Sunday, August 30, 2015

स्मार्ट सिटी में बगलोल चंद

अशोक मिश्र
अपने एक मित्र हैं बगलोल चंद। मेरे गांव नथईपुरवा में रहते हैं। वे न केवल नाम से बगलोल हैं, काम और बुद्धि से भी बगलोल हैं। कहो आम, तो समझते इमली हैं। एक दिन फोन आया और बात घूम-फिर कर देसी घी तक पहुंच गई। मैंने उन्हें बताया कि शहर में देसी घी खाने क्या आंख में लगाने को नहीं मिलता है। उन्होंने आश्वस्त किया कि वे मेरी इस समस्या को जल्दी हल कर देंगे। मैंने समझा, वे हर महीने किलो-दो किलो देसी घी भिजवा दिया करेंगे। एक दिन सुबह पत्नी ने उठाया, 'उठिए...बगलोल भाई साहब आए हैं।' मैंने झल्लाते हुए कहा, 'तो कौन सी आफत आ गई। उन्हें  चाय-पानी पिला, मैं थोड़ी देर बाद उनसे मिलता हूं।'
पत्नी ने परेशान स्वर में कहा, 'आफत भी उनके साथ आई है। देखिए तो सही। बगलोल भाई साहब दरवाजे पर खड़े हैं।' मैं बाहर निकला, तो देखा कि वे एक भैंस के साथ खड़े हैं। मैंने पूछा, 'यह क्या तमाशा है? भैंस यहां क्यों ले आए हो?' बगलोल चंद ने मासूमियत से जवाब दिया, 'भइया! आप ने ही तो कहा था, शहर में दूध-दही की किल्लत है, तो हम 'राम प्यारी' को आपकी खातिर यहां ले आए। अब देसी घी आंख में  लगाइए और जीभर कर खाइए।' उनका जवाब सुनकर मैंने माथा पीट लिया। तो ऐसे हैं अपने बगलोल चंद।
बगलोल चंद पिछले कुछ दिनों से एक ही बात की रट लगाए हुए हैं, 'भइया! बस एक बार किसी स्मार्ट सिटी में घुमवा दो। जीवन सफल हो जाए। बड़ी तमन्ना है स्मार्ट सिटी घूमने की।' 
बार-बार के निवेदन से आजिज आकर मैंने एक रविवार को उन्हें बुला ही लिया।  शाम को सबसे नजदीक वाले स्मार्ट सिटी में लेकर जा पहुंचा। स्मार्ट सिटी में बने एक पार्क के किनारे हम दोनों खड़े होकर आसपास का नजारा देखने लगे। पार्क की दशा देखकर बगलोल चंद वैसे ही विह्वल हो गए, जैसे किसी अभिनेता-अभिनेत्री को सामने पाकर उसके प्रशंसक भाव विभोर हो जाते हैं। वे चारों तरफ देखते हुए बोले, 'भइया...हमारे वेद-पुराण में स्वर्ग के बारे में जैसा लिखा गया है, ठीक वैसा ही यहां सब कुछ दिखाई दे रहा है। वेद-पुराण में लिखा है कि स्वर्ग में लाखों-करोड़ों सूर्य की रश्मियां हर ओर जगमग-जगमग करती रहती हैं। वहां न किसी को प्यास लगती है, न भूख। बस, मन हमेशा मनोरंजन में ही लगा रहता है। तभी तो वहां मेनका, उर्वशी, रंभा जैसी लाखों-करोड़ों अप्सराओं की व्यवस्था है। तभी तो हर कोई स्वर्ग जाना चाहता है।' 
पार्क में हर आयु वर्ग के जोड़े मिलकर सचमुच स्वर्ग का एक सुंदर और अलौकिक कोलाज रच रहे थे। एक जोड़े की ओर इशारा करते हुए बगलोल चंद ने कहा, 'भइया..वो जो लोग मनोरंजन में लगे हुए हैं। उसमें पुरुष जरूर कोई पुण्यात्मा होगी। और वह लड़की कोई अप्सरा।'
मैंने हंसते हुए कहा, 'ये कोई अप्सरा-वप्सरा नहीं है। यह स्मार्ट सिटी है। यहां सब कोई स्मार्ट है। पहनावे में, आचरण में, विचार में, लूट-खसोट में, ठगी-बेईमानी में। सब में लोग स्मार्ट हैं। यहां जरा सी निगाह चूकी नहीं कि आंख से काजल क्या पूरी आंख ही गायब हो जाती है।' जब मैं यह कह रहा था, तभी बगलोल चंद ने अपनी जेब से चूना-तंबाकू निकाला और हथेली पर दोनों को मिलाकर दस-बारह बार रगडऩे के बाद ठोंका-पीटा, फिर हथेली से उठाकर होंठों के नीचे दबा लिया। होंठों के बीच तंबाकू दबाने के बाद उन्होंने मुझसे कहा, 'तुम यहीं खड़े रहो, मैं थोड़ा निबटकर आता हूं।'
मैं कुछ कहता कि वे तत्काल आगे बढ़ गए। काफी देर बीतने के बाद जब बगलोल चंद नहीं लौटे, तो मैंने उन्हें खोजना शुरू किया। काफी खोजने पर भी वे नहीं मिले। मैं घबरा रहा था। चार-पांच घंटे बाद मैंने उनकी गुमशुदगी की रिपोर्ट लिखाने का फैसला कर पूछते-पाछते पुलिस थाने पहुंचा, तो देखा, एक कोने में बगलोल चंद बैठे बिसूर रहे हैं। मैंने उनको डपटते हुए कहा, 'तुम कहां गायब हो गए? यहां क्यों बैठे हो, घर नहीं चलना है?' तभी एक सब इंस्पेक्टर ने गुर्राते हुए कहा, 'दस हजार जुर्माना अदा कर दो, इस बगलोल को ले जाओ।' मैंने पूछा, 'क्या मतलब? किस बात के दस हजार रुपये? कैसा जुर्माना?' इंस्पेक्टर ने कहा, 'पब्लिक प्लेस में लघुशंका करने का।' बहुत हाय-हाय, खींच-तान के बावजूद इंस्पेक्टर एक भी रुपया कम करने को तैयार नहीं हुआ। तो मजबूरन एटीएम से पैसा निकालकर जमा करना पड़ा। मैंने निकलते समय इंस्पेक्टर से पूछा, यहां कोई टॉयलेट-वायलेट है कि नहीं? इंस्पेक्टर ने बताया कि स्मार्ट सिटीज में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं होती है। मैं बगलोल चंद के साथ जल्दी से थाने से यह सोचते हुए बाहर आ गया कि स्मार्ट सिटी के लोगों को शायद लघु या दीर्घ शंका की जरूरत नहीं पड़ती होगी, तभी न इसकी व्यवस्था नहीं की  गई है।

