Saturday, February 28, 2015

यमलोक में होलिकोत्सव की धूम

-अशोक मिश्र
यमलोक में होलिकोत्सव बड़ी धूमधाम से मनाया जा रहा था। यमराज हाथों में रंग, अबीर-गुलाल आदि लिए स्वर्गलोक से स्पेशल विजिट पर आईं रंभा, मेनका, उर्वशी सहित अन्य अप्सराओं से घिरे होली खेल रहे थे। यमलोक में रहने वाले देव, गंर्धव, अप्सराएं सभी एक दूसरे को रंगने और हंसी-ठिठोली करने में व्यस्त थे। यमलोक की चर्चित डीजे कंपनी स्वर्णमंच पर अपना आइटम सांग पेश कर रही थी। कहने का मतलब सुरा और सुंदरी का अद्भुत संगम यमलोक में देखने को मिल रहा था। बस, यमराज का सदियों पुराना वाहन बेचारा भैंसा एक कोने में खड़ा यह हुड़दंग होते देख रहा था। वह होली खेलता भी, तो किससे..यमलोक में किसी दूसरी भैंस या भैंसे की नियुक्ति हुई ही नहीं थी। तभी मेरी आत्मा को यमदूत ने यमराज के समक्ष पेश किया। माइक्रो गारमेंट पहने देवी रंभा के कपोलों पर मोहक अंदाज में रंग लगाने को बढ़े यमराज मेरी आत्मा को देखते ही ठिठक गए। डीजे की धुन पर थिरक रही अप्सराओं के कदम थम गए। आमोद-प्रमोद में व्यवधान पडऩे से यमराज गुर्राए, 'कौन है यहा गुस्ताख आत्मा? इसे यहां पेश करने की गुस्ताखी किसने की है? जानता नहीं..हम होलिकोत्सव मना रहे हैं।Ó
मेरी आत्मा को मर्त्यलोक  से लाने वाला यमदूत कांपती आवाज में बोला, 'क्षमा देव..क्षमा..यह मर्त्यलोक के एक मामूली व्यंग्यकार की आत्मा है। महाराज..इसका दावा है कि आज इसकी मृत्यु नहीं हुई है। दूसरे की बजाय उसे पकड़कर यहां लाया गया है। रास्ते भर यह मुझसे झगड़ता आया है।Ó 
यमदूत की बात सुनते ही यमराज ने रंभा पर गुलाल फेंका और थाली सामने खड़े सेवक को थमा दी, 'अबे व्यंग्यकार की दुम!...तुम कैसे कह सकते हो कि तुम्हारी आज मौत नहीं हुई है?Ó मैंने (मतलब मेरी आत्मा ने) व्यंग्यात्मक लहजे में कहा, 'जासूसी कराकर... महाराज...जासूसी कराकर। मर्त्यलोक  में ही एक विभाग से दूसरे विभाग, एक कंपनी से दूसरी कंपनी की जासूसी नहीं होती। यमलोक से लेकर स्वर्ग लोक तक, ब्रह्म लोक से लेकर पाताल लोक और क्षीर सागर तक हम पृथ्वीवासियों के पेड एजेंट्स मौजूद हैं। हमारे देश के नेताओं, ब्यूरोक्रेट्स और उद्योगपतियों ने सब जगह अपने टांके फिट कर रखे हैं। मेरा एक दोस्त इनकमटैक्स डिपार्टमेंट में अफसर है। उसका एक लिंक यमलोक में भी है, महाराज! उसी दोस्त की मार्फत मैंने पता लगाया था, अभी मेरी जिंदगी के बाइस साल चार महीने पांच दिन चौदह घंटे बाकी हैं। महाराज...मुझे तो यहां तक मालूम है कि पिछली बार जब आप एक फेमस फिल्मी विलेन के प्राण हरने गए थे, तो उससे सेंटिंग-गेटिंग करके उसके पड़ोसी के प्राण हर लाए थे। बदले में आपके 'यमखातेÓ में सत्ताइस करोड़ डॉलर जमा कराए गए थे।Ó
मेरे मुंह से बात क्या निकली, वहां उपस्थित लोगों में खुसर-पुसर शुरू हो गई। यमराज के परमानेंट वाहन भैंसे के चेहरे पर हवाइयां उडऩे लगीं। होलिकोत्सव में मदहोश हो रहे स्त्री-पुरुष मेरे इर्द-गिर्द घेरा बनाकर खड़े हो गए। यमराज गरजे, 'क्या बकते हो व्यंग्यकार! तुम चुप रहो, वरना रौरव नरक में भिजवा दूंगा।Ó मुझे भी व्यंग्यकार वाला ताव आ गया। मैंने कहा, 'बकता नहीं हूं, महाराज! मैं एक मामूली व्यंग्यकार सही, लेकिन अब तक की जिंदगी में टेढ़ा ही रहा हूं। बात कितनी भी सीधी क्यों न रही हो, मैंने उसे टेढ़े में ही समझा। बस, अपनी घरैतिन के सामने टेढ़े होने की हिम्मत नहीं जुटा पाया क्योंकि वह मुझसे भी ज्यादा टेढ़ी है। अब आपको बताऊं?....आपने यह जो बीस किलो का मुकुट पहन रखा है, उसमें लगा सोना किसके पैसे से आया है?Ó 
तभी मेरी निगाह यमराज के उस सूट पर गई, जिसे पहनकर वे एकदम मोदियाये से लग रहे थे। मेरे चेहरे पर कुटिल मुस्कान दौड़ गई, 'अरे..! यह सूट यहां आ गया? हद हो गई महाराज...आप महाराज यम हैं...आपके नाम से पूरी दुनिया कांपती है। आप जिसके भी सामने खड़े हो जाते हैं, उसकी घिग्घी बंध जाती है और अब आपकी यह हालत हो गई है कि किसी की उतरन पहनें...। उस नीलामी में आप भी थे क्या...या उस बेचारे को जिसने यह सूट खरीदा था, उसे करोड़ों का चूना लगाकर चुरा लाए हैं?Ó 
मैं कुछ कहता कि इससे पहले यमराज चिल्लाए, 'बस..बस..आगे कुछ बोला, तो मुझसे बुरा कुछ नहीं होगा। चुप रह..इस बार होलिकोत्सव यमलोक में ही मना ले..कल तुझे मर्त्यलोक  में पहुंचा दिया जाएगा। गलत आत्मा लाने के जुरमाने के तौर पर तुझे दस साल की जिंदगी और दी जाती है। फिलहाल तो मेरे बाप! तुझे इन अप्सराओं में से जो भी पसंद हो, उसको चुन ले...उसके मौज कर...होली खेल..रंग लगा..रंग लगवा..।Ó यह सुनते ही मैंने उर्वशी का हाथ पकड़ा और पास में रखी थाली में से रंग उठाया और उर्वशी के कोमल गालों पर मलने लगा। तभी यमलोक के हुरिहारे और डीजेवाले गा उठे, 'नकबेसर कागा लै भागा..मोरा सैंया अभागा न जागा..उडि़ कागा मेरे नथुनी पै बैठा..नथुनी कै रस लै भागा..मोरा सैंया..।Ó 
एक तो होली का त्योहार, ऊपर से उर्वशी जैसी अनिंद्य सुंदरी का साहचर्य..मेरे मन की तरह हाथ भी बहकने लगे। तभी मेरी पीठ पर एक दोहत्थड़ पड़ा और मैं मुंह के बल गिर पड़ा। पीछे से घरैतिन की आवाज आई, 'तू..जिंदगी भर छिछोरा रहा...पड़ोसिनों से लेकर मेरी बहनों-सहेलियों को लाइन मारता रहा। मरने पर भी तेरा छिछोरापन गया नहीं..तू क्या समझता है, मरने के बाद तुझे मौज-मस्ती करने की छूट मिल गई?...अरे मेरा-तेरा बंधन सात जन्मों का है। अभी तो यह पहले जन्म का ही बंधन छूटा है। छह जन्म तो बाकी हैं।Ó इतना कहकर घरैतिन ने यमराज का गदा उठाकर मुझे निशाना बनाकर फेंका। गदे के वार से बचने की कोशिश में मैंने सिर झटक दिया। पर यह क्या...यमलोक में यह दीवार कहां से आ गई। मेरा सिर दीवार से कैसे टकरा गया। ओह..अब समझा..आप समझे कि नहीं..सपने में गदे के वार से बचने के लिए जो सिर झटका था, वह दीवार से टकराया था। सिर पर बन आए गूमड़ को सहलाता हुआ मैं उठ बैठा। तभी मुट्ठी भर रंग मेरे बालों और गालों पर लगाती हुई घरैतिन ने कहा, 'होली मुबारक हो।Ó और मैं अपनी मर्त्यलोक  वाली ऊर्वशी से होली खेलने लगा।

फाल्गुन मायने 'जवानी है दिवानी'

