Tuesday, April 24, 2012

कब बनेंगे ‘बाबा’ से ‘भगवान’?

-अशोक मिश्र
बीरबल से लगभग आठ साल बाद मुलाकात हुई। पहले तो मैं उन्हें पहचान नहीं पाया। पहचानता भी कैसे? जिन दिनों मैं बीरबल को जानता था, तब वे साधारण-सी टुटही साइकिल पर पूरे शहर का चक्कर लगाते फिरते थे। अगर कहीं से उन्हें दस रुपये भी मिलने की संभावना दिखती, तो वह बिना दिन देखे या रात, दौड़ लगा देते। पतले-दुबले शरीर के मालिक बीरबल बातूनी बहुत थे। महिलाओं से बात करने का तो जैसे उन्हें नशा था। उनमें पता नहीं क्या खूबी थी कि महिलाएं उनसे बातें भी खूब करती थीं। उसी बीरबल को कल फेरारी कार से थुलथुल शरीर लिए उतरते देखा, तो मैं दंग रह गया। पहले तो मुझे अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ। उन्होंने शरीर पर भगवा धारण कर रखा था और इलाके के धनाढ्य और नवधनाढ्य पुरुष और महिलाएं उन्हें घेरे हुए थे। कोई उनके चरण छू रहा था, तो कोई याचक की मुद्रा में हाथ जोड़े खड़ा था। मैं लपककर उनके पास पहुंचा, ‘अरे बीरबल! पहचाना तुमने...मैं तुम्हारा पड़ोसी...। तुम बाबा कब से हो गए?’
मुझे देखकर बीरबल अकबका गए। पलभर तो उन्होंने मुझे अपनी भावभंगिमा से नकारने का प्रयास किया, फिर बोले, ‘ऐसा करो शाम को आश्रम पर आओ। पांच दिनों के लिए मैंने ‘लाओ दे जाओ’ होटल में आश्रम खोल रखा है।’ इतना कहकर बीरबल अपने भक्तों के साथ चलते बने। मैं वहीं ठगा-सा खड़ा रहा। शाम को होटल पहुंचा। बीरबल ने मुझे देखते ही साइड में बने कमरे में आने का इशारा किया। कमरे में मिलते समय न जाने क्यों पहले जैसी गर्मजोशी नहीं थी। पहले बीरबल मुझे देखते ही लपककर गले लगा लेते थे। मैंने सुबह वाला अपना सवाल दोहराया, ‘अरे बीरबल! तुम बाबा कब से हो गए?’
बाबा ने परमहंसी मुस्कान बिखेरते हुए कहा, ‘यह सब ग्रहों का खेल है। जब मेरी कुंडली के पांचवें घर में बैठा चंद्रमा पहले घर में बैठे राहु से टांका भिड़ा रहा था, तो मैं टुटही पनहिया पहने जर्जर साइकिल पर रद्दी खरीदता-बेचता था। चवन्नी-अठन्नी के लिए ग्राहकों से घंटे-घंटे तक बहस करता था। लेकिन समय का फेर देखो। ग्रहों की चाल बदली तो अपनी भी चाल बदल गई। अब तो एक घंटे का प्रवचन भी दस-बारह लाख रुपये दे जाता है। टीवी चैनल वाले कैमरा लिए आगे-पीछे डोलते हैं कि दस-बारह सेकेंड की ही बाइट मिल जाए, ताकि टीआरपी बढ़ जाए। इन दिनों तो अपनी पांचों अंगुलियां घी में और सिर कड़ाही में है। सब ग्रहों का फेर है। ग्रहों के फेर से कोई नहीं बच सका है। ग्रह अच्छे थे, तो राजा दशरथ के घर में राम पैदा हुए। ग्रहों की चाल क्या बिगड़ी, उन्हें अपनी पत्नी और भाई के साथ वन-वन भटकना पड़ा।’
मैंने मजाक करते हुए कहा, ‘बीरबल जी! आपकी शानोशौकत देखकर विश्वास नहीं होता कि आज से आठ-दस साल पहले आप घर-घर घूमकर रद्दी खरीदते-बेचते थे।’ मेरी बात सुनकर बीरबल तल्ख लहजे में बोले, ‘देखो, पहली बात तो यह है कि तुम मुझे बीरबल नहीं, बीरबल बाबा बोलो। अब मैं तुम्हारा पड़ोसी रद्दी खरीदकर गुजारा करने वाला बीरबल नहीं हूं। लाखों-करोड़ों रुपये की लागत से देश भर में मेरे चार-पांच आश्रम चलते हैं। बड़े-बड़े घरों की महिलाएं और पुरुष पांव छूते हैं, आशीर्वाद मांगते हैं।’
‘अच्छा बाबा जी, आपके ग्रहों की चाल अब कब बदलेगी?’ न चाहते हुए भी मेरे मुंह से यह निकल ही गया। मेरी बात सुनकर बाबा जी चौंके, ‘क्या मतलब? तुम कहना क्या चाहते हो?’ मैंने हकलाते हुए कहा, ‘मेरा मतलब है कि अब आप ‘बाबा’ से ‘भगवान’ कब बनने वाले हैं। मेरा कहने का मतलब है कि ज्यादातर बाबा ऐसा ही करते...।’ मैं अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाया था कि बीरबल बाबा गुर्रा पड़े, ‘मेरे ग्रहों की चाल अब कभी नहीं बदलेगी। मैं इसी तरह आने वाले दो दशकों तक बाबा बना रहूंगा। तब तक मैं इतना कमा चुका होऊंगा कि आने वाली पांच पुश्तों को कमाने की जरूरत नहीं पड़ेगी।’ इसके बाद बाबा ने मुझसे कहा, ‘अब तुम जाओ। चेलियों को प्रवचन देने का समय हो गया है। और हां, फिर कभी मेरे आश्रम में मत आना। आना तो बाकायदा फीस चुकता करके आना।’ इतना कहकर बीरबल बाबा उठे और चले गए। मैं भी घर लौट आया। सुबह अखबार से मुझे पता चला कि रात को पुलिस ने कथित आश्रम पर छापा मारकर बीरबल बाबा को धोखाधड़ी के आरोप में गिरफ्तार कर लिया है। अब अपने ग्रहों की चाल न बदलने का दावा करने वाले बीरबल के ग्रहों की चाल एक बार फिर बदल गई थी।

