने का दृश्य देशवासी देख पाते? नहीं न..। इसी यू-टर्न की वजह से देश और प्रदेश में विरोधी दलों को मुद्दा मिलता है, आलोचना करने की ताकत मिलती है। यू टर्न की महत्ता को देखते हुए हमारे आधुनिक ऋषि-मुनियों ने योग में एक आसन की खोज की है, वह है पलटासान। अब आप जानते ही हैं कि अति हर किसी की बुरी होती है। अगर कोई सिर्फ और सिर्फ यू-टर्न को ही जिंदगी मान बैठे, तो उसे बीमार माना जाना चाहिए। ऐसे व्यक्ति के लिए एक दवा ईजाद की गई है पलटमाईसिन। यह दवा हर कहीं नहीं किसी खास जगह पर ही मिलती है।
इतना ही नहीं, आप अपनी घरैतिन से साड़ी लाने का वायदा करके पड़ोसन को रुमाल दिलाकर देखिए, कितना मजा आता है। यह पारिवारिक किस्म का यू-टर्न है। घरैतिन को फिल्म दिखाने का वायदा कीजिए और छबीली के साथ फिल्म देखते पकड़े जाने पर होने वाली पिटाई की कल्पना करके देखिए, कैसा सुख मिलता है। यह सब अपने वायदे से यू-टर्न लेने का आनंद है। इसमें एक सनसनी है, उत्तेजना है, परमानंद है। जीवन में उन्नति, पदोन्नति और अवनति का यही मूल मंत्र है कि जीवन और राजनीति में हमेशा यू-टर्न की गुंजाइश बनी रहनी चाहिए। बच्चे को सुबह चॉकलेट दिलाने का वायदा करके भूल जाइए, बच्चे को नाराज होकर मचलने दीजिए और फिर शाम को चॉकलेट के साथ चिप्स के पैकेट दिलाकर देखिए, बच्चा कैसे खुश होता है। इससे बच्चे को एक सीख मिलती है, यू-टर्न की कला में प्रवीणता हासिल होती है। जब वह बड़ा होगा, तो वह भी यू-टर्न मारने की कला से ओतप्रोत होगा।

Sunday, December 21, 2014

सिर्फ एक सियासी खेल है धर्मांतरण

-अशोक मिश्र
अगर देश की इतनी बड़ी आबादी में से लाख-दो लाख ईसाई या मुसलमान या फिर दोनों संप्रदाय के लोग अपना धर्म परिवर्तन करके हिंदू हो जाएं, तो उससे क्या हिंदू धर्म में कोई क्रांतिकारी परिवर्तन हो जाएगा? जिस देश में साठ-सत्तर करोड़ से भी ज्यादा हिंदू रहते हों, उस देश में चंद लोगों के धर्म परिवर्तन कराने से धार्मिक क्रांति होने वाली नहीं है। इस बात को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके सहयोगी संगठनों को अच्छी तरह गांठ बांध लेनी चाहिए। आगरा में जिन ५८-६० परिवारों ने पहले धर्म परिवर्तन किया और बाद में मुकरते हुए हिंदुत्ववादी संगठनों पर धोखाधड़ी का आरोप लगाया, वह देश के माहौल को देखते हुए चिंताजनक है। आगरा में पहले धर्म परिवर्तन और बाद में धोखाधड़ी का आरोप लगाने वाले ५८-६० मुस्लिम परिवारों के लोग इतने भी नादान या नाबालिग नहीं थे कि कोई उनके हाथों में मूर्तियां दे दे, उनके माथे पर तिलक लगाए, हाथों में कलावा बांधे और बाकायदा समारोह आयोजित करके उनसे हवन करवाए और वे यह न जान पाएं कि उनका धर्मांतरण कराया जा रहा है। इन सभी परिवारों की अगुवाई कर रहे इस्माइल (राजकुमार) का कहना है कि उन्हें लालच देकर जबरन धर्म परिवर्तन कराया गया। हिंदू धर्म अपनाने के लिए पैसे और बीपीएल राशन कार्ड, एक-एक प्लॉट देने का वादा किया गया था। अब जब ये सारे आश्वासन पूरे होते दिखाई नहीं दे रहे हैं, तो यह धोखाधड़ी हो गई!
दरअसल, आगरा में धर्म परिवर्तन के नाम पर जो कुछ भी हुआ, उसमें दोनों पक्षों की बाकायदा सहमति थी। धर्मांतरण या कथित घर वापसी के बाद जब खबरें मीडिया में आईं और इसको लेकर विवाद पैदा हुआ, तो धर्म परिवर्तन करने वालों ने वही किया, जो उस हालत में कोई भी करता। यानी कि बहानेबाजी, आरोप-प्रत्यारोप और चोंचलेबाजी। अब इस मामले में पुलिस ने कथित धर्मांतरण कराने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के आनुषांगिक संगठन धर्म जागरण प्रकल्प (मंच) और बजरंग दल के कार्यकर्ताओं के खिलाफ मुकदमा दर्ज कर लिया है, तो स्वाभाविक है कि निकट भविष्य में दोनों पक्ष अपने-अपने तर्क और सुबूत के साथ अदालत में होंगे। धर्म परिवर्तन या कथित घर वापसी करने वाले कोलकाता के मूल निवासी  हैं या फिर बांग्लादेशी, यह भी एक विवाद का मुद्दा है। जिन ५८-६० मुस्लिम परिवारों के धर्मांतरण का मुद्दा जब संसद से लेकर सड़क तक को गर्मा रहा है। अब धर्मांतरण या कथित घर वापसी को लेकर हिंदू और अन्य धर्मों से जुड़े संगठनों की बयानबाजी दुखद है। यह बयाबबाजी देश में असुरक्षा का माहौल पैदा कर रही है। इसमें हिंदुत्ववादियों के अलावा दूसरे धर्मों के लोग भी शामिल हैं। अभी जो खबरें आ रही हैं, उसके मुताबिक ईसाई संगठन भी इससे बरी नहीं हैं। हो सकता है कि कुछ मुस्लिम संगठन भी ऐसा ही कर रहे हों।
अब जब मामले ने राजनीतिक रुख अख्तियार कर लिया है, तो स्वाभाविक है कि देश के सारे दल इसको लेकर अपने-अपने वोट बैंक को साधने की दिशा में सक्रिय हो जाएंगे, बल्कि हो गए हैं। अब सड़क से लेकर संसद तक देश खास तौर पर उत्तर प्रदेश की सियासत को गर्माने की कोशिश की जाएगी। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने तो यहां तक कहा था कि आगामी क्रिसमस पर पांच हजार अल्पसंख्यकों की घरवापसी कराई जाएगी। हालाँकि अब इस आयोजन को टाल देने की बात कही जा रही है। आरएसएस ऐसे आयोजन पहले भी कर चुका है। हां, ऐसे आयोजन पहले इस तरह डंके की चोट पर नहीं होते थे। यह शायद पहली बार है कि संघ और उसके आनुषांगिक संगठनों ने खुले आम धर्म परिवर्तन या कथित घर वापसी की घोषणा की है। हिंदू धर्म त्यागकर ईसाई या मुसलमान बनने वालों या इस्लाम और ईसाइयत त्याग कर कथित रूप से हिंदू बनने वालों को एक बात अच्छी तरह से समझ लेनी चाहिए कि वैसे तो धर्मांतरण पर भारत में कोई संवैधानिक रोक नहीं है। यद्यपि केंद्र सरकार कह रही है कि यदि विपक्ष चाहे तो धर्मान्तरण पर प्रतिबन्ध लगाने को सरकार तैयार है। लेकिन इससे पहले जिन लोगों ने अपना धर्म त्याग कर किसी प्रेरणावश, लालच या अपने धर्म की विसंगतियों से ऊबकर दूसरे का धर्म अपनाया है, उनकी क्या दशा हुई है, इसे भी वे जान-समझ लें। आजादी से पहले और आजादी के बाद जितने भी लोगों ने किसी कारणवश हिंदू धर्म का परित्याग किया है, वे आज उस धर्म के लोगों द्वारा कितने स्वीकार किए गए, यह जानना बहुत जरूरी है। जहां तक हिंदुत्व की बात है, तो उसके बारे में एक बात अच्छी तरह से समझ लेनी चाहिए कि हिंदू बनाए नहीं जाते हैं, पैदा होते हैं। हिंदू धर्म की सदस्यता जन्म से ही प्राप्त होती है। इसके लिए कोई अनुष्ठान, आयोजन या प्रयास नहीं करना पड़ता है। हिंदू धर्म का कट्टर आलोचक भी हिंदू ही होता है, यदि वह हिंदू परिवार में पैदा हुआ है, जबकि मुसलमान बनने के लिए उसका अल्लाह पर विश्वास, खतना होना, कुरान की आयतों पर विश्वास रखना जरूरी होता है। मुसलमान बनने की एक निश्चित प्रक्रिया है, उसके बाद ही वह मुसलमान होता है। ऐसा ही ईसाई धर्म में भी होता है। बाकायदा एक धार्मिक अनुष्ठान के बाद ही वह अपने को ईसाई कह सकता है, लेकिन हिंदू..? बच्चा तो हिंदू घर में पैदा होते ही हिंदू हो जाता है।
अब जो लोग ईसाई या मुस्लिम धर्म त्याग कर हिंदू बनेंगे, क्या वे ब्राह्मण हो जाएंगे? क्षत्रिय हो जाएंगे, वैश्य हो जाएंगे या दलितों की तरह जीवन बिताने को अभिशप्त होंगे? उन्हें समाज का वह तबका, जो अपने को उच्च मानता है, उन्हें गले से लगा लेगा? उनकी हालत तो ठीक वैसी ही होगी, जो न घर का हुआ, न घाट का। ऐसे परिवारों में क्या हिंदू समाज का सबसे निचला तबका भी अपनी बहन-बेटी का रिश्ता लेकर जाएगा? फिर लोग कथित धर्मांतरण के बाद मुंगेरी लाल की तरह सुखद जीवन यापन के सुहाने सपने क्यों देखते हैं? भारतीय संविधान  के निर्माता कहे जाने वाले डॉ. भीमराव अंबेडकर ने हिंदू समाज की असमानताओं, विसंगतियों और जाति-पांति जैसी क्रूर प्रथाओं से आजिज आकर बौद्ध धर्म अपना लिया था, लेकिन कहते हैं कि बाद में बौद्ध धर्म में अपनाए जा रही कुछ विसंगतियों से वे भी दुखी हो गए थे। किसी भी धर्म से किसी दूसरे धर्म में जाने वाले लोगों से एक बार यह जरूर जानने की कोशिश की जानी चाहिए कि वे जिन रूढिय़ों, कुप्रथाओं, ऊंच-नीच के भेदभावों से ऊबकर उन्होंने अपना धर्म त्यागा था, तो क्या वे जिस धर्म में गए, उसमें यह विसंगतियां हैं या नहीं? उनका जवाब ही सारी हकीकत को उजागर कर देगा। ऊंच-नीच, छोटे-बड़े का भेदभाव हर धर्म में मौजूद है। ऐसे में जाहिर है कि आगरा में धर्म परिवर्तन केपीछे कोई लालच, कोई दबाव, कोई अपेक्षा काम कर रही थी। अभी तो इस बात का खुलासा होना बाकी है कि आगरा में कथित रूप से धर्मांतरण करने वालों को क्या-क्या आश्वासन दिए गए थे? उन्होंने क्या-क्या अपेक्षाएं हिंदुत्व के कथित ठेकेदारों से की थी और जब पूरी नहीं हुईं या मुस्लिम संगठनों का दबाव पड़ा, तो वे अपने बयान से पलट गए या धोखाधड़ी का आरोप लगाकर अपनी सांसत में फंसी जान छुड़ाने की जुगत में हैं।
कोई माने या न माने, लेकिन इतना तो तय है कि पूरी दुनिया में धर्मांतरण एक सियासी खेल है। इस खेल में हिंदूवादी संगठन लगे हुए हैं, तो पाक साफ मुस्लिम और ईसाई संगठन भी नहीं हैं। मुस्लिम और ईसाई संगठन पिछले कई सदियों से भारत में धर्मांतरण का खेल खेल रहे हैं। दलितों, आदिवासियों और समाज के आर्थिक रूप से कमजोर समुदायों को ईसाई संगठन किस तरह आर्थिक मदद के नाम पर, उनकी सेवा के नाम पर और धर्मांतरण के बाद सुखद जीवन का लालच देकर धर्मांतरण कराते चले आ रहे हैं, यह किसी से छिपा नहीं है। झारखंड, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, आंध्र प्रदेश, केरल, उत्तर प्रदेश, पंजाब आदि में सक्रिय ईसाई मिशनरियां यही तो कर रही हैं। इसमें कथित रूप से मुस्लिम संगठन भी पीछे नहीं हैं। इस खेल में पिछले चार-पांच दशक से हिंदू सगंठन भी शामिल हो गए हैं। अब तो सत्ता हथियाने, समाज में विक्षोभ पैदा करके सांप्रदायिक धुव्रीकरण की प्रक्रिया को तेज करने का एक हथियार बन गया है धर्मांतरण। समाज को इससे ही बचाना होगा, तभी हम शांति से रहने की अपेक्षा कर सकते हैं।

