Tuesday, March 15, 2011

हाय राम...लोकतंत्र मर गया

-अशोक मिश्र

(पर्दा उठता है। दो आदमी दिल्ली की सड़कों पर पैदल जाते दिखाई देते हैं। उनके पीछे-पीछे सूत्रधार आता है और जनता की ओर मुंह करके खड़ा हो जाता है।)

सूत्रधार : यह दिल्ली है। वह दिल्ली जो कई बार उजड़ी और बसी। उजड़ने के दौरान दिल्ली और उसके आस-पास रहने वालों का खून बहा, तो बसने के दौरान श्रमिकों का पसीना। इसी दिल्ली में 15 अगस्त 1947 को पैदा हुई थी लूली-लंगड़ी स्वतंत्रता जिसका अपहरण पैदा होते ही काले बनियों के दलालों ने कर लिया। इसी के कुछ दिन बाद पैदा हुआ लोकतंत्र जिसके सीने पर घोटालों का बदनुमा जन्मजात दाग था। यह लोकतंत्र मर गया, पर कैसे? यह आज तक रहस्य है। तो आइए, आपको रू-ब-रू कराते हैं उस्ताद मुजरिम और टुटपुंजिया पत्रकार से।

(इतना कहकर सूत्रधार पर्दे के पीछे चला जाता है। दिल्ली की सड़कों पर उस्ताद मुजरिम और पत्रकार बुद्धिबेचू प्रसाद घूमते दिखाई देते हैं।)

पत्रकार बुद्धिबेचू प्रसाद :
हाय...हाय...सुबह से दिल्ली की गलियों की खाक छानते-छानते पैर और दिमाग का कचूमर निकल गया। उस्ताद! अगर इन दिनों बेरोजगार न होता, तो आपके चंगुल में कतई नहीं आता। (दर्शकों की ओर मुंह करके) भाइयों, आप तो जानते ही होंगे, बेरोजगार आदमी किसी काम का नहीं होता। बेरोजगारी का एक मच्छर आदमी को नपुंसक बना देती है। अभी कुछ ही दिन पहले तो दैनिक ‘बमबम टाइम्स’ की नौकरी से इस्तीफा दिया है।

उस्ताद मुजरिम :
बेटा बुद्धिबेचू प्रसाद वल्द कलम खसीटू प्रसाद! सड़कों की खाक छानने के फायदे से अभी तुम वाकिफ नहीं हो। इसी से ऐसी बातें करते हो। अगर सुबह से शाम तक खाली पेट सड़कों की खाक छानी जाए, तो दिमाग रूपी गटर से ढेर सारे नए-नए विचार निकलते हैं। ये विचार किसी भी आदमी की तकदीर बदल देते हैं।

बुद्धिबेचू प्रसाद : उस्ताद! सुबह की एक चाय की बदौलत आधी दिल्ली की खाक छान आए हैं। दिमाग के गटर से आइडिये के बगूले तो अब तक नहीं फूटे। हां, इतना जरूर हुआ कि पांच घंटे पैदल चलते-चलते टांगों की कचूमर जरूर निकल गई। मुझे तो लग रहा है कि अगर अब दो कदम भी चलना पड़ा, तो गश खाकर गिर पड़ूंगा। वहीं आप हैं कि किसी जिराफ की तरह लंबे डग भरे चले जा रहे हैं।

(तभी मंच के एक कोने में खड़ी भीड़ नजर पड़ते ही दोनों ठिठक जाते हैं।)

मुजरिम : या इलाही ये माजरा क्या है? यहां इतनी भीड़ क्यों लगी हुई है। बेटा बुद्धिबेचू, आओ चलते हैं, देखते हैं कि मामला क्या है? ’

(दोनों लपककर भीड़ के पास पहुंचते हैं। सड़क के बीचोबीच एक लाश पड़ी है और पुलिस के कुछ सिपाही उसके पास खड़े हैं। भीड़ में शामिल एक आदमी फुसफुसाता है।)

आदमी : साले, पिछले आधे घंटे से खड़े अपने बाप का इंतजार कर रहे हैं। यह नहीं होता कि इसे हटाकर रास्ता साफ करायें।

मुजरिम : अरे! यहां तो कोई मरा पड़ा है, लगता है कि कोई एक्सीडेंट हुआ है। इस देश में कोई भरोसा नहीं कब एक्सीडेंट हो जाए। (उस आदमी से) ‘शिनाख्त हुई? किसकी लाश है यह? पुलिस कुछ करती क्यों नहीं?’

