Saturday, April 9, 2011

अब चाहिए जनप्रतिनिधि को वापस बुलाने का अधिकार



अशोक मिश्र

भ्रष्टाचार को लेकर दिल्ली के जंतर-मंतर पर 97 घंटे तक अनशन करने वाले अन्ना हजारे की सदिच्छा पर शायद ही किसी को कोई अविश्वास हो। उन पर कभी किसी आर्थिक भ्रष्टाचार के आरोप शायद ही लगे हों और यदि लगे भी हों, तो उस पर किसी ने विश्वास नहीं किया होगा क्योंकि अन्ना हजारे ने हमेशा कुछ करके दिखाने में विश्वास किया है, बयानबाजी करने में नहीं। उन्हें जहां भी लगा कि गलत हो रहा है, उसका मुखर विरोध किया। इसके लिए कभी अपने-पराये का भेद भी नहीं किया। शायद यही वजह है कि जब उन्होंने जन लोकपाल विधेयक पारित कराने की मांग को लेकर जंतर-मंतर पर प्रदर्शन का फैसला किया, तो पूरा देश उनके साथ उठ खड़ा हुआ। लेकिन अब जब उन्होंने केंद्र सरकार के आश्वासन पर अपना अनशन तोड़ दिया है, तो यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि जिस उद्देश्य को लेकर उन्होंने अनशन किया और जिसे पूरे देश का भरपूर समर्थन मिला, वह उद्देश्य पूरा होगा? सरकार ठीक वैसा ही लोकपाल विधेयक संसद में पेश करेगी, जैसा अन्ना हजारे और देश की आम जनता चाहती है, इसकी क्या गारंटी है। और संसद इस विधेयक को पास भी कर देगी, इसको लेकर आश्वासन देने की स्थिति में शायद कोई नहीं है। थोड़ी देर के लिए मान लिया जाए कि ड्राफ्ट कमेटी के सदस्य अन्ना हजारे द्वारा प्रस्तावित जन लोकपाल विधेयक की मूल अवधारणा से छेड़छाड़ नहीं करेंगे। लेकिन इस भ्रष्ट लोकतांत्रिक व्यवस्था में इसे पास कराना सबसे टेढ़ी खीर होगी।...कहीं इस विधेयक का हश्र महिला आरक्षण विधेयक जैसा ही तो नहीं होगा। जिस तरह दबाव में आकर सरकार ने अन्ना समर्थकों की सभी मांगों को स्वीकार किया है, उससे तो यही लगता है कि वह फिलहाल मसले को कुछ दिनों के लिए टालकर अपने लिए राहत की जुगाड़ में थी। उसने ड्राफ्ट कमेटी में सरकारी और गैर सरकारी सदस्यों की बराबर संख्या की बात भी मान ली है। लेकिन जिस तरह अन्ना हजारे समर्थकों ने आनन-फानन सरकार की बात मान ली है, उससे यह शक पैदा होता है कि कहीं वाहवाही लूटने के लिए तो नहीं जनता के उन्माद और जोश का इस्तेमाल किया गया।

हालांकि अन्ना हजारे ने सरकार के झुकने और लोकसभा में विधेयक पेश करने के आश्वासन को आम जनता की जीत बताते हुए कहा कि अब हमारी जिम्मेदारी बढ़ गई है। बिल का मसौदा तैयार करना और उसे मंत्रिमंडल में पास कराना अभी बाकी है। बिल को लोकसभा में पास करवाना भी एक बड़ा काम है। जब तक सत्ता का विकेंद्रीकरण नहीं होता, भ्रष्टाचार खत्म नहीं होगा।

