Friday, September 19, 2014

चीन के बहाने अमेरिका को संदेश

समझने होंगे चीन के राष्ट्रपति  की गर्मजोशी से स्वागत के निहितार्थ

अशोक मिश्र
शतरंज और राजनीति..दोनों में सिर्फ एक ही साम्यता होती है। वह है शह और मात की प्रवृत्ति। कोई जरूरी नहीं है कि जो शतरंज खेलने में माहिर हो, वह धुरंधर राजनीतिज्ञ भी हो।
धुरंधर राजनीतिज्ञ, शतरंज का धुरंधर खिलाड़ी हो, यह  भी कतई जरूरी नहीं है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी शतरंज खेलना जानते हैं या नहीं, नहीं कह सकता, लेकिन राजनीति की शतरंज पर बिसात बिछाने में माहिर अवश्य हैं। माहिर राजनीतिज्ञ हैं, वे इसमें कोई दोराय इसलिए  भी नहीं है क्योंकि चुनाव के दौरान उनके प्रबल विरोधी रहे कांग्रेसी नेता दिग्विजय सिंह और दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित भी उनके राजनीतिक चालों के मुरीद अवश्य हैं। अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य में देखें, तो पिछले कुछ महीने से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अमेरिका और चीन जैसे प्रबल प्रतिद्वंद्वियों को शिकस्त देने के लिए राजनीतिक शतरंज पर बिसात बिछाने में लगे हुए हैं। देश का प्रधानमंत्री बनने के तुरंत बाद उन्होंने नेपाल, भूटान की यात्रा की, फिर ब्रिक्स देशों के सम्मेलन में भाग  लिया।
 उसके बाद वे जापान गए। और अभी जापान की यात्रा को कुछ ही दिन बीते थे कि चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग भारत आए। कहने को ये सिर्फ एक राजनीतिक गतिविधियां हो सकती हैं। हैं भी। इसमें कोई दो राय भी नहीं है। लेकिन इन गतिविधियों के पीछे का संकेत यदि समझा जाए, तो पता चलता है कि नरेंद्र मोदी राजनीति के कितने बड़े खिलाड़ी हैं। चीन के राष्ट्रध्यक्ष जिनपिंग की गर्मजोशी से किए गए स्वागत के पीछे वर्चस्ववादी अमेरिका को यह संदेश देना भी  है कि यदि उसने भारत के प्रति अपने रवैये में बदलाव नहीं किया, तो वह चीन के साथ हाथ मिला सकता है, जो उसका प्रबल विरोधी है। बौद्ध धर्मावलंबी भूटान और जापान की यात्रा करके प्रधानमंत्री मोदी ने वह कोशिश की है, जिसे करने का साहस पिछले कई दशकों से राजनेता नहीं कर पाए थे। हिंदुस्तान में बौद्ध और सनातन धर्मावलंबियों के बीच एका कायम करने की यह अभी तो कोशिश भर है, लेकिन इसके दूरगामी परिणाम होंगे, इससे इनकार नहीं किया जा सकता है। इन देशों की यात्रा के बाद चीन के ही अभिन्न अंग तिब्बत में रहने वाले लाखों बौद्ध तिब्बतियों को भी एक प्रकार से यह अश्वस्ति मिली है कि भविष्य में यदि जरूरत पड़ी, तो भारत उनके संरक्षक की भूमिका निभा सकता है। चीन और तिब्बत का विवाद बहुत पुराना है और भारत हमेशा से तिब्बत के साथ खड़ा रहा है। तिब्बतियों के धर्म गुरु दलाई लामा तो पिछले कई दशकों से भारत में ही रह रहे हैं। चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग की भारत यात्रा के दौरान नरेंद्र मोदी ने एक तीर से कई शिकार करने की कोशिश की है। एक तो उन्होंने गुजरात और दिल्ली में जिस तरह जिनपिंग का गर्मजोशी से स्वागत किया और उसको मीडिया के माध्यम से प्रचारित-प्रसारित किया गया, उसका जो संदेश अमेरिका जैसे वर्चस्ववादी और अधिनायकवादी देश को जाना था, वह चला गया। 27 सितंबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी संयुक्त राष्ट्र महासभा की बैठक को संबोधित करेंगे, उसके बाद 28 सितंबर को अमेरिकन इंडियन कम्युनिटी फाउंडेशन के कार्यक्रम में भारतीय मूल के लोगों को संबोधित करेंगे। यह संगठन अमेरिकी कांग्रेस में भारत समर्थक सांसदों और भारतीय मूल के व्यापारियों के सहयोग से बनाया गया है। इसके अगले ही दिन अमेरिकन राष्ट्रपति बराक ओबामा द्वारा आयोजित निजी भोज में मोदी शामिल होंगे। यह वही अमेरिका है, जिसके राष्ट्रध्यक्ष अपने को महामानव समझते थे और दूसरे देशों के राष्ट्रध्यक्षों को कोई भाव नहीं देते थे। वर्ष 2005 में तो अमेरिका ने गुजरात में हुए दंगों के चलते नरेंद्र मोदी का वीजा ही खारिज कर दिया था, वहीं वामपंथी कहे जाने वाले देश चीन ने मोदी की तारीफ ही की थी। आज अमेरिका अगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के स्वागत में पलक पांवड़े बिछाए बैठा है, तो सिर्फ इसलिए क्योंकि मोदी ने अंतर्राराष्ट्रय फलक पर कुछ ऐसी बिसात बिछा दी जिसकी अनदेखी करने का मतलब है, एशिया में अमेरिकी प्रभुत्व का खात्मा और अलग-थलग पड़ जाने का अंदेशा। जिस तरह पिछले कुछ सालों से ब्रिक्स देशों (ब्रिटेन, रूस, भारत, चीन और दक्षिणी अफ्रीका) की सहभागिता बढ़ी है, ब्रिक्स बैंक बनाने की पहल हुई है (अभी तो ब्रिक्स मुद्रा की भी बात चल रही है, यूरोपीय संघ की मुद्रा यूरो की तर्ज पर), उससे अमेरिका के होश उड़े हुए हैं। अमेरिका इस बात को अच्छी तरह से समझ रहा है कि जैसे ही ब्रिक्स बैंक अस्तित्व में आएगा, वर्ल्ड बैंक के माध्यम से पूरी दुनिया में अमेरिका की चल रही विस्तारवादी नीतियों पर अंकुश लग जाएगा। भविष्य में एशिया महाद्वीप के छोटे-छोटे देश इन ब्रिक्स देशों के साथ जाने को विवश हो सकते हैं। यदि ऐसा हुआ, तो जिन छोटे-छोटे देशों को आपस में लड़ाकर अमेरिका अपने सैन्य उपकरणों को बेचता है या मानवाधिकारों के नाम पर पूरी दुनिया का चौधरी बनकर वह किसी भी देश पर हमला करता है, उसकी इस प्रवृत्ति पर लगाम लग जाएगी। उसकी मनमानी पर अंकुश लगने का मतलब अमेरिका भलीभांति जानता है।

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