Wednesday, December 29, 2010

राजा-राडिया के लिए भी शुभ हो नववर्ष

-अशोक मिश्र
खरामा-खरामा दिन, सप्ताह और महीने की देहरी को पार करता हुआ यह साल बीत गया। जो बीत गया, सो बीत गया। उसके बारे में बुरा कहना, हमारी संस्कृति के खिलाफ है। अब आप छमिया को ही लें। वह पूरी जिंदगी घूरेलाल से परेशान रही। उठते-बैठते उसके पूरे हो जाने की कामना करती रही हो, लेकिन जिस दिन घूरेलाल पूरा हुआ, उसी दिन से छमिया के लिए घूरेलाल देवता हो गया, भला मानुष हो गया। बीते साल को भी घूरेलाल समझकर अच्छा साल बताने में ही भलाई है। कहते हैं कि बीता वक्त आने वाले वक्त की आधारशिला होती है। पिछले साल अगर प्रतिदिन एक घोटाले का रिकार्ड कायम हुआ हो, तो कामना कीजिए कि इस बार दो घोटाले प्रतिदिन के हिसाब से रिकार्ड बनाकर हम दुनिया के सबसे बड़े भ्रष्टाचारी देश के निवासी होने का फख्र हासिल कर सकें। आप कल्पना कीजिए, जब भ्रष्टाचार में छंटाक-छंटाक भर के देश हमसे आगे निकल जाते हैं, तो हम देशवासियों को कितनी कोफ्त होती है। अरे, हम दुनिया भर के ज्ञान गुरु रहे हैं। हमने ही दुनिया को जीरो का ज्ञान देने के साथ-साथ कागजों में अपनी मर्जी के मुताबिक जीरो बढ़ाकर हेराफेरी करने का भी ज्ञान दिया था। लेकिन यह बात अब बीते जमाने की हो गयी है। इसलिए इसे भी घूरेलाल की तरह भूल जाने में ही भलाई है।
हां, तो जनाब! 365 दिन का चक्र पूरा करके नया साल आपके दरवाजे पर दस्तक दे रहा है। उठिए, दिल खोलकर स्वागत कीजिए, राई-नोन उवारिये, बलइया लीजिए। भले ही जेब में पैसा न हो, लेकिन नए साल का स्वागत उत्साह के कीजिए। जरूरत पड़े तो उधार लीजिए, डाका डालिए, किसी की जेब काटिए, गला काटिए, लेकिन नए साल को इंज्वाय करने में कोताही न करें। होटलों और पार्कों में अपनी/अपने उनके साथ गलबहियां डालकर मस्ती से झूमिए। दारू-शारू पीजिए, हो-हल्ला मचाइए, कुछ भी कीजिए, लेकिन नए साल पर पड़ोसियों को यह नहीं लगना चाहिए कि आपकी जेब इन दिनों ढीली है। जो भी मिले, उसे लपककर शुभकामनाएं दीजिए। अगर किसी पार्टी-शार्टी में ‘वे’ मिल जाएं, तो घरैतिन की निगाह बचाकर ‘जप्फियां-वप्फियां’ पाइए।
मेरी शुभकामना यही है कि नया साल आप सबके लिए शुभ हो। आप पूरे साल प्रेम रस में आकंठ डूबते-उतराते रहें। आपके बेटे-बेटियां राडिया और राजा बनें। उन्हें मीडिया, सरकार और अधिकारियों को मैनेज करने का गुर राडिया और राजा से सीखने को मिले, ऐसी मेरी हार्दिक इच्छा है। आप सब इन महापुरुषों और महास्त्रियों की ट्यूशन फीस जुटा सकें, तो समझिए कि यह साल आपके लिए शुभ रहा। हां, अगर आपके बेटे-बेटियों, भाई-बहनों में सरदार भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, डॉ. बिनायक सेन, शंकर गुहा नियोगी बनने के कीटाणु पैदा हो रहे हों, तो उनका नए साल पर समूल नाश हो जाए, यह मैं सोते-जागते कामना करता हूं।
नया साल उनके लिए शुभ हो, जो डिटरजेंट पाउडर, तेल आदि से नकली देशी घी, दूध, खोया आदि बनाकर बेचते हैं। नया साल उनके लिए भी शुभ हो, जो इन्हें खाकर मर जाते हैं, रोगी हो जाते हैं, कई असाध्य रोगों के शिकार हो जाते हैं। तराजू के नीचे चुंबक लगाकर घटतौली करने वालों को नया साल मुबारक हो। यह साल उनके लिए भी नया उजाला लेकर आये, जो इस घटतौली के शिकार होते हैं। नये साल पर उनके लिए मेरी हार्दिक शुभकामनाएं हैं, जो गरीबों और देश के विकास के लिए बनाई जाने वाली बड़ी-बड़ी परियोजनाओं को उदरस्थ कर जाते हैं। यह नववर्ष उन्हें भी शुभ हो जो इन परियोजनाओं के इंतजार में एक-एक दिन काटकर पूरी जिंदगी बिता देते हैं और ये परियोजनाएं इनके द्वार पर दस्तक तक नहीं देती हैं। दल-बदल और पार्टी से भितरघात करने वालों को इस साल कुछ स्वर्णिम मौके मिलें, इस कामना के साथ मेरी शुभेच्छा उनके प्रति भी है, जो किसी एक पार्टी रूपी खूंटे से आजीवन बंधे रहकर अपना और अपनी भावी पीढ़ी का कबाड़ा कर लेते हैं।
मेरी शुभकामना है कि सभी राजनीतिक दलों की सत्ता बरकरार रहे। विपक्ष में बैठने वालों को भी सत्ता का सुख भोगने को मिले। भले ही संविधान में संशोधन करना पड़े कि चुनाव आयोग में पंजीकृत सभी पार्टियां बिना चुनाव लड़े सत्ता की भागीदार मानी जाएंगी। राजा, राडिया के साथ-साथ देश भर के भ्रष्टों, दलालों, भितरघातियों, पाकेटमारों और लुच्चे-लफंगों के लिए नया साल सुखद हो। इसी के साथ आप लोग मेरे लिए कामना करें कि पिछले साल की तरह इस बार भी मेरी रसोईघर के कनस्तर खाली न रहें। बच्चों की फीस समय पर पहुंच जाए। बीवी को जरूरत के मुताबिक समय पर कपड़े-लत्ते और दवा-दारू में से दवा उसे और दारू मुझे मिल जाया करे।