अशोक मिश्र
मुंबई के वर्ली इलाके में 'एआईबी रोस्ट' शो का दूसरा एपीसोड फिल्माया जा रहा था। मैंं लोगों को धकियाकर अंदर जाने की कोशिश कर ही रहा था कि वहां तैनात मार्शलों ने यह कहते हुए रोक दिया, 'बच्चों और बूढ़ों के प्रवेश की अनुमति नहीं है।' मैंने उसे लाख समझाया कि मैं दिखता भले ही 45-46 साल का हूं, लेकिन यकीन मानो अभी कुछ ही दिन पहले जवान हुआ हूं। इधर मैं 'एआईबी रोस्ट' कार्यक्रम देखने पर आमादा था, तो उधर मार्शल मुझे हर हालत में अंदर घुसने से रोकने पर। तकरीबन दो घंटे की जद्दोजहद के बाद भी कोई नतीजा नहीं निकला। मैंने निराश हो चला था, तभी दीपिका पादुकोण अंदर से निकलती दिखाई दीं। मैं लपककर उनके पास पहुंचा। उनसे संक्षिप्त इंटरव्यू की मांग की, तो उन्होंने इधर-उधर देखा और बोलीं, 'अच्छा चलो..सोनू टी स्टाल पर बैठकर बातचीत करते हैं।' पेश है उनसे हुई होलिकाना बातचीत के कुछ अंश।
यह 'एआईबी' क्या बला है? इसकी तो पूरे देश में धूम मचा हुई है। एआईबी शब्द का उच्चारण करते ही युवाओं के दिल धड़कने-फड़कने लगते हैं, वहीं बूढ़ों के दिल खड़कने लगते हैं। ऐसा क्यों? 
बगलोल...आल इंडिया बगलोल..यही फुलफार्म है एआईबी का। जिनके दिल हमारी बगलोलियत पर धड़क रहे हैं, फड़क रहे हैं, इसका मतलब है कि वे अभी जवान हैं। जवान ही बगलोल होता है। जो बगलोल नहीं है, वह जवान नहीं है, वह जिंदा नहीं है। और जो जिंदा नहीं है, उसकी बातों पर हम फिल्म इंडस्ट्री वाले ध्यान ही नहीं देते हैं।
फिर एआईबी के साथ 'रोस्ट' शब्द जोडऩे की क्या जरूरत आ पड़ी थी? पूरे कार्यक्रम का नाम तो 'एआईबी रोस्ट' था?
(हंसती हुई)..अब आपको रोस्ट शब्द का अर्थ भी बताना पड़ेगा? रोस्ट का मतलब होता है भुना हुआ। फाल्गुन में जितने लोग जवान होते हैं, वे मस्तियां करते हैं, अपने सहेलियों-सहेलाओं के साथ पप्पियां-जफ्फियां पाते हैं। एक दूसरे से छेड़छाड़ करते हैं। जो जवान नहीं होते, वे जवान होने की कोशिश करते हैं। जो इस कोशिश में भी फेल हो जाते हैं, वे जवानों को मस्ती करते देखकर जलते-भुनते रहते हैं। ऐसे ही लोगों को जलाने-भुनाने के लिए शो का नाम 'एआईबी रोस्ट' रखा गया यानी जो इस फाल्गुन में मस्ती नहीं कर सकता, वह या तो अपने आप जलता-भुनता रहे, वरना हम उसे जलाते-भुनाते रहेंगे।
लेकिन एआईबी रोस्ट शो में ऐसा हुआ क्या था जिसको लेकर जवान तो मगन हैं ही, बूढ़े भी 'फागुन में देवर लगने वाले बाबाओं' की तरह भकुआए घूम रहे हैं?
-कुछ नहीं जी..कुछ नहीं....बस धर्म-कर्म की बातें हो रही थीं। करन सर, अर्जुन कपूर और रणवीर सिंह हम सभी को..आई मीन..मुझे, आलिया को.. हम जैसी हजारों गल्र्स को.. हमारे धर्म के बारे में समझा रहे थे। वह यह बताने की कोशिश कर रहे थे कि हमारा धर्म क्या है? हमारे कर्म क्या हैं? इसको कैसे निभाया जा सकता है?
धर्म-कर्म की बातों पर इतना हो हल्ला कि देश में कई जगहों पर एफआईआर भी दर्ज हो गया आप लोगों के खिलाफ? बात कुछ हजम नहीं हुई?
(कुछ गुस्से में) आप तो पूरे बगलोल लगते हैं। आप कहां थे अब तक? अगर पहले मिल जाते तो आपको ही आल इंडिया बगलोल रोस्ट का चीफ गेस्ट बना देते। अरे..आप इतना भी नहीं समझते? इस समय मैं क्या हूं?
(सकपकाते हुए) आप हीरोइन हैं? हमारे जैसे युवाओं के दिलों की धड़कन हैं।
हीरोइन तो हम बाद में हैं। जवान मैं पहले हूं। जवानों का धर्म क्या है? जवानों का मौलिक धर्म है, मौज-मस्ती करना। यौवन का आनंद उठाना। और फिर फाल्गुन के महीने में तो वैसे ही बदन टूटता है, एक खुमारी-सी छाई रहती है। जी करता है कि कहीं से कोई रोड रोलर आए और हमें पीस दे, ताकि इस निगोड़े बदन दर्द से छुटकारा मिल जाए। ऐसे में जो युवाओं का धर्म और कर्म है, वही हम सब 'आल इंडिया बगलोल रोस्ट' में कर रहे थे, समझ रहे थे। और फिर फाल्गुन का मतलब ही है कि जवानी है दिवानी। अब समझे कि नहीं, हम सभी युवा धर्म-कर्म की ही बातें कर रहे थे।
चलिए, धूल डालिए..आल इंडिया बगलोल रोस्ट पर। बात करते हैं फिल्म 'ये जवानी है दिवानी' के एक गीत की। 'हां जींस पहन के जो तूने मारा ठुमका, तो लट्टू पड़ोसन की भाभी हो गई' गीत की इस लाइन का अर्थ मेरी समझ में नहीं आया कि जींस पहनकर ठुमका मारते ही लट्टू पड़ोसन की भाभी कैसे हो गई?
(कुछ देर सोचने के बाद) देखो, इस गीत के मुताबिक, सीन में दो नायिकाएं हैं। इन दोनों नायिकाओं के घर के बीचोबीच नायक का घर है। ये दोनों नायिकाएं आपस में सहेलियां भी हैं और दोनों नायक को प्यार करती हैं। यहां लट्टू शब्द द्विअर्थी है। एक अर्थ के हिसाब से लट्टू नायिका का नाम ठहरता है, दूसरे अर्थ में दोनों नायिकाओं के नायक पर लट्टू (मोहित होने) का भाव दर्शाता है। अब इस पंक्ति का अर्थ ऐसे बनता है। किसी समारोह में नायिका लट्टू ने जींस पहनकर नायक के सामने ठुमका मारा, तो नायक ने तत्काल नायिका लट्टू से विवाह कर लिया। चूंकि दूसरी नायिका समाज को दिखाने के लिए नायक को भाई साहब कहती थी, इसलिए जब नायिका लट्टू और नायक का विवाह हो गया, तो नायिका लट्टू अपनी सहेली और नायक की पड़ोसन प्रेमिका की भाभी हुई कि नहीं।
आप इस बार होली कैसे मनाएंगी? कुछ बताइए हमें भी?
हां...राखी सांवत से होली पर छेड़छाड़ के टिप्स ले रही हंू। सनी लियोन और मल्लिका सहरावत की क्लास भी अटेंड कर रही हूं। इस बार धर्मेंद्र पाजी, बिग बी यानी अमिताभ बच्चन जी, मिथुन दा और कपिल शर्मा के विशेष रूप से रंगने का इरादा है। रणवीर सिंह और अर्जुन सिंह इसमें विशेष रूप से मदद करेंगे।
(इतना कहकर दीपिका पादुकोण उठी और अपनी गाड़ी पर बैठकर फुर्र हो गईं।)

