Tuesday, April 16, 2013

उपन्यास ‘चिरकुट’ का एक अंश

अशोक मिश्र                                                                                                                                                एक दिन शिवाकांत आफिस पहुंचा, तो देखा कि न्यूज रूम में मजमा लगा हुआ है। सहायक संपादक प्रतुल गुप्ता, रिपोर्टर गीतिका, क्राइम रिपोर्टर सागर दत्त शुक्ल, पहले पेज के इंचार्ज नमो नारायण भारद्वाज, फीचर डिपार्टमेंट का संजीव चौहान, डिप्टी न्यूज एडीटर सुकांत अस्थाना, आईटी डिपार्टमेंट के कुछ लड़के बैठे ठहाका लगा रहे हैं। निखिलेश निखिल कथा वाचक की तरह दोनों पैर सिकोड़कर कुर्सी पर बैठे हुए हैं। पास में रखे डस्टबिन में वे बार-बार गुटखे की पीक थूकते और फिर अपनी बातों में लग जाते। 
‘तुम मुझे क्या सिखाओगे न्यूज लिखना? पहले तो यह बताओ, तुम खुद क्या हो? यू आर टोटली क्रिमिनल। तुम्हें तो बीच चौराहे पर गोली मार देनी चाहिए। इस देश में दस लोग कंटेंट के मास्टर हैं, उनमें से एक मैं भी हूं। बाकी सब जगलर हैं, लाइजनर हैं, मैनेजर हैं, लेकिन पत्रकार कोई नहीं है। क्या...पत्रकार कोई नहीं है। खुद जिंदगी भर एसपी सिंह का जूठा खाते रहे, उनकी लंगोट धोते रहे और पूरी जिंदगी एसपी सिंह को बेचते रहे। इसके सिवा तुमने किया ही क्या है जी। मुझे चले हो न्यूज समझाने। मैंने भी एसपी सिंह के साथ काम किया है।’ निखिल जी हाथ नचा-नचाकर बमक रहे थे, ‘मैं सबकी असलियत जानता हूं। इस दिल्ली में जितने भी छोटे से लेकर बड़े अखबारों के संपादक और बड़े पत्रकार हैं, उन सबकी असलियत जानता हूं। मैं तो लिखने जा रहा हूं न...इन बड़े-बड़े संपादकों पर किताब लिख रहा हूं, उसमें लिख रहा हूं न..कौन किसकी रंडी है, कौन किसका भड़ुवा है?’
निर्धारित जगह पर अपना हेलमेट रखने के बाद शिवाकांत जा पहुंचा निखिल के पास, ‘क्या हुआ भाई साहब? आप कुछ खफा दिख रहे हैं?’
डस्टबिन में गुटखा थूकने के बाद शिवाकांत की ओर अंगुली उठाकर निखिल बोले, ‘यह सब तुम्हारी ही करतूत है? क्यों जी...मुझमें न्यूजसेंस नहीं है क्या? मेरी भाषा खराब हो सकती है, मात्रा-फुलस्टाप की गलतियां हो सकती हैं, लेकिन मेरी रिपोर्ट खराब है, यह कहने वाले तुम कौन होते हो?’
एकाएक हुए हमले से शिवाकांत घबरा गया, ‘मैंने कब कहा कि आपकी रिपोर्ट खराब है? मुझसे यह क्यों कह रहे हैं? जिसने कहा है, उससे जाकर कहिए। है हिम्मत? खामख्वाह मुझे धमका रहे हैं।’ धीरे-धीरे उसका स्वर तल्ख होता गया।
‘क्या...मुझमें हिम्मत नहीं है? मेरी हिम्मत को चुनौती तो दो ही नहीं। मैं क्या कर सकता हंू, इसकी तुम लोग कल्पना भी नहीं कर सकते हो। मैं अब तक कई संपादकों को पीट चुका हूं। डीडी वन पर बहुत पहले शालिनी सिंह का एक न्यूज प्रोग्राम आता था। एक दिन किसी बात पर उसने आफिस के एक कर्मचारी पर हाथ उठा दिया। बस, मुझे गुस्सा आ गया। मैंने पकड़े उसके बाल और उसे खीचते हुए न्यूज रूम तक लाया। आज भी शालिनी सिंह के सिर के बीचोबीच कुछ जगह बाल नहीं हैं। उसके काफी बाल उखड़कर मेरे हाथ में आ गए थे।’
‘लेकिन इसमें मैं कहां से आ गया?’ शिवाकांत पूछ बैठा। 
‘नहीं..तुम नहीं...लोग कह रहे हैं। मेरे सामने कहें, तो मैं गोली मार दूं। खुद तो चोट्टे हैं, कुछ इस खबर का हिस्सा, कुछ उस खबर का हिस्सा लेकर जोड़-गांठ कर किसी तरह खबर पूरी कर ली, इधर-उधर से कापी पेस्ट कर लिया और हो गए बड़का रिपोर्टर।’ निखिल धारा प्रवाह बोलते जा रहे थे। 
प्रतुल गुप्ता ने मानो हवन में जलता लोहबान डाला, ‘सर जी...सारे लोग ऐसे ही करते हैं।’
