Thursday, April 25, 2013

...आज पर्चा सही होगा

अशोक मिश्र 
जैसे ही आफिस के मोड़ पर गाड़ी पहुंची, तो सीधी सड़क पर काफी दूर एक गधे को खड़ा देखकर संपादक जी ने कहा,‘आज का पर्चा (प्रश्नपत्र) सही होगा?’ मैं चौंक गया। प्रतिक्रियास्वरूप तत्काल मेरे मुंह से निकला, ‘क्या मतलब?...’ संपादक जी ने गहरी मुस्कान बिखेरते हुए कहा, ‘बचपन में परीक्षा देते जाते समय अगर रास्ते में कोई गधा मिल जाता था, तो हम लोग मानते थे कि आज का पर्चा ठीक होगा।’ मैं भी गधे पर दांव खेल गया। बड़ी जोर की आवाज निकाली, ‘हूं...ऊ...तो आप भी गर्दभराजों की बदौलत पास होते रहे हैं?’ संपादक जी ने तत्काल फुलटॉस फेंकी, ‘नहीं...गधों के बल पर नहीं...पास तो मैं अपनी मेहतन और लगन के बल पर होता रहा हूं, लेकिन बात बताऊं। गधे उस समय के दौर में परीक्षार्थियों के लिए ‘चीयरगर्ल्स’ जैसी भूमिका निभाते थे। हम परीक्षार्थियों को देखते ही जिस लय और ताल में तत्कालीन गधे दुलत्तियां झाड़ते थे, गर्दभ राग अलापते थे, वह हम लोगों में नई ऊर्जा का संचार करता था। तुमने कभी क्रिकेट मैचों में चीयरगर्ल्स को कमर मटकाकर दर्शकों को उत्साहित करते देखा है? अगर नहीं, तो देखो। तब तुम्हें चीयरगर्ल्स की उपयोगिता समझ में आएगी। अच्छा, हमारे जमाने की कल्पना करो और बताओ, हम विद्यार्थियों को चीयरअप करने वाला कौन था। बापू को अपने काम-धंधों से ही फुरसत नहीं थी। फुरसत भी मिली, तो उनके अपने ऐब थे। डंड-बैठक लगाना, जमकर दूध पीना और दिन भर में सेर भर भांग खाकर मस्त रहने के सिवा उन्हें कुछ आता नहीं था। अम्मा के लिए यही बहुत था कि उनका बेटा स्कूल-कॉलेज जाता है। प्रेरक कौन था उस जमाने में? यही गर्दभराज ही न! स्कूल जाते समय मिल गए, तो आज मास्साब नहीं पीटेंगे। पर्चा देने जाते समय गधे से मुलाकात हो गई, तो पर्चा अच्छा होगा। पथप्रदर्शक कहो या प्रेरक, गधे महाराज ही थे न! अगर इन्हें देखकर हमारे कोमल मन को यह विश्वास न होता कि आज मास्साब नहीं पीटेंगे, तो क्या रमुआ, बुधई, प्रीतो, कांति जैसे लोग साक्षर हो पाते? सरकार की शिक्षा योजनाएं धूल-धूसरित हो गई होतीं और साक्षरता दर घड़ी के पेंडुलम की तरह आज भी उसी तरह झूल रही होती, जिस तरह आज से चार-पांच दशक पहले झूल रही थी।’
इतना कहकर संपादक जी सांस लेने के लिए रुके, ‘भारत में शिक्षा के प्रचार-प्रसार में जितना महत्वपूर्ण योगदान इन गधों का है, उतना किसी का नहीं। गधे टाइप विद्यार्थियों और शिक्षकों का भी नहीं।’ मैंने पूछा, ‘अच्छा एक बात बताइए, सर। क्या राजनीति में ‘चीयरगर्ल्स’ या ‘चीयरलीडर्स’ टाइप के गधे पाए जाते हैं?’
संपादक जी ने कार का शीशा गिराकर थूकने के बाद कुछ देर सोचा और फिर बोले, ‘देखो, प्रवृत्ति और पेशे के हिसाब से कहूं, तो पूरी राजनीति में ऐसे ही लोग भरे पड़े हैं। ये बडका नेता को देखकर तो चारों पैर उठाकर लोट लगाते हैं, ढेंचू-ढेंचू करके प्रशस्तिगायन करते हैं, लेकिन उन्हें जहां अपनी बिरादरी का दूसरा गधा टाइप का नेता दिखा, दुलत्तियां झाड़ने लगते हैं। किसी पार्क या चारागाह में ये मुंह मार रहे हों और दूसरा गधा आ जाए, तो फिर देखो इनका रवैया। न खुद खाएंगे, न अपनी बिरादरी वाले को खाने देंगे। दूसरा भले ही खाए भी और जाते समय चारागाह में आग लगाकर चला जाए, इन्हें संतोष रहेगा।’
‘लेकिन इनकी संख्या तो बहुत सीमित होगी?’ अब मेरी उत्सुकता चरम पर थी। गधे के पास से गुजरते समय मुझ पर पता नहीं क्या खब्त सवार हुई, मैंने हाथ निकालकर गधे की पीठ पर फेर दिया। हाथ लगते ही गर्दभराज भड़क गए। उन्होंने तिरछे होकर पता नहीं किस स्टाइल से दुलत्ती झाड़ी की कि कार की विंडो का ग्लास ‘चटाक’की आवाज करता हुआ शहीद हो गया। ऐसा होते ही संपादक जी अगिया बैताल हो गए, ‘नामाकूल, नालायक...गधे...गधे से प्यार जताने की क्या जरूरत थी? बहुत ज्यादा बिरादराना मोह जाग गया था, तो गाड़ी से उतरकर उसको गले लगाते, उससे लाड़ जताते। करवा दिया न...दो हजार का नुकसान। यह नुकसान तेरी तनख्वाह से काटकर पूरा करूंगा।’ आॅफिस के सामने गाड़ी से उतरा, तो बुदबुदा रहा था, ‘सर जी! गधे को देखने से भले ही बचपन में आपका पर्चा सही हुआ हो, लेकिन मेरा पर्चा तो बिगड़ गया। कसम खाता हूं, जो आज के बाद घर या बाहर किसी गधे को भाव दिया तो...।’ ...और महीने बाद जब तनख्वाह मिली, तो उसमें से दो हजार रुपये काट लिए गए थे।

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