Tuesday, December 28, 2010

उनका देश

-विवेक दत्त मथुरिया
यह देश किसका है?
उनका, आपका या फिर हम सबका
यह देश उन्हीं का है
और इसका पूरा विधान भी उनका है
व्यवस्था परिवर्तन की बात
या जनहित में उसकी आलोचना
अभिव्यक्ति नहीं, देशद्रोह है
यह गलती भगत सिंह, आजाद, बोस ने की
और यही गलती कर बैठा विनायक सेन।
राजा हो या राडिया, या फिर कल्माड़ी...
लूटना कोई अपराध नहीं
स्टेट्स सिंबल है आज
इनके लिए इंसाफ
एक दिखावा है या फिर छलावा
क्योंकि ये जन-गण-मन के अधिनायक हैं
इसलिए यद देश उन्हीं का है
हमारा और आपका नहीं।

Sunday, December 19, 2010

गुनाहगार को चाहिए कैरेक्टर सर्टिफिकेट

-अशोक मिश्र

भारत-पाकिस्तान का वनडे क्रिकेट मैच देखने के लिए बहाना बनाकर आफिस से छुट्टी लेने के बाद बिस्तर पर लेटा ही था कि दरवाजे पर उस्ताद गुनाहगार की आवाज सुनाई दी। उनकी आवाज सुनते ही मुझे बहुत कोफ्त हुई। मैं समझ गया कि रजाई ओढ़कर चाय पीते हुए क्रिकेट मैच देखने का सपना अब पूरा होने वाला नहीं है। तब तक घरैतिन को ढेर सारा आशीर्वाद देते हुए उस्ताद गुनाहगार कमरे में घुस आए, ‘अमां यार! तुम अभी तक बिस्तर पर लंबे पड़े हुए हो। काहिल कहीं के...।’
झुंझलाहट के बावजूद मैंने उठकर चरण स्पर्श करते हुए कहा, ‘उस्ताद..आज तबीयत कुछ नासाज थी, इसलिए आफिस से छुट्टी लेकर आराम फरमा रहा हूं। आप बताएं, आज मेरे गरीबखाने पर कैसे पधारने का कष्ट किया। ’
‘एक मुसीबत में फंस गया हूं। मुझे एक कैरेक्टर सर्टिफिकेट बनवाना है। समझ में नहीं आ रहा है कि क्या करूं?’ उस्ताद गुनाहगार ने रजाई हटाकर बिस्तर पर ही पसरते हुए हांक लगाई, ‘अरे बहू! आज चाय नहीं, काफी पीने का मन है। ठंड कुछ ज्यादा है, अगर साथ में पनीर की पकौड़ियां भी हो जाएं, तो मजा आ जाए।’ मैं समझ गया कि घरैतिन आशीर्वाद और अच्छी बहू का खिताब पाने के चक्कर में आज बची-खुची काफी और शाम को ही लाए गए पनीर का कबाड़ा करके रहेगी। लेकिन उस्ताद गुनाहगार के सामने कुछ बोल पाने की हिम्मत नहीं जुटा पाया।
‘उस्ताद! आखिर बात क्या है? आपको कैरेक्टर सर्टिफिकेट की क्या जरूरत पड़ गयी। कौन-सी आपको किसी की नौकरी करनी है। पाकेटमारी कोई कैरेक्टर सर्टिफिकेट देखकर होती है?’ मैं भी अपनी खीझ से मुक्त होकर चुहुल के मूड में आ गया था।
‘यार तुम समझोगे नहीं। अंतरराष्ट्रीय पाकेटमारी संघ का चुनाव होना है। इस बार मैं अध्यक्ष पद के लिए खड़ा हो रहा हूं। इसके लिए अन्य कागजात के साथ कैरेक्टर सर्टिफिकेट भी जमा करना होगा।’ गुनाहगार ने मुझे जानकारी दी।