Wednesday, April 18, 2012

..तो बेटा समझो गए काम से

-अशोक मिश्र

रविवार की सुबह अखबार पढ़ते हुए चाय पी रहा था कि दरवाजे पर उस्ताद मुजरिम की आवाज सुनाई दी। मैं उसी तरह सतर्क हो गया, जैसे किसी बिलौटे को देखकर चूहे सतर्क हो जाते हैं। कप टेबल पर रखते हुए उनके स्वागत के लिए मैं दरवाजे की ओर लपका। तब तक मुजरिम घरैतिन और बच्चों को आशीर्वाद का टोकरा थमाकर कमरे में घुस चुके थे। मैंने उन्हें प्रणाम किया। उन्होंने सामने रखे सोफे पर पसरते हुए कहा, ‘और सुनाओ बरखुरदार! क्या चल रहा है?’

‘आपका आशीर्वाद है’ कहकर मैंने घरैतिन को चाय-पानी लाने को कहा। इसके बाद मैंने अपना कप उठाया और चाय पीने लगा। तभी मुजरिम की नजर मेरे कप पर पड़ी। उसे देखते ही वे चीखे, ‘अरे! तुम ऐसे कप में चाय पीते हो। तब तो समझो बेटा, तुम गए काम से। अभी पिछले हफ्ते होनोलूलू यूनिवर्सिटी की एक रिपोर्ट में खुलासा हुआ है कि ऐसे कपों में चाय या पानी पीने से ‘डेंटाफर्टा मेथोडिस’ हो जाता है।’