‘बिल्कुल..ऐसा ही करते हैं। मैं तुम्हें बताऊं। सन 98 या उसके एकाध साल बाद की बात है। उन दिनों मैं बेरोजगार था। एक दिन सुबह-सुबह मेरे पास इंडिया टुडे से एक मित्र का फोन आया। मित्र ने कहा कि संपादक जी ने बुलाया है। मैं पहुंचा, तो संपादक जी ने कहा कि मध्य प्रदेश के झाबुआ जिले में बड़े पैमाने पर आदिवासी धर्म परिवर्तन कर रहे हैं। मुझे इस मुद्दे पर एक बढ़िया-सी मुकम्मल रिपोर्ट चाहिए। अगर आप कर सकें, तो मैं यह आपको एसाइन कर दूं। मुझे भी पैसे की जरूरत थी। मैंने हां कर दिया। उन्होंने दस हजार रुपये दिलाए भी। चलते समय सहारा के मैगेजीन डिपार्टमेंट के हेड ने भी अलग से एक रिपोर्ट मांगी। मैं किसी तरह लस्टम-पस्टम लोगों से पूछता-पाछता झाबुआ पहुंचा। देखा, एक चर्च के सामने सभी टीवी चैनलों ने अपने ओबी वैन लगा रखे हैं। चैनलों पर टिकर और फ्लैश चल रहे थे, ‘यही है वह चर्च, जहां हुआ धर्म परिवर्तन’..‘आदिवासियों के धर्म परिवर्तन के लिए आया विदेश से पैसा’...‘खतरे में है हिंदू धर्म’..‘पांच हजार से ज्यादा आदिवासी बने ईसाई..।’ बाद में मैंने तहकीकात की, तो पता चला कि जहां धर्म परिवर्तन हुआ है, वह गांव नवापारा तो यहां से चौदह पंद्रह किमी दूर घने जंगलों में है। टीवी चैलन वाले झुट्ठै..फर्जी खबर चला रहे हैं। मन नहीं माना। पहाड़, जंगल, नदी पार करके किसी तरह दूसरे दिन नवापारा गांव पहुंचा, जहां कथित रूप से धर्म परिवर्तन हुआ था। मन में एक डर भी था कि कहीं कोई जंगली जानवर न हमला कर दे, नक्सलियों के हाथ न लग जाऊं? फिर भी, पत्रकारिता का जुनून खींचे लिए चला जा रहा था। वहां पहुंचा, तो सब तरफ सन्नाटा। एक छोटे से बच्चे को पकड़ा, उसे दस रुपये दिए। उससे पूछा, तो उसने एक छोटे से चर्च की ओर इशारा किया।’
इतना कहकर निखिल ने डस्टबिन में फिर गुटखा थूका। बोले, ‘मैं इधर उधर झांकता उस ओर बढ़ा। तभी पता नहीं कहां से चर्च का फादर प्रकट हुआ। उससे बात की, तो वह भड़क उठा। काफी देर समझाने-बुझाने और यह विश्वास दिलाने के बाद कि जो भी घटना हुई है, उसको उसी रूप में छापा जाएगा, वह बात करने को तैयार हुआ। मैंने उसे बताया कि प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया तो ईसाई मिशनरियों की छवि बिगाड़ रहे हैं। काफी ना नुकुर करने के बाद उसे जो बताया, वह हैरतअंगेज था। सच बताऊं...धर्मांतरण तो हुआ था, लेकिन असली बात तो मीडिया को पता ही नहीं थी। ईसाई मिशनरियों में काम करने वाली तीन ननों के स्तन काटे गए थे। दो तो गंभीर हालत में अस्पताल में भर्ती थीं। उनसे मारपीट की गई थी, उन्हें लूटने की कोशिश हुई थी।’
निखिल ने जैसे ही यह बात पूरी की, प्रतुल गुप्ता ने तालियां बजाते हुए कहा, ‘यह अच्छा हुआ था। ईसाइयों और मुसलमानों के साथ ऐसा ही किया जाना चाहिए। मैं तो होता, तो बहुत कुछ करता। उन लोगों ने सिर्फ स्तन ही काटे थे।’ 
पहले पेज के इंचार्ज नमो नारायम भारद्वाज ने प्रतुल को झिड़कते हुए कहा, ‘आप हर बात और घटना को हिंदूवादी चश्मे से देखना बंद कीजिए। आपको ऐसी बात कहते हुए शर्म आनी चाहिए। आप अपने को बुद्धिजीवी कहते हैं। यदि हिंदुत्ववादी होने का इतना ही शौक है, तो दीजिए इस्तीफा और चले जाइए भाजपा या संघ में।’ 
‘अरे जाने दो...ये लोग किसी औरत की पीड़ा को क्या समझेंगे। पत्रकारिता में ऐसे लोग घुस आए हैं या कहो कि पत्रकारिता में ऐसे ही लोगों का वर्चस्व होता जा रहा है, जो समाज विरोधी हैं, मानवता विरोधी हैं। ये कहते हैं कि हम तो न्यूज के व्यापारी हैं, हमें समाज से क्या लेना देना। समाज लेकर बैठे, तो अपनी दुकान ही लुट जाएगी। सच कहता हूं, ऐसे लोगों को तो बीच चौराहे पर खड़ा करके गांड पर गोली मार देनी चाहिए।’ निखिल अपनी रौ में फिर आ गए। यह उनकी आदत है। वे जब भी बोलने लगते हैं, तो यह भूल जाते हैं कि वे कहां बैठे हैं। 
नमो नारायण ने हस्तक्षेप किया, ‘हां तो ..भाई साहब! फिर क्या हुआ?’