घरैतिन का कैजुअल लीव

अशोक मिश्र 
मैं जैसे ही आफिस से घर पहुंचा, चाय की प्याली के साथ एक कागज थमाकर घरैतिन फिर किचन में घुस गईं। मैंने चाय की प्याली उठाई और चुस्कियां लेकर पीने लगा। थोड़ी देर बाद मेरी निगाह उस कागज पर गई, तो उत्सुकतावश मैंने उसे उठा लिया। उसे पढ़ते ही मेरे अवसान ढीले हो गए। मैं बौखलाकर चिल्लाया, 'अमां यार घरैतिन! यह क्या है?Ó घरैतिन ने किचन से ही ऊंचे सुर में जवाब दिया, 'लीव अप्लीकेशन..आपको पढऩा नहीं आता है क्या? पढ़ लीजिए, मैंने कारण भी लिखा है।Ó मैं उस कागज को लेकर किचन के दरवाजे पर खड़ा हो गया, 'अमां यार..यह क्या बात हुई..और फिर..तुम कोई कांग्रेस की उपाध्यक्ष हो कि जब चाहे छुट्टी ले लो..अज्ञातवास में चली जाओ? कोई छुट्टी-वुट्टी नहीं मिलेगी...समझी!Ó
मेरी बात सुनकर घरैतिन हंस पड़ी, 'परिवार के माननीय अध्यक्ष और मेरे पतिदेव जी...मैंने आपसे छुट्टी मांगी नहीं है। बस आपको सूचित किया है, ताकि कल आपसे कोई पूछे कि आपकी पत्नी कहां है, तो आप उसको जवाब दे सकें।Ó 'लेकिन यह क्या..होली के मौके पर आपको छुट्टी पर जाने की क्या सूझी? आप बाद में भी जा सकती थीं..मेरे बच्चों की अम्मा..आप क्यों मेरी मिट्टी पलीद करने पर तुली हुई हैं? कल होली है..आज शाम तक मेरी सालियां-सलहजें, भाई-भाभी और भतीजे-भतीजियां आने वाले हैं, ऐसे संकट के समय आपका छुट्टी पर जाना कहां तक उचित है?Ó अब मैं अपनी सारी हेकड़ी भूल चुका था। मुझे लगा कि इस समय झुक लेने में ही भलाई है। वैसे भी जीवन भर झुकना पति की नियति में ही होता है। अंग्रेज शायद इन मामलों में हमसे ज्यादा समझदार थे, तभी तो उन्होंने अंग्रेजी में पति के लिए शब्द गढ़ा 'हसबैंडÓ यानी वह बैंड जो हंसकर बजे।
घरैतिन विपक्षी दलों के नेताओं की तरह व्यंग्यात्मक ढंग से मुस्कुराईं, 'मेरी मांगों पर जब केंद्र सरकार की तरह हीलाहवाली करते रहे, तो मुझे भी अन्ना हजारे बनने पर मजबूर होना पड़ा। देश के युवराज तो बिना बताए गायब हो गए, मैं तो बाकायदा सूचित करके छुट्टी पर जा रही हूं। और सुनिए, यह जो चाय आप पी रहे हैं, वह मेरे छुट्टी पर जाने से पहले की है। अब आप समझिए कि मैं हूं ही नहीं। इसलिए..बराय मेहरबानी..खाने-पीने से लेकर कपड़े-लत्ते तक का इंतजाम खुद कीजिए।Ó घरैतिन के तेवर देखते हुए मैंने हथियार रख देने में ही भलाई समझी। इस पर वे बोलीं, 'तो मैं यह मान लूं कि शाम तक बनारसी साड़ी मेरे सामने होगी। मेरी बहनों और भाभियों से ज्यादा छेड़छाड़ नहीं करेंगे, दूर से ही उन पर रंग और गुलाल डालेंगे। पिछले साल की तरह छिछोरी हरकतें नहीं करेंगे। पड़ोसन छबीली के साथ होली नहीं खेलेंगे। अपनी भाभी से बहुत ज्यादा लप्पो-झप्पो नहीं करेंगे।Ó घरैतिन की सालियों-सलहजों और भाभी के संबंध में लगाए गए प्रतिबंध पर मुझे ताव आ गया, 'अरे यार..होली पर इनके साथ हुड़दंग नहीं करूंगा, मस्ती नहीं करूंगा, तो क्या बैठकर मजीरा बजाऊंगा। बस..बहुत हो चुका..तुम्हें छुट्टी पर जाना है, तो जाओ। मैं तुम्हारी छुट्टी मंजूर करता हंू।Ó इतना कहकर मैं घर के बाहर आ गया।

Sunday, February 22, 2015

मोदी के खिलाफ गरजेंगे अन्ना

आंदोलनों से तपे-तपाये नेताओं की फौज है अन्ना के साथ

अशोक मिश्र 
दिल्ली एक बार फिर दो दिन के लिए अन्नामय होने जा रही है। लगभग दो साल बाद फिर से प्रसिद्ध गांधीवादी नेता अन्ना हजारे दिल्ली में हुंकार भरेंगे। पिछली बार दिल्ली में जब अन्ना हजारे अनशन-आंदोलन कर रहे थे, तब निशाने पर थे तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और उनकी सरकार। तब भाजपा और योग गुरु रामदेव जैसे लोग प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से अन्ना के बगलगीर थे। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और भाजपा की मुख्यमंत्री पद की उम्मीदवार होते हुए दिल्ली चुनाव में हार चुकी किरन बेदी अन्ना के दायें-बायें हाथ की भूमिका में थे। अनशन और आंदोलन का सारा दारोमदार इन्हीं लोगों पर था। लेकिन अब जब अन्ना एक बार फिर केंद्र सरकार द्वारा लाए गए भूमि अधिग्रहण अध्यादेश और कालेधन की वापसी, लोकपाल बिल जैसे मुद्दे पर गर्जना करने जा रहे हैं, तो सारे समीकरण बदल चुके हैं। किरण बेदी उस पार्टी की नेता हो चुकी हैं जिनके खिलाफ अन्ना बिगुल फूंकने जा रहे हैं। कभी राजनीतिक दलों को चोर और भ्रष्ट बताने वाले अरविंद केजरीवाल आम आदमी पार्टी बनाकर दिल्ली की सत्ता पर काबिज हो चुके हैं। वीके सिंह, संतोष भारतीय, कुमार विश्वास जैसे लोग या तो इस खेमे में हैं या उस खेमे में, लेकिन अन्ना हजारे के साथ कोई नहीं है।
अभी अन्ना हजारे हरियाणा में गरज रहे हैं। दो दिन बाद वे दिल्ली में होंगे। लेकिन उनके हुंकार में कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे दिल्ली में हैं या किसी दूसरे राज्य में। उनकी ²ष्टि और समझ एकदम साफ है। हरियाणा के पलवल में भूमि अधिकार चेतावनी सत्याग्रह पदयात्रा को रवाना करते हुए उन्होंने बिना किसी लाग-लपेट के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर सीधा हमला बोल रहे हैं, उन्हें चुनौती देते हुए कह रहे  हैं कि मोदी गरीबों और किसानों के बारे में नहीं, सिर्फ उद्योगपतियों के बारे में सोचते हैं। जब केंद्र की सरकार बनी तो कहा गया कि अच्छे दिन आ गए, लेकिन हकीकत में अच्छे दिन पैसे वालों के लिए आए हैं। गरीबों के लिए नहीं। सरकार किसानों की जमीन को उद्योगपतियों को देने की योजना बना रही है। मतलब साफ है कि इस बार भी अन्ना हजारे को छोटे-मोटे आश्वासन देकर बहलाया नहीं जा सकेगा। उनकी जितनी भी और जैसी भी ताकत है, वे भाजपा सरकार को कठघरे में खड़ा करने की हर संभव कोशिश करेंगे। इस बार भी उनके साथ एनजीओज के ही लोग खड़े हैं। ये चेहरे नए नहीं हैं। हां, इससे पहले हुए अनशन-आंदोलन के समय ये लोग अग्रपंक्ति में इसलिए नहीं थे क्योंकि अन्ना टीम की अग्रपंक्ति में खड़े अरविंद केजरीवाल, किरन बेदी, वीके सिंह जैसे लोगों ने इन्हें आगे आने नहीं दिया था। इस बार भी उनके पुराने साथी आगे बढ़कर झंडा थामने की कोशिश में थे, लेकिन अन्ना साफ कह चुके हैं कि ऐसे लोगों को मंच पर स्थान नहीं दिया जाएगा। भीड़ में शामिल होना चाहते हैं ये लोग, तो उनका स्वागत है।
इस बार अन्ना हजारे के साथ जो टीम है, वह आंदोलनों की शृंखला में तपे-तपाए लोगों की है। इन्होंने आंदोलन के लिए एनजीओज खड़े किए हैं, एनजीओज के लिए आंदोलन नहीं किया है। विचारों और सिद्धांतों के लिए भाजपा से बगावत करने वाले केएन गोविंदाचार्य तो अन्ना के साथ हैं ही, सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली सलाहकार परिषद में रही अरुणा राय, मोदी की नीतियों की मुखरता से आलोचना करने वाले जलपुरुष के नाम से विख्यात राजेंद्र सिंह, राष्ट्रीय परिषद के संयोजक पीवी राजगोपाल, नर्मदा बचाओ आंदोलन के दौरान गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री (अब प्रधानमंत्री) नरेंद्र मोदी के खिलाफ एक बड़ी लंबी लड़ाई लडऩे वाली मेधा पाटकर जैसे लोग अन्ना के साथ हुंकार भरने को तैयार हैं। पिछली टीम की अपेक्षा वर्तमान टीम ज्यादा ही परिपक्व और विचारवान नजर आती है। महाराष्ट्र के रालेगण सिद्धि के संत की उपमा से नवाजे गए गांधीवादी अन्ना हजारे का बहरहाल दिल्ली में दो ही दिन धरने का कार्यक्रम है, लेकिन एकता परिषद की ओर शुरू की गई भूमि अधिकार सत्याग्रह पदयात्रा में अन्ना हजारे ने जो संकेत दिया है, उसके मुताबिक यह आंदोलन लंबा भी खिंच सकता है। अन्ना हजारे के साथ पहले की तरह इस बार भी एकता परिषद से जुड़े वे हजारों आदिवासी और खेतिहर मजदूर भी सक्रिय रूप से खड़े नजर आ रहे हैं, जो पिछले कई दशकों से पीवी राजगोपाल के नेतृत्व में जल, जंगल और जमीन की लड़ाई लड़ रहे हैं। इस बार अन्ना के साथ जोशीले युवाओं की फौज भले ही न हो, लेकिन समर्पित कार्यकर्ताओं, अपने लक्ष्य के प्रति अडिग आदिवासियों, गरीबों, खेतिहर मजदूरों और किसानों की फौज जरूर होगी।

