Sunday, March 24, 2013

लला मत जइयो खेलन होरी...

-अशोक मिश्र
खेत में पहुंचने के बाद मैंने इधर-उधर देखा। दूर-दूर तक किसी को न पाकर मैं गाने लगा, ‘रसिया रस लूटो होरी में...रसिया रस लूटो...।’ तभी देखता क्या हूं, एक व्यक्ति श्रीकृष्ण की तरह पीतांबर, सिर पर मोर पंख और हाथ में वंशी धारण किए उधर से जा रहा है। मुझे गला फाड़-फाड़कर गाते देख वह मेरे पास आया और बोला, ‘मैं श्रीकृष्ण हूं... गौ पालक, कंस विनाशक, देवकी नंदन वासुदेव श्रीकृष्ण... काफी दिनों से इच्छा थी एक बार फिर बरसाने और नंदगांव में होली खेलने की, सो चला आया। तुम मुझे बरसाने ले चलो, जहां कभी राधा प्यारी और उसकी सखियां हाथों में रंग-गुलाल लिए नंदगांव के होरिहारों का इंतजार किया करती थीं। मैं खुद ही चला जाता, लेकिन दिक्कत यह है कि मैंने बरसाना या नंदगांव जैसा छोड़ा था, वैसा अब रह नहीं गया है। मैं समझ ही नहीं पा रहा हूं कि नंदगांव कहां है और बरसाना कहां? तब से अब तक पूरा ब्रज प्रदेश ही बदल गया है।’
मेरे मुंह से एकाएक निकला, ‘होली खेलने आए हैं, यह बहुत अच्छा किया। मैं अभी गांव के लोगों को इकट्ठा करता हूं, पुरुषों के साथ होली खेलकर मन को संतोष दे लीजिए। लेकिन खबरदार! जो किसी महिला या कुंवारी को राधा, अनुराधा या गोपिका समझकर उसकी ओर देखा या उससे छेड़छाड़ की। द्वापर में आपने जो कुछ किया, किया होगा। आपके नाना, मामा, पिता और आप स्वयं वहां के राजा थे। राजा चाहे जो कुछ भी करे, उसका अधिकार है। आपके उन कार्यों का विरोध कौन करता? लेकिन, अब मामला उलट गया है। अब पूरे देश में लोकतंत्र है...वे दिन लद गए, जब आप नहाती गोपिकाओं के कपड़े उठाकर भाग जाते थे, उनकी मटकी फोड़ देते थे, उनके साथ रास या महारास रचाते थे, हजार-हजार पत्नियां रखते थे। देवकी नंदन जी! वे दिन हवा हो गए। अगर आपने कुछ ऐसा-वैसा किया, आप तो होंगे जेल में और आपकी कोई जमानत लेने वाला नहीं होगा।’
मेरी बात सुनकर अकबकाए से श्रीकृष्ण बोले, ‘वह तो मेरी लीला थी...प्रेम का संदेश देने के लिए।’ उनकी बात सुनकर मैंने तल्ख लहजे में कहा, ‘भूल जाइए लीला-वीला...अब तो यह सब संज्ञेय अपराध है। आपने कहीं भूल से भी किसी गोपिका या राधा को घूरकर देखा, वन में, बागों में, तड़ाग में या फिर दूसरी जगहों पर उनका पीछा किया, उसके कपोलों, हाथों या दूसरी जगहों पर रंग, अबीर या गुलाल लगाने की कोशिश की, तो अपनी भट्ठी बुझी ही समझिए। यौन उत्पीड़न या छेड़छाड़ के आरोप में अंदर जाने का मन हो, तभी ऐसा कीजिएगा। अभी कुछ ही दिन पहले हमारी सरकार ने एक नया कानून पास किया है। उसके मुताबिक, भले ही आपने अपनी प्रिया राधारानी को अनुराग भरी नजरों से निहारें, लेकिन वो आपसे पुरानी खुन्नस निकालने के मूड में हों, तो समझिए आप गए बारह के भाव। कोई नहीं सुनेगा या मानेगा कि आप अनुरागी भाव से निहार रहे थे। वासुदेव श्रीकृष्ण! अब आपकी भी धौंस नहीं चलने वाली। यदि कोई पुलिस वाला गोपिकाओं या राधा की अर्जी पर गौर नहीं करेगा, उसकी नौकरी गई तेल बेचने। अभी कल की बात है, मेरी पड़ोसी मुसद्दीलाल ने भंग की तरंग में छबीली भौजी से तनिक ठिठोली क्या कर ली, बात पहुंच गई थाने तक। छबीली भौजी का आरोप है कि मुसद्दीलाल ने बदनीयती से मेरा हाथ पकड़ा और गालों पर गुलाल मला। वहीं मुसद्दीलाल बेचारे सफाई दे रहे हैं कि जब से छबीली भौजी इस गांव में ब्याह कर आई हैं, वे हर साल भौजी को इसी तरह होली पर रंग लगाते रहे हैं, ठिठोली करते रहे हैं। गांव की सभी भौजाइयों को पकड़-पकड़कर रंग में डुबोते रहे हैं और भौजियां साल भर इस धींगामुश्ती को याद करके कभी शरमाती थीं, तो कभी मुस्काती थीं।’
मेरी बात सुनकर हैरान-परेशान श्रीकृष्ण ने कहा, ‘जब आ गया हूं, तो ब्रज की गोपिकाओं के साथ होली खेलकर ही जाऊंगा। भले ही कुछ भी हो जाए।’ इतना कहकर श्रीकृष्ण चल दिए। उनकी बात सुनते ही महाकवि पद्माकर की ये पंक्तियां याद आ गईं, ‘नैन नचाय, कह्यो मुस्काय, लला फिर अइयो खेलन होरी।’ मैं झट से उनके पीछे यह कहते हुए भागा, ‘...लला मत जइयो खेलन होरी।’ लेकिन यह क्या...मेरे दायें घुटने में दर्द क्यों हो रहा है? मैं चौंक गया, होश ठिकाने आए, तो पता चला कि मैं सपना देख रहा था और सपने में श्रीकृष्ण को रोकने के चक्कर में मेज से टकराकर अपना घुटना तुड़वा बैठा था।

