Wednesday, November 26, 2014

चूहा और व्यंग्यकार

-अशोक मिश्र
नवंबर महीने की एक सुबह सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार पीड़ित जी सपने में अपनी सालियों से ठिठोली कर रहे थे। उन्होंने अपना बिस्तर जमीन पर लगा रखा था, ताकि सुहाने सपने देखने में धर्मपत्नी सुमुखी के खर्राटे बाधक न बनें। तभी प्रथम पूज्य गजानन के वाहन एक मोटे ताजे मूषकराज दबे पांव उनके पास पहुंचे। पीड़ित  जी की सारी काया गर्म कंबल में लिपटी हुई थी। सपने में शायद उन्होंने अपनी किसी साली को दायें हाथ की कोई अंगुली पकड़ा रखी थी, सो वही गर्म कंबल से बाहर थी। मूषकराज को जब कुछ नहीं सूझा, तो उसने पीड़ित जी के दायें हाथ की कानी अंगुली (कनिष्ठा) में अपने पैने दांत चुभो दिए। सालियों से होती अठखेलियों में बाधा पड़ी, तो पीड़ित जी की नींद तत्काल टूट गई। पट से उन्होंने आंख खोल दी। सामने मूषकराज को देखते ही वे तमतमा उठे। मूषक राज ने उन्हें उठते देखा, तो वह प्राण छोड़कर बचने के लिए भागा। पीड़ित जी भी पक्के व्यंग्यकार थे। सो, उन्होंने मूषक राज को 'तेरी तो...Ó कहते हुए खदेड़ लिया। कमरे के सारे दरवाजे-खिड़की बंद थे। अब मूषकराज भागकर जाएं तो कहां जाएं। पकड़ ही लिए गए कमरे के एक कोने में। पीड़ित जी गुर्राए, 'रे पूंजीपतियों के दलाल मध्यम वर्ग के प्रतिनिधि मूषकराज! तुम्हारी इतनी हिम्मत कैसे हुई देश के व्यंग्यकार शिरोमणि पीड़ित की अंगुली में काटने की? तुझको तनिक भी लज्जा नहीं आई मेरी अंगुली से रक्त का अवशोषण करने में।Ó
मूषक राज उनकी गरजती हुई आवाज से सहम गया। अपनी थूथुन के दायें-बायें उगी एक-एक बाल वाली मूंछों को अपने दोनों अगले पैरों (हाथों) से दबाकर विनीत भाव से बोला, 'क्षमा देव...क्षमा। मैंने आपके रक्त शोषण के इरादे से नहीं काटा था। आपमें रक्त या मांस अवशेष ही कहां हैं? अगर आप मेरी जान बख्शने का वायदा करें, तो मैं कुछ निवेदन करूं। मैं इंदौर से अपनी जान बचाकर आ रहा हूं।Ó पीड़ित जी गुर्राए, 'यह झांसा तू किसी और को देना। इंदौर से तू अपनी जान बचाता हुआ आगरा आया है। मैं आगरा में भले ही रहता हूं, लेकिन ईश्वर की अनुकंपा से मेरा दिमाग अभी तक ठिकाने है। तू मुझे बेवकूफ समझता है। इंदौर से आ रहा हूं..हुंह..।Ó मूषकराज उनकी उग्रता को देखकर भय से पीला पड़ गया। बोला, 'मैं आपसे झूठ नहीं बोल रहा हूं। इंदौर में किसी चूहे की जान सुरक्षित नहीं है। मामाजी के राज में अब चूहे भी सुरक्षित नहीं रहे। अगर भागकर इधर उधर नहीं गए तो सब मारे जाएंगे।Ó
पीड़ित जी रौद्र से करुण रस में आ गए। बोले, 'ठीक-ठीक समझा मुझे मामला क्या है! वरना...Ó मूषकराज ने बचने की आशा में दायें-बायें देखा, लेकिन कोई गुंजाइश न पाकर बोला, 'आप से अब क्या बताएं। देश के किसी ख्यातिनाम व्यंग्यकार की रचना से प्रभावित होकर इंदौर के एक सरकारी अस्पताल ने 56 लाख रुपये में हम मूषक भाइयों के उन्मूलन का ठेका एक कंपनी को दिया है। उस कंपनी ने हमारे तीन हजार भाइयों को असमय मौत की नींद सुला भी दिया है। अस्पताल ने हमारे हर भाई के मौत की कीमत दो हजार रुपये लगाई है। अब तो हालत यह है कि लोग अस्पताल सिर्फ इसलिए आते हैं कि कहीं से कोई मूषक मिल जाए, तो उनके दो हजार रुपये खरे हो जाएं। इंदौर के मूषकों की 'जान बचाओ समितिÓ ने तय किया है कि इस समस्या के पीछे किसी व्यंग्यकार का ही हाथ है, सो उनकी जान भी कोई व्यंग्यकार ही बचा सकता है। जो व्यंग्यकार मूषकों को मारने की प्रेरणा दे सकता है, वह उन्हें बचाने की भी कोई जुगत निकाल सकता है। व्यंग्यकार को प्रेरित करने का जिम्मा मुझे सौंपा गया है। मैंने आपके हाथ में दंत प्रहार आपको जगाकर अपनी व्यथा बताने के लिए किया है।Ó मूषकराज की बात सुनकर पीड़ित जी ने उसकी  पूंछ पकड़ी और टैरेस पर लाकर पांचवीं मंजिल से नीचे फेंकते हुए कहा, 'जा थोड़ी देर हवा में हवा खा। अब तुझे पता चलेगा कि किसी व्यंग्यकार की अंगुली में काटने का क्या नतीजा होता है?Ó इसके बाद पीड़ित जी फिर सपने में अपनी सालियों को पीड़ित करने लगे।

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