Monday, August 24, 2015

अंकल ...चंदा दो

अशोक मिश्र
मैं सोकर ही उठा था कि दस-बारह लड़कों ने मेरा घर घेर लिया। मैंने सवालिया निगाहों से उनकी ओर देखा, तो उनका गुंडा नुमा नेता अपने झुंड से बाहर आया। उसने साफ सुथरे फर्श पर पान की पीक थूकते हुए कहा, 'अंकल..चंदा दो।Ó सुबह-सुबह चंदा मांगने की बात से मैं उखड़ गया, 'तुमने मेरे घर को किसी कंपनी का दफ्तर समझ रखा है क्या कि मुंह उठाया और चले आए चंदा मांगने। मैं किसी पार्टी-शार्टी को चंदा-वंदा नहीं देता। भाग जाओ।Ó नेता नुमा गुंडा गुर्राया, 'चंदा तो आपके पुरखे भी देंगे, आप क्या चीज हैं।Ó
बात आगे बढ़ती कि तभी घरैतिन बाहर निकल आईं। पत्नी को देखते ही गुंडा नुमा नेता ने झुककर उनके चरण स्पर्श करते हुए कहा, 'आंटी..देखिए न! हजार-पांच सौ रुपये के होली के चंदे के लिए अंकल किस तरह हुज्जत कर रहे हैं। आप समझाइए न इनको।Ó घरैतिन ने पांच सौ रुपये का नोट आगे बढ़ाते हुए कहा, 'अरे बेटा! जाने दो। सठियाया आदमी ऐसा ही होता है।Ó और फिर मुझे घूर कर देखा।
चंदा मांगने आए लड़कों के चेहरे पर पांच सौ का नोट देखते ही एक चमक आ गई। लड़के ने नोट को उलट-पलट कर देखने लगा। मुझसे रहा नहीं गया, 'अबे! नोट को ऐसे क्या देख रहा है?Ó 'कुछ नहीं अंकल! देख रहा था कि कहीं कालाधन तो नहीं है। लोग आजकल काले धन को ही चंदे में देते हैं। अच्छा यह बताइए, आप इनकम टैक्स तो देते हैं न। पैन कार्ड तो होगा ही।Ó मैं गुस्से से उबल पड़ा, 'हां..हां..यह काला धन ही है। वापस कर दे मेरा पैसा। हवाला के जरिये अभी थोड़ी देर पहले स्विटजरलैंड से मंगाया है।Ó मेरी बात सुनते ही लड़के हंस पड़े। उनमें से एक ने कहा, 'अंकल! आप एक बात बताइए। आपने जो यह पांच सौ का नोट होली के चंदे में दिया है, वह किस दिन की कमाई का है? मेरा मतलब है कि इस महीने की सैलरी का है या पिछले महीने का। या फिर उससे भी पिछले महीने का? आप अपनी बचत में से दे रहे हैं या फिर आंटी की बचत का? इनकम टैक्स पेयर तो आप हैं कि नहीं? आपने पैनकार्ड बनवा रखा है कि अभी बनवाना है? आधार कार्ड तो होगा न आपके पास?Ó
'अबे! तुम लोग चंदा मांगने आए हो या चंदे के बहाने डकैती डालने की खातिर रैकी करने।Ó मैं उबल पड़ा। 'वो क्या है न, अंकल! आजकल बड़ा ध्यान रखना पड़ता है। पहले सब कुछ कितना आसान था होली का चंदा मांगना। जिसके घर चंदा मांगने गए, थोड़ी बहुत हुज्जत के साथ चंदा दे देता था। मान लीजिए नहीं दिया चंदा, तो उसकी कुर्सी-मेज, पलंग रात में उठाकर होली में डाल दिया। थोड़ी दारू ज्यादा हो गई, तो मार-पीटकर ली। होली बीती, तो माफी मंगा ली। लेकिन अब चंदा न मिलने से ज्यादा लफड़े वाला काम चंदा मिलना हो गया है। सब कुछ ध्यान रखना पड़ा है। आप तो सब कुछ समझते ही हैं अंकल। आपको क्या बताना।Ó इतना कहकर चंदा मांगने वाला का हुजूम आगे बढ़ गया।

