Tuesday, May 7, 2013

रोमांचक रेल यात्रा

अशोक मिश्र 
मैं हांफता-कांपता गोंडा जाने के लिए नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पहुंचा, तो वहां पहले से मौजूद वरिष्ठ पत्रकार सुखहरण जी ने बताया कि हम दोनों में से किसी का भी टिकट कन्फर्म नहीं हो पाया है। मैं गुस्से से चीख पड़ा, ‘आपने तो कहा था, पीएमओ से हो जाएगा, रेलमंत्री कार्यालय से हो जाएगा। ये मंत्री करा देंगे, वे विधायक करा देंगे...अब क्या हुआ?’ सुखहरण जी ने झुंझलाते हुए कहा, ‘एक बात समझो, नहीं हो पाया...तो नहीं हो पाया। प्रधानमंत्री जी कनाडा गए हैं गिल्ली डंडा मैच का उद्घाटन करने, रेल मंत्री जी चार्ट तैयार होने तक छुट्टी पर थे। मंत्री-विधायक सभी टूर पर गए हुए हैं।’ मैंने चारों ओर नजर दौड़ाई, लगता था कि पूरी दिल्ली सिर्फ उसी प्लेटफार्म पर जमा हो गई है। अगर सरसों भी उछाल दो, तो जमीन पर नहीं जाने वाली। मैंने खीझते हुए कहा, ‘आपने प्रयास ही नहीं किया होगा।’ मुझे भीड़ देखकर घबराहट होने लगी। मैंने सुखहरण जी से कहा, ‘आइए, लौट चलें।’ उन्होंने नाक-भौं सिकोड़ते हुए कहा, ‘बेटा प्यारे लाल! अपने तो जीवन का फलसफा भी खूब है, सौ-सौ जूते खाओ, तमाशा घुस कर देखो।’ तभी ‘धड़...धड़’ करती वैशाली एक्सप्रेस आती दिखाई दी, प्लेटफार्म पर ऐसी भगदड़ मची, मानो कहीं हालाडोला (भूकंप) आ गया हो।  मैं घबड़ाया, तो सुखहरण जी ने मुस्कुराते हुए कहा, ‘बस... इतने में ही घबड़ा गए। इब्तदा-ए-सफर है रोता है क्या, आगे-आगे देखिए होता है क्या?’
किसी शायर के शेर की जिस अंदाज में उन्होंने मैय्यत निकाली, मैं दहल गया। ट्रेन आई, स्लीपर क्लास में भी भीड़ ऐसे टूट पड़ी, मानो कोई फौज सामने खड़ी दुश्मन की फौज पर टूट पड़ती है। मेरे मित्र सुखहरण जी ने बड़ी चतुराई से अपने को भीड़ प्रवाह में डाल दिया और बीस सेकेंड में वे बहते हुए डिब्बे के अंदर पहुंच गए। ‘मैं बपुरा बूढ़न डरा, रहा किनारे ठाढ़’ की तरह किनारे खड़ा भकुराता रहा। तभी एक ‘हट्टा-कट्ठा, उल्लू का पट्ठा’ टाइप का युवक आया और उसने बोगी के बाहर लगे दोनों हत्थों को पकड़ा और ‘जय बजरंग बली’ कहकर बोगी में घुसी भीड़ को धकियाया कि अंदर घुसे सारे लोग वैसे ही ‘लमलोट’ (एक दूसरे पर गिरना) हो गए, जैसे बहुत ज्यादा आंधी-पानी आने से खेत में खड़ी धान या गेहूं की फसल बिछ जाती है। अंदर पैंतालिस वर्षीया एक महिला चिल्लाई, ‘ई कौन नासाकाटा आय, हमका धक्का दिहिस है...मरी आवै वहिका। अरे...उठाव हमका।’ उस महिला ने अपने ऊपर गिरे युवक के मुंह पर अपनी दायीं टांग का प्रहार किया, तो वह युवक बिलबिला उठा। इसके बाद तो बोगी में जो कौउवा रोर मचा कि पूछिए मत। मैं अपना बैग उठाकर उस युवक के पास पहुंचा और गिड़गिड़ाया, ‘भाई साहब! आप तो बोगी में घुस ही जाएंगे, इसमें कोई शक ही नहीं है। अगर आप मुझे पहले घुस जाने दें, तो बड़ी मेहरबानी होगी।’ पहले तो उस आदमी ने मुझे ऊपर से नीचे तक देखा। उसे पता नहीं मेरी दीन-हीन दशा पर रहम आया, या फिर वह वाकई दयावान था। उसने मुझे अंदर घुस जाने का इशारा किया। मैं किसी तरह अंदर पहुंचा और अपने मित्र सुखहरण जी को खोजने लगा। काफी अंदर जाने के बाद वे मुझे सफाई कर्मियों को दी जाने वाली बर्थ पर ऊपर जमे नजर आए। मुझे ऊपर आने का इशारा किया, तो मैं भी भीड़ को धकियाकर ‘जय बजरंग बली’ कहता हुआ ऊपर जाकर जम गया। ऊपर पहुंचने पर सुखहरण जी कान में फुसफुसाए, ‘दोनों लोगों का एक हजार रुपये देना होगा। इस भीड़ में तो एक हजार रुपये में जाना भी सस्ते का सौदा है।’
सुखहरण जी अपनी सफलता पर फूले नहीं समा रहे थे। सफलता की इस खुशी को बीस मिनट भी नहीं हुए थे कि काला कोट पहने कोच अटेंडेंट जी पधारे और सुखहरण जी से बोले, ‘अरे!..आप लोग ऊपर कैसे बैठ गए। खाली कीजिए बर्थ...वह बर्थ मैंने इन्हें दे दी है।’ सुखहरण जी बिगड़ गए, ‘आप कौन होते हैं यह बर्थ किसी को एलॉट करने वाले। यह बर्थ इस सफाई कर्मी को रेलवे देती है...और फिर मैं कोई फोकट में तो बैठ नहीं रहा हूं। मैं भी पत्रकार हूं, देखता हूं...कैसे कोई यह बर्थ एलॉट करता है।’ सुखहरण और कोच अटेंडेंट में खूब ‘हत्तेरे की, धत्तेरे की’ हुई, लेकिन अंतत: जीत काले कोट वाले की ही हुई। सुखहरण ने कोच अटेंडेंट को ‘चोट्टा...क्रिमिनल...’ जैसे न जाने कितनी उपाधियों से नवाजा और कोच अटेंडेंट विजयी मुद्रा में यह कहता हुआ चला गया, ‘बहुत देखे हैं, तुम जैसे पत्रकार...।’ इसके बाद मेरी और सुखहरण जी की यात्रा कैसी रही होगी, इसकी कल्पना आप कर सकते हैं। यदि आपको स्लीपर क्लास में बिना कन्फर्म टिकट लेकर रेल यात्रा करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ हो, तो...?

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