Monday, February 13, 2017

प्रेम बाड़ी उपजे, प्रेम हाट बिकाय

अशोक मिश्र
एक दिन मैं ऑफिस से कुछ जल्दी घर चला आया। मैंने देखा कि मेरा तेरह वर्षीय बेटा और उसका हमउम्र दोस्त राकेश, दोनों बरामदे में बैठे बातचीत कर रहे थे। मेरा बेटा अपने दोस्त से कह रहा था, ‘देख, तू चाहे कुछ भी कहे, लेकिन चार-पांच साल बाद मैं अमेरिका जरूर जाऊंगा।’ उसके दोस्त ने कहा, ‘हायर स्टडी के लिए? यह तो बहुत अच्छी बात है। यार, वहां पढ़ाई के लिए जाना तो मैं भी चाहता हूं। वहां की डिग्रियों की सचमुच बड़ी वैल्यू है।’  मेरे बेटे ने मुंह बिचकाते हुए कहा, ‘हायर स्टडी के लिए नहीं बुद्धू, प्रेम की पढ़ाई करने के लिए। कल ही एक अखबार में खबर आई है कि अमेरिका में एक कंपनी अब लोगों को प्रेम करना सिखाएगी। यह एकदम नई किस्म की पढ़ाई है। जिसकी डिग्री और कहीं नहीं दी जाती है। अपनी गर्लफ्रेंड या ब्वायफ्रेंड को कैसे एसएमएस किया जाए, फेसबुक पर कैसी पोस्ट डाली जाए, ट्विटर पर क्या लिखा जाए, ऐसा क्या लिखा जाए कि वह इंप्रेस हो जाए, इसकी वहां शिक्षा दी जाएगी।’
मेरे बेटे के दोस्त ने आश्चर्य से मुंह फाड़ा, ‘अच्छा? तू यह सब पढ़ने अमेरिका जाएगा? अबे तुझे इसके लिए अमेरिका जाने की क्या जरूरत है? यह सब पढ़ाई तो तू यहां भी कर सकता है। इसके लिए अपने देश में कितने लवगुरु हैं न!’ मेरे बेटे ने जवाब दिया, ‘चल मान लिया थोड़ी देर के लिए कि मैं लवगुरु से पढ़ भी लूं, लेकिन क्या वह डिग्री देंगे? और फिर उस डिग्री की वैल्यू क्या रहेगी? सोच, छह-सात साल बाद जब मैं अमेरिका की किसी यूनिवर्सिटी से बीएल (बैचलर ऑफ लव) या एमएल (मास्टर ऑफ लव) की डिग्री लेकर लौटूंगा, तो मेरी गर्लफ्रेंड पर क्या इंप्रेशन जमेगा। मेरी तो बल्ले-बल्ले हो जाएगी।’
मेरा बेटा कुछ और कहता, इससे पहले मुझे एक निगोड़ी खांसी आ गई। मेरा कुलदीपक और उसका दोस्त दोनों सकपका गए और बरामदे से निकल कर सड़क पर आ खड़े हो गए। बेटे की बातें सुनकर मुझे कबीरदास याद आ गए। बेचारे कबीरदास यह रटते-रटते मर गए कि प्रेम न बाड़ी उपजे, प्रेम न हाट बिकाय।‘ कबीरदास के जमाने में तो प्रेम की खेती शायद होती भी नहीं थी। कुछ माफिया टाइप के लोग छोटे-मोटे पैमाने पर प्रेम की खेतीबाड़ी करते भी थे, तो उनको कोई पूछना भी नहीं था। उन दिनों प्रेम हॉट-बाजारों में भी नहीं बिकता था। हालांकि राजा-महाराजा बाकायदा मीना बाजार लगवाते थे, लेकिन वह आम लोगों की पहुंच से बाहर की बात थी। प्रेम के खरीदारों की संख्या तो तब बहुत सीमित थी। लेकिन आज तो कबीरदास की पूरी थ्योरी ही उलटी जा रही थी। प्रेम की न केवल खेती की जा रही है, बल्कि उसे हॉट-बाजार में खरीदा-बेचा जा रहा है। कबीरदास की थ्योरी पर मैं आगे कुछ और सोचता-विचारता कि घरैतिन रसोई से बाहर निकली और बोली, ’किस कलमुंही की याद में यहां बुत बने खड़े हो?‘ घरैतिन की बात सुनते ही मैं चौंक गया और फुर्ती से घर के अंदर घुस गया।

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