Wednesday, August 12, 2015

दिल्ली में तो रामराज्य है

 अशोक मिश्र
हाई स्कूल के एक छात्र ने 'केंद्र और दिल्ली सरकार के शांतिपूर्ण सहअस्तित्वÓ पर निबंध लिखा, 'दिल्ली में जब से लोकपाल बिल पास हुआ है, एकदम रामराज्य कायम हो गया है। राज्य सरकार के मंत्री, विधायक और नेता ही नहीं, विपक्ष में बैठे विधायक तक पहली तारीख को जनता के सामने अपनी कमाई का ब्यौरा पेश कर देते हैं। केंद्र और राज्य सरकार के बीच तो ऐसे संबंध हैं, जो कि बड़े भाई की सरकार केंद्र में हो और छोटे भाई की सरकार राज्य में। प्रधानमंत्री जी को जब भी किसी मामले में विचार-विमर्श करना होता है, तो वे अपनी पार्टी के सदस्यों के साथ-साथ दिल्ली सरकार के मुखिया को भी बिठा लेते हैं। उनकी बातों को गौर से सुनते हैं और अगर लगा कि छोटे भाई यानी कि दिल्ली सरकार के मुखिया की बात में दम है, तो वे तुरंत उसे लागू भी कर देते हैं। अगर प्रधानमंत्री जी किसी काम से मुख्यमंत्री जी के घर के आसपास से गुजर रहे हों, तो वे उनके यहां जाकर कुछ देर बैठते हैं। मुख्यमंत्री जी भी प्रधानमंत्री जी को बिना कुछ खिलाए-पिलाए वापस नहीं जाने देते हैं।Ó दोनों भाई जब भी मीडिया के सामने आपसी संबंधों की चर्चा करते हैं, तो एक दूसरे की तारीफ के पुल बांधते ही रहते हैं। गले मिलते हुए फोटो खिंचवाते हैं।Ó
उस छात्र ने आगे लिखा, 'दिल्ली में एक 'एलजीÓ होता है। एलजी का फुलफॉर्म क्या होता है, मुझे नहीं मालूम। लेकिन सुनते हैं कि मुख्यमंत्री जी अपना राजकाज चलाने में इनसे बहुत सहयोग लेते हैं। 'एलजीÓ जी भी बड़े उदारमना हैं। जब भी पुलिस से संबंधित कोई मामला आता है, तो मुख्यमंत्री जी पुलिस अधिकारियों से कहते हैं कि एलजी साहब से पूछो क्या करना है। जब पुलिस वाले एलजी साहब के पास जाते है, तो एलजी साहब कहते हैं कि मुख्यमंत्री जी से पूछो। इस मामले में उनके ही आदेश चलेंगे। बेचारी पुलिस इन दोनों लोगों के अतिशय प्रेम के चक्कर में फंसकर वही करती है, जो उसे सुहाता है। कई बार तो यह सुहाना आम जनता पर ही भारी पड़ जाता है। लेकिन मजाल है कि दिल्ली की जनता इन तीनों लोगों के आपसी प्रेम और भाईचारे पर तनिक भी नाराज हो।Ó निबंध तो बहुत बड़ा था, लेकिन यह उसका सार-संक्षेप है।