‘तो इसमें क्या दिक्कत है? आपको एक फार्म भरकर जमा करना होगा और जिला पुलिस मुख्यालय से आपको कैरेक्टर सर्टिफिकेट मिल जाएगा। हां, आपको बाबुओं की जेब इस ठंडक में गर्म करनी पड़ेगी।’ मैंने मुफ्त में ही सलाह दे डाली। वैसे आपको बता दूं, मैं सलाह देने की बाकायदा फीस लेता हूं। लेकिन उस्ताद गुनाहगार मेरे बड़े भाई हैं, उनकी मैं इज्जत भी खूब करता हूं। इसलिए कभी-कभी मुफ्त में सलाह देने से भी परहेज नहीं करता।
मेरी सलाह सुनते ही गुनाहगार गुस्से से उछल पड़े, ‘अबे व्यंग्यकार की दुम! तुम्हारी अक्ल हमेशा घुटने में ही रहेगी। बताओ भला, किसी पाकेटमार को किस जिले की पुलिस चरित्र प्रमाण पत्र देगी। पकड़े जाने पर पब्लिक और पुलिस जो प्रमाणपत्र देती है, वह मैं ही जानता हूं। पाकेट में भले ही लवलेटर्स, दवाइयों या बीवी द्वारा की गयी शॉपिंग के बिल्स पड़े हों, लेकिन जैसे ही पाकेटमार पकड़ा जाता है, पर्स वाला पांच हजार रुपये से ज्यादा रकम होने की गुहार लगाने लगता है।’
गुनाहगार की बात सुनते ही मैंने अक्ल के घोड़े दौड़ाने शुरू कर दिए, ‘तो गुरु...पुलिस-वुलिस का चक्कर छोड़िए। स्कूल-कालेज छोड़ते समय तो आपको कैरेक्टर सर्टिफिकेट तो मिला ही होगा। उसी को जमा कर दीजिए न...। फालतू में टेंशन लेने की जरूरत नहीं है।’ तब तक घरैतिन पनीर के पकौड़े और गर्मागर्म काफी ले आयीं। गुनाहगार ने पकौड़े भकोसते हुए कहा, ‘अब तुम्हें क्या कहूं। अगर मैं स्कूल-कालेज ही गया होता, तो कहीं किसी कालेज या विश्वविद्यालय में प्रोफेसर होता, सांसद-विधायक होता, किसी बैंक का मैनेजर होता। कहने का मतलब यह है कि इनमें से कुछ भी होता, लेकिन पाकेटमार तो नहीं होता। मैंने जिस कालेज में पढ़ाई की है, वहां से मिलने वाली डिग्री और कैरेक्टर सर्टिफिकेट ब्लेड ही होती है। इस बात को अंतरराष्ट्रीय पाकेटमार संघ के लोग भी जानते हैं, लेकिन उन बेवकूफों को कौन समझाए। अब उन्होंने कैरेक्टर सर्टिफिकेट मांगा है, तो देना ही पड़ेगा। जब मैं अध्यक्ष बन जाऊंगा, तो इस नामाकूल नियम को बदलवा कर रहूंगा।’
एकाएक मेरी खोपड़ी में एक आइडिया क्लिक कर गया। मैंने उनकी बांह पर हाथ मारते हुए कहा, ‘गुरु मिल गया आइडिया...आपको कैरेक्टर सर्टिफिकेट चाहिए न। ऐसा करें, भाभी जी या भाभी जी की बहन से कैरेक्टर सर्टिफिकेट ले लें। भला एक बीवी या साली से बेहतर कौन बता सकता है कि उसके पति या जीजा का कैरेक्टर क्या है? मुझे लगता है कि इससे बेहतर और प्रामाणिक सर्टिफिकेट और कोई दूसरा नहीं दे सकता है। इस दुनिया में कोई ऐसा नहीं होगा जो इस सर्टिफिकेट को अमान्य कर सके। उस्ताद! अगर बीवी या साली द्वारा दिया गया सर्टिफिकेट मान्य हो जाए, तो मजा आ जाए। लोग अपनी बीवी या साली की लल्लोचप्पो करते हुए आगे-पीछे घूमेंगे। वाकई...कल्पना कीजिए, कितना मजा आएगा।’ यह बात सुनते ही गुनाहगार गुस्से में ‘मुझसे मसखरी करता है’ कहते हुए मेरी ओर झपटे और मैं ‘बचाओ’ कहता हुआ भागकर घरैतिन के पीछे छिप गया।