उस्ताद की बात सुनकर मैं डर गया। पूछा, ‘डेंटाफर्टा मेथोडिस क्या बला है, उस्ताद?’ उस्ताद मुजरिम गंभीर हो गए, ‘यह एक वायरस है। यह वायरस खास तौर पर ऐसे ही बर्तनों में पलता है। इस वायरस के संपर्क में आने के बाद आदमी के दांत झड़ जाते हैं, आंखें सिकुड़ जाती हैं। वह कहता है ‘फ’ और मुंह से निकलता है ‘द’। पैर थोड़े छोटे हो जाते हैं। कहने का लब्बोलुबाब यह है कि आदमी अपनी स्वाभाविक उम्र से पहले ही अल्लाह को प्यारा हो जाता है।’ मैंने तत्काल चाय सहित कप उठाकर बाहर फेंक दिया। घरैतिन को आवाज लगाई, ‘अरी बेगम! पानी दो। हाथ धोना है।’ मेरी आवाज सुनकर घरैतिन एक जग पानी लेकर कमरे में नमूदार हुईं। मैंने उनसे हाथ धुलाने को कहा। घरैतिन हाथ पर पानी डालतीं, उससे पहले मुजरिम बोल पड़े, ‘अरी बहू, रुको। यह क्या कर रही हो। मुझे तो पानी प्रदूषित लग रहा है। पानी की जांच करा ली है कि नहीं? कहीं इसमें ‘फ्लोरोसिस आॅफ कंचाखेल’ बैक्टीरिया तो नहीं हैं। जानते हो, येल यूनिवर्सिटी के कुछ प्रोफेसर्स ने अभी दो महीने पहले भारत की नदियों और तालाबों के पानी की जांच की थी। देश की ज्यादातर नदियों और तालाबों में ‘फ्लोरोसिस आॅफ कंचाखेल’ के बैक्टीरिया खतरनाक स्तर तक पाए गए हैं। इस बैक्टीरिया के चलते इंसान के मस्तिष्क में अजीब-अजीब तरह के विचार पैदा होने लगते हैं। प्रोफेसरों ने सात सौ भारतीयों पर इस बैक्टीरिया के प्रभाव का परीक्षण किया था। जिसको ‘फ्लोरोसिस आॅफ कंचाखेल’ बैक्टीरिया युक्त पानी पीने को दिया गया, उसमें से ज्यादातर लोगों ने या तो अपनी बीवी या पति से झगड़ा किया। दो तिहाई लोगों ने तो उत्तेजना में अपने साथी को ‘कंटाप’ भी मारा।

घरैतिन बोलीं, ‘दादा! हम दोनों अकसर पगहा तुड़ाए बैल की तरह भिड़ते रहते हैं। कहीं उस बैक्टीरिया के कारण तो नहीं?’ मैंने तपाक से कहा, ‘क्या बकवास करती हो? बैक्टीरिया को हमारे लड़ाई-झगड़े से क्या लेना-देना है? अब कल को तुम कहोगी कि ज्यादा सांस लेने से दिल कमजोर हो जाता है, ज्यादा दौड़ने से किडनी पतली हो जाती है।’ ‘लेना-देना क्यों नहीं है, जी। आप मानें या न मानें, लेकिन मुझे लगता है कि दादा ठीक कह रहे हैं। जब से यहां का पानी पीना शुरू किया है, तब से इनका दिमाग खराब रहने लगा है। इससे पहले तो ये ऐसे न थे।’ घरैतिन ने घूंघट को संभालते हुए कहा।

घरैतिन की बात सुनते ही मैं उखड़ गया, ‘क्या बकती हो? मेरा दिमाग खराब हो गया है? तुम तुरंत मेरी नजरों से दूर जाओ, वरना पागलपन में कहीं तुम्हारा सिर न फोड़ दूं।’ मेरी बात सुनते ही घरैतिन तो वहां से रफूचक्कर हो गईं। बच गए उस्ताद मुजरिम। मैंने नाराजगी भरे स्वर में कहा, ‘क्या उस्ताद आप भी न! हमेशा बेसिर-पैर की बातें करते रहते हैं। लगता है कि आप भी सठिया गए हैं। बुढ़ापे में फालतू बातें कुछ ज्यादा ही सूझती हैं। आप फालतू के समाचार पढ़ने बंद कीजिए।’ इतना कहकर मैं उठा और घरैतिन द्वारा लाया गया पानी गटागट पीने लगा। उस्ताद मुजरिम भौंचक-से बैठे मुझे देखते रहे और फिर उठकर घरैतिन के पास जाकर उसे उपदेश देने लगे। मैंने घरैतिन को चाय को कहा और अखबार बढ़ने में तल्लीन हो गया।