Wednesday, March 20, 2013

पहले निंदक खोजिए...

-अशोक मिश्र
मुझमें गुण खोजना, मंगल ग्रह पर जीवन के लक्षण खोजने जैसा है। पूरे शरीर का सीटी स्कैन करवा लो, अगर कहीं किसी भी तरह के गुण के कीटाणु मिल जाएं, तो मैं कहूं। मैं पूरी तरह से गुण रोधी हूं। और अवगुण...? अवगुणों की तो मैं खान हूं। भगवान ने थोक के भाव कूट-कूट कर अवगुण भरे हैं मुझमें। कामचोर, झुट्ठा, चोट्टा, आलसी, धोखेबाज, रसिक...आदि.. आदि जैसे न जाने कितने विशेषण मेरे सामने पानी भरते हैं। कभी मुझे अपने इन अवगुणों को लेकर ग्लानि नहीं महसूस हुई। जब भी बीवी झल्लाकर कहती है, ‘झूठ बोलते हो, फरेबी! धोखेबाज! क्या मैं समझती नहीं, तुम पड़ोस वाली भाभी जी की क्यों तारीफ कर रहे हो?’ तो सच मानिए, मेरा सीना गर्व से दो इंच फैल जाता है। अब तक अपने अवगुणों पर गर्व करने वाला मैं सिर्फ एक दोहे के चलते परेशान हूं। संत कबीरदास को भी पता नहीं क्या सूझी, लिख मारा, ‘निंदक नियरे राखिए, आंगन कुटी छवाय/बिन पानी, साबुन बिना निर्मल करे सुभाय।’ जब से अपने बेटे की किताब में यह दोहा पढ़ा है, तब से परेशान हूं, अपने अवगुणों पर लज्जित हूं। अब इन अवगुणों से छुटकारा पाऊं, तो कैसे? कबीरदास कहते हैं कि अपने घर में निंदक रखो। दो कमरे का किराए पर मकान लेकर रहता हूं। अब इस छोटे से घर में निंदक को कहां रखूं? अजीब मुसीबत है, कबीरदास जी ने कहां फंसा दिया! उनके जमाने में तो फ्लैट कल्चर तो था नहीं। नहीं तो, वे कुटी छवाकर रखने के बजाय कोई दूसरी बात लिखते। अब अगर कुटी भी छवाता हूं, तो कालोनी वाले ऐतराज करेंगे।
फिर ख्याल आया कि बचपन से लेकर आज तक निंदकों से ही घिरा रहा हूं। घर में बीवी, बच्चे सुबह से शाम तक निंदा पुराण बांचते रहते हैं, आॅफिस में संपादक जी और मेरे अन्य साथी यह पुनीत कर्तव्य पूरा करते हैं। गाहे-बगाहे मिलने पर मेरे नर्म सचिव (लंगोटिया यार) तक पहले निंदा करते हैं, फिर हाथ मिलाते हैं, चाय पिलाते हैं, बीड़ी-पान, तंबाकू पेश करते हैं। इसी बीत याद आया कि कबीरदास जी ने ही कहीं कहा है कि बिना गुरु के ज्ञान और मोक्ष नहीं प्राप्त होता है। अब अगर गुणों का विकास और अवगुणों का ह्रास चाहिए, तो किसी को पान-फूल (पत्रम्-पुष्पम्) देकर ‘निंदा गुरु’ नियुक्त करना हो, तब कहीं जाकर ‘अभीष्ट’ की प्राप्ति होगी।
काफी सोच विचार कर मैंने तय किया कि घरैतिन को ही निंदा गुरु की पोस्ट पर नियुक्त कर दूं, लेकिन फिर ख्याल आया, अगर वे मेरी गुरु हो गईं, तो..तो..? आप समझ गए न मेरा मतलब? घरैतिन को छोड़कर बच्चों से बात की, तो वे मेरा प्रस्ताव सुनते ही भड़क गए। बेटी गुर्राती हुई बोली, ‘आप हम दोनों को नामाकूल समझते हैं। मैं आपकी गुरु कैसे हो सकती हूं!’ मैंने कहा, ‘जब शुकदेव के पिता वेदव्यास अपने पुत्र को गुरु बना सकते हैं, तो मैं क्यों नहीं?’ इस पर बेटा आगे आया और बोला, ‘हम दोनों भाई-बहन को माफ कीजिए और किसी चोर-लफंगे को बना लीजिए गुरु।’ फिर सोचा किसी ‘एलुए-ठेलुए’ को निंदक नियुक्त कर देता हूं, निंदा करने का दो-तीन हजार रुपये लेगा भी, तो दे दूंगा। कम से कम निंदा तो होती रहेगी। मेरे अवगुण तो दूर हो जाएंगे! मैंने कई लोगों से बात की। पड़ोस में रहने वाली छबीली तो प्रस्ताव सुनते ही ‘बमक’ उठी, ‘तू हम दो सहेलियों में जूतम-पैजार कराना चाहता है, नासपीटे। मुझे बदनाम कराना चाहता है?’आपको विश्वास नहीं होगा, मैंने सबसे गुरु बनने की चिरौरी की, पांव पकड़े, हाथ जोड़े, दोस्ती और भलमनसाहत का वास्ता दिया, लेकिन सब बेकार। सबने भरपेट गालियां दी, लेकिन गुरु बनकर मेरे अवगुण दूर करके पुण्य कमाने को तैयार कोई नहीं हुआ। फिर मैंने सोचा कि संत कबीरदास का दोहा ही उलट दूं। मान लूं कि आधुनिक  कबीरदास ने कहा है, ‘पहले निंदक खोजिए, विज्ञापन छपवाय/खोजे से जो न मिले, डूब मरो तब जाय।’ सो, दोस्तो! विभिन्न अखबारों में विज्ञापन दे दिया है। आप में से जो कोई भी मेरा निंदा गुरु बनना चाहता है, वह महीने के सातवें मंगलवार को मुझसे संपर्क करे।

