-अशोक मिश्र

ऐसा नहीं था कि मैं घूरा नहीं जानता था। बचपन में जब भी गांव जाता था, तो मेरे बाबा टोकरी भर गोबर मेरे सिर पर रख देते और कहते, जाओ घूरे पर फेंक आओ। मन ही मन भुनभुनाता टोकरी भर गोबर घूरे पर फेंकने चला जाता। मजाल है कि बाबा के आदेश के खिलाफ कोई चूं भी करे। यह घूरा मुझे आज तक तंग करता रहा। मास्टर साहब, मेरे बड़े भइया और बाबू जी ने मिलकर मुझे बचपन में लाख समझाया कि घूरे के दिन कैसे फिरते हैं? कई तरह के उदाहरण पेश किए, लेकिन मेरी मोटी बुद्धि में नहीं घुसा, तो नहीं घुसा।
धीरे-धीरे बचपन गया, जवानी आई। जवानी विदाई मांग रही है, अधेड़ावस्था दरवाजे पर खड़ा दस्तक दे रहा है, लेकिन फिर भी यह समझ में नहीं आया कि घूरे के दिन आखिर फिरते कैसे हैं? बचपन में रटा-पढ़ा तो जब बचपन में ही याद नहीं रह पाता था, तो जवानी में याद रह पाने का सवाल ही नहीं उठता है। हां, वह तो भला हो, दिल्ली प्रदेश भाजपा अध्यक्ष सतीश उपाध्याय और शाजिया इल्मी का जिन्होंने वह काम कर दिखाया, जो आज तक मेरे बड़े नहीं कर पाए। दिल्ली स्थित इंडिया इस्लामिक कल्चर सेंटर पर हुए ड्रामे की तस्वीरें अखबारों में देखी, तो एकाएक मेरे दिमाग की बत्ती जल उठी। इस (यानी कि मैं) घूरे के दिन भी फिर गए। मैं समझ गया कि बारह साल बाद घूरे के दिन फिरने का क्या मतलब होता है। अब मैं न केवल इस मुहावरे का अर्थ जान गया हूं, बल्कि किसी को भी समझा सकता हूं। बाकायदा उदाहरण देकर। अगर किसी को इस मुहावरे का अर्थ जानना-समझना हो, तो वह मेरे पास आकर समझ सकता है।
बचपन से बुढ़ापा आ गया दिन तो फिर ही गयी ..लेकिन बचपन की यादों जैसा आज का समय नहीं रहा .....
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