-अशोक मिश्र
मुसद्दी लाल इन दिनों बहुत परेशान हैं। उनकी परेशानी का कारण दिनोंदिन दैनिक जीवन में उपयोगी साबित होने वाली तकनीकी वस्तुएं हैं। कल सुबह होते ही वे मेरे घर में नमूदार हुए। उनके चेहरे की भावभंगिमा बता रही थी कि वे इन दिनों संकट में हैं। उनके प्रति मुझे प्रतिद्वंद्वीभाव वाली सहानुभूति हुई। दरअसल प्रतिद्वंद्वी भाव इसलिए क्योंकि जब मैं भी परेशान या बीवी से पिटा हुआ उनके पास पहुंचता हूं, तो वे भी सहानुभूति जताते हुए मंद मुस्कान बिखेरते रहते हैं। मैंने पूछा,' भाई साहब! क्या आजकल कुछ गड़बड़ चल रही है। घर या आफिस में सब कुछ ठीक-ठाक तो है।' मुसद्दीलाल ने गहरी सांस लेते हुए कहा, 'यार! यह बताओ, क्या टेक्नोलॉजी का इतना महत्व हो सकता है कि वह किसी का जीना हराम कर दे। इन दिनों मैं आधुनिक तकनीक और प्यार के साइड इफेक्ट का मारा कुत्ते की तरह कभी इस घाट तो कभी उस घाट फिर रहा हूं।'
यह कहते-कहते मुझे लगा कि मुसद्दीलाल अभी रो पड़ेंगे। मैंने लपककर उनकी पीठ पर सांत्वना से थपकी देते हुए कहा, 'भाई साहब! आपकी बात मेरे पल्ले नहीं पड़ रही है। दरअसल आपके साथ दिक्कत यह है कि आप मुझे अक्लमंद समझ रहे हैं, लेकिन हूं मैं मंदअक्ल। जब तक आप मुझे सारी बातें खुलकर नहीं बताएंगे, तब तक मेरे तो पल्ले आपकी बात पड़ने से रही।'
'अब तुमसे क्या कहूं। छोटे भाई हो, तुमसे कहते हुए शर्म आती है। अच्छा एक बात बताओ...अगर तुम किसी के घर गए और उसके घर में ऐसा ताला लगा है या उस घर की दीवारें सेंसर्ड हों..मेरा कहने का मतलब यह है कि अगर तुम उस घर के ताले या दीवार को छुओ और वह जोर-जोर से बजने लगे, तो क्या तुम चोर हो जाओगे।' मुसद्दीलाल मेरे सामने थोड़ा सा खुले।
'नहीं, आप तो उस घर के मालिक से मिलने गए होंगे...तो चोर क्यों हुए। लेकिन फिर भी बात मेरी समझ में नहीं आई।' मैंने नादान बन जाने में ही भलाई समझी। मुसद्दी लाल की बातों में अकसर इतने पेंच रहते हैं कि सामने वाले को पेंच ही पेंच दिखाई देते हैं और असली बात गायब होती है। 'बात दरअसल यह है कि परसों बीवी के साथ मैं बाजार गया था। वहां एक मोटरसाइकिल खड़ी थी। अनायास मेरी बीवी का हाथ उस मोटरसाइकिल की गद्दी से छू गया, तो वह मोटरसाइकिल 'टीं...टीं...' करती हुई तब तक चिल्लाती रही, जब तक तुम्हारी भाभी ने अपना हाथ गद्दी से नहीं हटा लिया। बस, इसी घटना ने तुम्हारी भाभी के दिमाग में एक खुराफात को जन्म दिया। उस खुराफात के चलते मैं डमरू बना घूम रहा हूं।'
'भाई जी! अब भी बात मेरी समझ में नहीं आई?' मैंने गहरी सांस लेते हुए कहा।
'बात यह है बेवकूफ! कि तुम्हारी भाभी ने पता नहीं कहां से वह सेंसर खरीद लिया और रात में सोते समय मेरी बांह में एक छोटा-सा चीरा लगाकर उसे रखवा दिया।' अब मुसद्दीलाल मायूस हो चले थे। उनकी मायूसी मुझसे देखी नहीं जा रही थी, लेकिन इस मामले में मैं कुछ कर पाने में अपने को असमर्थ पा रहा था। मैंने कहा, 'तो इससे क्या हुआ! आप किसी मोटरसाइकिल को छूते होंगे, तो वह 'टीं..टीं...पीं...पीं...' जैसी आवाज निकालने लगती होगी।
'नहीं बेवकूफानंद! किसी मोटरसाइकिल को नहीं, किसी महिला को छूते ही घर में रखे रिसीवर से आवाज आने लगती है। इससे मेरी बीवी जान जाती है कि आज में इतनी बार किसी महिला के संपर्क में आया हूं। अब अगर राह चलते किसी महिला या लड़की से भूलवश भी टकरा जाऊं, तो घर में महाभारत शुरू हो जाती है। हर बार आवाज आने की कैफियत देनी पड़ती हैै।'
मैंने तपाक से कहा, 'तो आप आपरेशन कराकर यह चिप निकलवा क्यों नहीं देते?' मैंने उन्हें ज्ञान दिया।
मुसद्दीलाल ने कहा, 'अजीब अहमक हो तुम! इधर मैंने चिप निकलवाया, उधर घरैतिन मायके चल देगी। अब इस उम्र में आधा दर्जन से ज्यादा बच्चों की देखभाल मेरे से नहीं हो पाएगी।'
'तो फिर मर्यादा पुरुषोत्तम राम की तरह एक पत्नी व्रत का पालन कीजिए।' मैंने फिर उन्हें ज्ञान देने का कर्तव्य पूरा किया।
'अबे लल्लू! राम केवल इसलिए एक पत्नी व्रतधारी रहे क्योंकि उन्हें दूसरी कोई मिली नहीं।' इतना कहते हुए मुसद्दी लाल भड़क उठे, 'पिछले चौबीस घंटे से छबीली से नहीं मिल पाया हूं और तुम हो कि थोथा ज्ञान दे रहे हो मुझे। आज बेटा मेरे सितारे गर्दिश में हैं। कल तुम इस सेंसर की गिरफ्त नहीं आओगे, इसकी क्या गारंटी है! तब बेटा मैं भी इसी तरह ज्ञान दूंगा।' इतना कहकर वे अपने घर चले गए।
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