निखिल ने फिर पिच्च से थूक दिया, ‘हां..तो मैं कह रहा था कि उसने सात ननों को लाकर मेरे सामने पेश कर दिया। मैंने देखा, सभी ननों के शरीर पर कोई न कोई चोट के निशान अवश्य थे। मैं घबड़ा गया। मैंने पूछा कि मामला क्या है? फादर बताने लगा, पिछले कई दशक से ईसाई मिशनरियां यहां काम कर रही हैं। इन मिशनरियों में काम करने वाली ननें आदिवासियों के गांव-गांव जाकर उन्हें शिक्षित करती हैं, उनमें जागरूकता पैदा करती हैं। उनकी हर तरह से मदद करती हैं। ऐसे में वे चाहती भी हैं कि आदिवासी ईसाई हो जाएं। तभी एक लड़की ने कराहते हुए कहा, मैं भगौर गांव में दवाइयां बांटने जा रही थी, टिहिया की पांच वर्षीय बेटी हिकरी बीमार थी। तभी दूसरे गांव के पंद्रह-सोलह भील आदिवासी लाठी, कुल्हाड़ी और तीर-धनुष लेकर आए और हम पर हमला बोल दिया। उन्होंने हमें मारा-पीटा, कुल्हाड़ी से हम तीन लड़कियों के सीने पर प्रहार किया। वे हमारे पास मौजूद खाने-पीने का सामान छील ले गए। दो अस्पताल में भर्ती हैं। इसी बीच कुछ लोग आ गए, तो हमलावर भाग खड़े हुए। बाद में हम अस्पताल गए। मैंने उन सबके नाम नोट किए। मैं फादर से कहा, मैं धर्म परिवर्तन करने वालों से भी मिलना चाहता हूं। फादर ने बताया कि वे लोग तो दंगे के भय से यहां से हटा दिए गए हैं। अगर कल दोपहर तक का मौका दें, तो उनसे मिलवा सकता हूं।’
‘फिर तो मेरे पास कोई विकल्प ही नहीं था। मैं रात में उसी चर्च की बाउंड्री में सो गया। थका हुआ था, सो नींद आ रही थी। मन में भय भी था कि कहीं कोई बदमाशी न करें। अनजान इलाका था। एक तरफ आदिवासियों का खतरा था, तो दूसरी ओर नक्सलियों का। अपनी कमजोरी बता रहा हूं, चर्चा वालों पर भी पता नहीं क्यों विश्वास नहीं हो रहा था। खैर..नींद आई, तो सुबह तक सोता रहा। सुबह उठा, तो चर्च वालों ने ही चाय-नाश्ता करवाया। दोपहर डेड़-दो बजे तक धर्मांतरण करने वाले आदिवासी भी आ गए।’ निखिल बता रहे थे, ‘मैंने एक आदिवासी से उसका नाम पूछा।’
उस आदिवासी ने कहा, ‘फादर ने नया नाम दिया है थॉमस, वैसे नाम है झीतरा।’
‘तुमने धर्म क्यों बदल लिया?’ मेरा सवाल था। 
झीतरा उर्फ थॉमस पहले तो चुपचाप सामने देखता रहा, फिर कुछ इस तरह बोला, मानो उसकी आवाज आसपास की पहाड़ियों से टकराकर लौट रही हो..एकदम भर्राई हुई सी, ‘धर्म न बदलता, तो मर जाता। जिंदा रहूंगा, तभी न धर्म रहेगा। लाश का भी कोई धर्म होता है क्या? जब से धर्म बदला है, भरपेट खाना खा रहा हूं। इससे पहले तो मुझे याद ही नहीं था कि मैंने भरपेट खाना कब खाया था? मिशनरी वाले खाना देते हैं, बीमार पड़ने पर दवा-दारू कराते हैं। जिस धर्म में पैदा हुआ था, वे हमें दुरदुराते थे। ये हमें दुरदुराते नहीं, हमें घृणित नहीं समझते। हमारी बहू-बेटियों से बलात्कार नहीं करते। अगर हम झीतरा से थॉमस नहीं बनते, तो क्या करते। सिर्फ धर्म के सहारे तो जिंदा नहीं रहा जा सकता है, साहब! पेट तो भरना ही है न।’

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