Thursday, March 14, 2013

लोकतंत्र नहीं...लुक्क तंत्र

अशोक मिश्र
‘दिल्ली के भाई भकोसानंद राष्ट्रीय चौर्य (चोरी) कला केंद्र के सभागार में ‘राष्ट्रीय राजनीति और चौर्य कला’ पर आयोजित परिचर्चा में भाग लेने आए लोक लुच्चा परिषद (लोलुप) के राष्ट्रीय महासचिव बड़बोले प्रसाद मतिमंद ने हाथ उठाकर उपस्थिति प्रतिनिधियों और श्रोताओं का अभिवादन करने के बाद कहना शुरू किया, ‘हमारी परिषद आजादी के बाद से ही कहती चली आ रही है कि यह लोकतंत्र नहीं...‘लोक...तंत्र’ है। लोक..तंत्र का मतलब है कि वह तंत्र जिसको लुक्कि (कैच कर) लिया गया हो। जो भाषा विज्ञान के विद्यार्थी (विद्या+अर्थी अर्थात् विद्या की अर्थी उठाने वाले) रहे हैं, वे जानते हैं कि अंग्रेजी में एक शब्द है ‘लुक’ जिसका अर्थ होता है-देखना। मैं यह नहीं जानता कि अंग्रेजी के इस लुक शब्द की उत्पत्ति और व्यूत्पत्ति इंग्लैंड में हुई या हिंदुस्तान में। अंग्रेजों ने यह शब्द हिंदी से पार किया या हम भारतीयों ने अंग्रेजों को ठेंगा दिखाकर उनके ‘लुक’ को अपने यहां ‘लौकना’ में कंवर्ट कर लिया। हां, हिंदी को एक शब्द मिला ‘लौकना’...माने..दिखाई देना। अवधी में जब यही ‘लौकना’ स्वीकार किया गया, तो इसका अर्थ हुआ चमकना। पूरे देश में भले ही बिजली आसमान में चमकती हो, लेकिन अवध प्रांत के लोगों के लिए ‘अकास मा बिजली लौकत है।’ यह ‘लौकना’ शब्द कालांतर में अपभ्रंशित होकर ‘लुक्कना’ या ‘लोक लेना’ में तब्दील हो गया...और इसका मतलब हुआ...कैच कर लेना। अब जरा इसी अर्थ में ‘लोक’ शब्द के साथ तंत्र का उपयोग कीजिए...और फिर बताइए, इसका क्या अर्थ हुआ।’ मंचासीन कुछ वक्ताओं और श्रोताओं ने समवेत स्वर में कहा, ‘वह तंत्र जिसको कुछ लोगों ने कैच कर लिया हो..।’ बड़बोले प्रसाद मतिमंद लोगों की प्रतिक्रिया सुनकर मुस्कुराए और बोले, ‘आप लोगों ने बिल्कुल सही समझा। यह बात हमारी परिषद के संस्थापक अध्यक्ष स्वर्गीय श्री चपर कनाती गिरते पड़ते जी बहुत पहले समझ गए थे। उन्होंने बहुत पहले ही केंद्र और प्रदेश सरकारों के कार्य व्यवहार को देखकर कह दिया था कि यह लोकतंत्र नहीं,...