Monday, April 16, 2012

बिकने दीजिए चश्मा-चरखा

-अशोक मिश्र
मैं सूनसान रास्ते से लंबे डग भरता चला जा रहा था कि पीछे से आवाज आई, ‘बेटा! सुनो तो।’ मैंने घूमकर देखा, अपनी पारंपरिक वेशभूषा में बापू खड़े थे। बापू बोले तो अपने राष्ट्रपिता मोहनदास करमचंद गांधी। मैं भौंचक रह गया। मुझे लगा कि कहीं मेरे दिमाग में भी कोई केमिकल लोचा तो नहीं पैदा हो गया है। फिल्म ‘लगे रहो मुन्ना भाई’ में संजय दत्त को भी केमिकल लोचा के चलते बापू दिखाई देने लगते हैं। और फिर, एक गुंडे का हृदय परिवर्तन होता है और वह गांधीगीरी करने लगता है। मैंने अपनी आंखें झपकाई, सिर को झटका, लेकिन बापू फिर भी दिखते रहे। बापू थोड़ा आगे बढ़े और मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए क्षीण स्वर में बोले, ‘बेटा! सुनो तो, मैं तुमसे ही बात कर रहा हूं।’ मैंने सोचा, चलो बापू से बात कर ही लेते हैं। अगर वाकई बापू हुए, तो कोई बात नहीं। अगर दिमाग में केमिकल लोचा हुआ, तो कल ही किसी हास्पिटल में जाकर चेकअप कराऊंगा।
मैंने बापू से कहा, ‘हां बताइए। मैं आपके किस काम आ सकता हूं।’ उन्होंने दीन स्वर में कहा, ‘बेटा! मेरा चश्मा और चरखा बिक रहा है। किसी तरह उसे बिकने से बचा लो। उसे बिकने न दो।’ मैं उनकी बात सुनकर भौंचक रह गया, ‘बापू! इस देश का मैं एक अदना-सा आम आदमी हूं। मैं भला आपके चश्मे और चरखे को बिकने से कैसे बचा सकता हंू? इसके लिए आपको सत्ता के गलियारे में गुहार लगानी चाहिए। उनकी मर्जी न हो, तो आपका चश्मा और चरखा क्या, देश का एक तिनका भी नहीं बिक सकता। खरीद-फरोख्त का धंधा भी तो वही करते हैं।’
बापू बोले, ‘मैं गया था सबके पास गुहार लगाने, लेकिन मेरी कोई सुनता ही नहीं है। कई नेताओं के तो दरबान ने ही झिड़ककर भगा दिया। मंत्रियों से मिलने की कोशिश की, तो पता चला कि पहले से टाइम लिए बिना कोई उनसे मिल ही नहीं सकता। अब इस लोकतंत्र में आम आदमियों से ही उम्मीद बची है।’
बापू की बात सुनते ही पता नहीं क्यों, इस लोकतांत्रिक व्यवस्था का कथित भाग्य विधाता किंतु हकीकत में सबसे निरीह आम आदमी का गुस्सा मुझमें आ समाया। मैंने रोष भरे शब्दों में कहा, ‘बापू! इसके लिए भी आप ही दोषी हैं। आपकी भौतिक मृत्यु भले ही बाद में हुई हो, लेकिन दार्शनिक मौत तो आपके जीवित रहते ही हो गई थी। आपके जिंदा रहते जब आपके चेले गांधीवादी दर्शन को बेचकर कमाने-खाने का जरिया बना रहे थे, तब आपने कोई प्रतिरोध नहीं किया। इधर आपकी मौत हुई, उधर आपके अपनों ने ही गांधीवादी दर्शन का क्रिया-कर्म कर डाला। खादी और चरखे का हुंडी की तरह भुनाकर अपनी तिजोरी भरने लगे। पहले ईमान बेचा, फिर देश बेचने लगे। जब ईमान की कीमत दो कौड़ी की रह गई, तो अब वे आपका चश्मा, घड़ी, लाठी और आपकी लंगोट बेचने पर तुले हुए हैं।’
मैं धारा प्रवाह बोलता जा रहा था और बापू चुपचाप खड़े सुन रहे थे, ‘बापू! शायद आपको पता न हो, आपकी इन चारों वस्तुओं का अब तक। आपकी घड़ी पर शुरू से ही पूंजीपतियों की निगाह थी, सो वे ले गए। लाठी नेताओं के हाथ आई, जिसके सहारे वे अपनी लड़खड़ाती राजनीति को सहारा देने लगे। जरूरत पड़ती थी, तो आपके ‘वैष्णव जन’ यानी आम जनता की पीठ पर बरसा लेते थे। गरीबी, बेकारी, भुखमरी और अपमान से बेजार जनता इन राजनीतिज्ञों के खिलाफ बगावत न कर दे, इसीलिए सन सैंतालिस से ही आपके चहेतों ने ‘गांधीवादी चश्मा’ देश की जनता को पहना दिया था। बापू! अगर आप गौर करें, तो लंगोट भी आपकी नहीं रह गई थी। लंगोट तो इस देश के लंपटों ने पहन रखी थी। आपके दर्शन को यदा-कदा फिल्मी दुनिया वाले बिकाऊ माल की तरह जनता में बेच रहे हैं। अब अगर नेता आम जनता की आंखों पर चढ़ा चश्मा और इस औद्योगिक युग में बेकार हो चुके चरखे को बेच देना चाहते हैं, तो उसे बेच देने दीजिए। इन भौतिक वस्तुओं को बचाकर आप करेंगे भी क्या?’
मैं बोलता जा रहा था, बोलता जा रहा था। पीछे-पीछे चले आ रहे बापू मेरी बात गौर से सुन रहे हैं या नहीं, यह जानने के लिए मुड़कर देखा, तो पता चला कि कोई है ही नहीं। मैं अकेला ही बड़बड़ाता चला जा रहा हूं। मुझे लगा कि मेरे दिमाग में कोई केमिकल लोचा पैदा हो गया है। मैं कहीं पागल तो नहीं हो गया हूं। आपका क्या ख्याल है!

