Tuesday, July 23, 2013

कहां जाएं मुसलमान?

देश के सामने यक्ष प्रश्न 

-अशोक मिश्र
देश में मुसलमानों की आबादी हिंदुओं के बाद सबसे ज्यादा है। आंकड़ों के मुताबिक, भारत में 16 करोड़ मुसलमान रहते हैं, जो कि इंडोनेशिया के बाद सबसे अधिक है। यानी कि भारत विश्व का दूसरा सबसे बड़ा मुस्लिम देश है। इस बड़े वोट बैंक की तरफ राजनीतिक दलों का ध्यान जाना बहुत स्वाभाविक है। कुछ तथाकथित धर्मनिरपेक्ष पार्टियां, जैसे- कांग्रेस, सपा, माकपा, भाकपा और बसपा सहित अन्य धार्मिक संगठन अपने पाले में रखना चाहते हैं। ये राजनीतिक दल तो इनका शोषण करते ही हैं, इनके धार्मिक संगठन भी स्वार्थ के लिए इनका सिर्फ उपयोग ही करते हैं। वे नहीं चाहते कि मुसलमानों में नई आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टि पैदा हो, ताकि वे अंधविश्वास और रूढ़ियों से मुक्त हो सकें। इनके धार्मिक नेता जानते हैं कि जिस दिन वे इन रूढ़ियों और अंधविश्वासों से मुक्त हो जाएंगे, वे इनके हाथ से निकल जाएंगे। यही वजह है कि वे इनके जेहन में ऐसी कोई किरण पैदा ही नहीं होने देना चाहते, जो इन मुसलमानों को तरक्की की ओर ले जाता है।  दूसरी तरफ भारतीय जनता पार्टी और शिवसेना जैसे दल इतिहास का हवाला देकर मुसलमानों को खलनायक बताकर, हिंदुओं का ध्रुवीकरण करना चाहते हैं और इसका फायदा वे चुनाव में उठाना चाहते हैं। तभी तो दक्षिणपंथियों के बीच यह जुमला प्रसिद्ध है कि ‘हर मुसलमान आतंकी नहीं होते, लेकिन हर आतंकी मुसलमान क्यों होते हैं?’ अब उन्हें कौन समझाए कि आंतक का कोई धर्म नहीं होता। इसी तरह जब नरेंद्र मोदी कांग्रेस को कोसते वक्त बुर्का श्ब्द का इस्तेमाल करते हैं, तो उनका इशारा साफ है कि कांग्रेस मुसलमानों का बंकर बन गई है। इसके जवाब में हिंदुओं को एकजुट होकर भाजपा के साथ जुड़ जाना चाहिए। तभी तो मोदी दिल्ली की सल्तनत से मुकाबला करने के लिए आतुर हैं। मोदी जब ‘दिल्ली के सल्तनत’ शब्द का इस्तेमाल करते हैं, तो उनका अभिप्राय होता है कि दिल्ली में अब तक मुगलों का ही शासन है। उनकी नजर में मुसलमानों का समर्थन लेने वाला मुगल ही तो कहलाएगा। वैसे इनका समर्थन तो भाजपा भी लेना चाहती है, लेकिन गुजरात के मुख्यमंत्री और भाजपा के केंद्रीय चुनाव प्रचार समिति के सर्वेसर्वा नरेंद्र भाई मोदी की माफी की शर्त पर नहीं। वैसे भी सन 2002 में हुए गुजरात दंगों की जिम्मेदारी लेने या माफी मांगने को नरेंद्र मोदी तैयार नहीं हैं। हां, पिछले साल संपन्न हुए गुजरात चुनाव में तीसरी बार जीत के बाद नरेंद्र मोदी ने यह कहना जरूर शुरू कर दिया है कि उनकी जीत में गुजराती मुसलमानों की भी भूमिका रही है। उन्हें गुजरात में रहने वाले मुसलमानों ने भी वोट दिया है। दरअसल, यह कहकर नरेंद्र मोदी यह जताने की कोशिश कर रहे हैं कि वे मुसलमान विरोधी नहीं हैं, लेकिन इस देश के मुसलमानों को ठीक से रहना होगा। ठीक से रहने का मतलब? मनु संहिता पर आधारित हिंदू राष्ट्र में दोयम दर्जे के नागरिक के तौर पर भाजपा की नीतियों और कार्यक्रम का विरोध किए बिना वे भारत में रह सकते हैं। यही वजह है कि भाजपा नेता अपने को हिंदू राष्ट्रवादी कहने से नहीं चूकते हैं। हिंदूवादियों के विचारों का अंतर्विरोध देखिए, एक तरफ तो वे कट्टर हिंदू राष्ट्र की कल्पना करते हैं, दूसरी तरफ राम राज्य की बात करते हैं, जिसका आदर्श वाक्य है, ‘दैहिक, दैविक, भौतिक तापा, राम राज्य काहू नहिं व्यापा।’ ऐसा तो है नहीं कि आज रामराज्य स्थापित हो जाए, तो इन तीनों प्रकार के तापों से सिर्फ हिंदुओं को ही मुक्ति मिलेगी और मुसलमान इसके दायरे से बाहर रहेंगे? हिंदू राष्ट्रवादी मोदी की इस बात से जाहिर है कि देश के मुसलमान लोकसभा और विधानसभा चुनावों के दौरान कुछ सीटों पर निर्णायक भूमिका निभा सकने की स्थिति में हैं। नरेंद्र मोदी के निकट सहयोगी और गुजरात के पूर्व गृहराज्य मंत्री रहे अमित शाह ने पिछले दिनों अयोध्या में जाकर जिस तरह से राम मंदिर को लेकर हुंकार भरी, उससे जाहिर है कि वे उत्तर प्रदेश के साथ-साथ मंदिर-मस्जिद मुद्दा उभारकर धुव्रीकरण की प्रक्रिया तेज करना चाहते हैं। अगर वे अपने मकसद में सफल हो गए, तो जाहिर है कि इससे हिंदू-मुस्लिम के बीच वैमनस्य बढ़ेगा, एकाध जगहों पर दंगे भी हो सकते हैं।
देश में जब भी कहीं कोई आतंकी घटना होती है, तो इसे पूरी मुस्लिम संप्रदाय द्वारा की जा रही गतिविधियों से जोड़कर देखा जाता है। यह भी सही है कि देश में होने वाली ज्यादातर आतंकी घटनाओं में पाकिस्तानी, बांग्लादेशी और कुछ दूसरे देशों के मुसलमानों के साथ-साथ देश के भी कुछ मुसलमानों की भी मिलीभगत होती है। बम विस्फोट या दूसरी किस्म की आतंकी गतिविधियों की योजना भले ही पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल आदि में बैठे आतंकवादी संगठन तैयार करते हों, आवश्यक संसाधन (विस्फोटक, बंदूकें, रुपये आदि) मुहैया कराते हों। वहां से कुछ अपने एजेंट भेजते हों, लेकिन उन्हें सहयोग देने, रेकी करने और स्लीपिंग सेल उपलब्ध कराने में निस्संदेह यहीं के लोगों का हाथ होता है। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि देश का हर मुसलमान संदिग्ध है। सन 1980 से पहले और उसके बाद देश के ही एक महत्वपूर्ण हिस्से में जो खालिस्तानी आंदोलन चला, उसके लिए क्या देश के सभी सिखों को दोषी माना जा सकता है? कतई नहीं। सिखों की मेहनती,   स्वाभिमानी और जुझारू प्रवृत्ति पर कौन फिदा नहीं होगा! फेसबुक और ट्विटर पर हिंदू अस्मिता के नाम पर मुसलमानों के खिलाफ इन दिनों खूब विष वमन किया जा रहा है। कुछ लोग फेसबुक और ट्विटर पर ऐसे सक्रिय हैं, जो हिंदुत्ववादी संगठनों के पेड कार्यकर्ता लगते हैं। कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो सोशल साइट्स पर सेक्युलरिज्म के नाम पर ऊलजुलूल बातों को पोस्ट करते हैं, उन पर कमेंट करते हैं। ऐसा लग रहा है कि मीडिया और सोशल साइट्स पर दो मोर्चे खुले हुए हैं और दोनों का एक ही लक्ष्य है, अपने विरोधियों को शिकस्त देना। आगामी लोकसभा चुनाव के बाद हो सकता है कि ये दोनों मोर्चे (हिंदुत्ववादी और सेक्युलरवादी) मीडिया, फेसबुक और ट्विटर से गायब हो जाएं, क्योंकि तब तक इनका अभीष्ट पूरा हो चुका होगा। हां, इसका खामियाजा भुगतेंगे इस देश के करोड़ों हिंदू और मुसलमान। सोशल नेटवर्किंग से धार्मिक कट्टरता का पाठ पढ़ चुके लोग जब समाज में बैठेंगे, तो वहां भी विष वमन ही न करेंगे? और नतीजा...? यह होगा कि हिंदू-मुसलमान एक दूसरे को फूटी आंखों से भी देखना पसंद नहीं करेंगे।
