Tuesday, December 20, 2011

नारी मन के अंतरद्वंद्व की गाथा ‘सोफी’


-अशोक मिश्र
वाकई विश्वास नहीं होता कि कोई लेखिका अपने पहले ही उपन्यास में नारी मन के अंतरद्वंद्व को इतनी साफगोई और विश्वसनीयता के साथ उकेरती हुई अपने पाठकों को अ•िाभूत कर देगी। प्रीति रमोला गुसांई ‘मृणालिनी’ के पहले उपन्यास ‘सोफी’ की शुरुआत प्रमुख पात्र लंदन निवासी सोफी के सौतेले बेटे जैमी डिसूजा के शिमला वापसी से होती है। वह शिमला में उन जगहों पर जाकर अपने बचपन की यादों को ताजा करना चाहता है। शिमला के लाल कोठी में पहुंचने पर उसका केयरटेकर उसे खरीददार समझकर पूरी कोठी दिखाता है। वहां उसे वह पत्थर दिखाई देता है, जिसके सामने बचपन में जैसी ने गिड़गिड़ाने के अंदाज में कभी अपनी सौतेली मां सोफी की सुरक्षा, उसके न भटकने की फरियाद की थी। वह उस पत्थर को लेकर पठानकोट की ओर यात्रा शुरू करता है और यहीं से फ्लैशबैक में पूरी कहानी चलती रहती है।

पूरा उपन्यास शिमला और पठानकोट के बीच घूमता रहता है। शिमला के प्रसिद्ध जगहों की विवेचना से यह तो पता लगता है कि लेखिका का यहां से गहरा जुड़ाव रहा है। उपन्यास ‘सोफी’ एक ईसाई परिवार के मुखिया मि. एंटनी और उनके पुत्र रोड्रिक के बीच चलने वाली अहम और सामंतवादी प्रवृत्ति के टकराव की गाथा है। धनलोलुप और अंग्रेजों के चाटुकार मि. एंटनी ने अपनी युवावस्था के दौरान भारतीय क्रांतिकारियों के खिलाफ मुखबिरी करके काफी धन कमाया और राय साहब की पदवी पाई। उनकी आकांक्षा की थी कि उनका पुत्र उनके नक्शेकदम पर चलकर उनकी संपत्ति को और बढ़ाए। लेकिन विडंबना यह है कि वह मुंबई की एक तवायफ से प्रेम कर बैठा और दो लड़कियों और एक बेटे जैमी का बाप बन गया। सामंती प्रवृत्ति के एंटनी अपने बेटे के ऐसा करने से टूट गए। उन्होंने अपने सारे संबंध बेटे से तोड़ लिए। पठानकोट में लकड़ियों से बनी एक आलीशान हवेली में अकेले रहने वाले एंटनी को अपने वंश वृद्धि की उम्मीद तब दिखाई दी, जब अपनी पत्नी और दोनों लड़कियों की हादसे में मौत से टूटा रौड्रिक अपने इकलौते बेटे जैमी के साथ पिता के घर में आकर रहने लगा। उसके पिता जैमी को अपना पौत्र मानने को तैयार नहीं हैं। इसी दौरान माली की लड़की सोफी एक नाटकीय घटनाक्रम के तहत ग्यारह वर्षीय जैमी के कमरे में सो जाती है और उसी दौरान नशे में धुत रौड्रिक आकर उसी कमरे में सो जाता है। सुबह लोग अस्तव्यस्त हालत में जब उसे रौड्रिक और सोफी को कमरे से निकलते देखते हैं, तो उनके बीच अवैध संबंधों की चर्चा शुरू हो जाती है। और शिकारी की तरह घात में बैठे एंटनी अपने बेटे को सोफी से विवाह करने को बाध्य कर देते हैं। एक अधेड़ उम्र के व्यक्ति के साथ व्याह दी जाती है सोलह साल की सोफी।