Wednesday, August 5, 2015

अब छबीली भी बनेगी शिक्षामंत्री

अशोक मिश्र
मेरे मोहल्ले में रहती है छबीली। पूरे मोहल्ले के दिलों की धड़कन है छबीली। युवाओं के दिल की धड़कने उसे देखते ही बढ़ जाती है, चेहरे पर रौनक आ जाती है। लेकिन महिलाएं जब उसे अपने घर  के आसपास देखती हैं, तो इस भय से उनके दिल की धड़कनें बढ़ जाती हैं कि कहीं रमुआ के पापा तो लप्पो-छप्पो नहीं कर रहे थे इसके साथ। आज घर पहुंचा तो देखा कि दशहरे के हाथी की तरह सजी-संवरी छबीली विराजमान है। घरैतिन से मूक नजरों से  भीतर ही भीतर प्रसन्न होते हुए सवाल किया, तो वह बोली, 'आप यहीं आकर बैठिए, मैं जरा चाय-पानी की व्यवस्था करती हूं।' मैं हैरान रह गया कि कल तक छबीली के नाम से भड़कने वाली घरैतिन आज मुझे उसके साथ बैठने को कह रही हैं, तो जरूर कोई लोचा है। 
मैंने उसके सामने बैठते हुए उसे भरपूर नजरों से निहारा, तो वह मुस्कुराई। बोली, 'जीजू...आप जानते ही हैं कि बहुत जल्दी मंत्रिमंडल का विस्तार होने वाला है। मैं आपसे यह पूछने आई हूं कि अगर बैक डोर से मेरी मंत्रिमंडल में इंट्री होती है, तो कौन सा विभाग मांगू।'
यह एक और धमाका था मेरे लिए। कल तक पार्टी का झंडा उठाकर चलने वाली छबीली मंत्री बनने जा रही है। सबसे बड़ी बात यह है कि जो मुझे देखकर बिदक जाया करती थी, वह आज जीजू कहकर संबोधित कर रही है। मैंने कहा, 'तुम कौन सा विभाग लेना चाहती हो।' उसने तपाक से मुस्कुराते हुए कहा, शिक्षा विभाग। उसकी बात सुनकर मुझे लगा कि मेरी कनपटी के नीचे बम विस्फोट हुआ है। 'छन्न' से कान बज उठा। वह इठलाती हुई बोली, 'बात यह है जीजू....बचपन में मैंने मास्टरों की बहुत मार खाई है। मास्टरों की मारने-पीटने और परीक्षा के दौरान कड़ाई करने के चलते ही मैं दसवीं में पांच बार फेल हुई और झख मारकर मेरे बाबू जी ने एक फटीचर के साथ मुझे बांध दिया।'
उसकी बात सुनकर मैं भौंचक रह गया। सोचने लगा कि इस देश के कुछ शिक्षा मंत्री तो पहले से ही शिक्षा व्यवस्था का कबाड़ा करने पर तुले हुए हैं, अब अगर यह भी उनमें शामिल हो गई, तो भगवान ही मालिक है इस देश-प्रदेश के नौनिहालों का। मैंने कहा, 'अरे नहीं..तुम कोई दूसरा विभाग देख लो, बच्चों को बख्श दो, यह उन पर बहुत बड़ी मेहरबानी होगी। वैसे भी शिक्षा मंत्री को बहुत पढ़ा लिखा होना चाहिए।'