Monday, December 6, 2010

दीदी तीन...जीजा पांच

-अशोक मिश्र
आज आपको एक कथा सुनाने का मन हो रहा है। एक गांव में बलभद्दर (बलभद्र) रहते थे। क्या कहा...किस गांव में? आप लोगों की बस यही खराब आदत है...बात पूछेंगे, बात की जड़ पूछेंगे और बात की फुनगी पूछेंगे। तो चलिए, आपको सिलसिलेवार कथा सुनाता हूं। ऐसा हो सके, इसलिए एक पात्र मैं भी बन जाता हूं। ...तो मेरे गांव में एक बलभद्दर रहते थे। अब आप यह मत पूछिएगा कि मेरा गांव कहां है? मेरा गांव कोलकाता में हो सकता है, लखनऊ में हो सकता है, आगरा में हो सकता है, पंजाब के किसी दूर-दराज इलाके में भी हो सकता है। कहने का मतलब यह है कि मेरा गांव हिंदुस्तान के किसी कोने में हो सकता है, अब यह आप पर निर्भर है कि आप इसे कहां का समझते हैं।
तो बात यह हो रही थी कि मेरे गांव में एक बलभद्दर रहते थे। उसी गांव में रहते थे छेदी नाऊ। तब मैं उन्हें इसी नाम से जानता था। उस समय मैं यह भी नहीं जानता था कि ‘छेदी बड़का दादा’ (पिता के बड़े भाई) यदि शहर में होते तो छेदी सविता कहे जाते। उन दिनों जातीयता का विष इस कदर समाज में नहीं व्याप्त था। तब ब्राह्मण, ठाकुर, पासी, कुम्हार, चमार आदि जातियों में जन्म लेने के बावजूद लोग एक सामाजिक रिश्ते में बंधे रहते थे। तो कहने का मतलब यह था कि छेदी जाति के नाऊ होने के बावजूद गांव किसी के भाई थे, तो किसी के चाचा। किसी के मामा, तो किसी के भतीजा। हर व्यक्ति उनसे अपने रिश्ते के अनुसार व्यवहार करता था। छेदी बड़का दादा को तब यह अधिकार था कि वे किसी भी बच्चे को शरारत करते देखकर उसके कान उमेठ सकें। कई बार वे मुझे भी यह कहते हुए दो कंटाप जड़ चुके थे, ‘आने दो पंडित काका को, तुम्हारी शिकायत करता हूं।’ पंडित काका बोले, तो मेरे बाबा जी। हां, तो बात चल रही थी बलभद्दर की और बीच में कूद पड़े छेदी। बात दरअसल यह थी कि एक दिन भांग के नशे में यह कथा छेदी बड़का दादा ने मुझे सुनाई थी। और अब कागभुसुंडि की तरह यह कथा मैं आपको सुना रहा हूं।
हां, तो बात यह थी कि मेरे गांव में एक बलभद्दर रहते थे। उनका एक बेटा था श्याम सुंदर। बाइस साल की उम्र हुई, तो उसे लड़की वाले देखने आये और एक जगह बात तय हो गयी। बात तय होने की देर थी कि बर-बरीच्छा, तिलक आदि कार्यक्रम भी जल्दी-जल्दी निपटा दिए गए। उन दिनों आज की तरह लड़के का कमाऊपन तो देखा नहीं जाता था। बस, लड़के की सामाजिक हैसियत, जमीन-जायदाद और घर का इतिहास देखा जाता था। आज की तरह लड़कियों को दिखाने का भी चलन नहीं था। तो साहब, मेरे गांव में जो बलभद्दर रहते थे, उनके बेटे के विवाह का दिन आ पहुंचा। आप लोगों को शायद यह पता ही हो कि आज से तीन-तीन साढ़े तीन दशक पहले तक शादी-ब्याह, तिलक, मुंडन, जनेऊ आदि जैसे समारोहों में नाऊ की क्या अहमियत होती थी। शादी के दिन सुबह से ही छेदी की खोज होने लगी थी। दूल्हे की मां कई बार चिरौरी कर चुकी थी, ‘भइया छेदी, देखना समधियाने में कोई बात बिगड़ न जाये। मेरा लड़का तो बुद्धू है। तुम जानकार आदमी हो, सज्ञान हो। तुम्ही लाज रखना।’छेदी ने गुड़ का बड़ा सा टुकड़ा मुंह में डालते हुए कहा, ‘काकी, तुम चिंता मत करो। मैं हूं न।’
