Thursday, March 7, 2013

कृपा कर दो ‘आईएम’ वाले भैया


अशोक मिश्र
हे ‘आईएम’ वाले भैया! सुना है कि आपने अब ‘धमकी-वमकी’ देने का भी धंधा अख्तियार कर लिया है। मेरी जानकारी के मुताबिक, आप लोग पहले ‘पटाखे-वटाखे’ फोड़कर जश्न मनाते थे। आपने जब इस नए धंधे में हाथ डाला है, तो कुछ सोच-समझकर ही फैसला लिया होगा। पटाखे फोड़ने वाला धंधा भी इतना चोखा नहीं था। लोग आपको कायर समझते हैं। सच बताऊं, मैं भी इसे अच्छा नहीं मानता था। यह क्या बात हुई कि चुपके से आए और भीड़ में पटाखे फोड़कर चले गए। 
पटाखे फोड़ने का श्रेय भी आपको बाद में मीडिया या ई-मेल भेजकर लेना पड़ता है। मैं आपको बताऊं, जब मैं बचपन में पड़ोसी के घर की खिड़कियों के शीशे पत्थर मारकर तोड़ता था, तो दोस्तों के बीच मेरे जिगरे की चर्चा हफ्ते भर तक होती थी। बाद में शिकायत होने पर भैया के हाथों मार भी बड़ी दिलेरी से खाता था। मेरे सारे दोस्त यह देखकर दंग रह जाते थे। कोई भी मुझसे पंगा नहीं लेता था। वे सोचते थे कि पता नहीं कब पड़ोसी की खिड़की में लगे शीशे की जगह उनका सिर फूट जाए। दस फीट दूरी से भी उन दिनों मैं निशाना भी सटीक लगाता था। दिनभर कंचे जो खेलता था। हां, तो मैं कह रहा था कि आपने नया धंधा शुरू किया है धमकी देने का, वह बड़ा चोखा है। इस मामले में ‘हर्र लगे न फिटकरी, रंग आए चोखा’ वाली कहावत बिल्कुल फिट बैठती है। अगर शिकार पुलिस के पास चला गया, तो कोई दूसरा शिकार ढूंढ लिया। नहीं तो, कमाई होनी ही है। इस संदर्भ में मेरी आपसे एक विनती है। आप खुद या अपने किसी छुटभैये आतंकी से कहकर मुझे धमकी भरा पत्र, ई मेल, एसएमएस भिजवा दो या फोन से धमकी दिलवा दो।
आईएम वाले भैया, मैं जहां भी रहूंगा, आपके गुन गाऊंगा। हो सका, तो आपकी प्रशंसा में एकाध ग्रंथ भी लिख दूंगा। मैं वायदा करता हूं कि मेरी जो भी अगली किताब प्रकाशित होगी, उसे आपको ही समर्पित करूंगा। अब लाख टके का सवाल यह है कि आखिर मैं ऐसा चाहता क्यों हूं? यह बात आपके दिमाग में फरवरी में उमड़ने वाले बादलों की तरह घुमड़ रही होगी। तो मैं आपको सच्ची बात बताने जा रहा हूं। बात दरअसल यह है आईएम वाले भैया कि मेरी पत्नी मुझे नकारा और दिलफेंक समझती है। वह बात-बात में तंज कसती है। कहती है कि मुझे उसके अलावा कोई नहीं पूछेगा, इसलिए बुढ़ापे में लड़कियों को देखकर लार टपकाना छोड़ दूं। आईएम वाले भैया! आप ही बताइए, पैंतालिस साल की उम्र भी भला कोई उम्र होती है। आप तो पता नहीं, पाकिस्तान में पैदा हुए हैं या हिंदुस्तान में। आपके पिता जी कहां के थे, मुझे नहीं मालूम, लेकिन खांटी हिंदुस्तानी होने के नाते मैं यह जानता हूं कि अपने देश में एक बहुत पुरानी कहावत है, साठा...तब पाठा। इस कहावत के मुताबिक, अभी कम से कम पंद्रह साल तक मैं लड़कियों को घूर सकता हूं, उन्हें लांग ड्राइव पर ले जा सकता हूं कि नहीं? हे आतंकवादी भैया! मैं चाहता हूं कि आप मुझे पहले धमकी दें और फिर अपहरण कर लें। कुछ दिन बाद छोड़ दें, ताकि इस समाज में मेरी भी कुछ इज्जत बढ़ जाए। 
सच बताऊं, मुझे धमकी मिलते ही, सबसे पहले मैं अपने संपादक जी के पास जाऊंगा और उनके कान में कहूंगा कि आईएम वाले भैया से मेरी अच्छी जान पहचान है। अगर इस महीने से तनख्वाह नहीं बढ़ी, तो सिर्फ एक काल का खर्च बढ़ेगा। बाकी आप समझ सकते हैं कि आपका क्या हश्र होगा। हो सकता है कि इस बात से डरकर वे मेरी तनख्वाह बढ़ा दें। पिछले दो साल से उन्होंने एक भी पैसा वेतन नहीं बढ़ाया है। जब भी उनसे तनख्वाह बढ़ाने की बात करता हूं, तो वे कागज, स्याही, ट्रांसपोर्टेशन खर्च के बढ़ जाने का रोना रोने लगते हैं। उन्हें अपनी महंगाई तो दिखती है, लेकिन मेरी नहीं। आपकी धमकी मिलने के बाद मैं नेशनल सेलिब्रिटी हो जाऊंगा। संभव है कि किसी नेशनल अखबार का संपादक मुझे अपने यहां अच्छी-सी नौकरी दे दे। आपकी बदौलत मेरी रोजी-रोटी चल जाएगी। अपहरण के दौरान हुए अनुभव को तो जब तक जियूंगा, हर साल अपहरण दिवस पर संस्करण लिखकर अखबारों से कुछ कमाई कर लूंगा। बस...सिर्फ एक बार मुझ पर कृपा कर दो। खुद धमकी दे दो या अपने किसी चेले-चपाटे से धमकी दिलवा दो। मैं भी अपनी घरैतिन को बताना चाहता हूं कि मेरी भी कहीं पूछ है।  
आपका ही
मौलाना अभय सिंह डेविड

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