काट गया सुलेमानी कीड़ा

अशोक मिश्र
नथईपुरवा गांव में अलाव की आग को पास पड़ी लकड़ी से कुरेदते हुए वंशीधर ने कहा, 'लगता है, नेताओं को  सुलेमानी कीड़े ने बड़ी जोर से काट लिया है। जिसे देखो, वही राजनीति के अखाड़े में ताल ठोक रहा है। जो मुंह में आ रहा है, बस उगल रहा है। अरे भइया! नेता हो, मंत्री हो, अफसर हो, तो नेतागीरी करो, अफसरी करो। जहर तो न बोओ कि कल उसकी फसल काटनी भी मुश्किल हो जाए। यह क्या कि हर जगह बस रार बोते फिर रहे हो।Ó कुरेदने से उठे धुएं से तीखी हो गई आंख को मलते हुए रामदत्त सुकुल ने कहा, 'काका..लगता है, उसी सुलेमानी कीड़े ने आपको भी काट लिया है। अच्छा भली अलाव जल रही थी, आप लगे उसे खोदने। ठीक से जलने भी नहीं देते।Ó
'बाबा..यह सुलेमानी कीड़ा क्या होता है?Ó अलाव ताप रहे बारह वर्षीय वीरभान ने पूछा। वंशीधर ने अलाव में फूंकने के बाद कहा, 'बेटा! यह बड़ा खतरनाक कीड़ा होता है, ठांव-कुठांव कहीं भी काट ले, तो दर्द नहीं होता, लेकिन आदमी राह चलते झगड़ा मोल लेने लगता है। भला, बताओ। अच्छे भले भगवान राम जी सबके दिल में रह रहे थे। वे तो इन नेताओं के न तीन में थे, न तेरह में। लेकिन इन नेताओं की करनी ऐसी कि बेचारे अयोध्या में तंबू-कनात के नीचे पड़े जाड़े-पाले के दिन काट रहे हैं। फिर भी इन नेताओं को चैन नहीं है। ये नेता तो खुद कीचड़ में हैं ही, भगवान राम को भी कीचड़ में सानने की जुगत में हैं। और तो और..बेचारी गीता..यह लो...। अब उसके नाम पर एक नया टंटा खड़ा कर दिया है नेताओं ने। भला बताओ..राष्ट्रीय ग्रंथ बना देने से क्या उसमें सुरख्वाब के पर लग जाएंगे। अरे, वह तो रहेगी वही गीता, जो आज है, जो सदियों से थी, और जो आगे भी सदियों तक रहेगी। अब राजनीति के दंगल में छीछालेदर बेचारी गीता की हो रही है। सच कहता हूं, अगर बेचारी गीता बोल पाती, तो इन नेताओं से हाथ जोड़कर सिर्फ इतना कहती, हे महामानवो! मुझे बख्श दो। अब तक न्यायालयों में चोर-उच्चके, झूठे-मक्कार मुझ पर हाथ रखकर झूठी कसमें खाते हैं, वह कम है क्या, जो मेरी और दुर्गति कराने पर तुले हो।Ó
कालीचरन ने बीच में बोलते हुए कहा, 'हां काका..आजकल तो बड़ा हल्ला है गीता को लेकर। यह मुद्दा क्या है?Ó
वंशीधर ने गहरी सांस लेते हुए कहा, 'बेटा! मुद्दा तो सिर्फ सुलेमानी कीड़ा है। इस सुलेमानी कीड़े का कुछ इलाज अगर मिल जाए, तो मजा आ जाए। इंसानियत के दुश्मन हार जाएं। बस, इतना ही चाहता हूं।Ó इतना कहकर वंशीधर उठे, अपनी लाठी उठाई और टेकते हुए घर चले गए।

Tuesday, December 9, 2014

किसे छल रहे हैं मोदी?

अशोक मिश्र
इन दिनों पूरा देश प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लय और ताल पर झूम रहा है। उनके करिश्माई व्यक्तित्व, जोशीले अंदाज में दिए गए भाषणों और साफ-सुथरी छवि पर आम जनता से लेकर मीडिया तक मुग्ध है। होना भी चाहिए। वैश्विक और राष्ट्रीय परिदृश्य में पिछले कई दशकों से व्याप्त नीरसता, जड़ता को तोडऩे में उन्होंने सफलता जो प्राप्त कर ली है। पिछले महीने जब वे दस दिन की विदेश यात्रा से लौटकर वापस आए थे, तो देश की पूरी जनता ही नहीं, प्रधानमंत्री खुद भी आत्ममुग्ध जैसे दिखे थे। वे झारखंड और जम्मू-कश्मीर में होने वाले चुनावी रैलियों में विदेश यात्रा के किस्से सुनाने से भी नहीं चूके। उन्होंने अपनी विदेश यात्राओं का इस अंदाज में जिक्र किया, मानो बस कुछ ही दिनों में विदेशी पूंजी निवेश की बाढ़ आने वाली है और उस बाढ़ में देश का प्रत्येक व्यक्ति डूबेगा-उतराएगा। देश में इतने उद्योग-धंधे लगेंगे, इतना पैसा होगा कि सबकी समस्याएं बस छूमंतर हो जाएंगी। बेरोजगारी तो यों छूमंतर हो जाएगी। मेक इन इंडिया के भी कसीदे खूब काढ़े गए। इसे मोदी मैजिक ही कहा जाएगा कि उनकी बातों पर लोगों ने विश्वास किया। 
आगामी गणतंत्र दिवस पर अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के प्रस्तावित भारत दौरे को भी एक महत्वपूर्ण उपलब्धि के रूप में प्रचारित करने की कोशिश की जा रही है। प्रधानमंत्री मोदी को यह बात कतई नहीं भूलनी चाहिए कि अभी हाल ही में अमेरिका ने एशिया में पुनर्संतुलन की समर नीति घोषित की है जिसको लेकर एशियाई देश काफी चौकन्ने हो गए हैं। बराक ओबामा की यह प्रस्तावित यात्रा उस सामरिक नीतियों का परिणाम है जिसको प्रधानमंत्री अपनी उपलब्धि बताते नहीं थक रहे हैं। बराक ओबामा भारत आकर चीन पर एक मनोवैज्ञानिक दबाव बनाना चाहते हैं, ताकि वह एशिया में अमेरिकी हस्तक्षेप को लेकर विरोध न करे। 
जिन लोगों को चुनाव के दौरान मोदी द्वारा दिए गए भाषणों के थोड़े से भी अंश याद होंगे, उन्हें मालूम होगा कि वे पूरे देश में घूम-घूमकर अच्छे दिन लाने का वायदा कर रहे थे। उनकी पार्टी ने मीडिया में इस बात का प्रचार भी खूब किया था। क्या हुआ उस वायदे का? किसके अच्छे दिन आए? सिर्फ मुकेश-अनिल अंबानी तथा गौतम अडानी के? पिछले महीने की जिस विदेश यात्रा पर मोदी इतना इतरा रहे हैं, उस यात्रा के दौरान आस्ट्रेलिया में अदानी ने एक बड़ा समझौता किया है। इस समझौते में है कि अदानी ग्रुप अब ऑस्ट्रेलिया के क्लेरमांट शहर में कारमाइकल कोयला खान से कोयला निकालेगा। ऑस्ट्रेलिया में कोयला खनन परियोजना के लिए अदानी को एक बड़े कर्ज लगभग एक अरब डॉलर (छह हजार करोड़ रुपये) की जरूरत थी। यह कर्ज दिया देश के सबसे बड़े सार्वजनिक बैंक स्टेट बैंक ऑफ इंडिया ने, जबकि दुनिया के छह बड़े बैंक अदानी समूह को लोन देने से मना कर चुके थे। सच बात तो यह है कि सितम्बर, 2014 के अंत तक अदानी ग्रुप पर कुल 72,000 करोड़ रुपये की देनदारी थी। यह देनदारी ज्यादातर राष्ट्रीयकृत बैंकों की है। इसके बावजूद भारतीय स्टेट बैंक ने अडानी समूह को कर्ज क्यों दिया, यह सवाल विचारणीय है। अगर हम थोड़ी देर के लिए मान लें कि इससे देश में कोयला आएगा, तो फिर केंद्रीय बिजली मंत्री पीयूष गोयल के उस बयान का क्या होगा जिसमें उन्होंने कहा है कि देश में कोयले की कोई कमी नहीं है। भारत अगले दो साल में कोयले का आयात बंद कर देगा। जिन दिनों नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे, उन दिनों गुजरात की जमीनों को अदानी को सस्ते में देने के आरोप भी मोदी पर लगे थे, लेकिन उन आरोपों का क्या हुआ, आज तक किसी को नहीं मालूम है।
जिस कालेधन की आंधी चलाकर यूपीए की सत्ता को उखाड़कर नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने हैं, वही काली आंधी एक दिन उन्हें भी निगल लेगी, इस बात को भाजपा को अच्छी तरह से समझ लेनी चाहिए। भ्रष्टाचार और बोफोर्स तोप सौदे में हुए घोटाले के आरोपों के रथ पर सवार होकर एकदम मसीहाई छवि के साथ 2 दिसंबर 1989 को प्रधानमंत्री बनने वाले विश्वनाथ प्रताप सिंह को जनता ने कुछ ही दिनों बाद अस्वीकार कर दिया था। उन्होंने बड़े जोर-शोर से राजीव गांधी के भ्रष्टाचार की कलई खोलने का वायदा जनता से लोकसभा चुनाव के दौरान किया था, लेकिन प्रधानमंत्री बनने के बाद जब वे बहाने बनाने लगे, तो वे साल भर के अंदर ही जनता की निगाह से उतर गए थे। प्रधानमंत्री मोदी भी अब उसी राह पर चल निकले हैं। चुनाव के दौरान सौ दिन में कालाधन देश में लाने का वायदा करने वाले प्रधानमंत्री अब इस मुद्दे पर किंतु-परंतु करते नजर आ रहे हैं। अब तो वे इस वायदे से मुकर रहे हैं कि उन्होंने ऐसा कोई वायदा किया भी था। अभी तो नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार ने चुनावी वायदों से मुकरना शुरू किया है। स्वतंत्रता सेनानी सुभाष चंद्र बोस की मौत से जुड़े 39 दस्तावेजों को सार्वजनिक करने की बात से मोदी सरकार मुकर चुकी है। विपक्ष में रहते इसी मुद्दे पर वह बवाल काट चुकी है। तत्कालीन बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने अपनी कटक यात्रा के समय नेताजी की 117वीं जयंती के मौके पर मांग की थी कि यूपीए सरकार उनसे जुड़े रेकॉर्ड को सार्वजनिक करे। लेकिन मोदी सरकार का पीएमओ अब इस बात से सहमत नहीं दिखाई देता जो कि उसके जवाब से झलकता है। पूर्वोत्तर राज्यों के दौरे के दौरान मोदी ने बांग्लादेश के साथ जमीनों की अदला-बदली की बात कही है, भाजपा नेता इससे पहले इसका विरोध करते रहे हैं। यूपीए के इस फैसले को राष्ट्रविरोधी तक करार दिया गया था। रेल किराया, इंश्योंरेंस सेक्टर में एफडीआई 26 फीसदी से बढ़ाकर 49 फीसदी करने, पूरे देश में समान वस्तु और सेवा कर लाने, भूमि अधिग्रहण और फूड सिक्यॉरिटी कानून जैसे मुद्दों पर मोदी सरकार का वही रवैया है, जो इससे पूर्ववर्ती मनमोहन सिंह का था। भाजपा इन्हीं मुद्दों का विरोध करने के दम पर ही तो सरकार में आने में कामयाब हुई है। लेकिन भाजपा नेता और मोदी सरकार में शामिल मंत्री इस बात को मानने को तैयार नहीं हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी किससे छल रहे हैं? जनता से, अपने आप से या फिर अन्य राजनीतिक दलों से? यह छल एक न एक दिन उन्हें भारी पड़ेगा। जनता की याददाश्त इतनी भी कमजोर नहीं होती कि वह मोदी के चुनावी वायदों को भूल जाएगी।

गालियों का क्या बुरा मानना!

अशोक मिश्र
गालियों का क्या बुरा मानना! गालियां बुरी होतीं, तो इनका इतना विस्तार क्यों होता। गालियों का तो भगवान श्रीराम ने भी बुरा नहीं माना था। जब धनुष भंग के बाद अयोध्यापति महाराज दशरथ अपने चारों पुत्रों की बारात लेकर जनकपुरी पहुंचे, तो शादी के बाद अगले दिन कलेवा के समय राम और उनके सभी भाइयों को सीता और उनकी बहनों की सहेलियों ने ऐसी-ऐसी गालियों से नवाजा था जिसे सुनकर उनके दांत जरूर खट्टे हो गए होंगे। लेकिन मजाल है कि उन्होंने किसी गाली का बुरा माना हो। अगर माना भी हो, तो इसकी कोई चर्चा न तो आदिकवि महर्षि वाल्मीकि ने किया है और न ही महाकवि तुलसीदास ने। हां, महाकवि तुलसीदास ने 'रामलला नहछूÓ में नहछू (नहखुर) और कलेवा रस्म के समय गाई जाने वाली गालियों का जिक्र जरूर किया।
अवध क्षेत्र में होने वाली शादियों में कलेवा खाने की रस्म के दौरान गाई जाने वाली गालियों को सुनने पर ऐसा लगता है कि कोई पिघला सीसा कानों में उड़ेल रहा है, लेकिन आज तक ऐसा कोई बाराती समाज के सामने नहीं आया होगा, जिसने इन गालियों को लेकर कोई शिकायत थाने में दर्ज कराई हो, शादी में इन गालियों को लेकर मारपीट-गाली-गलौज हुई हो। होता तो यह है कि दूल्हे के साथ जाने वाले छोकरों की मां-बहन, मामी-काकी, मौसी के नितांत निजी क्षणों का जोर-शोर से उल्लेख करती दूल्हन की सहेलियां, बहनें और भाभियां गालियों के साथ तान-तानकर नयन वाण चलाती हैं। इन नयन वाण से घायल होकर कोई अस्पताल पहुंचा हो, ऐसी कोई खबर आज तक पढऩे-सुनने में नहीं आई। गाली (गारी) गाते समय ये निपट निरक्षर महिलाएं ऐसे-ऐसे बिंब, प्रतिबिंब, प्रतिमान, उपमान गढ़ लेती हैं, जो किसी सिद्धहस्त कवि के लिए भी असंभव प्रतीत होता है। आप इनकी कल्पना और प्रौढ़ भाषा पर मुग्ध तो हो सकते हैं, लेकिन बुरा नहीं मान सकते हैं। इन गालियों ने समाज का बहुत भला किया है, इस बात से देश की विभिन्न भाषाओं की गालियों पर शोध करने वाले छात्र-छात्राएं जरूर सहमत होंगे। गुस्सा चढऩे पर मन तो यही होता कि अमुक व्यक्ति की हत्या कर दूं, लेकिन जब उसके मुंह से गालियों का अजस्र प्रवाह होने लगता है, तो वह हत्या की बात भूल जाता है। अगर गालियों का आविष्कार मनुष्य ने न किया होता, तो शायद अब तक हर परिवार का दो-चार सदस्य हत्या के अपराध में जेल में होता। इन गालियों ने ही हर घर को उजडऩे और बरबाद होने से बचाया है। ऐसी गालियों से बुरा मानने की क्या जरूरत है, भले ही यह गाली किसी संत ने दी हो, किसी साध्वी ने दी हो। आखिर ये संत और साध्वी भी तो इसी समाज का हिस्सा हैं। ये भी इंसान ही हैं। इंसानों से गलती हो ही जाती है। अगर इंसान गलती न करता, तो इन गालियों का आविष्कार ही क्यों होता।