भारतीय बाजार चाहता है जमीनी सुधार

अशोक मिश्र
अभी बहुत दिन नहीं हुए हैं नरेंद्र मोदी को सत्ता पर काबिज हुए। नौ-दस महीने किसी भी नई सरकार के लिए बहुत नहीं होते हैं, लेकिन इतने भी कम नहीं होते हैं कि उसके भावी कामकाज का आकलन न किया जा सके। २६ मई को बड़ी आन, बान और शान के साथ दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश की बागडोर संभालने वाले नरेंद्र मोदी की छवि उस समय एकदम मसीहाई थी। देश के युवा, वृद्ध और बच्चों में एक जोश था, जुनून था, उनके करिश्माई व्यक्तित्व को लेकर, उनकी नीतियों को लेकर, उनके द्वारा दिखाए गए सपनों को लेकर। उन्होंने चुनाव से पूर्व देश के मतदाताओं को यह सपना देखने को मजबूर कर दिया था कि कांग्रेस की पिछले दस साल से मजबूरी में ढोयी जार रही भ्रष्ट सरकार से मुक्ति पाकर एक प्रगतिशील भारत के निर्माण का वक्त आ गया है। देश की जनता ने उन पर और उनके द्वारा दिखाए गए सपनों पर ऐतबार किया। उन्हें प्रचंड बहुमत से जिताकर देश का प्रधानमंत्री बनाने का मार्ग प्रशस्त किया। अब वही युवा, वृद्ध और बच्चे अपने सपनों को पूरा होते देखना चाहते हैं। जिस बाजार ने उन्हें रातोंरात सिर माथे पर बिठाया, वह चाहता है कि बाजार के सामने पेश होने वाली कठिनाइयां दूर हों, पूंजी निवेश का मार्ग प्रशस्त हो। नौ महीने बीतने के बाद भी जब स्थितियों में कोई बदलाव नहीं दिखाई दे रहा है, तो वही बाजार, वही मतदाता अब बेजार होने लगा है।
ऐसा भी नहीं है कि कारोबारी मोदी सरकार से पूरी तरह निराश हैं, लेकिन कुछ होता हुआ नहीं दिखने से उनमें बेचैनी होनी स्वाभाविक भी है। जमीनी स्तर पर बदलाव की आहट तो सुनाई दे। एडीएफसी बैंक से प्रमुख दीपक पारेख की इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि मोदी सरकार ने जब देश की सत्ता संभाली थी, तो उनके सामने उनके पूर्ववर्ती मनमोहन सिंह के समान राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियां विषम नहीं थीं। मोदी के लिए सबसे अच्छी और अनुकूल बात यह थी कि अंतर्राष्ट्रीय कच्चे तेल बाजार में तेल की कीमतें कम होनी शुरू हो गई थीं। हालांकि यह भी सही है कि जिस अनुपात में विश्व बाजार में कच्चे तेल की कीमतें कम हो रही थीं या हुईं, उसके मुकाबले भारतीय उपभोक्ताओं को छूट नहीं दी गई, लेकिन फिर भी इसका लाभ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी भाजपा ने महाराष्ट्र, हरियाणा जैसे राज्यों में होने वाले चुनावों के दौरान यह कहकर उठाया कि मोदी के आते ही तेल की कीमतें कम हो गई हैं, महंगाई घटी है। आंकड़ों की भी बाजीगरी दिखाई गई। दिल्ली विधानसभा चुनाव के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का यह जुमला काफी चर्चा में रहा कि दिल्ली की जनता को अब नसीबवाला चुनना है कि बदनसीब वाला, यह उसे तय करना है।
बैंकिंग क्षेत्र की प्रमुख शख्सियत माने जाने वाले दीपक पारेख कहते हैं कि प्रधानमंत्री मोदी को कच्चे तेल कीमतों में गिरावट से नौ भाग्यशाली महीने मिले, लेकिन फिर भी जमीनी तौर पर कोई बदलाव नहीं आया। कारोबार करने में सहूलियत के मामले में भी कोई सुधार नहीं दिखा। कारोबार को सुगम बनाने के मोर्चे पर अभी बहुत कम सुधार देखने को मिला है। 'मेक इन इंडियाÓ अभियान तब तक सफल नहीं हो सकता, जब तक कि लोगों के लिए कारोबार करना सुगम नहीं किया जाता और त्वरित फैसले नहीं किए जाते हैं। अब तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मेक इन इंडिया प्रोजेक्ट पर उनके मंत्रिमंडलीय सहयोगी ही सवाल उठाने लगे हैं। एयरो इंडिया २०१५ के उद्घाटन के मौके पर रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर ने मेक इन इंडिया प्रोजेक्ट में स्पष्टता का अभाव बताकर अपने ही प्रधानमंत्री को सवालों के कठघरे में खड़ा कर दिया है। रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर का कहना है कि रक्षा उपकरणों की खरीदारी की प्रक्रिया के दस्तावेज को सही से तैयार नहीं किया गया है और इसमें बहुत ही कन्फ्यूजन है। इन कमियों को दूर करने के लिए हम मेक इन इंडिया पर एक अलग पॉलिसी बना रहे हैं क्योंकि हर चीज को सिर्फ एक ही प्रोग्राम में ठूंसा नहीं जा सकता है। रक्षा मंत्री की बात का अगर हम कोई दूसरा अर्थ न भी निकालें, तो भी, यह स्पष्ट है कि जिस तरह मेक इन इंडिया के नाम पर बाजार को हांकने का उपक्रम किया जा रहा है, उसको लेकर सवाल उठने लगे हैं। अब तो नरेंद्र मोदी के स्वच्छ भारत अभियान और गांवों को इंटरनेट से जोडऩे की योजना  के लक्ष्य प्राप्ति को लेकर सवालिया निशान उठने लगे हैं। जिस गति से ग्राम पंचायतों को इंटरनेट से जोडऩे और गांवों में टॉयलेट बनाने की योजना पर काम हो रहा है, उस गति से तो इस फाइनेंसियल इयर की बात कौन कहे, अगले पांच साल में भी लक्ष्य पूरा होने वाला नहीं है। सरकार ने वर्ष २०१४-१५ में ५० हजार गांवों को नेशनल आप्टिक फाइबर नेटवर्क से जोडऩे का लक्ष्य तय किया था, लेकिन जनवरी माह तक सिर्फ १२ फीसदी गांव ही इससे जोड़े जा सके हैं। यही हाल स्वच्छ भारत अभियान का है। इस फाइनेंसियल इयर में १.२ करोड़ लोगों के घरों में शौचालय के निर्माण का लक्ष्य हासिल कर पाना मुश्किल लग रहा है।

