Sunday, February 22, 2015

भारतीय बाजार चाहता है जमीनी सुधार

अशोक मिश्र
अभी बहुत दिन नहीं हुए हैं नरेंद्र मोदी को सत्ता पर काबिज हुए। नौ-दस महीने किसी भी नई सरकार के लिए बहुत नहीं होते हैं, लेकिन इतने भी कम नहीं होते हैं कि उसके भावी कामकाज का आकलन न किया जा सके। २६ मई को बड़ी आन, बान और शान के साथ दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश की बागडोर संभालने वाले नरेंद्र मोदी की छवि उस समय एकदम मसीहाई थी। देश के युवा, वृद्ध और बच्चों में एक जोश था, जुनून था, उनके करिश्माई व्यक्तित्व को लेकर, उनकी नीतियों को लेकर, उनके द्वारा दिखाए गए सपनों को लेकर। उन्होंने चुनाव से पूर्व देश के मतदाताओं को यह सपना देखने को मजबूर कर दिया था कि कांग्रेस की पिछले दस साल से मजबूरी में ढोयी जार रही भ्रष्ट सरकार से मुक्ति पाकर एक प्रगतिशील भारत के निर्माण का वक्त आ गया है। देश की जनता ने उन पर और उनके द्वारा दिखाए गए सपनों पर ऐतबार किया। उन्हें प्रचंड बहुमत से जिताकर देश का प्रधानमंत्री बनाने का मार्ग प्रशस्त किया। अब वही युवा, वृद्ध और बच्चे अपने सपनों को पूरा होते देखना चाहते हैं। जिस बाजार ने उन्हें रातोंरात सिर माथे पर बिठाया, वह चाहता है कि बाजार के सामने पेश होने वाली कठिनाइयां दूर हों, पूंजी निवेश का मार्ग प्रशस्त हो। नौ महीने बीतने के बाद भी जब स्थितियों में कोई बदलाव नहीं दिखाई दे रहा है, तो वही बाजार, वही मतदाता अब बेजार होने लगा है।
ऐसा भी नहीं है कि कारोबारी मोदी सरकार से पूरी तरह निराश हैं, लेकिन कुछ होता हुआ नहीं दिखने से उनमें बेचैनी होनी स्वाभाविक भी है। जमीनी स्तर पर बदलाव की आहट तो सुनाई दे। एडीएफसी बैंक से प्रमुख दीपक पारेख की इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि मोदी सरकार ने जब देश की सत्ता संभाली थी, तो उनके सामने उनके पूर्ववर्ती मनमोहन सिंह के समान राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियां विषम नहीं थीं। मोदी के लिए सबसे अच्छी और अनुकूल बात यह थी कि अंतर्राष्ट्रीय कच्चे तेल बाजार में तेल की कीमतें कम होनी शुरू हो गई थीं। हालांकि यह भी सही है कि जिस अनुपात में विश्व बाजार में कच्चे तेल की कीमतें कम हो रही थीं या हुईं, उसके मुकाबले भारतीय उपभोक्ताओं को छूट नहीं दी गई, लेकिन फिर भी इसका लाभ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी भाजपा ने महाराष्ट्र, हरियाणा जैसे राज्यों में होने वाले चुनावों के दौरान यह कहकर उठाया कि मोदी के आते ही तेल की कीमतें कम हो गई हैं, महंगाई घटी है। आंकड़ों की भी बाजीगरी दिखाई गई। दिल्ली विधानसभा चुनाव के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का यह जुमला काफी चर्चा में रहा कि दिल्ली की जनता को अब नसीबवाला चुनना है कि बदनसीब वाला, यह उसे तय करना है।
बैंकिंग क्षेत्र की प्रमुख शख्सियत माने जाने वाले दीपक पारेख कहते हैं कि प्रधानमंत्री मोदी को कच्चे तेल कीमतों में गिरावट से नौ भाग्यशाली महीने मिले, लेकिन फिर भी जमीनी तौर पर कोई बदलाव नहीं आया। कारोबार करने में सहूलियत के मामले में भी कोई सुधार नहीं दिखा। कारोबार को सुगम बनाने के मोर्चे पर अभी बहुत कम सुधार देखने को मिला है। 'मेक इन इंडियाÓ अभियान तब तक सफल नहीं हो सकता, जब तक कि लोगों के लिए कारोबार करना सुगम नहीं किया जाता और त्वरित फैसले नहीं किए जाते हैं। अब तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मेक इन इंडिया प्रोजेक्ट पर उनके मंत्रिमंडलीय सहयोगी ही सवाल उठाने लगे हैं। एयरो इंडिया २०१५ के उद्घाटन के मौके पर रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर ने मेक इन इंडिया प्रोजेक्ट में स्पष्टता का अभाव बताकर अपने ही प्रधानमंत्री को सवालों के कठघरे में खड़ा कर दिया है। रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर का कहना है कि रक्षा उपकरणों की खरीदारी की प्रक्रिया के दस्तावेज को सही से तैयार नहीं किया गया है और इसमें बहुत ही कन्फ्यूजन है। इन कमियों को दूर करने के लिए हम मेक इन इंडिया पर एक अलग पॉलिसी बना रहे हैं क्योंकि हर चीज को सिर्फ एक ही प्रोग्राम में ठूंसा नहीं जा सकता है। रक्षा मंत्री की बात का अगर हम कोई दूसरा अर्थ न भी निकालें, तो भी, यह स्पष्ट है कि जिस तरह मेक इन इंडिया के नाम पर बाजार को हांकने का उपक्रम किया जा रहा है, उसको लेकर सवाल उठने लगे हैं। अब तो नरेंद्र मोदी के स्वच्छ भारत अभियान और गांवों को इंटरनेट से जोडऩे की योजना  के लक्ष्य प्राप्ति को लेकर सवालिया निशान उठने लगे हैं। जिस गति से ग्राम पंचायतों को इंटरनेट से जोडऩे और गांवों में टॉयलेट बनाने की योजना पर काम हो रहा है, उस गति से तो इस फाइनेंसियल इयर की बात कौन कहे, अगले पांच साल में भी लक्ष्य पूरा होने वाला नहीं है। सरकार ने वर्ष २०१४-१५ में ५० हजार गांवों को नेशनल आप्टिक फाइबर नेटवर्क से जोडऩे का लक्ष्य तय किया था, लेकिन जनवरी माह तक सिर्फ १२ फीसदी गांव ही इससे जोड़े जा सके हैं। यही हाल स्वच्छ भारत अभियान का है। इस फाइनेंसियल इयर में १.२ करोड़ लोगों के घरों में शौचालय के निर्माण का लक्ष्य हासिल कर पाना मुश्किल लग रहा है।

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