अशोक मिश्र
कहते हैं कि मानो तो देव, नहीं तो पत्थर तो हैं ही। मानिए तो बहुत बड़ी उलझन है, न मानिए, तो यह कोई समस्या ही नहीं है। जब समस्या ही नहीं, तो फिर यह ‘…किंतु, ..परंतु, ..आह, ..वाह’ जैसी बातें निरर्थक हैं। लेकिन मेरे लिए तो यह बहुत बड़ी समस्या है। एकदम जम्मू-कश्मीर विवाद की तरह, जिसे जितना सुलझाओ, उतनी ही उलझती जाती है। मेरे सामने सवाल यह नहीं है कि किसको चुनें। मुद्दा यह है कि किसे नकार दें। कौन अच्छा है, कौन बेकार..यह तय कर पाना, कोई आसान काम है क्या? ऐसी ऊहापोह जैसी स्थिति तो उन लड़कियों के सामने भी पैदा नहीं हुई होगी जिन्हें प्रेमी और माता-पिता द्वारा सुझाए गए दस-बारह लड़कों में से किसी एक को जीवन साथी के रूप में चुनना हो। समस्या यह है कि मन किसी एक के नाम पर स्थिर नहीं हो पा रहा है। एक से बढ़कर एक प्रत्याशी हैं चुनाव मैदान में। कोई किसी गुण में बेजोड़ है, तो कोई किसी दूसरे गुण में अद्वितीय। किसी के नाम पर हत्या के बारह मुकदमे चल रहे हैं, तो कोई पांच हत्या, दो हत्या के प्रयास के आरोप में जमानत पर है। बलात्कार के मामले की सजा तो पांच साल पहले ही काट चुका है।
अब कल ही वोट मांगने आए, प्रत्याशी की खूबियां सुनें। बेचारे ने सात बार सिर्फ एक ही उद्योगपति से रंगदारी वसूली, तो नामाकूल व्यापारी ने पुलिस बुलाकर पकड़वा दिया। यह तो कहिए कि थाने की पुलिस शरीफ निकली। व्यापारी के घर से पकड़कर लाई और थाने में चाय-पानी कराकर बेचारे को विदा कर दिया, वरना बेचारा तो गया था न तेरह के भाव। व्यापारी को कौन समझाए कि जहां गुड़ होगा, वहीं तो चीटें आएंगे। और चीटें आएंगे, तो कुछ न कुछ गुड़ खाएंगे ही। इसमें भला आपत्तिजनक और गैरकानूनी क्या है? पिछले हफ्ते एक पार्टी का उम्मीदवार मेरी गली में प्रचार कर रहा था, उसके सुदर्शन चेहरे पर अर्ध चंद्राकार चाकू का निशान इस तरह सुशोभित हो रहा, मानो चुनाव में विजय के लिए उसने द्वितीया के चांद पर अपना माथा पटका हो और चंद्रमा ने आशीर्वाद के रूप में अपने अर्धचंद्राकार स्वरूप की छाप लगा दी हो। उसे देखकर तो मन में श्रद्धा का भाव इस तरह उमड़ा पड़ रहा था, जैसे ज्यादा भूखा आदमी किसी शादी समारोह में खाने का मौका पा जाए और अजर-गजर जो भी मिलता जाए, खाता जाए और बाद में वह खाया-पिया बार-बार उमड़-घुमड़कर बाहर आने को आतुर हो।
जब ऐसे ऊर्जावान, प्रतिभावान, दयावान, बली, बाहुबलि उम्मीदवार हों, तो मन ऊहापोह की स्थिति में होगा ही। उस पर तो घबराहट और बढ़ जानी ही है, जब उम्मीदवारों के दादा ने अप्रत्यक्ष धमकी दे रखी हो कि सारी जन्मकुंडली है हमारे पास, सबकी पोल खोल दूंगा। दिक्कत यही है कि किसको नकार दें। सब एक से बढ़कर एक सुपरलेटिव डिग्री के हैं। हत्यारे हैं, बलात्कारी हैं, भ्रष्टाचारी हैं, दलाल हैं, शोषक हैं, दोहक हैं, उत्पीड़क हैं। मजा यह कि न ऊधौ कम हैं, न माधौ। विडंबना यह है कि इन्हीं में से किसी एक को चुनना है। बड़ी उलझन है भाई! क्या करूं कुछ समझ नहीं पा रहा हूं।