आदमी : (मुस्कुराते हुए) अभी तक तो नहीं हो पाई है। आप भी देख लें, क्या पता आपका ही कोई परिचित निकल आए। वैसे आपको बता दें, पुलिस अपना काम कर रही है।
मुजरिम : मुझे तो पुलिस कोई काम करती नहीं दिखाई दे रही है। हां, सनातनी काम करती जरूर दिख रही है पुलिस। चुपचाप खड़ी मक्खियां मार रही है।

आदमी : (विरोध करते हुए) जी नहीं, पुलिस अपने काम में बड़ी मुस्तैदी से जुटी हुई है। पुलिस को भीड़ में से एक ऐसे आदमी की तलाश है जिसको बलि का बकरा बनाया जा सके। वह आदमी आप भी हो सकते हैं, मैं भी हो सकता हूं। इस भीड़ में शामिल हर व्यक्ति पुलिसवालों की निगाह में सिर्फ बकरा है जिसे जब चाहे, जहां चाहे हलाल किया जा सकता है।

(तब तक मुजरिम भीड़ को चीरकर लाश के पास पहुंच चुके थे।

मुजरिम : (लाश पर नजर पड़ते ही चिल्लाते हैं) अरे! यह तो लोकतंत्र है! हाय राम...यह क्या हो गया?...लोकतंत्र मर गया?’

(मुजरिम की बात सुनते ही ऐं...कहता हुआ एक पुलिस वाला चौंकता है।)

सिपाही : (पिच्च से तंबाकू थूकता हुआ) अबे! तू जानता है इसे? (एक दूसरे पुलिस वाले की तरफ घूमता हुआ)चौबे जी, एक प्रॉब्लम तो इस ससुरे ने साल्व कर दी।’

(सिपाही चौबे जी को पास आने का इशारा करता है।)

मुजरिम: (रुआंसा होकर) ‘हां साब! मैं शिनाख्त कर सकता हूं इसकी। यह लोकतंत्र है...भारतीय लोकतंत्र...दुनिया का सबसे बड़ा किंतु किसी कोढ़ के रोगी की तरह सड़ांध मारता हमारा प्यारा लोकतंत्र। घपलों और घोटालों का मारा लोकतंत्र। विपक्षी दलों द्वारा पंगु बना दिया गया बेचारा लोकतंत्र।’

सिपाही : (मुजरिम का कालर पकड़ते हुए) : ‘क्या बकता है बे! जिस लोकतंत्र की सुरक्षा का भार ‘चार कंधों’ पर हो, वह इस तरह लावारिस मर जाए, यह हमारे लिए शर्म की बात है। तू कहीं नशे में तो नहीं है?’

मुजरिम : (अपना कॉलर छुड़ाते हुए) आप चारों की वजह से ही तो परेशान था यह! आप में से जिसे भी जब मौका मिलता था, दबोच लेते थे और वह सब कुछ कर डालते थे, जो नहीं करना चाहिए। बेचारा साठ-बासठ साल में ही सात सौ साल का लगने लगा था। इधर कुछ दिनों से तो बहुत परेशान था।

सिपाही : (जमीन पर डंडा फटकारता है) साफ-साफ बता, बात क्या है? पहेलियां बूझने की न तो अपनी आदत है और न ही यह भाषा अपने पल्ले पड़ती है। डंडे की भाषा जानता हूं और यह समझाना जानता हूं। कहे तो समझाऊं? तेरे जैसों से रोज पाला पड़ता है।