वित्तमंत्री के सामने चुनौतियां का पहाड़

अशोक मिश्र
आगामी २८ फरवरी को बजट पेश करने जा रहे वित्त मंत्री अरुण जेटली के सामने लोगों की अपेक्षाओं का बहुत बड़ा पहाड़ खड़ा हुआ है। नौकरी पेशा मध्यम वर्ग, निवेशक, उद्योगपतियों से लेकर इस देश के मजदूर, किसान तक की निगाहें अरुण जेटली के आम बजट पर टिकी हुई हैं। कहा तो यह जा रहा है कि वित्त मंत्री के सामने सबसे बड़ी चुनौती एशिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था की इकोनॉमी रेट को ७-८ फीसदी के लक्ष्य तक पहुंचाने और उस स्तर को बनाए रखने की है। अगर वित्त मंत्री जेटली आर्थिक विकास की दर बरकरार रखने में सफल हो जाते हैं, तो यह उनकी बहुत बड़ी उपलब्धि मानी जाएगी। माना यह भी जा रहा है कि आगामी दो वर्षों के लिए डेफिसिट का टारगेट घरेलू आय का क्रमश: 3.6 फीसदी और 3.0 फीसदी रखेंगे। जब से केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार बनी है, तब से प्रधानमंत्री देश-विदेश में पूंजी निवेशकों को यह विश्वास दिलाने की कोशिश कर रहे हैं कि भारत में पूंजी निवेश के संबंध में आने वाली बाधाओं को दूर करने की भरपूर कोशिश की जा रही है। यहां पंूजी निवेश का अच्छा माहौल उनकी सरकार बना रही है। ऐसे में स्वाभाविक है कि इन निवेशकों को बजट में डीजल पर से मूल्य प्रतिबंध हटाने और सब्सिडी पर दिए जा रहे अन्य पेट्रोलियम पदार्थों पर सुधार की दिशा में कदम उठाए जाते रहेंगे। निवेशकों को यह भी उम्मीद है कि वे इस बार के बजट में खाद्य और उर्वरकों पर दी जा रही सब्सिडी पर होने वाले खर्च में कटौती को कोई कारगर कदम उठाएंगे। वित्त मंत्री अरुण जेटली से सबसे अधिक देश के मध्यम और निम्न वर्ग के लोगों मसलन, सरकारी नौकरी पेशा, मजदूर, किसान और बेरोजगारों को है। राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून (मनरेगा) की जब से शुरुआत हुई है, तब से यह विवादों में है। कभी इसमें होने वाले भ्रष्टाचार की चर्चा होती है, तो कभी इससे ग्रामीणों को मिलने वाले लाभ की। मनरेगा  दुनिया भर में आम जनता के हित में चलने वाली सबसे बड़ी योजना मानी जाती है। इस योजना से देश में करीब पांच करोड़ परिवारों को वर्ष में सौ दिन से अधिक रोजगार मिलता है। हालांकि इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि यह योजना उन करदाताओं पर बोझ है जिनके खून पसीने की कमाई से उगाहे गए कर का उपयोग किया जाता है। यदि इस धनराशि का उपयोग अन्य उत्पादक कार्यों में किया जाता, तो शायद विकास की गति कुछ ज्यादा ही तेज होती। वित्त मंत्री से उम्मीद है कि वे राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून में संतुलन स्थापित करने की कोशिश करेंगे।
दिसंबर में संसद में पेश एक रिपोर्ट में वित्त मंत्रालय ने कमजोर कार्पोरेट खर्च को गति देने के लिए भारी सरकारी निवेश का आहवान किया था। वित्त मंत्रालय का मानना है कि भारत को हर साल 7 फीसदी ग्रोथ के लिए करीब 50,000 अरब रुपये निवेश की जरूरत है। जेटली से उम्मीद है कि वह नई सड़कों, रेल लाइनों, बंदरगाहों और सिंचाई की सुविधा पर खर्च करने के लिए बजट में करीब 800 अरब रुपये का प्रावधान कर सकते हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देशी और विदेशी पूंजी निवेश को आकर्षित करने के लिए मेक इन इंडिया जैसे कार्यक्रम की शुरुआत की है। हालांकि इस क्रार्यक्रम की आलोचना भी सबसे ज्यादा हो रही है। कहा तो यह जा रहा है कि इस योजना के माध्यम से उन देशों को राहत पहुंचाने की कोशिश की जा रही है जिन देशों में श्रम बहुत महंगा है। भारत में श्रम सस्ता होने से विदेशी कंपनियां भारतीय श्रम का उपयोग तो करेंगी, लेकिन उससे होने वाले अतिरिक्त मूल्य यानी मुनाफा सिमटकर उन देशों में चला जाएगा, जिस देश की ये कंपनियां हैं। बहरहाल, इन पूंजी निवेशकों को इस बजट से यह उम्मीद तो है कि वर्ष २०१५-१६ के लिए वित्त मंत्री मेक इन इंडिया जैसे दूसरे कार्यक्रमों को बढ़ावा देने के लिए कई सेक्टरों को टैक्स में छूट का प्राविधान कर सकते हैं। उन्हें दूसरे किस्म की सुविधाएं भी प्रदान की जा सकती हैं। लोकसभा चुनाव से पहले ही भाजपा ने घोषणा की थी कि यदि उनकी सरकार बनी, तो पूरे देश में वस्तु एवं सेवा कर लागू किया जाएगा। वह मौका अब आ गया है। भारतीय उद्योगपतियों को यह उम्मीद है कि वित्तमंत्री एक अप्रैल से पूरे देश में एक समान वस्तु एवं सेवा कर लागू करके अपना वायदा पूरा करेंगे। हालांकि, इससे होने वाले राजस्व घाटे को कैसे पूरा करेंगे, इसका आश्वासन जब तक सरकार नहीं देती, तब तक यह अभी दूर की कौड़ी लग रही है। इन्वेस्टर्स जनरल ऐंटी एवायडेंस रूल्स (गार) और बैंकिंग रिफॉम्र्स जैसे मुद्दों पर अभी संशय के बादल छंटे नहीं हैं। इस संबंध में केंद्रीय वित्त मंत्री का रवैया क्या होगा, यह बजट पेश होने पर ही पता चलेगा।

Monday, February 16, 2015

अंकल ...चंदा दो

अशोक मिश्र
मैं सोकर ही उठा था कि दस-बारह लड़कों ने मेरा घर घेर लिया। मैंने सवालिया निगाहों से उनकी ओर देखा, तो उनका गुंडा नुमा नेता अपने झुंड से बाहर आया। उसने साफ सुथरे फर्श पर पान की पीक थूकते हुए कहा, 'अंकल..चंदा दो।Ó सुबह-सुबह चंदा मांगने की बात से मैं उखड़ गया, 'तुमने मेरे घर को किसी कंपनी का दफ्तर समझ रखा है क्या कि मुंह उठाया और चले आए चंदा मांगने। मैं किसी पार्टी-शार्टी को चंदा-वंदा नहीं देता। भाग जाओ।Ó नेता नुमा गुंडा गुर्राया, 'चंदा तो आपके पुरखे भी देंगे, आप क्या चीज हैं।Ó
बात आगे बढ़ती कि तभी घरैतिन बाहर निकल आईं। पत्नी को देखते ही गुंडा नुमा नेता ने झुककर उनके चरण स्पर्श करते हुए कहा, 'आंटी..देखिए न! हजार-पांच सौ रुपये के होली के चंदे के लिए अंकल किस तरह हुज्जत कर रहे हैं। आप समझाइए न इनको।Ó घरैतिन ने पांच सौ रुपये का नोट आगे बढ़ाते हुए कहा, 'अरे बेटा! जाने दो। सठियाया आदमी ऐसा ही होता है।Ó और फिर मुझे घूर कर देखा।
चंदा मांगने आए लड़कों के चेहरे पर पांच सौ का नोट देखते ही एक चमक आ गई। लड़के ने नोट को उलट-पलट कर देखने लगा। मुझसे रहा नहीं गया, 'अबे! नोट को ऐसे क्या देख रहा है?Ó 'कुछ नहीं अंकल! देख रहा था कि कहीं कालाधन तो नहीं है। लोग आजकल काले धन को ही चंदे में देते हैं। अच्छा यह बताइए, आप इनकम टैक्स तो देते हैं न। पैन कार्ड तो होगा ही।Ó मैं गुस्से से उबल पड़ा, 'हां..हां..यह काला धन ही है। वापस कर दे मेरा पैसा। हवाला के जरिये अभी थोड़ी देर पहले स्विटजरलैंड से मंगाया है।Ó मेरी बात सुनते ही लड़के हंस पड़े। उनमें से एक ने कहा, 'अंकल! आप एक बात बताइए। आपने जो यह पांच सौ का नोट होली के चंदे में दिया है, वह किस दिन की कमाई का है? मेरा मतलब है कि इस महीने की सैलरी का है या पिछले महीने का। या फिर उससे भी पिछले महीने का? आप अपनी बचत में से दे रहे हैं या फिर आंटी की बचत का? इनकम टैक्स पेयर तो आप हैं कि नहीं? आपने पैनकार्ड बनवा रखा है कि अभी बनवाना है? आधार कार्ड तो होगा न आपके पास?Ó
'अबे! तुम लोग चंदा मांगने आए हो या चंदे के बहाने डकैती डालने की खातिर रैकी करने।Ó मैं उबल पड़ा। 'वो क्या है न, अंकल! आजकल बड़ा ध्यान रखना पड़ता है। पहले सब कुछ कितना आसान था होली का चंदा मांगना। जिसके घर चंदा मांगने गए, थोड़ी बहुत हुज्जत के साथ चंदा दे देता था। मान लीजिए नहीं दिया चंदा, तो उसकी कुर्सी-मेज, पलंग रात में उठाकर होली में डाल दिया। थोड़ी दारू ज्यादा हो गई, तो मार-पीटकर ली। होली बीती, तो माफी मंगा ली। लेकिन अब चंदा न मिलने से ज्यादा लफड़े वाला काम चंदा मिलना हो गया है। सब कुछ ध्यान रखना पड़ा है। आप तो सब कुछ समझते ही हैं अंकल। आपको क्या बताना।Ó इतना कहकर चंदा मांगने वाला का हुजूम आगे बढ़ गया।

