अशोक मिश्र
फागुन में पहले प्रकृति बौराती थी। फिर आम्र मंजरियां बौराती थीं। फिर पोपले मुंह और पिलपिले शरीर वाले सत्तर-पचहत्तर साल की उम्र वाले ‘बाबा’ बौराते थे। इनके बौराते ही भौजाइयां बौरा जाती थीं। फिर तो देवर, सालियां-सलहजें, ननद-ननदोई के बौराने का एक सिलसिला ही शुरू हो जाता था। हंसी-ठिठोली के नाम पर श्लील-अश्लील का जैसे भेद ही मिट जाता था। फागुनी बयार शरीर में मादकता, कामुकता या छिछोरेपन का ऐसा संचार करती थी कि सारी मान-मर्यादाएं बिला जाती थीं। फागुनी बयार अब भी चलती है, लेकिन अब बाबा, भौजाइयां, साली-सहलजों की बजाय कुत्ते बौराते हैं, राजनीति बौराती है, नेता बौराते हैं और बौराते हैं मेरे वरिष्ठ पत्रकार साथी राम लुभाया।
वैसे राम लुभाया तो बारहों महीने बौराये रहते हैं। अभी कल की बात है। सुबह आफिस आए, तो मैंने लपकर अभिवादन किया, ‘सर जी गुड मार्निंग...।’ राम लुभाया ने अपनी पीठ पर टंगा छोटा सा बैग मेज पर पटका और घूमकर झल्लाते हुए बोले, ‘क्या है... अरे हो गया एक दिन गुड मार्निंग..अब रोज-रोज आते ही मेरे सिर पर काहे दे मारते हैं गुडमार्निंग? एक तो रात भर मोहल्ले के कुत्तों ने सोने नहीं दिया, सुबह थोड़ी देर के लिए झपकी भी आई, तो एक मरघिल्ली सी खबर छूटने की वजह से सुबह-सुबह संपादक जी हौंकते रहे। जीना हराम हो गया है मेरा।’ जैसे बरसात में किसी बच्चे के छू लेने पर केंचुआ सिकुड़ जाता है, उसी तरह राम लुभाया की बात सुनकर मैं सिमट गया। शायद राम लुभाया को अपनी गलती का एहसास हुआ। बोले, ‘यार..क्या बताऊं। इधर जब से चुनावी बयार बहने लगी है, तब से सारे मोहल्ले के कुत्ते मेरे दरवाजे पर रात दस-ग्यारह बजे के बाद इकट्ठा हो जाते हैं। दरवाजे के सामने का खुला हिस्सा चुनावी सभा में तब्दील हो जाता है। कुत्ते मुंह उठाकर मानो भाषण देने लगते हैं। कोई नाली के इस पार, तो कोई नाली के उस पार। अगर उनकी भाषा मेरी समझ में आती, तो शायद यही कहते होंगे-प्यारे कुत्ता भाइयों! हमारी पार्टी की सरकार बनी, तो विकास की हड्डियां सबको मिलेंगी। सबको कहीं भी टांग उठाकर सूसू करने की स्वतंत्रता होगी।’
राम लुभाया अब अपनी रौ में आ गए थे। बोले, ‘तब तक दूसरा मुंह उठाकर भौंकता है, झुट्ठे हैं ये विकास की बात करने वाले। ये हम कुत्तों को छोटा-बड़ा, नस्ल, रंग के नाम पर लड़ाते हैं और मौज करते हैं। हमारी सरकार में किसी के साथ भेदभाव नहीं होता है। हमारी सरकार बनी, तो सबको किसी के भी घर में घुसकर रोटी और बोटी चुराने की पूर्ण स्वतंत्रता होगी।’ राम लुभाया थोड़ी देर सांस लेने के लिए रुके। फिर बोले, ‘रात में जब देखा कि इस कुत्ता सभा के चलते सोने को नहीं मिलेगा, तो मैंने उठाया डंडा। चुपके से गेट खोला और पिल पड़ा इन कुत्तों पर। खूब लठियाया। तीनों गली के कुत्तों को खूब धोया। ससुरों! मेरा दरवाजा छोड़कर कहीं और करो अपनी चुनावी सभा। आदमी अगर कुत्तों के चुनाव में वोट दे सकता, तो मैं कतई तुम कुत्तों को वोट नहीं देता।’ इतना कहकर राम लुभाया फिस्स से हंस दिए।