मुजरिम : (पुलिस वाले के तेवर देखकर खुशामदी लहजा अख्तियार करते हुए) साब! जब से यह टू-जी, राडिया-राजा प्रकरण और आदर्श घोटाला हुआ है, तब से कुछ ज्यादा ही बेचैन था। कुछ साल पहले जब कुछ सांसदों ने सवाल पूछने के नाम पर रोकड़ा मांगा था, तब तो एकदम पागल हो गया था लोकतंत्र। अपनी करतूतों से जितनी बार लोकतंत्र के ये चारों स्तंभ दुनिया के सामने नंगे होते थे, जितनी बार भारतीय राजनीति दागदार होती थी, उतने दाग इसके शरीर पर उभर आते थे। साब, आपको विश्वास न हो, तो इसकी कमीज उलटकर देख लें। इसकी पीठ और पेट पर घोटालों और शर्मनाक कांडों के निशान आपको मिल जाएंगे।’

(मुजरिम की बात पूरी नहीं हो पाती है कि पुलिस की एक जीप आकर भीड़ के पास रुकती है। उसमें से एसएचओ और कुछ सिपाही उतर कर भीड़ को लाश के आसपास से हटाने लगते हैं। पहले से मौजूद सिपाही एसएचओ को जोरदार सल्यूट मारता है।)

सिपाही : ‘मृतक की शिनाख्त हो चुकी है सर। यह आदमी इसे लोकतंत्र बताता है। बाकी आप दरियाफ्त कर लें, हुजूर।

थानेदार : (मुजरिम को पहले ऊपर से नीचे तक निहारता है। फिर कड़क स्वर में पूछता है।) तू क्या बेचता है और कैसे कह सकता है कि यह लोकतंत्र है? जिस लोकतंत्र की रक्षा में देश-प्रदेशों के सांसद, विधायक, सत्तारूढ़ और गैर सत्तारूढ़ पार्टियों के नेता, अफसर लगे हुए हों। पूरा का पूरा पुलिस महकमा लगा हुआ हो, वह लोकतंत्र इस तरह सड़क पर लावारिस मरा हुआ पाया जाए, यह कैसे हो सकता है? अगर सचमुच लोकतंत्र मर गया, तो सबके भूसा भर दूंगा।

मुजरिम : (थूक निगलते हुए) हुजूर! मैं कुछ बेचता नहीं, एक मामूली पाकेटमार हूं। मेरा और आपका पेशा लगभग एक जैसा है। जिस काम को आप बड़े पैमाने पर सामूहिक रूप से करते हैं, वही काम मैं छोटे स्तर पर व्यक्तिगत रूप से करता हूं। आप इस काम की पगार लेते हैं, जबकि मैं अगर यह करता पकड़ा जाऊं, तो पब्लिक से लेकर पुलिसवालों तक के जूते खाता हूं। अब तो आप जान ही गए होंगे कि मेरा नाम मुजरिम है।

मुजरिम : (सांस लेने के लिए पल भर को रुकता है।) इस लोकतंत्र से मेरी पुरानी यारी रही है। हम दोनों एक दूसरे के लंगोटिया यार थे। मजे की बात तो यह है कि हम दोनों की पैदाइश भी एक ही दिन की है। मेरी मां ‘व्यवस्था’ बताती हैं कि जिस समय मैं यानी मुजरिम पैदा हुआ था, खूब हट्टा-कट्टा था, लेकिन यह तो जन्म से ही लंगड़ा था। कहते हैं कि अंग्रेजों और देसी पूंजीपतियों से इसके ‘बापू’ बड़ी सहानुभूति रखते थे। वे नहीं चाहते थे कि विद्रोहिणी क्रांति यानी मेरी मौसी कोई ऐसा बच्चा जने, जो इन दोनों यानी बापू और लोकतंत्र के लिए खतरनाक साबित हो। इसलिए ‘बापू’ ने गर्भवती ‘क्रांति’ के पेट पर लात मारकर गर्भ गिरा दिया था। बाद में पता नहीं कैसे क्रांति की सौतेली बहन व्यवस्था के गर्भ से यह लंगड़ा लोकतंत्र पैदा हो गया। अंग्रेज पूंजीपतियों ने हम जैसों का खून चूसकर इसको पाला-पोसा। काले बनियों ने बैसाखी के सहारे चलना सिखाया। इसीलिए यह काले बनियों का मुरीद बनकर रह गया। काले बनियों पर जब भी कोई मुसीबत आती थी, यह डेढ़ टांग पर खड़ा होकर अपनी साजिशी तान देने लगता था। साब! मजाल है, कोई मुसीबत इसकी जानकारी में इन काले बनियों का कुछ बिगाड़ सके। यह तो बातचीत के दौरान अक्सर कहा करता था। बनिये इस देश के भाग्यविधाता हैं। भाग्य विधाता का हित सुरक्षित रहे, इसके लिए जरूरी है कि जनता के हित असुरक्षित रहें। उनका भरपूर शोषण होता रहे।

