Wednesday, February 11, 2015

पुरस्कार ही मेरे लायक नहीं

अशोक मिश्र
पुरस्कारों की घोषणा से पहले चहक रहे उस्ताद गुनाहगार कल बहुत उदास थे। पहले तो वे घर के कोनों को फौव्वारा पद्धति से सींचने का प्रयास करते रहे, लेकिन जब दुखों का प्रवाह सारे तटबंध तोड़कर बाहर निकलने को आकुल-व्याकुल हो उठा, तो वे मेरे घर आ गए। मेरे कंधे पर सिर रखकर फफक पड़े। मैंने उन्हें सांत्वना दी, तो दुखों का उत्सर्जन थोड़ा कम हुआ। वे सुबकते हुए बोले, 'इस बार भी मेरा नाम नहीं है। कई बार सूची पढ़ ली है।Ó मैंने उनके कंधे थपथपाते हुए कहा, 'कोई बात नहीं उस्ताद! इस बार नहीं, तो अगली बार मिल जाएगा। ये पुरस्कारों का मौसम कौन सा कुंभ का मेला है कि एक बार गया, तो बारह साल बाद आएगा। मुझे तो लगता है कि अगली बार आपको देश का सबसे बड़ा पुरस्कार मिलेगा। और मिलेगा क्या..सरकार को देना पड़ेगा।Ó
मेरे सांत्वना देने पर मुख पर छाया विषाद थोड़ा सा कम हुआ। गुनाहगार बोले, 'पिछले साल भी तो तुमने यही बात कही थी। पिछले बाइस साल से हम इसी इंतजार में बैठे हैं कि इस साल मिलेगा पुरस्कार, उस साल मिलेगा पुरस्कार। पिद्दी-पिद्दी भर के लोग सम्मानित हो रहे हैं। निरहू से लेकर घुरहू तक, कबाड़ी से लेकर पनवाड़ी तक, चोर से लेकर डाकू तक, अफसर से लेकर चपरासी तक सम्मानित किए जा रहे हैं, लेकिन मेरा नंबर ही नहीं आ रहा है। इस देश के साहित्य में मेरा भी कोई योगदान है कि नहीं? मेरा सम्मान होना चाहिए कि नहीं?Ó मैंने तपाक से जवाब दिया, 'हां..हां क्यों नहीं, उस्ताद! साहित्य में आपका योगदान निराला, पंत या प्रेमचंद से कम है क्या? आपके साहित्य का जब भी मैं विश्लेषण करता हूूं, तो पाता हूं कि आपके साहित्य में निराशावाद, प्रत्याशावाद, अभिलाषावाद की मौलिक प्रवृत्तियां ढेर सारी मात्रा में मौजूद हैं। अवसरवादी साहित्य के तो आप युगपुरुष हैं। ऐसा युगीन साहित्य रचकर आपने तो 'न भूतो न भविष्यतिÓ की अवधारणा को भी मात दे दी है। ऐसे में तो मैं सिर्फ इतना ही कहूंगा, उस्ताद कि ये जो पुरस्कार पाने वाले लोग हैं न, आपके मुकाबले किसी लाइन में नहीं लगते। ये लोग भला क्या खाकर आपका मुकाबला करेंगे। ये सब साहित्य के क्षेत्र में बच्चे हैं बच्चे। आप भी इन बच्चों के साथ 'कबड्डी-कबड्डीÓ खेल रहे हैं। यह आपको शोभा नहीं देता है।Ó इसी बीच मैं एक बोतल और दो गिलास के साथ नमकीन लाकर मेज पर रख चुका था। बोतल को देखते ही उनकी आंखों की चमक गहरी हो गई। दो पैग लगाने के बाद गुनाहगार फिर अपनी रौ में आ गए। बोले, 'हां यार! ये लोग सचमुच मेरे सामने बच्चे हैं। तुकबंदी करने वालों से अपना मुकाबला करके मैं अपने को ही छोटा साबित करूंगा। और अपने ही बच्चों से क्या मुकाबला करना। ये सब अपने ही चेले-चपाटे हैं। चेले-चपाटे बढ़ते हैं, तो मुझे भी अच्छा लेगा। दरअसल, बात यह है कि ये पुरस्कार ही मेरे लायक नहीं हैं।Ó इतना कहकर उस्ताद गुनाहगार अपने सघन दुख को गिलास से विरल करने लगे।

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