Sunday, December 7, 2014

उपन्यास ‘विहान से पूर्व’ का एक अंश

अशोक मिश्र
उसे लगा कि कान के पर्दे फट जाएंगे। कानों पर हथेलियां रखने के बावजूद जब उसे राहत मिलती नजर नहीं आई, तो वह झुंझला उठा। उसने कभी बचपन में मुनादी करने वालों को देखा था। कि किस तरह नगाड़ा पीट-पीटकर मुनादी किया करते थे। उसे याद आया। उसने रायबली उमानाथ प्रेक्षाग्रह में औरंगजेब से संबंधित एक नाटक देखा था। उसमें मुनादी करने वाला किस तरह नगाड़ा पीट-पीटकर शहंशाह औरंगजेब का हुक्म सुना रहा था, ‘खल्क खुदा का, हुक्म शहंशाह का! बहुक्म शहंशाहे हिंदुस्तान आलमगीर औरंगजेब साहिबे आलम....रियाया को आगाह किया जाता है कि....।’ उसके चेहरे पर पसीना चुहचुहा आया। उसे लगा कि आज पूरे शहर में फिर से शहंशाह औरंगजेब की जगह देवदत्त की ओर मुनादी की जा रही हो। लिसन......लिसन.....यू आल आर हियरबाई इन्फाम्र्ड द मैनेजमेंट हैज डिसाइडेड टू टर्मिनेट अवध नारायण सिंह’स सर्विस फ्राम द कंपनी इन द टर्म ऑफ अप्वाइंटमेंट लेटर इश्यूड टू अवध नारायण सिंह वाइड अवर लेटर डेटेड.......। अवध नारायण सिंह ने अपने चेहरे पर चुहचुहा आए पसीने को पोंछने के लिए जेब से रुमाल निकाला, तो मुड़ा-तुड़ा टर्मिनेशन लेटर जमीन पर गिर पड़ा। उसने उस पत्र को वैसे ही उठाया जैसे कि वह अपनी ही लाश उठाकर कंधे पर रखने जा रहा हो। सारा ब्रह्मांड उसे घूमने के साथ-साथ चीखता सा लग रहा था, ‘यू आर टर्मिनेटेड......यू आर टर्मिनटेड......यू आर टर्मिनेटेड..।’ वह खड़ा नहीं रह सका। तिराहे पर बने छोटे से पार्क में बैठ गया।
सुबह जब वह दैनिक समर सत्ता के आफिस जाने के लिए घर से निकल रहा था, तो बारह वर्षीय बेटी प्राची ने ठुनकते हुए कहा था, ‘पापा! इस बार मेरे बर्थडे पर आप मेरी पसंद का गिफ्ट देंगे न! हर बार छोटू को उसकी पसंद का गिफ्ट मिलता है और मुझे कोई न कोई बहाना बनाकर टरका देते हैं।’ वह बेटी की बात पर हंस पड़ा था, ‘तू मेरी अच्छी बेटी है न, इसलिए! छोटू तो नालायक है, रोने लगता है। तू समझदार है। और फिर तू उनतीस तारीख को क्यों पैदा हुई? दो-चार दिन बाद पैदा होती, तो वेतन हाथ में होता। तेरी मनपसंद के गिफ्ट भी मिल जाते।’ बेटी शर्मा गई थी, ‘उनतीस को मैं अपनी मर्जी से थोड़ी न पैदा हुई थी। वह तो भगवान ने पैदा कर दिया था।’ प्राची को बहला-फुसलाकर घर से निकला था, तो सोच लिया था कि इस बार वह बेटी के बर्थडे पर कोई कसर नहीं छोड़ेगा। समर सत्ता के आफिस के बाहर ही मुंह लटकाए नवीन सक्सेना मिल गया। नवीन फीचर डेस्क पर था।
नवीन की पीठ पर धौल जमाते हुए उसने कहा था, ‘तुम्हारी भैंस खो गई है क्या, जो मुंह लटकाए खड़े हो?’
‘अंदर जाओ, शायद तुम्हारी भी भैंस किसी ने खोल ली हो। भगवान करे कि मेरी आशंका गलत हो, लेकिन मुझे कुछ भी ठीक नहीं लग रहा है। चार लोगों को टर्मिनेशन लेटर इशू हो चुका है। कुछ ट्रांसफर हो गए हैं। भगवान जाने मेरा क्या हुआ होगा, टर्मिनेशन या ट्रांसफर? अवध भाई..मुझे बड़ा डर लग रहा है। इसी वजह से मैं अंदर नहीं जा रहा हूं।’
यह सुनकर अवध नारायण सन्न रह गया। पहले तो उसके मुंह कोई बोल नहीं फूटे। फिर उसने कहा, ‘क्यों..? टर्मिनेशन या ट्रांसफर क्यों किया जा रहा है? कोई वजह तो बताई होगी?’
रुआंसे नवीन सक्सेना ने कहा, ‘कहते हैं कि आर्थिक मंदी के चलते यह यूनिट बंद करनी पड़ रही है। फिर जब कभी यहां से अखबार निकालना हुआ, तो आप लोगों को बुलाया जाएगा।’
‘अरे यार..यह क्या धांधली है! वैश्विक मंदी तो पिछले साल आकर निकल गई। अब सन 2009 की जनवरी में आर्थिक मंदी यहां क्या कर रही है। और फिर भारत में तो आर्थिक मंदी का कोई विशेष प्रभाव भी तो नहीं हुआ।’ इतना कहकर अवध नारायण सिंह ताव में दनदनाता हुआ समर सत्ता के आफिस में घुस गया।

Wednesday, December 3, 2014

अहंकार त्यागने की शिक्षा देने वाले गुरु दत्तात्रेय

http://epaper.jagran.com/ePaperArticle/03-dec-2014-edition-Delhi-City-page_13-7332-3546-4.html
-अशोक मिश्र
प्रकृति और पर्यावरण के साथ-साथ शैव, वैष्णव और शाक्त तीनों संप्रदाय को एकता और भाईचारे का पाठ पढ़ाने वाले गुरु और अवतारी पुरुष दत्तात्रेय ने मानव समाज को हमेशा प्रकृति संरक्षण का ही पाठ पढ़ाया। वे गुरुओं के गुरु माने जाते हैं। उनकी शक्ति अपार थी, लेकिन शक्ति का उपयोग मानव कल्याण में हो, इसका संदेश ही उन्होंने दिया है। आज जिस तरह प्रकृति का दोहन, जाति-धर्म के नाम पर हिंसा हो रही है, उससे निजात पाने का तरीका सद्गुरु दत्तात्रेय सदियों पहले बता चुके थे। शैव, वैष्णव और शाक्त तीनों संप्रदायों को एकजुट करने वाले भगवान दत्तात्रेय का प्रभाव हजारों सालों से पूरे भारत में है। 
कहते हैं कि भगवान विष्णु के अवतार दत्तात्रेय ऋषि अत्रि और माता अनुसूइया के पुत्र थे।  उन्होंने मानव समाज को साधक रूप में उस योग की शिक्षा दी, जिसके सहारे ईश्वर से एकरूपता स्थापित की जा सकती है। उनका मानना था कि ईश्वर और प्रकृति दोनों एक ही हैं। यही वजह है कि उन्होंने 24 गुरु किए जिनमें पृथ्वी, वायु, जल, अग्रि, आकाश, सूर्य से लेकर सांप और मछुआरा तक शामिल हैं। उन्होंने इन प्राकृतिक जीवों और पदार्थों को अपना गुरु बनाकर यह संदेश देने का प्रयास किया कि जब तक पृथ्वी पर संतुलन कायम रहेगा, मानव समाज और जीवन की अजस्र धारा प्रवाहित होती रहेगी। जैसे ही मनुष्य ने प्रकृति के कार्यों में हस्तक्षेप किया, वह अपने विनाश की आधारशिला रख देगा।
मार्गशीर्ष पूर्णिमा के दिन मृग नक्षत्र में दत्तात्रेय का जन्म हुआ था। महाराष्ट्र के औदुंबर में दत्तात्रेय उत्सव बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। तमिलनाडु, उत्तरांचल, बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में दत्तात्रेय जयंती बड़े धूमधाम से मनाई जाती है। सदियों से अपनी सर्वोच्चता के लिए संघर्ष करने वाले शैव, वैष्णव और शाक्त तीनों संप्रदायों के विद्वानों, मनीषियों को एकजुट करने का प्रयास बहुत पहले दत्तात्रेय कर चुके हैं। वे अपने कार्य में सफल भी रहे। यह एक ऐसा गुरुतर कार्य था, जो तत्कालीन परिस्थियिों में काफी दुष्कर था। लेकिन उन्होंने यह कार्य कर दिखाया। इसीलिए उन्हें गुरुओं का गुरु भी कहा जाता है। 
जिन दिनों दत्तात्रेय का जन्म हुआ था, उन दिनों समाज में काफी विषमता, जाति-पांति, ऊंच-नीच और धार्मिक मतवैभिन्य व्याप्त था। इससे वे काफी दुखी भी रहते थे। मानव समाज में शांति स्थापित करने और कुरीतियों को दूर भगाने के लिए जरूरी था कि वे समाज को पहले जानें, सामाजिक विसंगतियों के मूल को पहचानें। इसीलिए उन्होंने जीवन भर भ्रमण किया। जहां भी जाते, प्रकृति की सुरक्षा का उपदेश देकर सामाजिक असमानता को दूर करने का सहज मार्ग बताते और कुछ दिनों बाद फिर अपनी राह चल देते। धीरे-धीरे दत्तात्रेय महायोगी और महागुरु के रूप में पूजनीय होते गए।
शास्त्रों के मुताबिक दत्तात्रेय ने चौबीस गुरुओं से शिक्षा ली मनुष्य, प्राणी, वनस्पति सभी शामिल थे। यही वजह है कि दत्तात्रेय की उपासना में अहं को छोडऩे और ज्ञान द्वारा जीवन को सफल बनाने का संदेश है। धार्मिक दृष्टि से उनकी उपासना मोक्षदायी मानी गई है। दत्तात्रेय की उपासना ज्ञान, बुद्धि, बल प्रदान करने के साथ शत्रु बाधा दूर कर कार्य में सफलता और मनचाहे परिणामों को देने वाली मानी गई है। धार्मिक मान्यता है कि भगवान दत्तात्रेय भक्त की पुकार पर शीघ्र प्रसन्न होकर किसी भी रूप में उसकी कामना पूर्ति और संकटनाश करते हैं।  कृष्णा नदी के तट के बीच में महाराष्ट्र के औदुम्बर में श्रीदत्त महाराज का मंदिर स्थापित है। यहां दत्तात्रेय की स्वयंभू मनोहर पादुका के दर्शन करने का पुण्य मिलता है। 

जीतेगा सबसे बड़ा झुट्ठा

3 december 2014 ko dainik jansandesh times mein chhapa
-अशोक मिश्र
कल मुझसे उस्ताद गुनाहगार पूछ रहे थे, ‘दिल्ली में यदि चुनाव होते हैं, तो किसके जीतने के आसार लग रहे हैं?’ मैंने निर्विकार भाव से पूछ लिया, ‘किसके जीतने की कामना आप कर रहे हैं? भाजपा, कांग्रेस या फिर आप? या फिर कभी आप के खिलाफ बनने वाली ‘बाप’ (भारतीय आम आदमी पार्टी) के जीतने पर सट्टा लगा रखा है?’ मेरे सवालों पर उस्ताद गुनाहगार के चेहरे पर एक उदासीन मुस्कान किस्म की बिखर गई, बोले, ‘मुझे तो ये सभी पार्टियां एक जैसी ही लगती हैं। बस, चेहरों, झंडों और नारों का फर्क है। कोई जीते, हमें उससे क्या फर्क पड़ता है? हां, चूंकि चुनाव के आसार बन गए हैं, तो एक उत्सुकता रहती है मन में। सो, तुमसे पूछ लिया।’ मैंने कहा, ‘उस्ताद! आप अपनी साठ-बासठ साल की उम्र में भी लोकतंत्र की नब्ज नहीं पकड़ पाए। दिल्ली के विधानसभा चुनाव हों या लोकसभा के। अब तक जीतता वही आया है, जो सबसे ज्यादा प्रामाणिक तरीसे से झूठ बोल सकता है, जनता को अपने झूठ का विश्वास दिला सकता है। जिसके झुनझुने में लय होगी, तान होगी, दिल्ली की सत्ता सुंदरी उसी का वरण करेगी। समाजवादी हों, विकासवादी हों, भाववादी हों, कुभाववादी हों, दक्षिणपंथी हों, वामपंथी हों, सभी आज तक चुनावों के दौरान अपने-अपने डमरू लेकर बंदरिया नचाने मैदान में आ जाते हैं। जिसकी बंदरिया ज्यादा ठुमके लगाती है, ज्यादा नखरे दिखाती है, मतदाताओं को रिझाती है, वही जीत जाता है। इसमें ऐसा नया क्या है, जो आप जानना चाहते हैं।’ इतना कहकर सांस लेने के लिए रुका। उस्ताद गुनाहगार दूर कहीं क्षितिज में ताकते से दिखे। मैंने कहा, ‘उस्ताद जी! यह भारतीय लोकतंत्र है न! साठ-पैंसठ साल में ही बुढ़ा गई है। इसमें कोई झस नहीं बचा है। इसके झुर्रीदार चेहरे को अगर गौर से आप देखें, तो सिर्फ उदासी, घुटन और कुंठा के कुछ नहीं पाइएगा। मुझे तो ऐसा लगता है कि यह बुढिय़ा लोकतंत्र बिलबिला रही है, नेताओं की कथनी और करनी से। ठीक वैसे ही जैसे हम-आप अपनी गरीबी, बेकारी, भुखमरी को लेकर बिलबिला रहे हैं। चालीस-पैंतालिस साल की उम्र में ही मुझे अपना चेहरा बुढिय़ा लोकतंत्र जैसा लगने लगा है।’ गुनाहगार गहरी सांस लेकर बोले, ‘तो क्या कोई विकल्प नहीं है?’ मैंने कहा, ‘है न! बस खोजने की जरूरत है।’ इतना कहकर हम दोनों चुपचाप क्षितिज को निहारने लगे।