एसएचओ: (आंख पर चढ़ा काला चश्मा उतार कर लाश का मुआयना करता है। कमीज उलटकर लाश के पास बने एक पैदायशी निशान को गौर से देखता है।) हवलदार रामधनी, नोट करो। मृतक की कमर से दो इंच नीचे एक पैदायशी निशान है।

मुजरिम : (एसएचओ की बात काटते हुए) हां साब, यह निशान जीप घोटाले का है। हुजूर! आप तो जानते ही होंगे, देश का सबसे पहला घोटाला ही जीप घोटाला था। तब यह पैदा नहीं हुआ था। हां, व्यवस्था के गर्भ में भ्रूण रूप में जरूर आ चुका था। उस समय देश पर अंग्रेजों का शासन था। लेकिन उस घोटाले के पैदायशी निशान इसकी कमर पर उभर आए थे। इसके बाद देश आजाद हो गया। कुछ दिन तक सत्ताधीशों ने चना-चबैना खाकर दिन काटे, लेकिन एक मंत्री से बर्दाश्त नहीं हुआ। उसने आजाद भारत का पहला घोटाला किया। इस घोटाले का निशान आपको लोकतंत्र के ठीक दिल के पास दिख गया होगा। इसके बाद मंत्री, सांसद, विधायक और अधिकारी मरभुक्खों की तरह लोकतंत्र पर टूट पड़े और लूट-लूट कर खाने लगे। फिर क्या था। जैसे-जैसे घोटाले बढ़ते गए। लोकतंत्र के शरीर पर दाग बढ़ते गए। जितना बड़ा घोटाला, उतने बड़े दाग। लोकतंत्र का चेहरा ही बदरंग हो गया। साब, एक बात बताऊं! हर घोटाले पर इसकी आत्मा कराह उठती थी। कई बार तो मैंने इसे बिलख-बिलखकर रोते देखा था।

एसएचओ : (रोब झाड़ता हुआ) अबे! तू फालतू की राम कहानी छोड़। सबसे पहले तो तू यह बता, यह मरा कैसे?’

मुजरिम: (एसएचओ की बात सुनकर सिटपिटा जाता है।) साब! मैं यह कैसे बता सकता हूं। मैं कोई डॉक्टर तो नहीं हूं। आप लाश का पंचनामा बनाइए, पोस्टमार्टम के लिए भेजिए। कल तक आपको सब पता चल जाएगा। हां, इतना बता सकता हूं...कल रात यह मेरे पास आया था। कुछ बोल नहीं पा रहा था। बीच-बीच में आदर्श..आदर्श...कामनवेल्थ-कामनवेल्थ, राडिया-राजा जैसा कुछ बड़बड़ा रहा था। फिर बोला कि मैं किसी को मुंह दिखाने के लायक नहीं रहा। इतना कहकर लोकतंत्र कहीं चला गया था। मैंने समझा कि घर गया होगा। आज सुबह यहां इसकी लाश देखी। मेरा ख्याल है कि यह शर्म से मर गया है।’

सिपाही : (एसएचओ के कान में फुसफुसाता है।) ‘साब! मुझे तो यही कातिल लगता है।’

एसएचओ : पकड़ लो साले को, यही हत्यारा है। पकड़कर थाने ले चलो और चार्जशीट तैयार करो।
(लोकतंत्र की हत्या के जुर्म में मुजरिम पकड़ लिया जाता है। पत्रकार बुद्धिबेचू प्रसाद चुपचाप वहां से खिसक लेता है।)

(इस नुक्कड़ नाटक को संस्थाओं को इस शर्त पर मंचन की अनुमति प्रदान की जाती है कि वे रचियता के रूप में मेरा नाम देंगे। यदि वे कोई संशोधन या सुधार करते हैं, तो इसके बारे में भी जानकारी देंगे।)

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