Sunday, February 15, 2015

वेलेंटाइन डे पर घरेलू क्रिकेट मैच

अशोक मिश्र
दोनों ओर की टीमें घरेलू मैदान पर अपना-अपना मोर्चा संभाल चुकी थीं। वेलेनटाइन डे के पावन मौके पर यह एक नए किस्म का क्रिकेट मैच स्वत: ही आयोजित हो गया था। इसके लिए किसी स्पांसर की भी जरूरत नहीं पड़ी। इस मैच का सबसे मजेदार नियम यह था कि कोई भी जब चाहे बॉलिंग कर सकता था और जब चाहे बैटिंग। बाकी खिलाड़ी कभी इस ओर से, तो कभी दूसरी से फील्डिंग कर लेते थे। कहने का मतलब यह है कि बॉलिंग या बैटिंग करने का हक दोनों तरफ के कप्तानों को ही था। बाकी सब फील्डर थे। 
बात दरअसल यह थी कि मेरे पड़ोसी मुसद्दीलाल और उनकी पत्नी छबीली ने वेलेंटाइन डे के मौके पर एक दूसरे को बड़े प्यार से उपहार दिया और एक दूसरे को निजी किस्म की शुभकामना दी। छबीली ने अपना उपहार बड़े नाजुक किस्म के नखरे के साथ बेटी-बेटे को दिखाया। तभी बेटे ने अंपायर की भूमिका निभाते हुए नो बॉल का इशारा करते हुए कहा, '....पर मम्मी! ऐसा ही गिफ्ट बाजू वाली आंटी को किसी अंकल ने दिया है। वह भी थोड़ी देर पहले। आंटी..सबको दिखा भी रही थीं।Ó बस फिर क्या था? वेलेंटाइन डे का सारा बुखार एक पल में ही उतर गया। जन्मजात प्रतिद्वंद्वी देश के बॉलर की तरह छबीली ने आरोपों की शॉर्टपिच बॉल फेंकी, 'मैं समझ गई..उस कलमुंही को किस नासपीटे ने यह गिफ्ट दिया है। क्यों जी..तुम्हें शर्म नहीं आती। पराई औरतों के साथ नैन-मटक्का करते हुए।Ó
मुसद्दीलाल ने भी शॉर्टपिच बॉल को जरा सा हुक करके बाउंड्री की तरफ उछालते हुए कहा, 'ज्यादा बकवास मत कर..तुम औरतें  शक की घुट्टी जन्म से ही पीकर आती हो क्या? मैं अपनी इकलौती साली को हाजिर-नाजिर मानकर कहता हूं कि यह गिफ्ट-शिफ्ट देने का काम बेलज्जत काम मैंने नहीं किया है।Ó मुसद्दीलाल अब भी अपनी पत्नी की आक्रामक बॉलिंग को हलके में ले रहे थे। साली की बात आते ही छबीली ने फुलटॉस फेंकी, 'खबरदार..जो मेरी बहन को इस मामले में घसीटा।Ó इतना कहकर वे कमरे की ओर लपकी और मुसद्दीलाल द्वारा दिया गया गिफ्ट लाकर उनके सिर पर पटकते हुए कहा, 'यह भी ले जाकर अपनी उस बुढिय़ा खूसट वेलेंडाइन (वेलेंटाइन का विलोम) को दे आओ। उसे तो तुम दीदे फाड़-फाड़कर ऐसे देखते हो, मानो कभी औरत देखी ही नहीं थी।Ó यह फुलटॉस मुसद्दीलाल के लिए खतरनाक साबित हुआ और वे आउट हो गए। तभी पिच पर घुस आए किसी उत्पाती दर्शक की तरह बेटी ने मोबाइल हाथ में थामे प्रवेश किया, 'मम्मी..मम्मी..मौसा जी का फोन..लो बात कर लो।Ó बस फिर क्या था? बस फिर क्या था? मुसद्दीलाल ने बॉलिंग संभाल ली। उन्होंने पत्नी छबीली की ओर यार्कर फेंकते हुए कहा, 'कर लो..कर लो..अपने जिज्जू से बातें..कभी मायके जाने पर मुझसे इतने प्यार से बातें नहीं की होगी जितने प्यार से अपने जिज्जू से बतियाती हो। तुम जीजा-साली में क्या खिचड़ी पक रही है, क्या मैं नहीं जानता?Ó तभी सामने वाले घर में बर्तन तोडऩे, गमला पटकने की आवाज आने लगी। पता चला कि वहां भी घरेलू क्रिकेट मैच चालू है, तो इन दोनों ने अपना मैद रद्द कर दिया।

Thursday, February 12, 2015

हिंदू राष्ट्र है भारत?

अशोक मिश्र
भारत एक हिंदू राष्ट्र है? भारतीय संविधान की मूल आत्मा से धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी शब्द मेल नहीं खाते हैं? आपातकाल के दौरान संविधान की उद्देश्यिका में जोड़े गए इन दोनों शब्दों का कोई औचित्य नहीं है? भारत की जनता अब धर्मनिरेपक्षता से ऊब गई है और भारत को हिंदू राष्ट्र बनाना चाहती है? ऐसे कई सवाल हैं, जो किए जा सकते हैं। इस वर्ष जब गणतंत्र दिवस के मौके पर केंद्र सरकार ने जो विज्ञापन जारी किया, उसमें से धर्म निरपेक्षता और समाजवाद शब्द गायब था। यह एक मानवीय चूक थी या जान-बूझकर भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने की दिशा में उठाया गया एक सोचा-समझा कदम था।
राजनीतिक हलके में एक संभावना यह भी व्यक्त की जा रही है कि भाजपा सरकार ने एक योजना के तहत इस बार गणतंत्र दिवस के दौरान सरकारी विज्ञापन से इन दोनों शब्दों को हटाया था। दरअसल, भाजपा और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ इन शब्दों को हटाकर आम जनमानस की प्रतिक्रिया से वाकिफ होना चाहते थे। राजनीतिक हलकों में जब इन शब्दों को हटाने को लेकर तीव्र प्रतिक्रिया हुई, तो केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली को यह आश्वासन देना पड़ा कि केंद्र सरकार भविष्य में इन बातों को ध्यान में रखेगी। हालांकि केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद यह कहने से नहीं चूके कि सन १९५० में जो संविधान भारत में लागू किया गया था, उसमें ये दोनों शब्द नहीं थे। इन्हें आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी की सरकार ने ये शब्द संविधान की उद्देश्यिका में शामिल किए थे। आपात काल के बाद जब जनता पार्टी की सरकार बनी, तो उसने भी इन शब्दों को बदलने की जरूरत नहीं समझी क्योंकि वह जानती थी कि भले ही ये शब्द संविधान की मूल उद्देश्यिका में नहीं रहे हों, लेकिन संविधान की मूल प्रवृत्ति धर्म निरपेक्ष और समाजवादी ही रही है। नेहरू के नेतृत्व में बनने वाली पहली सरकार का झुकाव भी समाजवादी व्यवस्थाओं की ओर ही था। यही वजह थी कि संविधान की अवधारणाएं समाजवादी और धर्म निरपेक्षतावादी होते हुए भी उनमें इन शब्दों को जोडऩे की जरूरत नहीं समझी गई। लोगों को याद होगा कि जनता पार्टी की सरकार के अवसान के बाद जब इंदिरा गांधी के नेतृत्व में १९८० में सरकार बनी, तो भाजपा ने भी अपने राजनीतिक एजेंडे में गांधीवादी समाजवादी विचारधारा को शामिल किया था। यह उसकी राजनीतिक मजबूरी थी क्योंकि देश की बहुसंख्यक आबादी का धर्म निरपेक्षता और समाजवाद जैसे शब्दों से मोहभंग नहीं हुआ है।
इस बात को ऐसे समझा जा सकता है कि जब १९९८ में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए की सरकार बनी थी, तब भाजपा के वरिष्ठ नेताओं ने संविधान में आमूलचूल परिवर्तन करने की बात कही थी, तब भी ठीक वैसी ही प्रतिक्रिया हुई थी, जैसी आज इन दोनों शब्दों को सरकारी विज्ञापन से हटा देने पर हुई है। यह भाजपा और आरएसएस द्वारा अपने हिंदूवादी एजेंडे को लागू करने का ट्रायल केस हो सकता है। जब से केंद्र में मोदी के नेतृत्व में भाजपा सरकार का गठन हुआ है, उससे कुछ महीने पहले से ही आरएसएस के प्रमुख नेताओं ने यह कहना शुरू कर दिया था कि भारत एक हिंदू राष्ट्र है। आरएसएस प्रमुख मोहन मधुकर भागवत तो कई अवसरों पर यह कह चुके हैं कि भारत में जन्म लेने वाला प्रत्येक नागरिक हिंदू है, भले ही वह मुस्लिम परिवार में जन्मा हो, ईसाई हो या सिख हो। गोवा के मंत्री और उपमुख्यमंत्री भी इसी बात को दोहरा चुके हैं। केंद्रीय अल्पसंख्यक मामलों की मंत्री नजमा हेपतुल्ला ने भी मोहन भागवत की ही बात दोहराई और बाद में जब इसकी मुसलमानों में तीखी प्रतिक्रिया हुई, तो वे अपनी बात से भी मुकर गई थीं। भाजपा और संघ पिछले कुछ महीनों से बार-बार जिस तरह हिंदू राष्ट्र का मुद्दा उठा रहा है, उससे यह समझा जा सकता है कि मोदी सरकार की मंशा क्या है? वह बहुत ही सधे कदमों से हिंदू एजेंडा देश में लागू करने की फिराक मे ंहै, बस उसे मौका मिले। इस एजेंडे को शिवसेना जैसे संगठन का समर्थन हासिल है। शिवसेना के सांसद संजय राउत का तो यहां तक कहना था कि यदि विज्ञापन से धर्म निरपेक्षता और समाजवाद जैसे शब्द गलती से हट गए हैं, तो इन्हें स्थायी रूप से हटा देनी चाहिए। महाराष्ट्र में रहने वाले दूसरे राज्यों के निवासियों के खिलाफ कई बार मोर्चा खोलने वाली शिवसेना और मनसे नेता बार-बार हिंदू राष्ट्र की बात करते रहे हैं। शिवसेना के संस्थापक बालासाहब ठाकरे भी हिंदू राष्ट्र की बात करते रहे हैं। लेकिन अपने को हिंदू राष्ट्र का ध्वजवाहक बताने वाले भाजपा, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, बजरंग दल, विश्व हिंदू परिषद, शिवसेना और महाराष्ट्र निर्माण सेना जैसे संगठनों को एक बात अच्छी तरह से समझ लेनी चाहिए कि हिंदुस्तान की जनता का मोह अभी तक इस विचारधारा से भंग नहीं हुआ है, भले ही इस देश में वामपंथियों का पराभव हो गया हो। आम आदमी की मानसिकता इतनी जल्दी नहीं बदला करती है। हालांकि यह  भी सही है कि इस देश में न तो सच्चे अर्थों में धर्मनिरपेक्षता कभी रही है और न ही समाजवाद। 