Saturday, November 29, 2014

विघ्न संतोषियों को चैन नहीं

अशोक मिश्र
दो आदमी रेलवे स्टेशन पर बैठे गाड़ी का इंतजार करने के साथ-साथ बतकूचन कर रहे थे। उनमें से एक ने कहा, 'भाई साहब..ये दुनिया वाले लोग हैं, जीने नहीं देते। आप संकट में हों, तो हथेलियां ठोक कर हंसेंगे, सुखी हों, तो वे इस चिंता में दुबले होते रहेंगे कि अमुक सुखी क्यों है? ये लोग भी न..किसी को सुखी नहीं देख सकते है। अगर आप अपने घर के बाहर खड़े भले ही किसी पेड़-पौधे, गिलहरी-गौरेया को देख रहे हों, लेकिन देखने वाले तो यही समझेंगे कि आप फलां की बीवी को ही घंटे भर से निहार रहे हैं। यह तो हद हो गई, यार। आपकी बीवी भले ही अपने भाई के साथ बाजार जा रही हो, लेकिन मोहगे की औरतें खुसुर-फुसर बतियाती मिल जाएंगी, देखो! कैसे मटक-मटक कर चल रही है। हाय राम..लगता है कोई नया मुर्गा फांसा है।'
दूसरे आदमी ने कंबल को अपने चारों ओर लपेटते हुए कहा, 'सही कह रहे हो, भाई। कुछ विघ्नसंतोषी टाइप की महिलाएं तो आपको यह बताने पहुंच जाएंगी, भाई साहब! भाभी जी पर जरा कसकर निगरानी रखिए। कल वह बाजार में सब्जीवाले से बड़ी देर तक हंस-हंस कर बतिया रही थीं। मुझे तो कुछ गड़बड़ लग रही है। आपको अपना मानती हूं, सो सचेत करने चली आई। बाकी आप जानें, आपका काम जाने।'
पहले वाले ने गंभीरता से सिर हिलाते हुए कहा, 'सही कह रहे हो भइया। भला बताओ.. अगर मंत्री महोदया अपना हाथ दिखाने ज्योतिषी के पास चली ही गईं, तो इसमें कौन सा पहाड़ टूट पड़ा? लेकिन इस देश के विघ्न संतोषियों को क्या कहा जाए। उन्हें यह भी रास नहीं आया। लगे बात का बतंगड़ बनाने। अरे वे मंत्री हो गईं, तो क्या उनका निजी जीवन ही नहीं रहा। मंत्री होने के अलावा वे महिला हैं, उनके भी बाल-बच्चेे हैं, घर-परिवार है। अब अगर उन्हें अपने भविष्य की चिंता है, अपने करियर की चिंता है, तो इसमें गलत क्या है?
 मंत्री होने का यह मतलब नहीं है कि वे अपने करियर की उन्नति के बारे में न सोचें। किसी से राय-मशविरा ही न लें। भला बताओ, किसी सरकारी या निजी संस्थान में काम करने वाला चपरासी भी यह सोचता है कि वह मुख्य चपरासी, फिर जूनियर क्लर्क, फिर हेड क्लर्क और फिर धीरे-धीरे निदेशक की कुर्सी तक कैसे पहुंचेगा। मंत्री महोदया ने भी यह पूछ लिया कि वे अब आगे क्या बनेंगी, तो इसमें बुरा क्या है? लोगों को यह भी नहीं पच रहा है। कई तरह की बातें कर रहे हैं। जानते हैं, अगरमेरा वश चले,तो इन विघ्नसंतोषियों को कानून बनाकर देश निकाला दे दूं।' तभी उन दोनों की गाड़ी प्लेटफार्म पर आकर खड़ी हो गई और दोनों बातचीत बीच में ही छोड़कर जनरल डिब्बे की ओर बढ़ गए।

Wednesday, November 26, 2014

चूहा और व्यंग्यकार

-अशोक मिश्र
नवंबर महीने की एक सुबह सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार पीड़ित जी सपने में अपनी सालियों से ठिठोली कर रहे थे। उन्होंने अपना बिस्तर जमीन पर लगा रखा था, ताकि सुहाने सपने देखने में धर्मपत्नी सुमुखी के खर्राटे बाधक न बनें। तभी प्रथम पूज्य गजानन के वाहन एक मोटे ताजे मूषकराज दबे पांव उनके पास पहुंचे। पीड़ित  जी की सारी काया गर्म कंबल में लिपटी हुई थी। सपने में शायद उन्होंने अपनी किसी साली को दायें हाथ की कोई अंगुली पकड़ा रखी थी, सो वही गर्म कंबल से बाहर थी। मूषकराज को जब कुछ नहीं सूझा, तो उसने पीड़ित जी के दायें हाथ की कानी अंगुली (कनिष्ठा) में अपने पैने दांत चुभो दिए। सालियों से होती अठखेलियों में बाधा पड़ी, तो पीड़ित जी की नींद तत्काल टूट गई। पट से उन्होंने आंख खोल दी। सामने मूषकराज को देखते ही वे तमतमा उठे। मूषक राज ने उन्हें उठते देखा, तो वह प्राण छोड़कर बचने के लिए भागा। पीड़ित जी भी पक्के व्यंग्यकार थे। सो, उन्होंने मूषक राज को 'तेरी तो...Ó कहते हुए खदेड़ लिया। कमरे के सारे दरवाजे-खिड़की बंद थे। अब मूषकराज भागकर जाएं तो कहां जाएं। पकड़ ही लिए गए कमरे के एक कोने में। पीड़ित जी गुर्राए, 'रे पूंजीपतियों के दलाल मध्यम वर्ग के प्रतिनिधि मूषकराज! तुम्हारी इतनी हिम्मत कैसे हुई देश के व्यंग्यकार शिरोमणि पीड़ित की अंगुली में काटने की? तुझको तनिक भी लज्जा नहीं आई मेरी अंगुली से रक्त का अवशोषण करने में।Ó
मूषक राज उनकी गरजती हुई आवाज से सहम गया। अपनी थूथुन के दायें-बायें उगी एक-एक बाल वाली मूंछों को अपने दोनों अगले पैरों (हाथों) से दबाकर विनीत भाव से बोला, 'क्षमा देव...क्षमा। मैंने आपके रक्त शोषण के इरादे से नहीं काटा था। आपमें रक्त या मांस अवशेष ही कहां हैं? अगर आप मेरी जान बख्शने का वायदा करें, तो मैं कुछ निवेदन करूं। मैं इंदौर से अपनी जान बचाकर आ रहा हूं।Ó पीड़ित जी गुर्राए, 'यह झांसा तू किसी और को देना। इंदौर से तू अपनी जान बचाता हुआ आगरा आया है। मैं आगरा में भले ही रहता हूं, लेकिन ईश्वर की अनुकंपा से मेरा दिमाग अभी तक ठिकाने है। तू मुझे बेवकूफ समझता है। इंदौर से आ रहा हूं..हुंह..।Ó मूषकराज उनकी उग्रता को देखकर भय से पीला पड़ गया। बोला, 'मैं आपसे झूठ नहीं बोल रहा हूं। इंदौर में किसी चूहे की जान सुरक्षित नहीं है। मामाजी के राज में अब चूहे भी सुरक्षित नहीं रहे। अगर भागकर इधर उधर नहीं गए तो सब मारे जाएंगे।Ó
पीड़ित जी रौद्र से करुण रस में आ गए। बोले, 'ठीक-ठीक समझा मुझे मामला क्या है! वरना...Ó मूषकराज ने बचने की आशा में दायें-बायें देखा, लेकिन कोई गुंजाइश न पाकर बोला, 'आप से अब क्या बताएं। देश के किसी ख्यातिनाम व्यंग्यकार की रचना से प्रभावित होकर इंदौर के एक सरकारी अस्पताल ने 56 लाख रुपये में हम मूषक भाइयों के उन्मूलन का ठेका एक कंपनी को दिया है। उस कंपनी ने हमारे तीन हजार भाइयों को असमय मौत की नींद सुला भी दिया है। अस्पताल ने हमारे हर भाई के मौत की कीमत दो हजार रुपये लगाई है। अब तो हालत यह है कि लोग अस्पताल सिर्फ इसलिए आते हैं कि कहीं से कोई मूषक मिल जाए, तो उनके दो हजार रुपये खरे हो जाएं। इंदौर के मूषकों की 'जान बचाओ समितिÓ ने तय किया है कि इस समस्या के पीछे किसी व्यंग्यकार का ही हाथ है, सो उनकी जान भी कोई व्यंग्यकार ही बचा सकता है। जो व्यंग्यकार मूषकों को मारने की प्रेरणा दे सकता है, वह उन्हें बचाने की भी कोई जुगत निकाल सकता है। व्यंग्यकार को प्रेरित करने का जिम्मा मुझे सौंपा गया है। मैंने आपके हाथ में दंत प्रहार आपको जगाकर अपनी व्यथा बताने के लिए किया है।Ó मूषकराज की बात सुनकर पीड़ित जी ने उसकी  पूंछ पकड़ी और टैरेस पर लाकर पांचवीं मंजिल से नीचे फेंकते हुए कहा, 'जा थोड़ी देर हवा में हवा खा। अब तुझे पता चलेगा कि किसी व्यंग्यकार की अंगुली में काटने का क्या नतीजा होता है?Ó इसके बाद पीड़ित जी फिर सपने में अपनी सालियों को पीड़ित करने लगे।