फागुन में पहले प्रकृति बौराती थी। फिर आम्र मंजरियां बौराती थीं। फिर पोपले मुंह और पिलपिले शरीर वाले सत्तर-पचहत्तर साल की उम्र वाले ‘बाबा’ बौराते थे। इनके बौराते ही भौजाइयां बौरा जाती थीं। फिर तो देवर, सालियां-सलहजें, ननद-ननदोई के बौराने का एक सिलसिला ही शुरू हो जाता था। हंसी-ठिठोली के नाम पर श्लील-अश्लील का जैसे भेद ही मिट जाता था। फागुनी बयार शरीर में मादकता, कामुकता या छिछोरेपन का ऐसा संचार करती थी कि सारी मान-मर्यादाएं बिला जाती थीं। फागुनी बयार अब भी चलती है, लेकिन अब बाबा, भौजाइयां, साली-सहलजों की बजाय कुत्ते बौराते हैं, राजनीति बौराती है, नेता बौराते हैं और बौराते हैं मेरे वरिष्ठ पत्रकार साथी राम लुभाया।
वैसे राम लुभाया तो बारहों महीने बौराये रहते हैं। अभी कल की बात है। सुबह आफिस आए, तो मैंने लपकर अभिवादन किया, ‘सर जी गुड मार्निंग...।’ राम लुभाया ने अपनी पीठ पर टंगा छोटा सा बैग मेज पर पटका और घूमकर झल्लाते हुए बोले, ‘क्या है... अरे हो गया एक दिन गुड मार्निंग..अब रोज-रोज आते ही मेरे सिर पर काहे दे मारते हैं गुडमार्निंग? एक तो रात भर मोहल्ले के कुत्तों ने सोने नहीं दिया, सुबह थोड़ी देर के लिए झपकी भी आई, तो एक मरघिल्ली सी खबर छूटने की वजह से सुबह-सुबह संपादक जी हौंकते रहे। जीना हराम हो गया है मेरा।’ जैसे बरसात में किसी बच्चे के छू लेने पर केंचुआ सिकुड़ जाता है, उसी तरह राम लुभाया की बात सुनकर मैं सिमट गया। शायद राम लुभाया को अपनी गलती का एहसास हुआ। बोले, ‘यार..क्या बताऊं। इधर जब से चुनावी बयार बहने लगी है, तब से सारे मोहल्ले के कुत्ते मेरे दरवाजे पर रात दस-ग्यारह बजे के बाद इकट्ठा हो जाते हैं। दरवाजे के सामने का खुला हिस्सा चुनावी सभा में तब्दील हो जाता है। कुत्ते मुंह उठाकर मानो भाषण देने लगते हैं। कोई नाली के इस पार, तो कोई नाली के उस पार। अगर उनकी भाषा मेरी समझ में आती, तो शायद यही कहते होंगे-प्यारे कुत्ता भाइयों! हमारी पार्टी की सरकार बनी, तो विकास की हड्डियां सबको मिलेंगी। सबको कहीं भी टांग उठाकर सूसू करने की स्वतंत्रता होगी।’
राम लुभाया अब अपनी रौ में आ गए थे। बोले, ‘तब तक दूसरा मुंह उठाकर भौंकता है, झुट्ठे हैं ये विकास की बात करने वाले। ये हम कुत्तों को छोटा-बड़ा, नस्ल, रंग के नाम पर लड़ाते हैं और मौज करते हैं। हमारी सरकार में किसी के साथ भेदभाव नहीं होता है। हमारी सरकार बनी, तो सबको किसी के भी घर में घुसकर रोटी और बोटी चुराने की पूर्ण स्वतंत्रता होगी।’ राम लुभाया थोड़ी देर सांस लेने के लिए रुके। फिर बोले, ‘रात में जब देखा कि इस कुत्ता सभा के चलते सोने को नहीं मिलेगा, तो मैंने उठाया डंडा। चुपके से गेट खोला और पिल पड़ा इन कुत्तों पर। खूब लठियाया। तीनों गली के कुत्तों को खूब धोया। ससुरों! मेरा दरवाजा छोड़कर कहीं और करो अपनी चुनावी सभा। आदमी अगर कुत्तों के चुनाव में वोट दे सकता, तो मैं कतई तुम कुत्तों को वोट नहीं देता।’ इतना कहकर राम लुभाया फिस्स से हंस दिए।
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