छेदी बड़का दादा की बुद्धि का लोहा सचमुच लोग मानते थे। अगर पिछले एकाध दशक की बात छोड़ दी जाए, तो पंडित और नाऊ को बड़ा हाजिर जवाब और चतुर माना जाता था। छेदी वाकई थे चतुर सुजान। उनकी बुद्धि की एक मिसाल आपके सामने रखता हूं। उन दिनों मैं लखनऊ में पांचवीं में पढ़ता था। गर्मी की छुट्टियों में गांव जाता था। एक दिन मेरे छोटे भाई के बाल छेदी बड़का दादा काट रहे थे और उनके आगे मैं अपना ज्ञान बघार रहा था, ‘बड़का दादा...आपको मालूम है, सूर्य के चारों ओर पृथ्वी चक्कर लगाती है और पृथ्वी का चक्कर चंद्रमा लगाता है।’
मेरे इतना कहते ही छेदी बड़का दादा खिलखिलाकर हंस पड़े, ‘तुम्हारा पढ़ना-लिखना सब बेकार है। यह बताओ गधेराम...अगर पृथ्वी सूरज महाराज का चक्कर लगाती है, तो हम सब लोगों को मालूम क्यों नहीं होता। अगर ऐसा होता, तो अब तक चलते-चलते हम लोग किसी गड्ढे में गिर गए होते। हमारे घर-दुवार किसी ताल-तलैया में समा गए होते।’
उनकी इस बात का जवाब तब मेरे पास नहीं था। मैं लाख तर्क देता रहा, लेकिन वहां बैठे लोग छेदी नाऊ का ही समर्थन करते रहे। तब सचमुच सापेक्षता का सिद्धांत नहीं जानता था या यों कहो कि ट्रेन में बैठने पर खिड़की से देखने पर पेड़ों के भागने का उदाहरण नहीं सूझा था। खैर...।
बात कुछ इस तरह हो रही थी कि मेरे गांव में जो बलभद्दर रहते थे, उनके बेटे श्याम सुंदर की बारात दो घंटे लेट से ही सही दुल्हन के दरवाजे पहुंच गयी। थोड़े बहुत हो-हल्ला के बाद द्वारपूजा, फेरों आदि का कार्यक्रम भी निपट गया। इस झमेले में दूल्हा और छेदी काफी थक गए थे। लेकिन मजाल है कि छेदी ने दूल्हे का साथ एक पल को भी छोड़ा हो। वैसे भी उन दिनों दूल्हे के साये की तरह लगा रहना नाऊ का परम कर्तव्य माना जाता था। इसका कारण यह है कि तब के दूल्हे ‘चुगद’ हुआ करते थे। ससुराल पहुंचते ही वे साले-सालियों से ‘चांय-चांय’ नहीं किया करते थे। साले-सालियों से खुलते-खुलते दो-तीन साल लग जाते थे। हां, तो आंखें मिचमिचाते छेदी दूल्हे के हमसाया बने उसके आगे-पीछे फिर रहे थे। सुबह के चार बजे हल्ला हुआ, ‘दूल्हे को कोहबर के लिए भेजो।’ यह गुहार सुनते ही छेदी चौंक उठे। थोड़ी देर पहले ही दूल्हे के साथ उन्होंने झपकी ली थी। लेकिन बलभद्दर ने जैसे ही दूल्हे से कहा, ‘भइया, चलो उठो। कोहबर के लिए तुम्हारा बुलावा आया है।’
छेदी ने जमुहाई लेते हुए दूल्हे के सिर पर रखा जाने वाला ‘मौर’ उठा लिया और बोले, ‘श्याम भइया, चलो।’
जनवासे से पालकी में सवार दूल्हे के साथ-साथ पैदल चलते छेदी नाऊ उन्हें समझाते जा रहे थे, ‘भइया, शरमाना नहीं। सालियां हंसी-ठिठोली करेंगी, तो उन्हें कर्रा जवाब देना। अपने गांव-जंवार की नाक नहीं कटनी चाहिए। लोग यह न समझें कि दूल्हा बुद्धू है।’
पालकी में घबराये से दूल्हे राजा बार-बार यही पूछ रहे थे, ‘कोहबर में क्या होता है, छेदी भाई। तुम तो अब तक न जाने कितने दूल्हों को कोहबर में पहुंचा चुके हो। तुम्हें तो कोहबर का राई-रत्ती मालूम होगा।’