Saturday, November 15, 2014

शर्म आनी चाहिए रमन सिंह सरकार को

अशोक मिश्र
शर्म और सियासत का आपस में कोई रिश्ता नहीं होता है। नेताओं, मंत्रियों, सांसदों और विधायकों के साथ-साथ अफसरों से शर्म और नैतिकता की उम्मीद करना बेमानी है। अगर ऐसा नहीं है, तो बिलासपुर के पेंडारी और गौरेला नसबंदी शिविर जैसे हादसों के आरोपी अपने निलंबन पर मुस्कुराते हुए यह नहीं कहते कि चलो..अब सांस में सांस आई। तीन दिन से चैन की नींद सोया नहीं हूं, अब चैन से सोऊं
गा। यह गैरजिम्मेदार ब्यूरोक्रेसी और  सरकारी तंत्र का शर्मनाक चेहरा है। अगर ऐसा नहीं होता, तो ऐसे हादसों के लिए जिम्मेदार अधिकारियों और कर्मचारियों को कठोर सजा जरूर मिलती। अफसोस..जिस तरह रमन सरकार ने नसबंदी हादसे के बाद जिम्मेदार अधिकारियों और कर्मचारियों को बचाने की कोशिश की है, वह शर्मनाक है। मुख्यमंत्री रमन सिंह ने तो मरने वाली महिलाओं के परिजनों को चार-चार लाख रुपये और अस्पतालों में भर्ती महिलाओं को दवाओं के खर्च के अलावा पचास-पचास हजार रुपये देने की घोषणा करके अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ ली। सियासत व्यक्तियों को किस तरह संवेदनहीन बना देती है, इसका बेहतरीन उदाहरण छत्तीसगढ़ की रमन सिंह सरकार है। रमन सिंह और उनके साथी मंत्रियों में अगर थोड़ी सी भी नैतिकता और संवेदनशीलता होती, तो जिम्मेदार लोगों को कड़ी से कड़ी सजा दिलाने का प्रयास करते और सारी जिम्मेदारी लेते हुए अपने पद से इस्तीफा दे देते और एक उदाहरण देश के सामने पेश करते। जैसा लालबहादुर शास्त्री ने किया था। उन्होंने एक मामूली से रेल हादसे की जिम्मेदारी लेते हुए रेलमंत्री पद से त्यागपत्र दे देकर एक मिसाल पेश की थी कि अगर आप अपने नागरिकों की सेवा ठीक से नहीं कर सकते हैं, तो आपको सत्ता में रहने का कतई अधिकार नहीं है।
आज बिलासपुर के विभिन्न गांवों में मौत का सन्नाटा पसरा हुआ है। नसबंदी शिविरों में मरने वाली औरतें वैसे तो समाज के हित में नसबंदी कराने गई थीं, ताकि देश की बढ़ती आबादी रोकने में उनकी भी भागीदारी रहे। इस शिविर में नसबंदी कराने के बाद लापरवाही के चलते मौत के मुंह में समा जाने वाली कुछ औरतों के बच्चे तो इतने छोटे हैं कि उन बच्चों को अब संभालना, उनके परिवार वालों को मुश्किल हो रहा है। यही नहीं, बिलखते बच्चों और अपना पेट भरने के लिए उनके पास पैसे भी नहीं हैं। किसी तरह मजदूरी करके या वनोपज पर जिंदा रहने वाले लोग अपनी बहन, बेटी, बीवी की मौत का बोझ उठाए किसी तरह जीने को मजबूर हैं। उनके बच्चों का भविष्य अब क्या होगा, इसकी चिंता उन्हें खाए जा रही है।
बिलासपुर के पेंडारी और गौरेला नसबंदी शिविर ने छत्तीसगढ़ ही नहीं, अन्य राज्यों में चलने वाली स्वास्थ्य परियोजनाओं और सरकारी कार्यप्रणाली की कलई खोल दी है। पेंडारी में सरकारी डॉक्टरों की लापरवाही और सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं से ग्रामीण महिलाओं को जोडऩे वाली मितानिनों के लालच ने डेढ़ दर्जन महिलाओं का जीवन निगल लिया। कई दर्जन महिलाएं विभिन्न अस्पतालों में जीवन-मृत्यु के बीच झूल रही हैं। नेम बाई सूर्यवंशी, जानकी बाई, रेखा बाई, चंद्रकली पिरैया, पुष्पा बाई ध्रुव और दुलौरीन बाई जैसी महिलाओं ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि जिन मितानिनों को अपनी सखी-सहेली की तरह विश्वसनीय मान उनके बहकावे में आकर वे नसबंदी कराने जा रही हैं, वे उन्हें मौत की नींद सुलाने जा रही हैं। कई महिलाएं तो अपने पति, सास-ससुर को बिना बताए ही शिविर में चली आई थीं, अपनी नसबंदी कराने। इन्हें थोड़े से पैसों का लालच भी रहा होगा। लालच तो उन मितानिनों को भी था, जिनको एक नसबंदी कराने के डेढ़ सौ रुपये मिलते थे। अधिक से अधिक महिलाओं की नसबंदी कराने और अपना सालाना लक्ष्य पूरा करने का दबाव उनसे वह करा गया, जिसकी जितनी सजा दी जाए, कम है। कहा तो यह भी जा रहा है कि ये मितानिनें नसबंदी कराने वाली महिलाओं को मिलने वाली रकम में से भी थोड़े बहुत रुपये ऐंठ लेती थीं। इन मितानिनों का अपराध शायद उतना गंभीर नहीं है जितना आपरेशन को अंजाम देने और पूरी व्यवस्था देखने वाले अधिकारियों और डॉक्टरों का है। यह सुनकर बड़ा कोफ्त होता है कि इस इक्कीसवीं सदी में डॉक्टर इतने गैरजिम्मेदार हो सकते हैं कि आपरेशन कराने वाली महिलाओं को चूहे मारने वाली दवा खिला देते हैं। जब उनकी धड़ाधड़ मौत होने लगती है, तो वे दवा सप्लाई करने वाली कंपनियों को इतना मौका प्रदान करते हैं, ताकि वे वहां से कुछ दवाइयों को हटा सकें।
यह वही छत्तीसगढ़ है, जहां पिछले तीन बार से विधानसभा चुनाव जीतकर प्रदेश की सत्ता पर रमन सिंह के नेतृत्व में भाजपा की सरकार काबिज हुई है। पूरे प्रदेश में रमन सिंह अपनी उपलब्धियों का बखान करते हुए कहते हैं कि छत्तीसगढिय़ा, सबसे बढिय़ा। कोई कैसे भूल सकता है कि यह भाजपा सरकार की ही उपलब्धियां हैं कि यहां दो साल पहले बीमे की रकम और स्वास्थ्य सेवाओं के नाम पर फर्जी बिल उगाहने के चक्कर में ३३४४ महिलाओं के गर्भाशय ही निकाल लिए गए थे। पूरे प्रदेश में जिला स्वास्थ्य केंद्रों में ड़ॉक्टरों, नर्सों और मितानिनों के फैले जाल ने  कुंवारी लड़कियों के भी गर्भाशय यह कहते हुए निकाल दिए थे कि अगर जल्दी ही तुम्हारा गर्भाशय नहीं निकाला गया, तो कैंसर विकराल रूप धारण कर सकता है। बाद में जो खुलासा हुआ, वह चकित कर देने वाला था। गर्भाशय कांड की शिकार गरीब आदिवासी और संरक्षित जनजाति बैगा की महिलाएं, लड़कियां हुई थीं। इस कथित गर्भाशय आपरेशन के नाम पर महिलाओं के परिजनों से तो वसूली की ही गई थी, विभिन्न स्वास्थ्य सेवा योजनाओं के मद में आपरेशन दिखाकर सरकारी पैसे की भी बंदरबांट की गई थी। यही हाल मोतियाबिंद के आपरेशन में भी हुआ। छत्तीसगढ़ में सौ से अधिक लोगों को सरकारी अस्पतालों में मोतियाबिंद का आपरेशन कराने का खामियाजा अपनी आंख गंवाकर चुकाना पड़ा।
पेंडारी और गौरेला नसबंदी कांड में बरती गई लापरवाही अफसोसजनक ही नहीं, क्षुब्ध कर देने वाली भी है। सरकार से लेकर स्वास्थ्य विभाग के निचले स्तर के अधिकारियों का रवैया देखकर कतई नहीं लगता था कि उन्हें इन महिलाओं की मौत का कोई अफसोस भी है। हादसे के बाद बिलासपुर के स्वास्थ्य विभाग से जुड़े अधिकारियों ने निचले स्तर के कर्मचारियों से यह लिखवाने की कोशिश की कि मरने और बीमार पडऩे वाली औरतों की ही सारी जिम्मेदारी है क्योंकि उनके लापरवाही बरतने के चलते ही यह हादसा हुआ है। सच तो यह है कि नसबंदी शिविर उस अस्पताल में लगाया गया जो काफी दिनों से बंद था। नसबंदी आपरेशन करने के दौरान सावधानी भी नहीं बरती गई। महिलाओं को जो दवाइयां दी गईं, उनमें चूहे मारने का केमिकल था।
एक तथ्य और उभर कर सामने आया है कि नसबंदी शिविर में दो बैगा महिलाओं मंगली बाई और चैती बाई की भी नसबंदी की गई। इनकी मौत हो जाने पर जब गांववालों और परिजनों ने चैतीबाई काअंतिम संस्कार करने से मना कर दिया, तो प्रशासन के लोग दो लाख रुपये का चेक लेकर मनाने पहुंचे, ताकि किसी तरह मामले को शांत किया जा सके। दुखद तो यह है कि नसबंदी शिविर के आयोजकों ने यह जानने-बूझने की जरूरत ही नहीं समझी कि बैगा जनजाति को केंद्र सरकार ने संरक्षित घोषित कर रखा है, दमन-द्वीप में पाई जाने वाली जारवा जनजाति की तरह। बैगा और जारवा जनजाति के लोग विलुप्त के कगार पर हैं। हर साल सैकड़ों करोड़ों रुपये इनके संरक्षण पर केंद्र और रा'य सरकारें खर्च करती हैं। इनकी जनसंख्या बढ़ाने और उन्हें जीवन के अनुकूल संसाधन मुहैया कराने की कोशिश की जाती है। ऐसे में बैगा जनजाति की महिलाओं की नसबंदी करने जैसा अपराध तो और भी निंदनीय हो जाता है।

बज्जर पड़े 'किस ऑफ लवÓ पर

अशोक मिश्र
मेरे काफी पुराने मित्र हैं मुसद्दीलाल। मेरे लंगोटिया यार की तरह। हालांकि वे उम्र में मुझसे लगभग पंद्रह साल से ज्यादा बड़े हैं। मेरी दाढ़ी अभी खिचड़ी होनी शुरू हुई है और उनके गिने-चुने काले बाल विदाई मांग रहे हैं। (बात चलने पर बालों पर हाथ फेरते हुए कहते हैं कि बाल तो बचपन में ही धूप में सफेद हो गए थे, उन दिनों जेठ की भरी दुपहरिया में पतंग जो उड़ा करता था।) हम दोनों में काफी पटती है। जब भी मुसद्दी लाल को लगता है कि आज पत्नी से पिट जाएंगे, तो वे भागकर हमारे घर आ जाते हैं। मैं भी ऐसी स्थिति से बचने के लिए उनके घर की शरण लेता हूं। जब भी किसी पार्टी या महफिल में उन्हें जोश चढ़ता है, तो वे बड़े गर्व के साथ यह कहने में संकोच नहीं करते हैं कि मैं रसिक हूं, लेकिन अय्यास नहीं। रसिक होना, न तो बुरा है, न कानून जुर्म। रसिकता तो मुझे विरासत में मिली है। मेरे बाबा ने तो बाकायदा अपना नाम ही रख लिया था, ढकेलूराम 'रसिकÓ। पिता जी संस्कृतनिष्ठ थे, तो उनका तख्लुस रसज्ञ था।
कल चौराहे पर मुझे मुसद्दीलाल मिल गए। उनका मुंह काफी सूजा हुआ था। मुझे देखकर पहले तो उन्होंने इस तरह कन्नी काटने की कोशिश की, मानो उन्होंने मुझे देखा ही नहीं है। मैं जब उनके ठीक सामने जाकर अड़ गया, तो मुझे देखते ही कराह उठे। अपनी दायीं हथेली को बायें गाल पर ले जाकर धीरे से गाल को सहलाया। मैंने बहुत गंभीर होने का अभिनय करते हुए पूछा, 'क्या हुआ भाई साहब! कहीं चोट-वोट लग गई है क्या?Ó मेरी बात को नजरअंदाज करते हुए बोले, 'यार! मोदी जी ने वायदा किया था कि उनकी सरकार आई, तो तीन महीने के अंदर अच्छे दिन आ जाएंगे? क्या अच्छे दिन आ गए, जब टमाटर अभी तक चालीस रुपये किलो पर ही अटका हुआ है।Ó मैंने जवाब देते हुए दोबारा पूछने का दुस्साहस किया, 'अच्छे-वच्छे दिन तो भूल ही जाइए। यह बताइए, आपको हुआ क्या है? आपका मुंह क्यों सूजा हुआ है? कहीं गिर-विर पड़े थे क्या?Ó मुसद्दी लाल ने अपने बायें हाथ में पकड़ा थैला दायें हाथ में लेते हुए कहा, 'यह बताओ, आज आफिस गए थे। सुना है कि फल मंडी के पास बहुत बड़ा जाम लगा था। कोई हीरोइन शहर में आई थी, जो उसी तरफ से गुजरने वाली थी। सो, सुबह से ही जाम लगा था।Ó मैंने खीझते हुए कहा, 'आज मैं फल मंडी की ओर से आफिस नहीं गया था। इसलिए मुझे पता नहीं कि हीरोइन के आने से फल मंडी में जाम लगा था या नहीं। लेकिन मेरी बात को टालिए नहीं। साफ-साफ बताइए, आपको क्या हुआ है? कहीं चोट लगी है? किसी से झगड़ा हुआ है? किसी ने मारा-पीटा है? आप जब तक मुझे अपने चेहरे पर लगी चोटों का हिसाब नहीं दे देंगे, मैं आपके सामने से नहीं हटूंगा। यह मेरी नई किस्म की गांधीगीरी समझ सकते हैं।Ó
मेरी धमकी शायद असर कर गई थी। वे एक बार फिर अपने हाथ को गाल तक ले गए और उसको सहलाते हुए कराह उठे। फिर चारों तरफ देखते हुए बोले, 'यार! क्या बताऊं। 'किस आफ लवÓ के चक्कर में चेहरे का भूगोल बदल गया। यह सब उस नालायक हरीशवा के चलते हुआ है। अगर कहीं मिल गया, तो लोढ़े से उसका मुंह कूंच दूंगा। साला गद्दार..।Ó मैंने आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा, 'अमां यार! तुम लंतरानी ही हांकोगे या कुछ बकोगे भी। हुआ क्या, मामला पूरा बताओ।Ó मुसद्दीलाल ने गहरी सांस ली और बोले, 'परसों आफिस में हरीश आया और बोला कि हमारे मोहल्ले में रुढि़वादियों का विरोध करने के लिए किस ऑफ लव का आयोजन किया गया है। आपको (यानी मुझे) भाग लेना है।Ó मैंने लाख हीलाहवाली की। कई तरह की बातें रखीं। लेकिन वह नहीं माना। मुझे आफिस टाइम के बाद घसीटकर अपने मोहल्ले में ले गया। और फिर वहीं वह हो गया जिसकी कल्पना भी नहीं की थी।Ó अब मेरी समझ में कुछ-कुछ आने लगा था। मैंने पूछा, 'तो जिसको किस करने वाले थे या किया था, उसका कोई भाई, पति या पिता आ गया था क्या?Ó मेरे सवाल पर मुसद्दी लाल एक बार फिर कराह उठे, 'नहीं..साले हरीशवा ने मेरी पत्नी को इसके बारे में बता दिया था।Ó मुसद्दीलाल की बात सुनते ही मैं ठहाका लगाकर हंस पड़ा, 'बज्जर (वज्र) पड़े ऐसे किस ऑफ लव पर।Ó इसके बाद हम दोनों चुपचाप घर लौट आए।

Sunday, November 9, 2014

फिर गए घूरे के भी दिन

-अशोक मिश्र
बचपन में मैं हिंदी की कक्षा में अक्सर पिट जाया करता था। हिंदी के मास्टर साहब का अगर मूड ठीक नहीं होता, तो वे बस मुझसे मुहावरा पूछ बैठते। मैं गड़बड़ा जाता और नतीजा यह होता कि उन्हें मुझे जी भरकर पीटने का बहाना मिल जाता। यह बात तो मैं आज समझ सकता हूं कि गुरु जी घर में दब्बू किस्म के रहे होंगे। वे अपनी पत्नी से ज्यादा तू-तड़ाक नहीं कर पाते रहे होंगे। स्कूल आने से पहले हो सकता है कि घर के बरतन खडक़ जाते रहे होंगे। (एक कहावत है कि जहां चार बरतन यानी आदमी होंगे, खडक़ेंगे ही यानी मार-पिटाई होगी ही।) जैसा कि आम घरों में होता है। अपने दब्बूपने की कुंठा और घर में बरतन खडक़ने की पीड़ा वे मुझे ठोंक-पीटकर निकालते रहे होंगे। पता नहीं, यह मेरा दुर्भाज्य था या हिंदी के मास्टरों की साजिश। यह क्रम पांचवीं कक्षा से शुरू हुआ और बारहवीं कक्षा तक चला। जब भी पास होकर अगली कक्षा में जाता, हिंदी वाले मास्टर साहब किसी न किसी बहाने मुझसे एक ही मुहावरे का अर्थ पूछते थे। वह मुहावरा होता था, बारह साल बाद घूरे के भी दिन फिर जाते हैं। इसको सोदाहरण समझाओ। बस यहीं गड़बड़ हो जाती थी। मैं समझ नहीं पाता था कि भला घूरे के दिन कैसे फिरते हैं? 
ऐसा नहीं था कि मैं घूरा नहीं जानता था। बचपन में जब भी गांव जाता था, तो मेरे बाबा टोकरी भर गोबर मेरे सिर पर रख देते और कहते, जाओ घूरे पर फेंक आओ। मन ही मन भुनभुनाता टोकरी भर गोबर घूरे पर फेंकने चला जाता। मजाल है कि बाबा के आदेश के खिलाफ कोई चूं भी करे। यह घूरा मुझे आज तक तंग करता रहा। मास्टर साहब, मेरे बड़े भइया और बाबू जी ने मिलकर मुझे बचपन में लाख समझाया कि घूरे के दिन कैसे फिरते हैं? कई तरह के उदाहरण पेश किए, लेकिन मेरी मोटी बुद्धि में नहीं घुसा, तो नहीं घुसा।
धीरे-धीरे बचपन गया, जवानी आई। जवानी विदाई मांग रही है, अधेड़ावस्था दरवाजे पर खड़ा दस्तक दे रहा है, लेकिन फिर भी यह समझ में नहीं आया कि घूरे के दिन आखिर फिरते कैसे हैं? बचपन में रटा-पढ़ा तो जब बचपन में ही याद नहीं रह पाता था, तो जवानी में याद रह पाने का सवाल ही नहीं उठता है। हां, वह तो भला हो, दिल्ली प्रदेश भाजपा अध्यक्ष सतीश उपाध्याय और शाजिया इल्मी का जिन्होंने वह काम कर दिखाया, जो आज तक मेरे बड़े नहीं कर पाए। दिल्ली स्थित इंडिया इस्लामिक कल्चर सेंटर पर हुए ड्रामे की तस्वीरें अखबारों में देखी, तो एकाएक मेरे दिमाग की बत्ती जल उठी। इस (यानी कि मैं) घूरे के दिन भी फिर गए। मैं समझ गया कि बारह साल बाद घूरे के दिन फिरने का क्या मतलब होता है। अब मैं न केवल इस मुहावरे का अर्थ जान गया हूं, बल्कि किसी को भी समझा सकता हूं। बाकायदा उदाहरण देकर। अगर किसी को इस मुहावरे का अर्थ जानना-समझना हो, तो वह मेरे पास आकर समझ सकता है।