ऐसी हालत में दोनों धर्मों के लोगों को सिर्फ एक बात समझने की जरूरत है। हिंदुओं को यह बात अच्छी तरह से समझ लेनी चाहिए कि इस देश से मुसलमान कहीं नहीं जाने वाले हैं। 16 करोड़ मुसलमानों को क्या समुद्र में फिंकवाया जा सकता है? क्या उन्हें पाकिस्तान या बांग्लादेश भेजा जा सकता है? क्या इन मुसलमानों को इस्लामी मुल्क का ठप्पा लगाए बैठे किसी दूसरे देश में भेजा जा सकता है? निश्चित तौर पर नहीं। जब भारत के नागरिक इन मुसलमानों को हिंदुस्तान में ही रहना है, तो क्यों न उन्हें भी हिंदुओं की तरह जीने दिया जाए। उनके साथ दोस्ताना व्यवहार किया जाए, उन्हें अपना हमदर्द पड़ोसी मानकर उनके साथ मानवीय व्यवहार किया जाए। उन्हें अपने धार्मिक रिवायतों के साथ जीवन निर्वाह की सहूलियत दी जाए। और मुसलमानों को भी अपने दिमाग में एक बात अच्छी तरह से बिठा लेनी चाहिए कि इस देश के प्रति जितने जवाबदेह यहां रहने वाले हिंदू हैं, उतनी ही जवाबदेही उनकी भी बनती है। आज से आठ सौ साल पहले भले ही बाबर विदेशी आक्रांता रहा हो, लेकिन उसकी बाद के वंशजों ने इसे अपना ही मुल्क माना। यदि उनके वंशजों के दिलोदिमाग में विदेशी होने की बात होती, तो मुगलिया खानदान के शासकों ने हिंदुस्तान में इतनी खूबसूरत इमारतों को तामीर नहीं कराया होता। दिल्ली और आगरे का लाल किला, आगरे का ताजमहल जैसी विश्व प्रसिद्ध इमारतें वजूद में न आई होतीं। मुगल बादशाह हुमायूं के बाद की पीढ़ी ने यहां की प्रजा को अपनी प्रजा मानकर उनके सुख-दुख में एकसार होने का प्रयास किया, तो आज के मुसलमान ऐसा क्यों नहीं कर सकते? वे अपने पड़ोसी हिंदुओं से कटकर अपना विकास नहीं कर सकते हैं। उन्हें अगर किसी तरह की तकलीफ होती है, तो उसका निराकरण करने उनका पड़ोसी हिंदू ही आएगा। फिर यह जाति-धर्म का झमेला क्यों? अक्सर ऐसा देखा जाता है कि जब भी भारत-पाकिस्तान के बीच क्रिकेट मैच होता है, तो कुछ शहरों के कुछ विशेष हिस्सों में तनाव की स्थिति पैदा हो जाती है। भारत जिंदाबाद के साथ-साथ पाकिस्तान जिंदाबाद के भी नारे गूंजते हैं। क्या ऐसा करना किसी भी दृष्टिकोण से जायज है? कोई भी वतनपरस्त मुसलमान इसको पसंद नहीं करेगा। टेनिस सनसनी सानिया मिर्जा की भले ही पाकिस्तानी नागरिक से शादी हो गई हो, लेकिन वे आज भी पाकिस्तान के बजाय हिंदुस्तान के लिए खेलती हैं। यह उनकी मादरेवतन के प्रति प्रेम और निराशा को दर्शाता है। हर देशवासी को यह बात समझ लेने की जरूरत है कि भारत-पाक बंटवारा एक हकीकत है। इसे कोई झुठला नहीं सकता है। सन 1947 में एक ही घर के दो टुकड़े हुए थे, तो क्या उनके आपसी रिश्ते खत्म हो