मेरी बात सुनकर छबीली बमक गई, रोष भरे शब्दों में बोली, 'क्यों जीजू...जब मध्य प्रदेश में बिना पढ़े-लिखे लोग पीएचडी कर सकते हैं, डॉक्टर बन सकते हैं, फर्जी डिग्री हथिया कर मंत्री, सांसद और विधायक बन सकते हैं, तो मैं शिक्षा मंत्री क्यों नहीं बन सकती। झारखंड की वह बहन भी तो शिक्षा मंत्री है, जो प्रदेश को देश बना देती है। आखिर मेरे शिक्षा मंत्री बनने में क्या बुराई है।'
'देख..छबीली..शिक्षा मंत्री का पद बहुत जिम्मेदारी का पद है। यह देश-प्रदेश के नौनिहालों के भविष्य का सवाल है। तू दूसरा कोई भी विभाग ले ले, लेकिन यह विभाग तो भूलकर भी न लेना।' मैंने समझाने की कोशिश की।
मेरे इतना कहते ही वह कुछ रुष्ट स्वर में बोली, 'आप मुझे बेवकूफ समझते हैं। आप को मेरा टेस्ट लेना हो, तो ले लीजिए। आप तीन सवाल पूछिए और अगर मैं जवाब नहीं दे पाई, तो अपना इरादा बदल दूंगी। मैंने उसके यह कहते ही तपाक से पूछा, 'सिकंदर कौन था?' वह भी उसी तत्परता से बोली, 'जीजू..था नहीं, है कहिए। मेरी मौसी की बड़ी बेटी के देवर हैं सिकंदर बाबू। उनकी शादी मेरी बड़ी बुआ की देवरानी की बहन से हुई है। क्या पर्सनॉल्टी है उनकी..एकदम रणबीर कपूर लगते हैं।'
मैं उसका जवाब सुनकर सहम गया। मैंने धीमे स्वर में पूछा, 'और पोरस?' मेरा सवाल सुनकर पहले तो छबीली शरमाई और बोली, 'क्या जीजू..अब आप ठिठोली करने लगे। पोरस नहीं..पौरुष..यह तो उसमें काफी कूट-कूटकर भरा है। एकदम चौड़ा सीना, भरी-भरी मांसल बाहें, चौड़ा माथा..मेरी बड़ी बुआ की देवरानी के घरवालों ने तो उसे देखते ही पसंद कर लिया था। उसे देखकर न..कोई भी लड़की उस पर लट्टू हो सकती है। आपको सच बताऊं..कभी मैं भी लट्टू हुई थी, लेकिन मुए ने घास ही नहीं डाली।' छबीली का जवाब सुनकर मैं तीसरा सवाल करने का साहस नहीं जुटा पाया। मुझे चुप देखकर छबीली प्रसन्नता से उछल पड़ी और हांक लगाकर बोली, 'जिज्जी..मैंने जीजू को भी संतुष्ट कर दिया है। अब वे भी मान गए हैं। मैं अभी जाकर मुख्यमंत्री जी को बताती हूं कि मुझे शिक्षा विभाग ही चाहिए।' इतना कहकर वह दनदनाती हुई घर से निकल गई। घरैतिन हांक लगाती रह गईं, 'अरी चाय तो पीती जा..।' मैं तब से इस इंतजार में हूं कि मेरी साली छबीली साहिबा कब शिक्षा मंत्री बनती हैं और मैं लोगों पर रोब गांठ सकूं कि खबरदार! जो कभी तीन-पांच किया, तो साली से कहकर 'तीयां-पांचा' करवा दूंगा।