Thursday, April 5, 2012

केंद्र सरकार माने गरीब की जोरू

-अशोक मिश्र

जो लोग मुझे जानते हैं, वे इस बात को बड़ी शिद्दत से मानते हैं। लेकिन अफसोस है कि मैं पिछले डेढ़ दशक से घरैतिन को यह विश्वास दिलाने में असफल रहा हूं कि मैं मूलत: रसिक हूं, अय्याश नहीं। और रसिक होना कोई ऐब नहीं है। इस बात को लेकर आए दिन गृहस्थी के बरतन आपस में टकरा जाते हैं। कुछ बर्तन टूटते भी हैं, लेकिन टूट-फूट सिर्फ मेरे हिस्से ही आती है। आप सब मतलब तो समझ ही गए होंगे। अब कल का ही वाकया लें। शाम को आम पतियों की तरह सब्जियों का थैला हाथ में लटकाए हांफता-कांपता बाजार से आ रहा था। अपने घर के दरवाजे पर खड़ी छबीली से मुलाकात हो गई। दुआ-सलाम के बाद शुरू हुई बातचीत गरीबी की नई परिभाषा पर बहस में कब तब्दील हो गई, मुझे पता ही नहीं चला। हम दोनों अपने-अपने तरकश से तर्कों के तीर चलाकर एक दूसरे को निशस्त्र करने की कोशिश में जूझ ही रहे थे कि तभी मेरी घरैतिन घर से बाहर निकल आईं।