Saturday, November 8, 2014

ऐसे तो साफ नहीं होगा भारत

अशोक मिश्र
इन दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा चलाए जा रहे 'स्वच्छ भारतÓ अभियान की बड़ी चर्चा है। २ अक्टूबर को प्रधानमंत्री मोदी ने इसकी शुरुआत खुद झाड़ू लगाकर की थी। वाराणसी के अस्सी घाट में भी उन्होंने कुदाल चलाकर लोगों को स्वच्छ भारत अभियान से जोडऩे की कोशिश की है। उन्होंने ऐसा करके इस देश के करोड़ों लोगों को सफाई अभियान से जोडऩे की कोशिश की। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की जयंती पर कार्यक्रम शुरू करने के पीछे मंशा यही थी कि भारत को स्वच्छ रखकर ही महात्मा गांधी को सच्ची शृद्धांजलि दी जा सकती है। यह सर्वविदित है कि आजादी से पूर्व महात्मा गांधी ने भी हरिजनों की सामाजिक दशा से व्यथित होकर देशवासियों से अपना शौचालय खुद साफ करने को प्रेरित किया था ताकि देश के करोड़ों हरिजन शौचालय साफ करने जैसे अमानवीय पेशे से मुक्त हो सकें और दूसरी जाति के लोगों को भी उनकी पीड़ा का आभास हो सके। गांधी जी खुद अपना शौचालय साफ करते थे। यह सही है कि जब तक आसपास का वातावरण स्वच्छ न हो, स्वस्थ भारत की कल्पना नहीं की जा सकती है। स्वच्छ भारत अभियान से देश में साफ-सफाई के प्रति कितनी जागरूकता पैदा हुई, इसकी समीक्षा का वक्त अभी नहीं आया है। हां, एक बात जरूर देखने में आ रही है कि लोग इस मुहिम से जुड़ रहे हैं। क्रिकेट, फुटबॉल, सिनेमा जगत, उद्योग जगत से लेकर राजनीतिक हलके के लोग इस अभियान को हाथों हाथ ले रहे हैं। स्कूल-कालेजों से लेकर गली-मोहल्ले के लोग भी स्वच्छ भारत अभियान में भाग लेकर अपनी सहभागिता सुनिश्चित कराने में जुटे हुए हैं। रेलवे स्टेशन से लेकर हवाई अड्डे तक झाड़े-बुहारे जा रहे हैं। गली-कूचों में बिखरा रहने वाला कूड़ा-कचरा उठाया जा रहा है। लेकिन यह सब हो सिर्फ एक दिन रहा है। आम तौर पर देखने में आ रहा है कि जिस जगह पर स्वच्छता अभियान एक दिन पहले चलाया गया था, मीडिया को बुलाकर फोटो शूट करवाया गया था, अगले दिन उस जगह की हालत वैसी ही नजर आ रही थी, जैसी स्वच्छता अभियान चलाने से पहले थी।
ऐसे अभियानों की परिणति ऐसी ही होती है। दरअसल, मीडिया में प्रचार के चलते 'स्वच्छ भारत अभियानÓ को भी एक मनोरंजन की ²ष्टि से लिया जा रहा है। कुछ लोग तो सिर्फ मनोविनोद और प्रचार पाने के लिए सफाई अभियान चलाने का ढोंग कर रहे हैं। मीडिया में अपना चेहरा दिखाने के लिए जायज-नाजायज तरीके अपनाए जा रहे हैं। कुछ ऐसा ही हुआ पिछले दिनों दिल्ली में। इंडिया इस्लामिक कल्चर सेंटर के सामने की सड़क पर दिल्ली प्रदेश भाजपा अध्यक्ष सतीश उपाध्याय और कभी 'आपÓ की नेत्री रही शाजिया इल्मी ने बाकायदा मीडिया के सामने स्वच्छ भारत अभियान के तहत झाड़ू लगाया, फोटो खिंचवाया और चले गए। बाद में एक प्रतिष्ठित समाचार पत्र के फोटोग्राफर ने खुलासा किया कि यह सब कुछ वैसा नहीं था, जैसा दुनिया को दिखाया गया। पहले कूड़ा लाकर बिखेरा गया और फिर इन नेताओं से साफ करवाकर वाहवाही लूटी गई। अब भाजपा इंडिया इस्लामिक कल्चर सेंटर की घटना से अपना संबंध मानने से इनकार कर रही है। हो सकता है कि जिन भाजपा नेताओं ने इस कार्यक्रम में हिस्सा लिया है, उनकी ऐसी मंशा न रही हो, लेकिन जो कुछ हुआ, वह हास्यास्पद ही है। दरअसल, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सामान्य बात को भी विशेष बना देने की कला जानते हैं। वे अपनी छवि बनाने के लिए मीडिया का उपयोग करना भी जानते हैं। स्वच्छ भारत अभियान चलाने के पीछे भले ही उनकी मंशा प्रचार पाने की न रही हो, लेकिन जिस तरह लोग मनोरंजन की ²ष्टि से इससे जुड़ रहे हैं, वह अच्छा नहीं है। जब तक लोगों की मानसिकता नहीं बदलेगी, तब तक स्वच्छ भारत अभियान का ही नहीं, किसी भी अभियान का ऐसा ही हाल होगा। जब तक व्यक्ति के अंत:करण में यह भावना पैदा नहीं होगी कि हमें अपने आसपास का वातावरण साफ-सुथरा रखना चाहिए, गली-मोहल्ला चमकना चाहिए, तब तक ऐसे अभियानों से कुछ होने वाला नहीं है। 

ऊल्लू की दुम होता है पत्रकार

-अशोक मिश्र 
नथईपुरवा गांव में कुछ ठेलुए किस्म के लोग कुएं की जगत पर बैठे टाइम पास कर रहे थे। बहुत दिनों बाद मैं भी गांव गया था, तो मैं भी उस जमात में शामिल हो गया। छबीले काका ने अचानक मुझसे लिया, 'ये पत्रकार क्या होता है, बेटा! कोई तोप-वोप होता है क्या? बड़ा बखान सुनते हैं पत्रकारों का।Ó उनका सवाल सुनकर मैं सकपका गया। मैंने इस बेतुके सवाल का तल्ख लहजे में जवाब दिया, 'ऊल्लू की दुम  होता है पत्रकार। डाकू गब्बर सिंह होता है। बहुत बड़ी तोप होता है। आपको कोई तकलीफ?Ó मेरे तल्ख स्वर को सुनकर अब सकपकाने की बारी छबीले काका की थी। उन्होंने शर्मिंदगी भरे लहजे में कहा, 'बेटा..आज रतिभान के घर में टीवी पर प्रधानमंत्री मोदी जी को पत्रकारों के साथ खूब गलबहियां डालकर हंसते-बतियाते देखा, तो मुझे भी पत्रकारों के बारे में जानने की उत्सुकता हुई। वैसे तुम न बताना चाहो, तो कोई बात नहीं। अब उम्र के आखिरी दौर में पत्रकारों के बारे में जान भी लूंगा, तो उससे क्या फर्क पड़ेगा? अब तो बस चला-चली की बेला है, जब टिकट कट जाए, तो 'लाद चलेगा बंजाराÓ की तरह सारा ज्ञान-ध्यान यहीं छोड़कर चल दूंगा। तब न किसी का मोह रहेगा, न ज्ञान की गठरी का बोझ।Ó मेरे तल्ख स्वर से छबीले काका आहत हुए थे या कोई और बात थी? उनके इस तरह अचानक आध्यात्मिक हो जाने से मैं भीतर ही भीतर पसीज उठा।
अब शर्माने की बारी मेरी थी। मैंने कोमल लहजे में कहा, 'काका! अब आपको क्या बताएं कि पत्रकार क्या होता है? कहने को तो उसकी भूमिका जनता के अधिकारों की रक्षा करने वाले सजग प्रहरी की होती है। लेकिन अब यह बात सिर्फ किताबों तक ही सिमट गई है। अब वह मंत्री, विधायक, सांसद, नेता और उद्योगपतियों के हितों की रक्षा पहले करता है, अपने बारे में बाद में सोचता है। दरअसल, पत्रकार या तो नेताओं, अफसरों, पूंजीपतियों और अपने अखबार के मालिक की चंपी करता है या फिर वसूली। वसूलने की कला में प्रवीण पत्रकार तो कई सौ करोड़ रुपये की गाडिय़ों पर चलते हैं, तो कई अपनी बीवी की फटी साड़ी में पैबंद लगाने के फेर में ही जीवन गुजार देते हैं। काका! पत्रकारों की कई केटेगरियां होती हैं। चलताऊ पत्रकार, बिकाऊ पत्रकार, सेल्फी पत्रकार, डग्गाबाज पत्रकार, दबंग पत्रकार, हड़बंग पत्रकार, कुंठित पत्रकार, अकुंठित पत्रकार। हां, आपका पाला किस तरह के पत्रकार से पड़ा है, यह अलग बात है।Ó
 'गरीबन कै मददगार भी तो होत हैं पत्रकार..एक बार बप्पा का थानेदार बहुत तंग कर रहा था, तो वहां मौजूद एक पत्रकार ने बप्पा की तरफ से कुछ बोल दिया। फिर क्या था, थानेदार ने न केवल बप्पा की लल्लो-चप्पो की, बल्कि बिना कुछ छीने-झपटे घर भी जाने दिया।Ó कंधई मौर्य ने बीच में अपनी टांग अड़ाई। मैंने एक बार घूमकर कंधई को देखा और कहा, 'बाद में तुम्हारे बप्पा ने तीन दिन तक बिना कुछ लिए-दिए उसके घर की रंगाई-पुताई की थी। घर से तीन किलो सत्तू, पांच किलो अरहर की दाल लेकर गए थे, वह अलग। बात करते हैं गरीबों के हिमायती होने के। पत्रकार भी इस समाज का हिस्सा है। दया, ममता, क्रोध, हिंसा, लालच, भ्रष्टाचार जैसी प्रवृत्तियां उसमें भी पाई जाती हैं। वह जब अपनी पर उतर आता है, तो बड़े-बड़े पानी मांगते हैं। चापलूसी में भी वह अव्वल ही रहता है।  जितनी ज्यादा चापलूसी, जिंदगी में उतनी ही ज्यादा तरक्की। रुपया-पैसा, गाड़ी-घोड़ा से लेकर देश-विदेश की यात्रा तक कर आते हैं पत्रकार, इसी चरणवंदना के सहारे। पत्रकारिता का अब सीधा से फंडा है, अखबारों, चैनलों पर भले ही तुर्रम खां बनो, लेकिन मंत्री, अधिकारी और नेता को साधे रहो। वह सामने हो, तो चरणों में लोट जाओ। पीठ पीछे जितना गरिया सकते हो, गरियाओ। आलोचना करो, उसकी कमियों को अपने फायदे के लिए जिनता खोज सकते हो, खोजो। उसे भुनाओ।Ó मेरी बात सुनकर छबीले काका धीरे से उठे और चलते बने।                                                                                                                                                                                                                                                                                                 नोट : मेरे इस व्यंग्य  में चारण-भाट शब्द के  उपयोग पर राजस्थान के कुछ साथियों ने आपत्ति व्यक्त किया है, मैंने इस शब्द का उपयोग पत्रकारों की चाटुकारिता की प्रवृत्ति को दर्शाने के लिए किया गया था। मेरा उद्देश्य किसी जाति, धर्म या संप्रदाय अथवा व्यक्ति को ठेस पहुंचाने का नहीं था। आज दिनांक ११  दिसंबर २०१४ को शाम लगभग ५ से ६ बजे के बीच मेरे पास राजस्थान के कई व्यक्तियों (डॉ. नरेंद्र सिंह देवल, धर्मेंद्र सिंह चारण, हरेंद्र सिंह, जोगी दान गडवी) के फोन आए जिन्होंने चारण-भाट शब्द के उपयोग पर आपत्ति जताई है। इस शब्द के उपयोग से यदि किसी को ठेस पहुंची हो, तो मैं खेद व्यक्त करता हूं। मैं फिर कहता हूं कि मेरा उद्देश्य किसी को ठेस पहुंचाना नहीं था।