गए थे? हां, दोनों देशों के सियासतदानों ने भौगोलिक बंटवारे के साथ-साथ दिल भी बांट लिया था। लेकिन आज जरूरत है कि हिंदू अपने मत और संप्रदाय के मुताबिक आचरण करें, मुसलमान अपने। अगर हिंदू और मुसलमानों के धार्मिक नेता उकसावे की राजनीति न करें, तो ऐसा संभव भी है। रोजी-रोटी, हारी-बीमारी और भुखमरी के दुष्चक्र में फंसी आम जनता को कहां इतनी फुर्सत है कि वह धार्मिक मुद्दों को लेकर अपने भाई-बंधुओं, टोले-मोहल्ले के लोगों से उलझता फिरे। यह उलझन पैदा करते हैं अपने वोट बैंक की राजनीति करने वाले सियासी दलों और धार्मिक संगठनों के नेता।
इस देश में सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि आजादी के बाद हिंदू, मुसलमान, सिख और ईसाई विभिन्न धर्म और मतावलंबी न होकर वोट बैंक में तब्दील हो गए हैं। सबको धार्मिक और जातीय आधार पर बंटे वोट बैंक के रूप में देखा जा रहा है। इस घिनौनी राजनीति ने तो हिंदुओं में भी कई विभेद पैदा कर दिए हैं, ब्राह्मण, ठाकुर, बनिया, दलित। इतने पर भी संतोष नहीं हुआ, तो इनमें भी दलित, महादलित जैसे विभेद पैदा कर दिए गए। देश का नेतृत्व अगर मानवीय और सहिष्णु हो, तो हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई जैसे धर्मों के लोग बड़े प्रेम से रह सकते हैं। इसका सबसे बढ़िया उदाहरण सन् 1857 में हुए गदर के दौरान देखा गया। इतिहास गवाह है कि जब सन् 1857 का गदर चल रहा था, तो उत्तर भारत के पंडितों और मौलवियों का भाईचारा दुनिया के सामने सांप्रदायिक एकता का एक बेमिसाल उदारण बनकर   उभरा था। अवध, रुहेलखंड, झांसी, कानपुर, बनारस, पटना, दिल्ली आदि रियासतों के हिंदू-मुसलमान कितनी शिद्दत से एक दूसरे से कंधे से कंधा मिलाकर ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ लड़ रहे थे। अवध प्रांत की राजधानी लखनऊ का मूल निवासी पीर अली पटना में हिंदू विद्रोहियों का नेतृत्व कर रहा था। यही नहीं, उत्तर भारत के पंडित-पुरोहित अपने जजमानों से कहते थे कि वे चारों धाम की यात्रा पर जाएं। वहीं मौलवी अपने धर्मानुयायियों से हज करने जाने पर जोर दे रहे थे, ताकि लोग अपने घरों से निकलें और देश में हो रही विद्रोही गतिविधियों से परिचित हों। मंदिरों और मस्जिदों में पंडित और मौलवी अंग्रेजों के खिलाफ एक साथ मिलकर ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ जनता के भड़का रहे थे। उत्तर भारत में अंग्रेजी सेना पर ‘हर हर महादेव’ और ‘दीन दीन’ कहकर टूट पड़ने वालों ने कभी एक दूसरे से नहीं पूछा कि तुम्हारा मजहब या धर्म क्या है? फिर हम अपने देश की खुशहाली, समृद्धि और शांति के लिए एक होकर नहीं रह सकते हैं? रह सकते हैं, बशर्ते यह सियासत हमें एक रहने दे, तब। सत्ता की सीढ़ियां तो धर्म, जाति, संप्रदाय, भाषा और क्षेत्र की उठापटक और लड़ाई-झगड़े से होकर जाती है। आज यह समय आ गया है, जब इस देश के राजनीतिज्ञों से यह पूछा जाए कि अगर इस देश के मुसलमान अवांक्षित हैं, तो वे जाएं कहां?

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