Thursday, April 11, 2013

बड़ा लुत्फ था जब कुंवारे थे...

कैनेडा से प्रकाशित त्रैमासिक साहित्यिक
पत्रिका 'हिन्‍दी चेतना' का जनवरी-मार्च 2014
अंक में पेज 27 पर प्रकाशित मेरा व्‍यंग्‍य।

http://issuu.com/hindichetna/docs/hindi_chetna_january_march_2014
अशोक मिश्र 
जो लोग आज कुंवारे हैं, वे उस सुख का अंदाजा नहीं लगा सकते हैं, जो सुख विवाहितों ने अपने कुंवारेपन में उठाया था। सुख हो या दुख, स्वतंत्रता हो या गुलामी, जब तक एक-दूसरे के सापेक्ष नहीं होते हैं, तब तक उनका महत्व समझ में नहीं आता है। आज वैवाहिक जीवन के सुखों को देखते हुए कहा जा सकता है कि सचमुच...बहुत सुख था, जब कुंवारे थे हम सब। अगर मैं अपनी बात करूं, तो यह कह सकता हूं कि तब आधी-आधी रात तक मटरगश्ती करने के बाद भी कोई यह पूछने वाला नहीं था कि इतनी देर कहां रहे। सुबह देर तक सोओ, रात भर जागो, मन हो, तो किसी दोस्त के घर या हॉस्टल में रुक जाओ। नौकरी करो या न करो, कोई फर्क नहीं पड़ता था उन दिनों। क्या मौज के दिन थे। दोस्तों से उधार पर उधार लेता जाता था, जब सात-आठ हजार रुपये उधार हो जाते थे, तब कहना पड़ता था, ‘यार! बड़ा कर्जदार हो गया हूं, कहीं कोई नौकरी दिलाओ।’ जिनको अपना कर्ज वसूलना होता था, वे भाग-दौड़ करके किसी अखबार या पत्रिका में छोटी-मोटी नौकरी दिला दिया करते थे। जैसे ही सभी दोस्तों का कर्जा चुकता, नौकरी को लात मारकर परम स्वतंत्र हो जाते थे। यह सुख शादी के बाद तो जैसे आकाश कुसुम हो गया। अब तो हाल यह है कि जैसे ही बॉस नाराज होते हैं, धुकधुकी-सी सवार हो जाती है, ‘हाय...नौकरी बचेगी या जाएगी। इस उम्र में अब कौन देगा नौकरी? नौकरी गई, तो इस बार चुन्नू की फीस कैसे जाएगी, मुन्नी की फ्रॉक कैसे आएगी? तमाम चिंताएं सवार हो जाती हैं सिर पर।’ नतीजतन, बॉस की लल्लो-चप्पो करनी पड़ती है। उनकी दो-चार झिड़कियां सहनी पड़ती हैं, मौका दें, तो उनके घर की सब्जियां लाने से लेकर टेलीफोन, बिजली के बिल जमा करने को भी तैयार हो जाता हूं। भले ही अपने घर का गेहूं चक्की पर पांच दिन पड़ा रहे, लेकिन बॉस का चेक जमा कराने को हमेशा तैयार रहना पड़ता है। और यह सब ‘शादी का लड्डू’ खाने का नतीजा है। बॉस के नाराज होने की बात जैसे ही घरैतिन को पता चलती है, उनका रेडियो ‘सीलोन’ चालू हो जाता है, ‘कितनी बार समझाया है कि सबसे हिल-मिलकर रहो। अगर बॉस कुछ कहें, तो सिर झुकाकर सुन लो। अगर दो-चार बातें आॅफिस में सुन ही लोगे, तो तुम्हारा क्या बिगड़ जाएगा।’
अब घरैतिन को कौन यह समझाए कि शादी से पहले क्या मजाल थी, कोई बॉस-फॉस कुछ कहकर निकल जाए। नाक पर गुस्सा और जेब में इस्तीफा हम कुंवारों की शान हुआ करता था। इधर बॉस के मुंह से बात निकलती भी नहीं थी कि इस्तीफा उनकी मेज पर और अलविदा कहते हुए दो-चार लोगों से हाथ-साथ भी मिला चुके होते थे। सच्ची...कित्ता मजा आता था, जब कुंवारे थे हम। अब तो हालत धोबी के कुत्ते जैसी हो गई है। दोस्तों से मिलना हो, तो बहाना बनाना पड़ता है, ‘डार्लिंग! जाम में फंसा हुआ हूं...घर पहुंचने में थोड़ी देर लगेगी।’ घर पहुंचो, तो एक अलग झमेला, ‘इतनी देर कहां लगा दी? पड़ोस वाले वर्मा जी तो शाम को छह बजे ही घर आ जाते हैं। आजकल किसी से नैन मटक्का तो नहीं कर रहे हैं। सच्ची बात बताइएगा...खाइए मेरी कसम कि आपका किसी के साथ लफड़ा नहीं है। दो महीने से देख रही हूं, आप कुछ उखड़े-उखड़े से हैं। रमेश बता रहा था कि आॅफिस में आजकल उस कलमुंही के साथ कुछ ज्यादा ही टाइम बिताते हैं।’ मेरे एक सीनियर हैं...नाम आप कुछ भी रख सकते हैं। थोड़ी देर के लिए अखिल..निखिल..रमेश-सुरेश कुछ भी रख लेते हैं। जब वे किसी दिन कहीं बैठे हुए ‘सटक’ मार (शराब पी रहे) हों और घर से फोन आ जाए, तो कहते हैं, ‘अभी आॅफिस में हूं। हेड आॅफिस से कुछ बॉस टाइप के लोग आए हुए हैं। उनके साथ मीटिंग चल रही है। घंटे-आधे घंटे में आता हूं।’ हाय...वे भी क्या दिन थे...जब हम सारे कुंवारे दोस्त घर से उपेक्षित किंतु मित्रों में लोकप्रिय हुआ करते थे। पसंदीदा लड़की की एक झलक पाने के लिए मई-जून की दुपहरिया में छत पर खड़े उनके घर की ओर ताका करते थे और ताकते-ताकते आंखें बटन हो जाती थीं। एक ही पैंट-शर्ट को हफ्ते तक पहने मजनंू की तरह दाढ़ी-बाल बढ़ाए घूमा करते थे। उस सुख की सिर्फ अब तो कल्पना ही की जा सकती है। न रोज नहाने की प्रतिबद्धता, न रोज दाढ़ी बनाने की झंझट, न रोज बिस्तर झाड़ने की जहमत। जब तक शरीर से बदबू न आने लगे, तब शरीर पर पानी डालना भी गुनाह था। पैर लाख गंदे हों, घुस जाओ बिस्तर में। ऐसी स्वतंत्रता अब कहां। जीवन के हर मोड़ पर घरैतिन किसी प्रवीण मास्टरनी की तरह छड़ी लेकर हाजिर हैं। माघ-पूस में आधी रात को भी बिना पैर धुलवाए बिस्तर पर चढ़ गए, तो खैर नहीं। अब तो मन रो-रो कर यही कहता है, ‘कोई लौटा दे मेरे...बीते हुए दिन।’

No comments:

Post a Comment