‘लोक तंत्र’ है। आप लोगों ने क्रिकेट टीम को खेलते देखा होगा। वहां एक बॉल होती है, उस बॉल के पीछे तेरह प्लेयर्स (ग्यारह फील्डर और दो बैट्समैन) पड़े होते हैं, लेकिन आप बताएं, जिसके पास वह बॉल जाती है, वह उसे रख तो नहीं लेता न! लेकिन लोकतांत्रिक व्यवस्था में ऐसा नहीं होता। तंत्र रूपी बॉल जिसके पास जाती है, वह उसे लुक्क (लोक) यानी कैच कर लेता है। आजादी के बाद जब तक देश के मुखिया नेहरू जी रहे, उन्होंने तंत्र को कभी सदरी पर घिसा, तो कभी अचकन पर। कभी तंत्र को गंदा देखा, तो खिलाड़ियों की तरह थूक लगाकर उसे साफ किया। कभी गांधी टोपी से झाड़ा, तो कभी उसे उठाकर जेब में रख लिया, लेकिन किसी दूसरे को हाथ नहीं लगाने दिया।’ इतना कहकर बड़बोले प्रसाद जी ने चारों ओर निगाह दौड़ाई। सबको ध्यान से सुनता देखकर वे उत्साहित हो गए। उन्होंने अपने कुर्ते की बांह से होंठों को पोंछा और बोलने लगे, ‘उसके बाद तो जैसे परिपाटी-सी बन गई, तंत्र को ‘लुक्क’ लेने की, अपनी जेब में रख लेने की। यह काम कांग्रेस ने किया, जब भी मौका मिला, भाजपा और उसके सहयोगियों ने किया। अब यूपीए सरकार कर रही है। इतना ही नहीं, राज्य सरकारें भी यही कर रही हैं। राज्य सरकारें जैसा चाहती हैं, वैसे ही तंत्र को गेंद की तरह नचाती हैं। कभी तंत्र को फुलटास फेंकती हैं, तो भी आॅफ स्विंग कराती हैं। उत्तर प्रदेश में अखिलेश बउआ को देख लो। कभी तंत्र को उनके पिता जी बाऊंस कराते हैं, तो कभी अखिलेश के बॉलर चाचा लोग बॉल फेंकने के बाद खुद ही फील्डिंग करते हुए बैट्समैन की गुल्ली उड़ा देते हैं। बंगाल में ममता दीदी तो खुद ही बॉलिंग करती हैं, खुद ही बैटिंग। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ में तो भाजपाई खुद ही जमे हुए हैं। खर, पीर, भिश्ती, बावर्ची यानी विकेटकीपर, फील्डर, बॉलर, बैट्समैन..सब कुछ भाजपाई ही हैं। विरोधी मैदान के बाहर खड़े टुकुर-टुकुर निहार रहे हैं कि कब ये फील्ड से धकियाए जाएं और उन्हें खेलने का मौका मिले। तंत्र को लुक्कने के इंतजार में सभी खड़े हुए ‘हाय..हाय’ कर रहे हैं।’
बड़बोले प्रसाद ने लंबी सांस खींचने के बाद कहा, ‘मेरी बात से संभवत: चौर्य कला के विद्यार्थियों को भारतीय लोकतंत्र के बारे में समझने में आसानी होगी। मेरा तो सुझाव है कि हम लोग जब भी एक-दूसरे से मिलें, तो ‘गुड मार्निंग’, ‘नमस्ते’ या ‘सलाम’ कहने की बजाय ‘जय लुक्क तंत्र’ कहें, तो ज्यादा बेहतर होगा।’ इतना कहकर बड़बोले प्रसाद ने उपस्थित लोगों का अभिवादन करते हुए कहा, ‘जय लुक्क तंत्र।’... और अपनी कुर्सी पर जा बैठे।