‘कुछ खास नहीं होता, भइया। हिम्मत रखो और कर्रे से जवाब दो। तो सालियां किनारे नहीं आयेंगी।’ छेदी दूल्हे को सांत्वना दे रहे थे। तब तक पालकी दरवाजे तक पहुंच चुकी थी। पालकी से उतरकर दूल्हा सीधा कोहबर में चला गया और छेदी कोहबर वाले कमरे के दरवाजे पर आ डटे। घंटा भर लगा कोहबर के कार्यक्रम से निपटने में। इसके बाद दूल्हे को एक बड़े से कमरे में बिठा दिया गया। रिश्ते-नाते सहित गांव भर की महिलाएं और लड़कियां दूल्हे के इर्द-गिर्द आकर बैठ गयीं। लड़कियां हंस-हंसकर दूल्हे से चुहुल कर रही थीं। उनके नैन बाणों से श्याम सुंदर लहूलुहान हो रहे थे। कुछ प्रौढ़ महिलाएं लड़कियों की शरारत पर मंद-मंद मुस्कुरा रही थीं। तभी एक प्रौढ़ महिला ने दूल्हे से पूछा, ‘भइया, तुम्हारे खेती कितनी है?’
सवाल सुनकर भी दूल्हा तो सालियों के नैन में उलझा रहा लेकिन छेदी नाऊ सतर्क हो गए। उन्हें याद आया कि चलते समय काका ने कहा था, बेटा बढ़ा-चढ़ाकर बताना। सो, उन्होंने झट से कहा, ‘ बयालिस बीघे....’ दूल्हा यह सुनकर प्रसन्न हो गया। मन ही मन बोला, ‘जियो पट्ठे! तूने गांव की इज्जत रख ली।’
इसके बाद दूसरी महिला ने बात आगे बढ़ाई, ‘दूल्हे के चाचा-ताऊ कितने हैं?’रेडीमेड जवाब तैयार था छेदी नाऊ के पास, ‘वैसे चाचा तो दो हैं, लेकिन चाचियां चार।’
यह जवाब भी सुनकर दूल्हा मगन रहा। वह अपनी सबसे छोटी साली को नजर भरकर देखने के बाद फिर मन ही मन बोला, ‘जियो छेदी भाई...क्या तीर मारा है।’
पहली वाली महिला ने ब्रह्मास्त्र चलाया, ‘और बुआ?’
छेदी ने एक बार फिर तुक्का भिड़ाया, ‘बुआ तो दो हैं, लेकिन फूफा साढ़े चार।’ यह सवाल सुनते ही दूल्हा कुनमुना उठा। दूल्हे ने अपना ध्यान चल रहे वार्तालाप पर केंद्रित किया और निगाहों ही निगाहों में उसे उलाहना दी, ‘अबे क्या बक रहा है?’ लेकिन बात पिता के बहिन की थी, सो उसने सिर्फ उलाहने से ही काम चला लिया। तभी छेदी बड़का दादा भी सवाल दाग बैठे, ‘और भउजी के कितनी बहिनी हैं?’
वहां मौजूद महिलाएं चौंक गयीं। एक सुमुखी और गौरांगी चंचला ने मचलते हुए पूछ लिया, ‘कौन भउजी?’
छेदी के श्यामवर्ण मुख पर श्वेत दंतावलि चमक उठी, ‘अपने श्याम सुंदर भइया की मेहरारू...हमार भउजी...।’ इस बार दूल्हे ने प्रशंसात्मक नजरों से छेदी को देखा। दोनों में नजर मिलते ही छेदी की छाती गर्व से फूल गयी, मानो कह रहे हों, ‘देखा...किस तरह इन लोगों को लपेटे में लिया।’
सुमुखी गौरांगी चंचला ने इठलाते हुए कहा, ‘चार...जिसमें से एक की ही शादी हुई है...तुम्हारे भइया के साथ।’
तभी एक दूसरी श्यामवर्णी बाला ने नाखून कुतरते हुए पूछ लिया,‘जीजा जी के कितनी बहिनी हैं।’
छेदी के मुंह से एकाएक निकला, ‘दीदी तो तीन, लेकिन जीजा पांच।’ इधर छेदी के मुंह से यह वाक्य पूरा भी नहीं हो पाया था कि दूल्हा यानी श्याम सुंदर अपनी जगह से उछला और छेदी पर पिल पड़ा, ‘तेरी तो...’ इसके बाद क्या हुआ होगा। इसकी आप ही कल्पना कर सकते हैं। मुझे इसके बारे में कुछ नहीं कहना है, कोई टिप्पणी नहीं करनी है। हां, मुझे छेदी बड़का दादा का यह समीकरण न तो उस समय समझ में आया था और न अब समझ में आया है। अगर आप में से कोई इस समीकरण को सुलझा सके तो कृपा करके मुझे भी बताए कि जब श्याम सुंदर के दीदी तीन थीं, तो जीजा पांच कैसे हो सकते हैं।