कहते हैं कि मानो तो देव, नहीं तो पत्थर तो हैं ही। मानिए तो बहुत बड़ी उलझन है, न मानिए, तो यह कोई समस्या ही नहीं है। जब समस्या ही नहीं, तो फिर यह ‘…किंतु, ..परंतु, ..आह, ..वाह’ जैसी बातें निरर्थक हैं। लेकिन मेरे लिए तो यह बहुत बड़ी समस्या है। एकदम जम्मू-कश्मीर विवाद की तरह, जिसे जितना सुलझाओ, उतनी ही उलझती जाती है। मेरे सामने सवाल यह नहीं है कि किसको चुनें। मुद्दा यह है कि किसे नकार दें। कौन अच्छा है, कौन बेकार..यह तय कर पाना, कोई आसान काम है क्या? ऐसी ऊहापोह जैसी स्थिति तो उन लड़कियों के सामने भी पैदा नहीं हुई होगी जिन्हें प्रेमी और माता-पिता द्वारा सुझाए गए दस-बारह लड़कों में से किसी एक को जीवन साथी के रूप में चुनना हो। समस्या यह है कि मन किसी एक के नाम पर स्थिर नहीं हो पा रहा है। एक से बढ़कर एक प्रत्याशी हैं चुनाव मैदान में। कोई किसी गुण में बेजोड़ है, तो कोई किसी दूसरे गुण में अद्वितीय। किसी के नाम पर हत्या के बारह मुकदमे चल रहे हैं, तो कोई पांच हत्या, दो हत्या के प्रयास के आरोप में जमानत पर है। बलात्कार के मामले की सजा तो पांच साल पहले ही काट चुका है।
अब कल ही वोट मांगने आए, प्रत्याशी की खूबियां सुनें। बेचारे ने सात बार सिर्फ एक ही उद्योगपति से रंगदारी वसूली, तो नामाकूल व्यापारी ने पुलिस बुलाकर पकड़वा दिया। यह तो कहिए कि थाने की पुलिस शरीफ निकली। व्यापारी के घर से पकड़कर लाई और थाने में चाय-पानी कराकर बेचारे को विदा कर दिया, वरना बेचारा तो गया था न तेरह के भाव। व्यापारी को कौन समझाए कि जहां गुड़ होगा, वहीं तो चीटें आएंगे। और चीटें आएंगे, तो कुछ न कुछ गुड़ खाएंगे ही। इसमें भला आपत्तिजनक और गैरकानूनी क्या है? पिछले हफ्ते एक पार्टी का उम्मीदवार मेरी गली में प्रचार कर रहा था, उसके सुदर्शन चेहरे पर अर्ध चंद्राकार चाकू का निशान इस तरह सुशोभित हो रहा, मानो चुनाव में विजय के लिए उसने द्वितीया के चांद पर अपना माथा पटका हो और चंद्रमा ने आशीर्वाद के रूप में अपने अर्धचंद्राकार स्वरूप की छाप लगा दी हो। उसे देखकर तो मन में श्रद्धा का भाव इस तरह उमड़ा पड़ रहा था, जैसे ज्यादा भूखा आदमी किसी शादी समारोह में खाने का मौका पा जाए और अजर-गजर जो भी मिलता जाए, खाता जाए और बाद में वह खाया-पिया बार-बार उमड़-घुमड़कर बाहर आने को आतुर हो।
जब ऐसे ऊर्जावान, प्रतिभावान, दयावान, बली, बाहुबलि उम्मीदवार हों, तो मन ऊहापोह की स्थिति में होगा ही। उस पर तो घबराहट और बढ़ जानी ही है, जब उम्मीदवारों के दादा ने अप्रत्यक्ष धमकी दे रखी हो कि सारी जन्मकुंडली है हमारे पास, सबकी पोल खोल दूंगा। दिक्कत यही है कि किसको नकार दें। सब एक से बढ़कर एक सुपरलेटिव डिग्री के हैं। हत्यारे हैं, बलात्कारी हैं, भ्रष्टाचारी हैं, दलाल हैं, शोषक हैं, दोहक हैं, उत्पीड़क हैं। मजा यह कि न ऊधौ कम हैं, न माधौ। विडंबना यह है कि इन्हीं में से किसी एक को चुनना है। बड़ी उलझन है भाई! क्या करूं कुछ समझ नहीं पा रहा हूं।
No comments:
Post a Comment