Wednesday, February 11, 2015

पुरस्कार ही मेरे लायक नहीं

अशोक मिश्र
पुरस्कारों की घोषणा से पहले चहक रहे उस्ताद गुनाहगार कल बहुत उदास थे। पहले तो वे घर के कोनों को फौव्वारा पद्धति से सींचने का प्रयास करते रहे, लेकिन जब दुखों का प्रवाह सारे तटबंध तोड़कर बाहर निकलने को आकुल-व्याकुल हो उठा, तो वे मेरे घर आ गए। मेरे कंधे पर सिर रखकर फफक पड़े। मैंने उन्हें सांत्वना दी, तो दुखों का उत्सर्जन थोड़ा कम हुआ। वे सुबकते हुए बोले, 'इस बार भी मेरा नाम नहीं है। कई बार सूची पढ़ ली है।Ó मैंने उनके कंधे थपथपाते हुए कहा, 'कोई बात नहीं उस्ताद! इस बार नहीं, तो अगली बार मिल जाएगा। ये पुरस्कारों का मौसम कौन सा कुंभ का मेला है कि एक बार गया, तो बारह साल बाद आएगा। मुझे तो लगता है कि अगली बार आपको देश का सबसे बड़ा पुरस्कार मिलेगा। और मिलेगा क्या..सरकार को देना पड़ेगा।Ó
मेरे सांत्वना देने पर मुख पर छाया विषाद थोड़ा सा कम हुआ। गुनाहगार बोले, 'पिछले साल भी तो तुमने यही बात कही थी। पिछले बाइस साल से हम इसी इंतजार में बैठे हैं कि इस साल मिलेगा पुरस्कार, उस साल मिलेगा पुरस्कार। पिद्दी-पिद्दी भर के लोग सम्मानित हो रहे हैं। निरहू से लेकर घुरहू तक, कबाड़ी से लेकर पनवाड़ी तक, चोर से लेकर डाकू तक, अफसर से लेकर चपरासी तक सम्मानित किए जा रहे हैं, लेकिन मेरा नंबर ही नहीं आ रहा है। इस देश के साहित्य में मेरा भी कोई योगदान है कि नहीं? मेरा सम्मान होना चाहिए कि नहीं?Ó मैंने तपाक से जवाब दिया, 'हां..हां क्यों नहीं, उस्ताद! साहित्य में आपका योगदान निराला, पंत या प्रेमचंद से कम है क्या? आपके साहित्य का जब भी मैं विश्लेषण करता हूूं, तो पाता हूं कि आपके साहित्य में निराशावाद, प्रत्याशावाद, अभिलाषावाद की मौलिक प्रवृत्तियां ढेर सारी मात्रा में मौजूद हैं। अवसरवादी साहित्य के तो आप युगपुरुष हैं। ऐसा युगीन साहित्य रचकर आपने तो 'न भूतो न भविष्यतिÓ की अवधारणा को भी मात दे दी है। ऐसे में तो मैं सिर्फ इतना ही कहूंगा, उस्ताद कि ये जो पुरस्कार पाने वाले लोग हैं न, आपके मुकाबले किसी लाइन में नहीं लगते। ये लोग भला क्या खाकर आपका मुकाबला करेंगे। ये सब साहित्य के क्षेत्र में बच्चे हैं बच्चे। आप भी इन बच्चों के साथ 'कबड्डी-कबड्डीÓ खेल रहे हैं। यह आपको शोभा नहीं देता है।Ó इसी बीच मैं एक बोतल और दो गिलास के साथ नमकीन लाकर मेज पर रख चुका था। बोतल को देखते ही उनकी आंखों की चमक गहरी हो गई। दो पैग लगाने के बाद गुनाहगार फिर अपनी रौ में आ गए। बोले, 'हां यार! ये लोग सचमुच मेरे सामने बच्चे हैं। तुकबंदी करने वालों से अपना मुकाबला करके मैं अपने को ही छोटा साबित करूंगा। और अपने ही बच्चों से क्या मुकाबला करना। ये सब अपने ही चेले-चपाटे हैं। चेले-चपाटे बढ़ते हैं, तो मुझे भी अच्छा लेगा। दरअसल, बात यह है कि ये पुरस्कार ही मेरे लायक नहीं हैं।Ó इतना कहकर उस्ताद गुनाहगार अपने सघन दुख को गिलास से विरल करने लगे।