Thursday, March 7, 2013

कृपा कर दो ‘आईएम’ वाले भैया


अशोक मिश्र
हे ‘आईएम’ वाले भैया! सुना है कि आपने अब ‘धमकी-वमकी’ देने का भी धंधा अख्तियार कर लिया है। मेरी जानकारी के मुताबिक, आप लोग पहले ‘पटाखे-वटाखे’ फोड़कर जश्न मनाते थे। आपने जब इस नए धंधे में हाथ डाला है, तो कुछ सोच-समझकर ही फैसला लिया होगा। पटाखे फोड़ने वाला धंधा भी इतना चोखा नहीं था। लोग आपको कायर समझते हैं। सच बताऊं, मैं भी इसे अच्छा नहीं मानता था। यह क्या बात हुई कि चुपके से आए और भीड़ में पटाखे फोड़कर चले गए। 
पटाखे फोड़ने का श्रेय भी आपको बाद में मीडिया या ई-मेल भेजकर लेना पड़ता है। मैं आपको बताऊं, जब मैं बचपन में पड़ोसी के घर की खिड़कियों के शीशे पत्थर मारकर तोड़ता था, तो दोस्तों के बीच मेरे जिगरे की चर्चा हफ्ते भर तक होती थी। बाद में शिकायत होने पर भैया के हाथों मार भी बड़ी दिलेरी से खाता था। मेरे सारे दोस्त यह देखकर दंग रह जाते थे। कोई भी मुझसे पंगा नहीं लेता था। वे सोचते थे कि पता नहीं कब पड़ोसी की खिड़की में लगे शीशे की जगह उनका सिर फूट जाए। दस फीट दूरी से भी उन दिनों मैं निशाना भी सटीक लगाता था। दिनभर कंचे जो खेलता था। हां, तो मैं कह रहा था कि आपने नया धंधा शुरू किया है धमकी देने का, वह बड़ा चोखा है। इस मामले में ‘हर्र लगे न फिटकरी, रंग आए चोखा’ वाली कहावत बिल्कुल फिट बैठती है। अगर शिकार पुलिस के पास चला गया, तो कोई दूसरा शिकार ढूंढ लिया। नहीं तो, कमाई होनी ही है। इस संदर्भ में मेरी आपसे एक विनती है। आप खुद या अपने किसी छुटभैये आतंकी से कहकर मुझे धमकी भरा पत्र, ई मेल, एसएमएस भिजवा दो या फोन से धमकी दिलवा दो।
आईएम वाले भैया, मैं जहां भी रहूंगा, आपके गुन गाऊंगा। हो सका, तो आपकी प्रशंसा में एकाध ग्रंथ भी लिख दूंगा। मैं वायदा करता हूं कि मेरी जो भी अगली किताब प्रकाशित होगी, उसे आपको ही समर्पित करूंगा। अब लाख टके का सवाल यह है कि आखिर मैं ऐसा चाहता क्यों हूं? यह बात आपके दिमाग में फरवरी में उमड़ने वाले बादलों की तरह घुमड़ रही होगी। तो मैं आपको सच्ची बात बताने जा रहा