Sunday, December 5, 2010

अपना डेथ सर्टिफिकेट

-अशोक मिश्र
नगर निगम के जन्म-मृत्यु प्रमाण पत्र के कार्यालय में पहुंचकर उस्ताद मुजरिम ने एक बाबू से पूछा, ‘सर, क्या आप बता सकेंगे कि यह मृत्यु प्रमाण पत्र कहां बनता है?’ बाबू ने बिना सिर उठाये जबाब दिया,‘कामता बाबू से जाकर मिलो। ऐसे घटिया काम वही देखते हैं। उनकी पैदाइश ही ऐसे घटिया कामों के लिए हुई है।’मुजरिम ने मासूम सा सवाल किया ,‘सर जी! ये आपके कामता बाबू कहां मिलेंगे? यह आप मुझे बताने की कृपा करेंगे।’मुजरिम ने यह सवाल क्या किया मानो उस बाबू की कुर्सी के नीचे हाईड्रोजन बम रख दिया हो। उस बाबू ने पहली बार अपना सिर झटके से उठाया और झल्लाकर कहा,‘मेरे सिर पर! आपको कामता बाबू के बैठने का स्थान बताने के लिए सरकार ने मुझे यहां नहीं बैठा रखा है। जिस तरह से आपने मुझे ढूंढ़ लिया, उसी तरह कामता बाबू को भी खोज लीजिए। और अब आप जाइए, मेरा भेजा मत खाइए। पता नहीं कहां से चले आते हैं, लोग मेरा सिर चाटने। भगवान की फैक्ट्री में अब भी ऐसे लोग बनाये जाते हैं, यह तो मुझे पता ही नहीं था। भगवान जाने...इस देश का क्या होगा?’क्लर्क के जवाब से आहत मुजरिम ने चारों तरफ नजर दौड़ाई और एक चपरासीनुमा जीव को किनारे बैठा देखकर उनकी आंखों में चमक आ गयी। वे उसकी ओर उसी तरह लपके, जैसे कभी सुदामा को देखकर श्रीकृष्ण लपके होंगे। उन्होंने चपरासी के पास जाकर पचास का पत्ता उसे थमाया, तो उसने उन्हें ले जाकर कामता बाबू के पास खड़ा कर दिया। वैसे भी हिंदुस्तान में गांधीवादी दर्शन की कोई उपयोगिता हो या न हो, लेकिन गांधी छाप रुपये की उपयोगिता सर्वसिद्ध है। यह कश्मीर से लेकर कन्या कुमारी तक समान रूप से पहचाना और अपनाया जाता है। पचास का पत्ता देखते ही चपरासी की आंखों में जो चमक उभरी थी, वह इसी बात का प्रमाण है। मुजरिम को देखकर कामता बाबू ने अपने दायें हाथ की अंगुलियां चटकाई और बोले ,‘हां बताइए , आपका क्या काम है?’ इसके बाद इस तरह जमुहाई लेने लगे मानो रात भर जागने के बाद सीधे दफ्तर चले आये हों। उन्होंने पास बैठे सीनियर क्लर्क विशंभर नाथ से कहा, ‘बड़े बाबू, कुछ सुर्ती-वुर्ती खिलाएंगे या नहीं। बड़ी सुस्ती सी आ रही है।’ इसके बाद उनका ‘सुर्ती पुराण’ चालू हो गया। वे बताने लगे कि उनके गांव में तंबाकू खूब बोया जाता है। उस तंबाकू को एक बार खाने के बाद व्यक्ति जिंदगी भर वही खोजता फिरता है। वे बड़े गर्व से बता रहे थे कि उनके गांव की सुर्ती को को खरीदने कांधार से व्यापारी आते हैं। उनके खेत में उपजी तंबाकू के दीवाने तो रूस के पूर्व राष्ट्रपति रहे ब्रेझनेव तक रहे। उनके पिता जी जब तक जिंदा रहे, पूर्व राष्ट्रपति ब्रेझनेव को तंबाकू उपहार में भेजते रहे।