Monday, February 2, 2015

नासपीटे ! तू पैदा कर ले बच्चे

अशोक मिश्र
कल शाम को सब्जी मंडी में आलू खरीदते समय अपने पड़ोसी मुसद्दीलाल से मुलाकात हो गई। उन्हें देखते ही मैं चौंक गया। वे एकदम कांग्रेस की तरह लग रहे थे, एकदम लुटे-पिटे से। मैं उनकी बांह पकड़कर भीड़ से अलग ले गया। चेहरे को गौर से निहारते हुए कहा, 'भाई साहब! यह क्या हुआ?Ó वे धीरे से फुसफुसाए, 'पिट गए थे..यार!Ó उनकी इस स्वीकारोक्ति से मैं चौंक उठा। कारण कि वे बिना किसी लाग-लपेट के अपने पिटने की बात स्वीकार कर रहे थे। पिटने की बात सुनते ही मुझे हंसी आ गई। मुझे उनकी उस बुरी दशा पर भी हंसी-ठिठोली सूझ गई, 'किससे पिट गए? छबीली से?Ó
बेचारे मुसद्दीलाल ने निरीह भाव से जवाब दिया, 'नहीं...तुम्हारी भाभी से..Ó उनके मुंह से यह निकलते ही मेरी हंसी छूट गई। मैंने कहा, 'अपनी किसी सखी-सहेली के साथ वेलेंटाइन वीक मना रहे थे या सर्दी में ही फगुनाहट ज्यादा जोर मार गई? वैसे अभी वेलेंटाइन डे या होली तो बहुत दूर है!Ó मेरी बात सुनते ही मुसद्दीलाल गुर्रा उठे, 'मैं तुम्हारी तरह हथेली पर दिल रखकर नहीं घूमता। कुछ सालों बाद घर में बहुभाषी कवि सम्मेलन का प्रस्ताव रखा था पत्नी के सामने। प्रस्ताव तो बिना सदन में पेश हुए ही खारिज हो गया, पिटाई हो गई, सो अलग से।Ó
मुसद्दीलाल तो आज धमाके पर धमाके किए जा रहे थे। मैंने किसी कछुए की तरह गंभीरता ओढ़ ली, 'पर भाई..घर में कवि सम्मेलन कराने की बात में ऐसा क्या है कि भाभी जी आपको पीटने लगीं। यह तो अच्छी बात है कि घर में कवि सम्मेलन हो और मोहल्ले-टोले के लोग उसका आनंद उठाएं। आप मुझे पूरी बात बताइए।Ó
मुसद्दीलाल ने गहरी सांस खींची और कहने लगे, 'आज रात में मैंने तुम्हारी भाभी से कहा, मैं पंद्रह-बीस सालों बाद घर में ही दस भाषाओं का कवि सम्मेलन कराने की योजना बना रहा हूं। तुम्हारी भाभी ने पूछा, कैसे? तो मैंने कहा कि दो बच्चे तो पहले से ही हमारे हैं। आठ बच्चे और पैदा कर लेते हैं। इनको पढ़ा-लिखाकर विभिन्न देशों में सेटल कर देते हैं। ये सारे बच्चे जिस देश में रहेंगे, वहां की लड़के-लड़कियों से शादी कर लेंगे। जब बेटे-बेटियां हमारी बहुओं और दामादों के साथ छुट्टियां मनाने हमारे पास आया करेंगे, तो दस भाषाओं का कवि सम्मेलन वैसे ही हमारे घर में हो जाया करेगा। एक बहू चीनी भाषा बोलेगी, दूसरी अंग्रेजी। एक दामाद रूसी बोलेगा, दूसरा फ्रेंच। सोचो..कितना मजा आएगा। मैं तो अभी से इसकी कल्पना करके रोमांच महसूस कर रहा हूं। बस..अभी मेरा प्रस्ताव पूरा भी नहीं हुआ था कि तुम्हारी भाभी ने सिरहाने रखा हुआ पीतल का लोटा मेरे सिर पर पटकते हुए कहा, नासपीटे! दो बच्चों को पैदा करने, पालने-पोसने में ही मेरी दुर्गति हुई जा रही है, तुझे दस बच्चे पैदा करने की सूझ रही है। खुद..पैदा कर सकता है, तो दो दर्जन बच्चे पैदा कर ले। मुझे कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन खबरदार..अब अगर दोबारा बच्चों के बारे में सपने में भी सोचा, तो....। इसके बाद क्या हुआ होगा..तुम समझ सकते हो।Ó मुसद्दीलाल की बात सुनकर मेरा मुंह लटक गया। 

Sunday, February 1, 2015

किसानों को सचमुच मर जाना चाहिए?

अशोक मिश्र 
मई 2014 से पहले इस देश के करोड़ों किसानों ने भी एक सपना देखा था। अच्छे दिनों का। भाजपा ने यह वायदा भी किया था कि उसकी सरकार आई, तो अच्छे दिन आएंगे इस देश के करोड़ों किसानों के, मजदूरों के, खेतिहर मजदूरों के, गरीबों के, बेरोजगार युवाओं के, व्यापारियों के, उद्योगपतियों के। अच्छे दिन आए, लेकिन करोड़ों किसानों, मजदूरों, खेतिहर मजदूरों और युवाओं के नहीं। छोटे-मंझोले उद्योगपतियों और व्यापारियों के नहीं, देश के उन चंद पूंजीपतियों के जिनकी तिजोरी पहले से ही भरी हुई थी। पिछले दिनों भूमि अधिग्रहण अध्यादेश लाकर मोदी सरकार ने कम से कम एक बात तो साफ कर दी है कि किसानों के अब अच्छे दिन आने वाले नहीं हैं। मोदी सरकार सिर्फ उद्योगपतियों के हितों को ही ध्यान में रखकर योजनाएं बना रही है। यह कहा जाए कि पूरे देश की अर्थव्यवस्था को उद्योगपतियों के हाथों में सौंपने की एक कवायद मोदी सरकार ने आते ही शुरू कर दी थी, तो अतिश्योक्ति नहीं होगी।
गजब तो यह है कि किसानों के हितों को लेकर लोकसभा चुनाव से पहले मनमोहन सरकार की खिल्ली उड़ाने वाली भाजपा के एक सांसद संजय शामराव धोत्रे तो अब यहां तक कहने लगे हैं कि अगर किसान मरते हैं, तो मरने दो। जिन्हें खेती करनी है, वे करेंगे। जिन्हें नहीं करनी है, वे नहीं करेंगे। उनके आत्महत्या कर लेने से हम पर कोई फर्क नहीं पड़ता है। ये वही संजय शामराव धोत्रे हैं जिन्होंने लोकसभा चुनाव से पहले पूरे देश सहित महाराष्ट्र के किसानों की दुर्दशा पर, उनके आत्महत्या करने पर  तत्कालीन यूपीए सरकार को छाती पीट-पीटकर कोसते हुए जार-जार आंसू बहाए थे। वे पूरे महाराष्ट्र में घूम-घूम कर कांग्रेस और एनसीपी सरकार के खिलाफ किसानों को जगा रहे थे कि किसानों उठो और कांग्रेस की सरकार बदल दो अपने सुखद भविष्य के लिए। लेकिन अब मोदी सरकार अपनी नीतियों से किसानों को खुदकुशी करने पर मजबूर कर रहे हैं। सरकारी आंकड़े की ही बात करें, तो पिछले सौ दिनों में देश के 4600 किसानों ने आत्महत्या की है। 46 से 69 हजार किसान आत्महत्या की कोशिश कर चुके हैं। यह आंकड़ा तो और भी खौफनाक है कि पिछले बीस सालों से सरकारी नीतियों के चलते हर दिन दो हजार किसान खेती छोड़ रहे हैं। इसका कारण मोदी और उनकी पूर्ववर्ती सरकार की कृषि विरोधी नीतियां हैं। मोदी सरकार आने के बाद गांवों से न केवल पलायन बढ़ा है, बल्कि मनरेगा और खाद्य सुरक्षा के बजट में कटौती हुई है जिससे किसानों में असुरक्षा की भावना तीव्र हुई है। पिछले 100 दिनों में मोदी सरकार ने 145750 करोड़ रुपये की छूट देश के सबसे अमीर 1 से 2 प्रतिशत पूंजीपतियों को दी है। पूंजीपतियों को हजारों हजार करोड़ रुपये के सरकारी कर्ज दिलाए जा रहे हैं, लेकिन जब भी किसानों की बारी आती है, तो सरकार राजस्व घाटे का रोना रोने लगती है।
 केंद्रीय कर्मचारियों से लेकर राज्य कर्मचारियों के वेतन में हर साल बढ़ोत्तरी होती है। महंगाई भत्ते सहित अन्य भत्ते दिए जाते हैं, लेकिन इस देश के 60 से 70 करोड़ किसानों को किसी तरह के न्यूनतम पैकेज देने की बात न तो किसान संगठनों ने की है, न वर्तमान सरकार ने और न ही इससे पहले की सरकारों ने। आजादी के बाद से अब तक बनी सरकारों के लिए देश के अन्नदाता किसी अस्पृश्य से कम नहीं रहे हैं। मोदी सरकार भूमि अधिग्रहण अध्यादेश लाकर किसानों की खेती योग्य जमीन का पंूजीपतियों के हित में अधिग्रहण का मार्ग प्रशस्त कर रही है। 1998 से 2004 तक चली वाजपेयी सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्यों में सिर्फ 11 रुपये की ही बढ़ोत्तरी की थी। दस साल तक गरीबों और किसानों की रहनुमा होने का दावा करने वाली कांग्रेस सरकार ने भी किसानों के लिए किसी खजाने का मुंह नहीं खोला था। वर्ष 2004 से 2014 तक कांग्रेस सरकार ने धान और गेहूं के समर्थन मूल्यों में सिर्फ 70 रुपये की बढ़ोतरी की थी, जबकि इस दौरान डीजल, खाद, बीज आदि के दाम किस अनुपात में बढ़ गए, इसको जानने के लिए कोई विशेष जतन करने की जरूरत नहीं है। सरकार किसी भी पार्टी की हो, सभी सरकारों (जिनमें राज्य सरकारें भी शामिल हैं) के आंकड़ों में किसान खुशहाल, सुविधा-साधन संपन्न दिखाई देता है। कोई इन सरकारों से यह पूछे कि अगर तुम्हारे आंकड़ों के हिसाब से 60 से 70 करोड़ किसान सुखी और सपन्न हैं, तो फिर वे आत्महत्या क्यों कर रहे हैं, प्रति दिन दो हजार किसान खेती करना क्यों छोड़ रहे हैं? कोई जवाब नहीं होगा इन सरकारों के पास।