मुझे छबीली से बतियाता देखकर ‘अगिया बैताल’ हो गई। घर आने पर मैंने उसे लाख समझाया कि मैं छबीली से सिर्फ बातचीत कर रहा था, नैन मटक्का नहीं। लेकिन घरैतिन हैं कि मानती ही नहीं। कई बार सफाई देने पर भी जब उसका मुंह फूला ही रहा, तो मुझे भी गुस्सा आ गया। मैंने रोष भरे स्वर में कहा, ‘क्या तुम मुझे ‘गरीब की जोरू’ समझती हो?’ मेरे दस वर्षीय सुपुत्र चिंटू प्रसाद अपनी किताब लिए पास में ही बैठे पढ़ने का ढोंग कर रहे थे। उनका ध्यान पढ़ाई को ओर कम, हम दोनों की तकरार की ओर ज्यादा था। उन्होंने ऊंट की तरह किताब के पीछे छिपा अपना सिर उठाया और बोले, ‘पापा! आपका मतलब ‘नीबर कै जोय, सब कै सरहज’ से है न।’

मैंने अपने क्रोध को काबू में करते हुए कहा, ‘हां बेटा।’ मेरी बात सुनकर उसके चेहरे पर बेचारगी भरी मुस्कान बिखर गई। उसने कहा, ‘पापा! मैं इस कहावत का माने-मतलब तो समझ रहा हूं, लेकिन एकाध उदाहरण नहीं सूझ रहा है। अगर आप उदाहरण सहित व्याख्या कर दें, तो हिंदी के एक्जाम में दूसरों से बाजी मार सकता हूं।’ अब आप सब लोग जानते ही होंगे कि भारत में अपने पिता को पढ़ाई के नाम पर ब्लैकमेल करने का अधिकार हर पुत्र को जन्मजात मिला हुआ है। घरैतिन से हुई ‘तू-तू, मैं-मैं’ भूलकर मैं बेटे को कहावत का उदाहरण सहित अर्थ समझाने लगा। मैंने बेटे से कहा, ‘तुम्हें मैं दो उदाहरणों से समझाने की कोशिश करता हूं। पहला, तो यह कि हर परिवार का मुखिया यानी पिता और पति अपने परिवार के सदस्यों के सामने गरीब की जोरू की तरह रहता है। परिवार के हर सदस्य को जन्मत: यह हक होता है कि वह जब चाहे, जैसे चाहे, अपने पिता या पति को मंदिर के घंटे की तरह बजाए। उससे हंसी-ठिठोली करे। उसका आर्थिक दोहन करे।’

मेरे इतना कहते ही बेटा उछल पड़ा। उसने आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा, ‘अच्छा! आपके कहने का मतलब यह है कि आप मेरे, मेरी मम्मी और दीदी के लिए ‘गरीब की जोरू’ के समान हैं।’ मैंने कहा, ‘इस देश का शायद ही कोई पिता या पति मेरी तरह डंके की चोट पर इस बात को स्वीकार कर सके, लेकिन हकीकत सौ फीसदी यही है।’
‘और दूसरा उदाहरण?’ सुपुत्र चिंटू प्रसाद ने सवाल दागा। मैंने कहा, ‘वर्तमान सरकार... इसकी दशा तो गरीब की जोरू से भी बदतर है। उसके पति की भूमिका में ‘दीदी’ हैं, ‘बहन’ जी हैं, ‘नेताजी’ हैं, अभी कुछ साल पहले तक ‘अम्मा जी’ भी थीं। एकदम द्रौपदी बनकर रह गई है केंद्र सरकार। जो जैसे चाहता है, वैसे नचाता है। और बेचारी केंद्र सरकार है कि तलाक के डर से गठबंधन धर्म निभाए जा रही है। कभी दीदी कहती हैं कि तुमने घाटे में चल रहे रेल विभाग को दुरुस्त करने के लिए यात्री किराया बढ़ाकर गलती की है, कान पकड़ो। और सरकार के बेचारे मुखिया जी डर कर दोनों हाथों से कान पकड़कर खड़े हो जाते हैं। लो दीदी! मान ली आपकी बात, अब कोई गलती नहीं करूंगा। बस, आप सरकार को गिरने मत देना।’ इतना कहकर मैं दूसरे कमरे में गया। टीवी चालू करके एक चैनल पर प्रसारित हो रहे ‘माई नेम इज शीला, शीला की जवानी’ गाने पर कैटरीना का डांस देखने में मशगूल हो गया।