मुजरिम ने अपने आने का मकसद बताया, तो कामता बाबू ने एक फार्म निकाला और बोले,‘यह फार्म भर लाइए। चालीस रुपये के साथ ‘सेवा पानी’ जमा कर दीजिए। दो दिन में आपका काम हो जाएगा।’ इसके बाद वे फिर बड़े बाबू से बात करने लगे। कामता बाबू की बातों पर बड़े बाबू सिर्फ ‘हूं-हां’ करते जा रहे थे, लेकिन उनका ध्यान कहीं और था। वे अपने चश्मे से सामने बैठी मिस कविता को प्यार भरी नजरों से घूर रहे थे। मिस कविता भी तिरछी नजरों से पहले बड़े बाबू को देखतीं और मुस्कुराकर अपने सामने बैठे अभी कुछ ही दिन पहले भर्ती हुए जूनियर क्लर्क को देखने लगतीं। कामता बाबू इस नैन व्यापार से अप्रभावित अपने ‘सुर्ती पुराण’ में लगे हुए थे। उन्हें अपनी बात कहने के सिवा न बड़े बाबू से कुछ लेना-देना था, न ही मिस कविता या जूनियर क्लर्क से।थोड़ी देर बाद फार्म भरकर मुजरिम कामता बाबू के हुजूर में पेश हुए। कामता के ‘सुर्ती पुराण’ में बाधा पड़ी, तो वे तिलमिला उठे। उन्होंने बड़ी मुश्किल से अपने क्रोध को काबू में किया और नाक पर चश्मा चढ़ाते हुए कहा, ‘मुजरिम आपके क्या लगते थे? उनकी कब मौत हुई थी? ग्राम प्रधान या सरकारी अस्पताल के डॉक्टर का प्रमाण-पत्र लाए हैं? अगर न लाए हो, तो अभी मौका है, घर जाकर ले आओ। आज न ला सको, तो कल-परसों ले आना। लेकिन फार्म जमा करने के साथ यह सब कुछ जरूरी है। इसके बिना फार्म रिजेक्ट हो जाएगा, तो मुझे दोष देते फिरोगे।’मुजरिम ने घिघियाते हुए कहा, ‘बड़े बाबू...मुजरिम मेरा ही नाम है और खुदा के फजल से मैं अभी तक जिंदा हूं।’मुजरिम की बात सुनकर कामताबाबू इस कदर चौंक पड़े कि उनका चश्मा टेबल पर गिर पड़ा। उन्होंने चश्मा उठाकर नाक पर टिकाते हुए कहा, ‘क्या....आप अपना मृत्यु प्रमाण-पत्र बनवाने आए हैं? शर्म नहीं आती आपको सरकारी कर्मचारियों से आन ड्यूटी मजाक करते हुए। अगर मैं शिकायत कर दूँ, तो आप गए बिना भाव के। सरकारी मुलाजिमों से मजाक करना क्या इतना आसान है? आपको अंदाज नहीं है कि ऐसा करने पर क्या सजा हो सकती है।’मुजरिम ने बेचारगी अख्तिायार करते हुए कहा, ‘वो क्या है कि बड़े बाबू! सरकारी कामकाज कितना फास्ट होता है, मैं जानता हूं। इसलिए सोचा कि मैं अपनी मृत्यु प्रमाण-पत्र के लिए अभी से अप्लीकेशन दे दूँ । बहुत जल्दी काम हुआ, तो दस-पांच साल में बन ही जाएगा। तब तक मैं भी खुदा के फजल से टपक ही जाऊंगा। पैसठ साल की उम्र हो गयी है। बाद में अगर मृत्यु प्रमाण पत्र बन गया, तो मेरे बच्चे आकर ले जाएंगे।’ मुजरिम का जबाब सुनकर कामता बाबू उन्हें ताकते ही रह गये।
(व्यंग्य संग्रह ‘हाय राम!...लोकतंत्र मर गया’ से)