इस पूरे प्रकरण में सबसे ज्यादा ध्यान देने वाली बात पर कुछ ही लोगों ने ध्यान दिया होगा और वह था अन्ना हजारे के समर्थन में देहरादून में प्रदर्शन करने वाले विख्यात पर्यावरणविद सुंदरलाल बहुगुणा और उनके साथियों द्वारा लिया गया एक पोस्टर जिसमें लिखा था कि पूंजीवादी व्यवस्था में भ्रष्टाचार को खत्म करना असंभव है। इस पोस्टर का निहितार्थ यह हुआ कि जब तक मुनाफे पर आधारित बिकाऊ माल की पूंजीवादी अर्थव्यवस्था रहेगी, तब तक भ्रष्टाचार खत्म नहीं होगा। जो व्यवस्था मुनाफा कमाने की इजाजत देती हो, उस व्यवस्था से रिश्वतखोरी, लूट, शोषण-दोहन खत्म हो जाएगा, इसकी कल्पना करना बुद्धिमानी नहीं होगी। शायद सुंदरलाल बहुगुणा और उनके साथियों को इस बात का पूरा विश्वास है कि पंूजीवादी संसदीय जनतंत्र भ्रष्टाचार की गंगोत्री है। और इस गंगोत्री के रहते किसी भी दल या राजनेता के पाक-साफ रहने की गुंजाइश बहुत ही कम है। इस पूरी व्यवस्था का समाजशास्त्रीय विश्लेषण करें, तो पता लगता है कि किसी वस्तु के उत्पादन प्रक्रिया में मुनाफा तभी पैदा होता है, जब उत्पादन कार्य में लगे श्रमिकों को उनकी वाजिब मजदूरी से कम दी जाए या उनसे दी गई मजदूरी के बदले ज्यादा समय तक काम लिया जाए।

अब जब भ्रष्टाचार के खिलाफ एक जागरूकता लोगों में पैदा हो ही गई है, तो ऐसे में उचित तो यह होगा कि जनप्रतिनिधियों को वापस बुलाने का विधेयक पारित कराने का दबाव भी सरकार पर बनाया जाए। वैसे तो इस व्यवस्था में जब तक किसी मंत्री, सांसद या नौकरशाह पर आरोप नहीं लगता या उसके द्वारा किए गए भ्रष्टाचार का खुलासा नहीं होता, तब तक तो वह ईमानदार ही माना जाता है। लेकिन यदि किसी कारणवश उसके घपलों और घोटालों का पर्दाफाश हो भी जाए, तो वह बड़ी बेशर्मी से इसे विरोधियों द्वारा बदनाम करने की बात कहकर पहले तो अपने कुकृत्य को नकारने का प्रयास करता है। इस पर भी यदि बात नहीं बनी, तो सरकार या पार्टी उस व्यक्ति को सरकार या पार्टी से निकालकर मामले की लीपापोती में लग जाती है। कामनवेल्थ गेम्स घोटाले का खुलासा होने से पहले सुरेश कलमाडी ईमानदार नहीं माने जाते थे क्या? 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले का पर्दाफाश होने से पहले तो ए. राजा भी सीना ठोंककर अपने को ईमानदारों की श्रेणी में रखते थे। यह बात किसी व्यक्ति या राजनीतिक पार्टी विशेष पर लागू नहीं होती। यह बात इस पूरी पूंजीवादी व्यवस्था पर लागू होती है जो शोषण पर आधारित है।
सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि ड्राफ्ट कमेटी के सदस्यों में शामिल सरकारी और गैर सरकारी सदस्य किसी भ्रष्टाचार में लिप्त नहीं रहे हैं, इसकी गारंटी कौन लेगा। चलिए थोड़ी देर के लिए मान लिया जाए, जनलोकपाल विधेयक पारित भी हो जाएगा और तब? इस व्यवस्था को देखने के लिए जो लोग जिम्मेदार होंगे, वे दूध के धुले होंगे, इसकी भी गारंटी शायद ही कोई लेने को तैयार हो। जब तक शोषण पर आधारित व्यवस्था का खात्मा नहीं होता, तब तक के लिए सिर्फ इतना ही किया जा सकता है कि जन लोकपाल विधेयक के साथ ही जनता अपने जनप्रतिनिधियों को वापस बुलाने का अधिकार भी मांगे। जब तक जनप्रतिनिधियों पर यह तलवार नहीं लटकती रहेगी कि यदि उन्होंने कोई घपला-घोटाला किया, तो जनता न केवल उनसे पद छीन लेगी, वरन उन्हें लोकसभा, राज्यसभा और विधानसभा से वापस बुला लेगी। उन पर जनता की अदालत में मुकदमा चलेगा, वह अलग से। यही बात नौकरशाही के संबंध में भी लागू होनी चाहिए। एक बार अपनी पढ़ाई और योग्यता के बल पर चुने गये नौकरशाह को तभी हटाया जा सकता है, जब उसके खिलाफ पूरी तरह साबित हो जाए कि वह भ्रष्ट है या किसी गैरकानूनी कार्यों में लिप्त रहा है। लेकिन ऐसा होने का उदाहरण शायद ही कोई हो, जब किसी नौकरशाह को भ्रष्टाचार के आरोप में नौकरी से हाथ धोना पड़ा हो।

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