यदि उपन्यास की कथा वस्तु पर विचार करें, तो यह पिता-पुत्र के बीच के टकराव और पति का प्रतिरोधस्वरूप पत्नी को शादी के बाद सोफी को त्याज्य रखने की व्यथा कथा है। शादी के चार साल बाद सोफी के जीवन में प्रवेश करता है जयंत। जयंत सोफी के सौतेले बेटे जैमी को ट्यूशन पढ़ाने आता है। उसका सान्निध्य पाकर एक बार फिर मरी हुई कामनाएं और काम उद्वेग सिर उठाने लगते हैं। वह एक दिन...सिर्फ एक दिन अपने मन मुताबिक जीवन जीना चाहती है। इसी दौरान रौड्रिक मुंबई अपने परिवार सहित मुंबई जाता है, तो जयंत भी दुबई में नौकरी मिलने की वजह से फ्लाइट पकड़ने मुंबई जाता है। पानी के जहाज पर नववर्ष के अवसर पर होने वाले एक प्रोग्राम के चार टिकट खरीदकर रौड्रिक के पास पहुंचे जयंत को पता चलता है कि रौड्रिक बीमार है और वह इस कार्यक्रम में भाग नहीं ले सकेगा। वह सोफी और जैमी को जयंत के साथ कार्यक्रम में भाग लेने को बाध्य करता है और वहां पहुंचकर दोनों उस रंगीनियों में खो जाते हैं। अपनी सौतेली मां को अपने ट्यूटर जयंत के सामने काम याचना करते देख जैमी विचलित हो जाता है। कुछ दिनों बाद सोफी के गर्भवती होने और इस रहस्य को रहस्य बनाए रखने के लिए पिता को ढकेलकर मार देने वाले सोलह वर्षीय जैमी जिस अंदाज में पिता के अंतिम संस्कार के अवसर पर वह दुनिया के सामने जयंत के बच्चे को अपने पिता की संतान बताता है, वह कुछ ज्यादा ही नाटकीय लगता है। बाद में मि. एंटनी जैमी और उसकी सौतेली मां सोफी को पठानकोट ले जाते हैं। अपनी सारी संपत्ति का वारिस वह सोफी के बच्चे को बता देते हैं। यह कथा इसी तरह आगे बढ़ती है और बाद में सोफी के सामने अपने वायदे के अनुसार जयंत काफी पैसा कमाकर दुबई से लौटता है, लेकिन वह जयंत को पहचानने से इनकार कर देती है। पढ़ाई के नाम पर दिल्ली और फिर बाद में लंदन गए जैमी को अब अपनी सौतेली मां से उतनी ही घृणा है जितनी वह अपने पिता से करता था। बाद में सोफी मर जाती है और उसकी कब्र के पास अकसर आकर बैठने वाला पागल जयंत भी एक दिन मर जाता है।

दरअसल, उपन्यास ‘सोफी’ में जहां नारी मन के आवेगों, उद्वेगों की सफल प्रस्तुति है, वहीं सौतेली मां और जैमी के बीच उपजे ममत्व की पराकाष्ठा कुछ अतिरंजित ही लगती है। कोई पुत्र अपनी काम पिपासु सौतेली मां और उसके नाजायज बच्चे को बचाने के लिए अपने पिता की हत्या कर दे, तो हमारा समाज उसे किसी भी रूप में जायज नहीं ठहराता है। उपन्यास की भाषा में वह प्रवाह नहीं है जो होनी चाहिए। उपन्यास पढ़ते समय भाषागत त्रुटियां खटकती हैं। अंग्रेजियत का भाव प्रबल होने और हिंदी को आत्मसात न कर पाने की वजह से ऐसा हुआ होगा। कई जगह तो भाषा और व्याकरण का अनाड़ीपन साफ झलक जाता है। अगर अंग्रेजी शब्दों को उस तरह लिखा जाता, जिसे हिंदी में जिस तरह लिया जाता है, तो शायद अच्छा होता। अब उदाहरण स्वरूप एक शब्द ‘लंडन’ को लें। अंग्रेजी से आया यह शब्द हिंदी में ‘लंदन’ के रूप में स्वीकार्य है। प्रूफ की गलतियां भी काफी हैं। इस पर ध्यान देने की जरूत थी। आशा है कि आगामी रचनाओं में लेखिका इस बात का ध्यान रखेगी। उपन्यास का मुखपृष्ठ आकर्षक है। यदि पूरा उपन्यास एक फांट में होता, तो शायद इसकी खूबसूरती और बढ़ जाती। चौर सौ चार पृष्ठों का यह उपन्यास फांट का साइज कम करके घटाया जा सकता था। तब शायद इसका मूल्य दौ सौ रुपये से कुछ कम हो जाता और कुछ ज्यादा पाठकों तक पहुंचने में सफल होता।

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