Tuesday, November 4, 2014

नदियों को प्रदूषण मुक्त रखने का पर्व देव दीपावली

-अशोक मिश्र
कार्तिक पूर्णिमा की रात नदियों, खासकर गंगा में लाखों की संख्या में तैरते दीप, गूंजते आरती के स्वर, विभिन्न वाद्य यंत्र, जो मनोहारी दृश्य उपस्थित करते हैं, उसे शब्दों में बयां कर पाना शायद किसी के वश की बात नहीं है। देव दीपावली की रात नदियों के किनारे अदृश्य रूप से उपस्थित होने वाले देवता भी आनंदित हो उठते हैं। नदियों में दीपदान का अर्थ भी यही है कि हम अपने अंतरमन में कहीं छिपे बैठे तम को दूर करते हुए अपने भीतर और बाहर प्रकाश फैलाने और प्रकृति के अभिन्न अंग नदियों, पहाड़ों, पोखरों, वन, खेतों और पर्यावरण की सुरक्षा और संरक्षा का संकल्प लें। वैसे तो मनुष्य और प्रकृति का संबंध अटूट है। प्रकृति को देव मानने की हमारी सनातन परंपरा प्रकृति के संरक्षण की ओर ले जाती है। हमारे यहां नदियों, पेड़ों, पत्थरों, नक्षत्रों, चांद-सूरज को देव मानने की परंपरा और पूजा पद्धति दुनिया के अन्य देशों में हो भले ही, लेकिन ऐसा जुड़ाव शायद ही कहीं देखने को मिलता हो। कार्तिक पूर्णिमा को मनाई जाने वाली देव दीपावली वस्तुत: प्रकृति के संरक्षण का ही पर्व है।
 http://epaper.jagran.com/ePaperArticle/05-nov-2014-edition-Delhi-City-page_13-3964-3551-4.html 
कहा जाता है कि देव दीपावली के मूल में भगवान शंकर हैं। उन्होंने ही देवताओं और मनुष्यों के साथ-साथ प्रकृति के विनाश को आतुर राक्षस त्रिपुरासुर का वध कार्तिका पूर्णिमा के ही दिन किया था। इसी उत्साह में देवताओं ने दीपावली मनाई थी जिसे हम आज देव दीपावली के नाम से जानते हैं। आज भी देवलोक से गंधर्व, किन्नर, देव और अन्य लोग गंगा और अन्य नदियों के किनारे उपस्थित होकर दीपदान करके दीपावली मनाते हैं। एक दूसरी कथा भी है। कहते हैं कि राजा त्रिशंकु को जब विश्वामित्र ने अपने तपोबल से स्वर्ग पहुंचा दिया, तो देवताओं ने उन्हें स्वर्ग से नीचे ढकेल दिया। अधर में लटकते त्रिशंकु की पीड़ा विश्वामित्र से देखी नहीं गई। यह उनका भी अपमान था। इससे क्षुब्ध होकर एक नए संसार की रचना करनी शुरू कर दी। माना जाता है कि कुश, मिट्टी, ऊंट, बकरी-भेड़, नारियल, कद्दू, सिंघाड़ा जैसी चीजें उन्होंने ने ही बनाई थी। यहां तक कि उन्होंने त्रिदेवों की प्रतिमाएं बनाकर उसमें प्राण फूंक दिए थे। नतीजा यह हुआ कि प्रकृति में असंतुलन पैदा हो गया। सारा चराचर जगत अकुला उठा। बाद में जब देवताओं ने इस प्राकृतिक असंतुलन की ओर विश्वामित्र का ध्यान आकृष्ट कराया, तो उन्हें अपनी भूल का एहसास हुआ। इन दोनों कथाओं, ऐतिहासिक आख्यानों का निहितार्थ अगर खोजें, तो सिर्फ और सिर्फ यही है कि हमें प्रकृति को असंतुलित होने से बचाना होगा। गंगा, यमुना, कावेरी, गोदावरी जैसी नदियों में सिर्फ दीपदान करके अपने को आध्यात्मिक रूप से संतुष्ट बैठ जाने वाले लोगों के लिए देव दीपावली एक अवसर के समान है कि वे कभी करोड़ों लोगों की जीवनदायिनी रही नदियां आज खुद मर रही हैं। आज हरिद्वार में ही गंगा का पानी आचमन के लायक नहीं रहा है, तो वाराणसी, इलाहाबाद, कानपुर आदि शहरों में गंगा की स्थिति का अंदाज लगाया जा सकता है।
पतित पावनी कही जाने वाली गंगा और यमुना का ही जब यह हाल है, तो बाकी नदियों के विषय में कुछ कहना ही व्यर्थ है। गंगा नदी के किनारे बसने वाले शहरों की अनुमानित संख्या 116 से भी कहीं ज्यादा है, कस्बों और गांवों की बात करें, तो यह संख्या हजारों में पहुंचती है। इन गांवों, कस्बों, शहरों में बसने वाले लोग किसी न किसी रूप में पतित पावनी गंगा को दूषित करने के अपराधी हैं। हालत इतनी बदतर है कि घाघरा, राप्ती, बेतवा,  बेतवा, केन, शहजाद, सजनाम, जामुनी, बढ़ार, बंडई, मंदाकिनी एवं नारायन जैसी अनेक छोटी-बड़ी नदियां खुद पानी मांग रही हैं। प्रदूषित नदियों का पानी मानव क्या, पशुओं और जीवों के उपयोग के लायक नहीं रह गया है। प्रदूषण और जल में घुले आक्सीजन की मात्रा दिनोंदिन कम होते जाने की वजह से कई सौ किस्म की मछलियां, जलीय जीव-जंतु आज या तो विलुप्त होने के कगार हैं, या विलुप्त हो गए हैं। ऐसे में देव दीपावली जैसा पावन पर्व यह संदेश लेकर आया है कि हमें नदियों में दीपदान करने से ज्यादा उन्हें सुरक्षित, संरक्षित और जीवनदायिनी बनाने में योगदान देना चाहिए। शायद यही वह अवसर है, जब हम अपनी नदियों को प्रदूषण मुक्त करने का संकल्प लेकर देवताओं और देव जातियों के साथ देव दीपावली मना सकते हैं, उसकी सार्थकता सिद्ध कर सकते हैं।

आयो घोष बड़ो व्यापारी

अशोक मिश्र
सपने देखना और उसे पूरा करना, दोनों अलग-अलग बातें हैं। सपना देखने में कोई बुराई नहीं है, लेकिन सपना देखने के बाद उस सपने को पूरा करने का प्रयास न करना, बुरा है। पंद्रह अगस्त को लाल किले से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद एक सपना देखा और देशवासियों को भी दिखाया। वह सपना है सांसद आदर्श ग्राम योजना का। पहले आप अपने देश के गांवों की मन ही मन कल्पना कीजिए। क्या तस्वीर उभरती है? गंदगी से पटी पड़ी नालियां, जगह-जगह लगे गोबर और कूड़े के ढेर, कच्ची और पानी भरी सडक़ें, किसी गांव में बिजली के खंभे तो हैं, लेकिन बिजली नदारद (लगभग पचास फीसदी गांवों में तो बिजली है ही नहीं), नंगे-अधनंगे बच्चे, दूषित वातावरण में रहने को मजबूर लोग। कुछ कमी-बेसी के साथ पूरे देश के अधिकतर गांवों की यही तस्वीर है। अब आप सांसद आदर्श ग्राम योजना के तहत विकसित किए जाने वाले गांवों की भी लगे हाथ कल्पना कर लीजिए। चमचमाती सडक़ें, दूधिया रोशनी से नहाई गलियां, शहरों जैसी बिजली-पानी, स्कूल, अस्पताल और सामुदायिक केंद्रों से युक्त गांव। हर हाथ को रोजगार, मोटरसाइकिलों पर फर्राटा भरते युवा। हमारे देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सपनों का आदर्श ग्राम कुछ ऐसा ही है। मोदी की आदर्श ग्राम योजना इतनी लुभावनी है कि कांग्रेसी नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री शशि थरुर और असम के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई जैसे लोगों को भी उसकी प्रशंसा में कसीदे काढऩे पड़ रहे हैं। मोदी की कुछ योजनाओं की प्रशंसा करना, तो शशि थरुर पर भारी भी पड़ चुका है। इसके बावजूद खुद भाजपा सांसदों ने उतनी रुचि नहीं दिखाई, जितनी कि उनसे अपेक्षा की जाती थी।
सांसद आदर्श ग्राम योजना के उद्घाटन के अवसर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गुजरात के जिस गांव पुंसरी का उल्लेख किया, वह भी कुछ साल पहले देश के आम गांवों जैसा ही था। वह तो भला हो कि पुंसरी गांव के युवा सरपंच हिमांशु पटेल का जिन्होंने गांव की कायापलट कर दी। कहते हैं कि पुंसरी गांव अब शहरों से भी होड़ लेने लगा है सुविधाओं के मामले में। पुंसरी गांव सुविधाओं के लिहाज से काफी आगे है। गुजरात की राजधानी गांधीनगर से मात्र 35 किमी दूर बसे साबरकांठा जिले में बसे गांव पुंसरी में स्कूल जाने वाले बच्चों के लिए ही बसें नहीं हैं, बल्कि गांव के पशुपालकों के लिए भी पंचायत बस सेवा है। गांव में सीसी रोड, चार रुपये में 20 लीटर मिनरल वाटर प्राप्त करने की सुविधा के साथ-साथ कम्युनिटी रेडियो स्टेशन भी है जिस पर ग्रामीणों को जागरूक करने वाले प्रोग्राम प्रसारित किए जाते हैं। इको फ्रेंडली इलेक्ट्रिसिटी की व्यवस्था की जा रही है। 1200 घरों वाले गांव में 250 घरों को बिजली देने की योजना पर काम हो रहा है। हर घर में शौचालय की व्यवस्था है। सवाल यह है कि जिन गांवों का चुनाव करके सांसद देंगे, क्या उन गांवों को हिमांशु पटेल जैसा सरपंच हासिल है या हो सकेगा? पिछले कई दशकों से सांसदों को सांसद निधि के नाम पर अरबों रुपये दिए गए, इन रुपयों में से कितने प्रतिशत का उपयोग गांवों के विकास में किया गया? क्या सांसद आदर्श ग्राम योजना के तहत चुने गए गांवों की तस्वीर बदलेगी? क्या हर सांसद अपने संसदीय क्षेत्र में 2016 तक एक गांव और 2019 तक तीन गांवों को चुनने और उसका विकास कराने में उतनी दिलचस्पी लेगा, जितने की उम्मीद की जा रही है। ऐसे ही बहुत सारे प्रश्र हैं जिनका जवाब मिलना अभी शेष है।
प्रधानमंत्री अकसर यह बात कहते हैं, व्यापार मेरे खून में है। दरअसल, सांसद आदर्श ग्राम योजना के तहत आगामी कुछ वर्षों तक 2500 गांवों का विकास हो या न हो, लेकिन अब देश के गांवों तक देशी-विदेशी बनियों की पहुंच जरूर हो जाएगी। प्रधानमंत्री मोदी ने सांसद आदर्श ग्राम योजना के जरिये कुछ कंपनियों को गांव तक पहुंचने और वहां बाजार तलाशने का इशारा जरूर कर दिया है। कारपोरेट सेक्टर ने प्रधानमंत्री मोदी की सांसद आदर्श ग्राम योजना को जरूर लपक लिया है। देश के सात लाख गांवों में अब हीरो, सुजुकी, होंडा, आईटीसी, हिंदुस्तान लीवर, कोलगेट, पामोलिव, पेप्सी, कोका, डाबर, एलजी, सैमसंग जैसी कंपनियों को बाजार दिखाई देने लगा है। वे अपनी योजनाओं का विस्तार गांव में करने की योजना पर अमल करने को उत्सुक दिखाई देने लगी हैं। अब गांवों में मोटरसाइकिलों, कारों, टीवी सेट्स और सौंदर्य प्रसाधन से जुड़ी वस्तुओं की भरमार होने वाली है। साबुन, टूथपेस्ट, शैंपू जैसे उत्पादों की पहुंच पहले से ही गांवों में हो चुकी थी। गांव के लोग अब नीम, बबूल या गिलोय की दातून नहीं, बल्कि टूथपेस्ट से अपने दांत साफ करने में ज्यादा रुचि ले रहे हैं। इसमें सबसे ज्यादा भूमिका है, उन युवाओं की जो या तो शहर में रह आए हैं या शहरों में जाकर पढ़ रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खून सचमुच व्यापार है। उन्होंने अभी हाल ही में कहा है कि सरकार व्यापार नहीं कर सकती है, लेकिन व्यापार में सहायता जरूर कर सकती है। गांवों में बाजार की संभावनाओं की ओर इशारा मोदी ने कर दिया है। अब देखना है कि .ये व्यापारी गांवों की तस्वीर कितनी बदल पाते हैं? या फिर गांवों के लोग इन व्यापारियों को वैसे ही विदा कर देते हैं कि जैसे श्रीकृष्ण का संदेश लेकर गोकुल गए उद्धव को वापस भेजते समय गोपियों ने कहा था कि 'आयो घोष बड़ो व्यापारी। लादि खेप गुन ज्ञान-जोग की ब्रज में आन उतारी।Ó इसकी संभावना इसलिए है क्योंकि गांवों में बाजार तो है, लेकिन गांववालों की क्रयशक्ति कैसे बढ़ेगी, वे इन उत्पादों को खरीदने का पैसा कहां से लाएंगे, इसकी कोई व्यवस्था भी तो सरकार करे।

Tuesday, October 28, 2014

काले धन की चाह

-अशोक मिश्र
घर में घुसते ही घरैतिन को पंचम सुर में गाता देखकर मैं समझ गया कि उनकी यह खुशी मेरी जेब पर भारी पडऩे वाली है। मैंने बनावटी उत्साह प्रकट करते हुए पूछा, ‘अरे साढू भाई का फोन-वोन आया था क्या? जो तुम सूरजमुखी की तरह चमक रही हो?’ अपने जीजा के बारे में पूछे जाने पर घरैतिन लहराकर बोलीं, ‘अरे नहीं..बात दरअसल यह है कि हम सभी बहुत जल्दी करोड़पति बनने वाले हैं। आह..कितने हजार के नोट मिलकर दो करोड़ रुपये बनते हैं। मैं तो सोच-सोचकर खुशी से मरी जा रही हूं। अभी जब यह हाल है, तो जब दो करोड़ रुपये का ढेर मेरे सामने होगा, तो कहीं खुशी के मारे गश खाकर न गिर पड़ूं। अगर ऐसा हो, तो तुम मुझे संभाल लोगे न!’ घरैतिन की बात सुनकर मैं चौंक उठा, ‘क्या..कहीं कोई लॉटरी-वॉटरी लग गई है क्या? करोड़पति कैसे हो जाओगी?’
मेरी बात सुनकर घरैतिन के चेहरे पर एक रंग आकर चला गया। बोलीं, ‘इसीलिए कहती हूं कि खबरिया चैनल देखा करो..अखबार-शखबार पढ़ा करो। सिर्फ कागज काला करने से जिंदगी नहीं चलती। आपको याद है..चुनाव से पहले बाबा रामदेव ने कहा था कि मोदी सरकार बनी, तो छह महीने के भीतर सरकार विदेश में जमा सारा काला धन देश में लाकर अपने देश की गरीब जनता में बांट देगी। मोदी साहब भी तो उन दिनों पानी पी-पीकर सरदार जी को काला धन वापस न लाने के लिए कोसते रहते थे। तो किस्सा कोताह यह कि मोदी साहब की सरकार बन गई। कुछ ही दिन में मोदी सरकार के छह महीने भी पूरे होने वाले हैं। बस..कुछ ही दिनों में हम सभी गरीब करोड़पति हो जाएंगे। हो जाएंगे न..!’ पत्नी की बात पर मुझे गुस्सा आ गया। मैंने कहा, ‘नहीं होंगे करोड़पति। वह सब बाबा रामदेव और मोदी जी का चुनावी रसगुल्ला था। काला धन नहीं आने वाला देश में। सरकार कह रही है कि अगर विदेश में जमा काला धन यहां आया, तो वहां के लोग भूखों मर जाएंगे। अपने यहां तो लोगों को दो रोटी खाने के बाद पेट भर पानी पीकर सोने की आदत है। जैसे अब तक रहते आए हैं, वैसे आगे भी रह लेंगे।’ इतना कहकर मैं घर से बाहर हो गया।
(आज दिनांक 28 अक्टूबर 2014 को अमर उजाला में प्रकाशित एक व्यंग्य)