हूं। बात दरअसल यह है आईएम वाले भैया कि मेरी पत्नी मुझे नकारा और दिलफेंक समझती है। वह बात-बात में तंज कसती है। कहती है कि मुझे उसके अलावा कोई नहीं पूछेगा, इसलिए बुढ़ापे में लड़कियों को देखकर लार टपकाना छोड़ दूं। आईएम वाले भैया! आप ही बताइए, पैंतालिस साल की उम्र भी भला कोई उम्र होती है। आप तो पता नहीं, पाकिस्तान में पैदा हुए हैं या हिंदुस्तान में। आपके पिता जी कहां के थे, मुझे नहीं मालूम, लेकिन खांटी हिंदुस्तानी होने के नाते मैं यह जानता हूं कि अपने देश में एक बहुत पुरानी कहावत है, साठा...तब पाठा। इस कहावत के मुताबिक, अभी कम से कम पंद्रह साल तक मैं लड़कियों को घूर सकता हूं, उन्हें लांग ड्राइव पर ले जा सकता हूं कि नहीं? हे आतंकवादी भैया! मैं चाहता हूं कि आप मुझे पहले धमकी दें और फिर अपहरण कर लें। कुछ दिन बाद छोड़ दें, ताकि इस समाज में मेरी भी कुछ इज्जत बढ़ जाए। 
सच बताऊं, मुझे धमकी मिलते ही, सबसे पहले मैं अपने संपादक जी के पास जाऊंगा और उनके कान में कहूंगा कि आईएम वाले भैया से मेरी अच्छी जान पहचान है। अगर इस महीने से तनख्वाह नहीं बढ़ी, तो सिर्फ एक काल का खर्च बढ़ेगा। बाकी आप समझ सकते हैं कि आपका क्या हश्र होगा। हो सकता है कि इस बात से डरकर वे मेरी तनख्वाह बढ़ा दें। पिछले दो साल से उन्होंने एक भी पैसा वेतन नहीं बढ़ाया है। जब भी उनसे तनख्वाह बढ़ाने की बात करता हूं, तो वे कागज, स्याही, ट्रांसपोर्टेशन खर्च के बढ़ जाने का रोना रोने लगते हैं। उन्हें अपनी महंगाई तो दिखती है, लेकिन मेरी नहीं। आपकी धमकी मिलने के बाद मैं नेशनल सेलिब्रिटी हो जाऊंगा। संभव है कि किसी नेशनल अखबार का संपादक मुझे अपने यहां अच्छी-सी नौकरी दे दे। आपकी बदौलत मेरी रोजी-रोटी चल जाएगी। अपहरण के दौरान हुए अनुभव को तो जब तक जियूंगा, हर साल अपहरण दिवस पर संस्करण लिखकर अखबारों से कुछ कमाई कर लूंगा। बस...सिर्फ एक बार मुझ पर कृपा कर दो। खुद धमकी दे दो या अपने किसी चेले-चपाटे से धमकी दिलवा दो। मैं भी अपनी घरैतिन को बताना चाहता हूं कि मेरी भी कहीं पूछ है।  
आपका ही
मौलाना अभय सिंह डेविड