Thursday, October 16, 2014

चल निकाल हाथ की मैल

-अशोक मिश्र
16 oct 2014 ko jansandesh times mein prakashit
जब मैंने सुना कि प्रधानमंत्री के स्वच्छ भारत अभियान की धमक हमारे मोहल्ले तक पहुंच चुकी है, तो मेरी छाती छप्पन इंच की हो गई। लेकिन मैं 'सबसे भले विमूढ जिन्हें न व्यापे जगत गतिÓ की तरह घर से नहीं निकला, तो नहीं निकला। हालांकि घरैतिन ने कई बार ताने मारे, लोगों की सक्रियता का विशद वर्णन किया। शाम को सौ रुपये का नोट पकड़ाते हुए सब्जी लाने का आदेश जारी हुआ, तो घर से निकला ही पड़ा। चौराहे पर पहुंचा, तो देखा कि मोहल्ले भर के छोरे एक जगह टेंट गाड़े हुए मैल इक_ा कर रहे हैं। किसी के हाथ में हाकी थी,तो किसी के हाथ में डंडा। कुछ की जेब में देशी कट्टा (बंदूक) होने का भी मुझे आभास हुआ। सडक़ परआने-जाने वालों को ये छोरे रोकते, उन्हें कुछ समझाते, जो उनकी बात मानकर टेंट के भीतर चला जाता, तो वे प्रसन्न हो जाते। यदि कोई हुज्जत करता, तो गाल पर दो-चार कंटाप, पीठ पर एकाध ल_ जमा देते। वह आदमी अपनी औकात में आ जाता। यदि इन छोरों की जमात का कोई निकल आता, तो वे हाथ उठाकर उसी तरह नमस्कार करते हैं, जैसे दाहिना हाथ उठाकर कामरेड लोग क्रांतिकारी अभिवादन करते हैं। टेंट के आसपास बड़े-बड़े पोस्टरों पर लिखा हुआ था, 'हाथ की मैल यहां दें।Ó 
मैंने सोचा, इन छोरों का तरीका भले ही गलत हो, लेकिन इनका उद्देश्य कितना पवित्र है। मेरा मन गदगद हो गया। तभी टेंट से उस्ताद मुजरिम बाहर निकले और मुझे देखते ही बोले, 'आओ..आओ..इस पुनीत कार्य में तुम्हारी भी कुछ भागीदारी होनी चाहिए।Ó बड़े प्रेम से मेरी बांह पकडक़र वे मुझे टेंट में ले गए। मैंने देखा, लोग आते और मेज पर रखे बक्से में नोट डालकर चले जाते। मैंने उस्ताद मुजरिम से पूछा, 'उस्ताद यह क्या? बाहर तो लिखा है, हाथ की मैल यहां दें और भीतर आप लोग वसूली कर रहे हैं।Ó मेरी बात सुनकर मुजरिम हंसे और बोले, 'तुम नादान हो। भारत के बड़े-बड़े ऋषि-मुनि यही कहते आए हैं कि रुपया-पैसा इंसान के हाथ की मैल है। मोदी जी ने जब स्वच्छता अभियान की शुरुआत की, तो मैंने सोचा, लोगों के हाथ की मैल सबसे पहले छुड़ानी चाहिए। जब तक व्यक्ति पाक-साफ नहीं होगा, तब तक भारत स्वच्छ हो ही नहीं सकता।Óइतना कहकर मुजरिम ने मेरी ओर देखा और बोले, 'तू भी हाथ की मैल निकाल दे।Ó और फिर मैं सब्जी लिए बिना घर लौट आया।

Tuesday, October 14, 2014

राजनीतिक दलों का बेनकाब होता चेहरा

-अशोक मिश्र
धीरे-धीरे उत्तर प्रदेश में लव जेहाद का असली चेहरा सामने आता जा रहा है। हालांकि, बहुत सारे ऐसे सवाल हैं जिनका जवाब मिलना अभी शेष है। कुछ राजनीतिक दलों ने लव जेहाद को चुनावी हथियार बनाकर उत्तर प्रदेश के साथ-साथ हिंदी पट्टी के दूसरे प्रदेशों की राजनीति को गरमाने की कोशिश की। किसी हद तक वे इसमें सफल भी हुए। एक महीने पहले देश में हुए उपचुनावों के दौरान लव जेहाद और गरबा नृत्य में मुसलमानों के आने-जाने को लेकर कई तरह की बातें कही गईं। मध्य प्रदेश में भाजपा के कुछ विधायकों ने अपनी सांस्कृतिक संस्थाओं के माध्यम से लोगों को सचेत किया कि वे अल्पसंख्यकों को हिंदुओं के धार्मिक आयोजनों में न आने दें। वोट बैंक के ध्रुवीकरण की आशा में हिंदुत्ववादियों ने अल्पसंख्यकों के खिलाफ ऐसे-ऐसे तीर छोड़े कि जैसे उनका नामोनिशान मिटाकर ही दम लेंगे। गुजरात के इमाम मेहदी हुसैन जैसे लोगों ने भी माहौल को खराब करने का प्रयास किया। इसके पीछे किन लोगों का हाथ था, यह कहने की जरूरत नहीं है। गरबा में राक्षस आते हैं यह कहने वाला इमाम मेहदी हुसैन मुसलमानों के उन तत्वों का प्रतिनिधि है, जो थोड़े से लाभ के लिए सांप्रदायिक माहौल को बिगाड़ने में थोड़ा सा भी संकोच नहीं करते हैं, ठीक हिंदुत्ववादियों की तरह। ऐसे हिंदुत्ववादियों और इस्लामवादियों का इंसानियत, धर्म, राष्टÑ और संप्रदाय से कोई नाता नहीं होता है। बस, ये एक चेहरे होते हैं, सियासी गणित के। इस बात को साबित करती है मेरठ के खरखौदा गांव में हुए कथित धर्मांतरण और लव जेहाद की खुलती कलई।
दो महीने पहले खरखौदा गांव की 22 वर्षीय एक युवती ने अल्पसंख्य समुदाय के एक युवक पर सामूहिक बलात्कार और जबरन धर्म परिवर्तन का आरोप लगाकर सनसनी फैला दी थी। दो महीने बाद आज वही युवती कह रही है कि उसने अपने मां-बाप के दबाव में आकर यह बयान दिया था। मेरे मां-बाप को नेताओं ने ऐसा कहने और करने के लिए पैसे दिए थे। दो महीने पहले जब जबरन धर्मांतरण की बात सामने आई थी, तो हिंदुत्ववादी संगठनों और भाजपा ने इसको लेकर खूब बवाल किया था। प्रदेश की सपा सरकार भी संदेह के घेरे में थी। हालांकि, युवती की इस बात पर विश्वास कम है कि वह पहले गलत कह रही थी, अब सही कह रही है। इस कथित लव जेहाद और धर्मांतरण की सगााई क्या है? यह निष्पक्ष जांच का विषय है। यहां सवाल लड़की की गलत बयानी का तो है, देश की सियासी पार्टियों की मामले को अपने हित के लिए तूल देने की है। मेरठ, मुजफ्फरनगर, शामली, अलीगढ़ आदि जिलों में जिस तरह से बाकायदा एक नीयत और नीति के तहत माहौल को बिगाड़ने की कोशिश की गई, वह भारतीय लोकतंत्र के लिए काफी शर्मनाक है। ऐसी स्थिति के लिए किसी एक राजनीतिक दल, व्यक्ति या संप्रदाय को दोषी नहीं ठहराया जा सकता है। वोटों के ध्रुवीकरण की राजनीति में सपा, बसपा, भाजपा, कांग्रेस से लेकर अन्य दूसरी छोटी-बड़ी पार्टियां शामिल हैं। कोई दूध का धुला नहीं है। इसके लिए सबसे बड़ा दोषी और जिम्मेदार समाज का वह तबका भी है, जो वास्तविकता को जाने-परखे बिना धार्मिक, सांप्रदायिक उन्माद का शिकार हो जाता है। सबसे ज्यादा अहम रोल तो इसी तबके का होता है। हालांकि इस तबके में शामिल लोगों की संख्या बहुत कम होती है, लेकिन कई बार ये लोग पूरे समाज और देश-प्रदेश पर भारी पड़ते हैं। सबसे ज्यादा चिंताजनक बात यही है। राजनीतिक दल ऐसे लोगों की इस दुखती रग से वाकिफ होने के चलते हर बार फायदा उठाने में सफल रहते हैं।

Monday, October 13, 2014

पहले पूंजी निवेश का माहौल तो बने

- अशोक मिश्र 
सौ अरब डॉलर का पूंजी निवेश भारत का दरवाजा खटखटा रहा है। अब यह राज्यों पर निर्भर है कि  वे इसमें से कितना हिस्सा अपने यहां ले जाने में सफल होते हैं। ग्लोबल इंवेस्टर्स समिट में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यह कहते हुए राज्यों के सामने एक चुनौती पेश की  कि वे आगे बढ़ें और अपने राज्य को समृद्ध करने की दिशा में सक्रिय हो जाएं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इन दिनों अपनी विदेश यात्राओं को लेकर काफी उत्साहित हैं। वे बार-बार यह जताने की कोशिश कर रहे हैं कि उन्होंने विदेशी-देशी पूंजी निवेश की रुकी  हुई प्रक्रिया को गति प्रदान कर दी है, उसके मार्ग में आने वाली बाधाओं को खत्म करने में लगभग सफल हो गए हैं। यह सही है कि उन्होंने उद्यमियों के हित में कई तरह की रियायत देने की घोषणा की है, लेकिन सिर्फ घोषणा से ही सब कुछ  नहीं हो जाता है। इन घोषणाओं को अमलीजामा पहनाना भी उतना ही जरूरी है, जितना कि घोषणा करना। मोदी ने ग्लोबल इंवेस्टर्स समिट में कहा कि चीन, जापान और अमेरिका से सौ अरब डॉलर पूंजी निवेश आना है। इस अवसर का राज्यों को फायदा उठाना चाहिए और राज्य और केंद्र सरकार को एक दूसरे का पूरक रहकर काम करना चाहिए। सिद्धांत रूप में इस बात से शायद ही किसी की असहमति हो। सभी इस बात से सहमत होंगे कि राज्य और कें द्र सरकार को जनपक्षीय योजनाओं और परियोजनाओं को लेकर राजनीति नहीं करनी चाहिए। लेकिन भारतीय राजनीति में क्या ऐसा होता है या हो सकता है? अमूमन तो अब तक यही देखने में आया है कि केंद्र में जिस पार्टी की सरकार होती है, उसी पार्टी के शासन वाले राज्यों को केंद्र सरकार से मिलने वाली सुविधाएं बड़ी आसानी से मिल जाती हैं, परियोजनाओं में  केंद्र का अंश सुगमता से मिल जाता है, लेकिन विरोधी पार्टी द्वारा शासित राज्यों को अंशदान देने में अनावश्यक विलंब किया जाता है।
इस बात से इनकार भी नहीं किया जा सकता है कि पिछले कुछ महीनों में मोदी की विदेश यात्राओं का भारतीय अर्थव्यवस्था पर कोई फर्क नहीं पड़ा है। कई देशों से अरबों डॉलर के समझौते हुए हैं, कुछ परियोजनाओं पर सकारात्मक चर्चा भी हुई है, निकट भविष्य में उनके अमलीजामा पहनने की उम्मीद भी बलवती हुई है। लेकिन क्या सिर्फ इतना ही कर देने से पूंजी निवेश आने लगेगा? क्या दुनिया भर के उद्योगपति सिर्फ प्रधानमंत्री पर भरोसा करके पूंजी निवेश के लिए भारत चले आएंगे? जी नहीं, ऐसा कुछ नहीं होगा। जब तक भारत में पूंजी निवेश के  लायक माहौल, संगठनात्मक ढांचा नहीं खड़ा होता, तब तक बड़ी पूंजी निवेश की  उम्मीद करना बेमानी होगा। पूंजी निवेश करने वाले सबसे पहले बिजली, पानी की उपलब्धता, सड़को की  दशा, कानून व्यवस्था और अन्य बातों की ओर भी ध्यान देंगे। प्रधानमंत्री और राज्य सरकारों को सबसे पहले इस ओर ध्यान देना होगा कि पूंजी निवेश के बाद उत्पादित माल को ग्राहक तक पहुंचाने की व्यवस्था कैसे की  जाए? सड़को का  सघन जाल बिछाए बिना अंतिम आदमी तक उत्पादित माल को पहुंचा पाना, असंभव है। जिन क्षेत्रों में मोदी पूंजी निवेश की बात कर रहे हैं, वहां ये सब बातें काफी महत्व रखती हैं।
इसके बावजूद उम्मीद की जानी चाहिए कि देश की तस्वीर बदलेगी। राज्य और केंद्र सरकारें देश में शांति और सौहार्दपूर्ण वातावरण के निर्माण सक्रि भूमिका निभाएंगी। कु मुद्दों पर केंद्र को सहयोगात्मक रवैया अख्तियार रना होगातो कु मामलों में राज्यों को भी हठधर्मिता त्यागनी होगी। देश के आर्थि विका के  लिए पूंजी निवेश के साथ-साथ इन्फ्रास्टक्चर खड़ा होना बहुत जरूरी है। इससे  केवल लोगों को रोजगार, सुविधाएं प्राप्त होंगी, ल्कि प्रति व्यक्ति आय में भी इजाफा होगा। लोगों के रहन-सहन में बदलाव आएगा। उनकी जरूरतें आसानी से पूरी हो सकेंगी। और ऐसा तब होगा, जब राज्य में शांति हो, उद्योग लगाने के लिए आवश्य वातावरण हो। शासन-प्रशासन का  आवश्यक  सहयोग भी मिलता रहे।