अशोक मिश्र
मेरे दफ्तर में घुसते ही टाइम आफिस के पास उपस्थिति रजिस्टर रखा हुआ है। इस रजिस्टर में आते और जाते समय हम जैसे मजदूरों को दस्तखत करना पड़ता है। आने और जाने के समय में थोड़ा सा भी हेरफेर हुआ, तो समझो कि मजदूरी कट। उस दिन काम करने के बावजूद वेतन बट्टे-खाते में गया। यही वजह है कि जिस दिन कोई घर जाने की जल्दी में अगर ड्यूटी खत्म करने का समय डालना भूल गया, तो वह घर पहुंचने के बाद फोन करता है, 'अरे सुरेश! यार मैं आते समय टाइम डालना भूल गया था, जरा बारह पीएम का टाइम डाल देना। रजिस्टर पर पेज नंबर 420 है।' कोई किसी को फोन करता है, तो कोई किसी को। सभी अपने-अपने खासुलखास को फोन करते हैं।
यह हाल जब मुझे देश की संसद में देखने को मिला, तो मैं समझ गया कि दफ्तर और संसद में कोई फर्क नहीं है। हुआ क्या कि एक दिन मैं अपने एक परिचित सांसद की पहुंच की बदौलत संसद में प्रवेश का पास पा गया। पहली बार संसद भवन में घुसने का रोमांच और गर्व कुछ खास किस्म का होता है। इस बात को वही समझ सकता है, जिसने पहली बार संसद भवन में प्रवेश करने का हक बड़ी आसानी से प्राप्त किया हो। मैंने अपना कॉलर ऊंचा किया और सोचा, 'अब मोहल्ले और दफ्तरवालों को बड़े गर्व से बताऊंगा कि बेटा! मैं भी संसद भवन रिटर्न हूं।'
मुझे संसद भवन में प्रवेश दिलाने वाले सांसद महोदय तो मेरे चकित होकर चकरबकर देखने के दौरान ही कहां गुम हो गए, मुझे नहीं मालूम। पास हाथ में पकड़े मैं इधर-उधर भटकने लगा। एक जगह देखा कि रिसेप्शन पर रजिस्टर रखा हुआ है और सांसद-मंत्री लाइन में लगे हुए हैं। तब तक पीछे वाले एक मुरहे सांसद ने आगे वालों को ठेल दिया। लाइन बिगड़ गई। पीछे वाले आगे हो गए और आगे वाले पीछे। आगे से पीछे हो जाने वाले एक सांसद ने आगे हो गए विरोधी दल के नेता सांसद का कुरता पकड़कर खींचा, तो कुरता 'चर्र...चर्र' की आवाज करता हुआ फट गया। इस पर दोनों सांसद गुत्थमगुत्था हो गए। मार्शल ने आकर उन्हें छुड़ाया। यह देखकर मुझे रेलवे स्टेशन पर टिकट खिड़की पर लगने वाली लाइन याद आ गई। संसद भवन में मार्शल ठीक उसी तरह बार-बार लाइन लगवा रहा था जिस तरह डंडे के बल पर रेलवे स्टेशन पर जीआरपी, होमगार्ड्स या रेलवे पुलिस का सिपाही लाइन सही करवाता है। मार्शल बार-बार टेढ़ी लाइन को सीधी करवाने के बाद कहता जाता था, 'सांसद जी, प्लीज लाइन में आइए। दस्तखत कीजिए। यह भत्ता रजिस्टर शाम तक रखा रहेगा।' यह देखकर मेरी समझ में आ गया कि रेलवे स्टेशन की टिकट खिड़की, मेरे कार्यालय में रखा वेतन एवं हाजिरी रजिस्टर, हम कर्मचारियों और सांसदों, मार्शल और होमगार्ड्स के जवान में बेसिक फर्क कुछ नहीं है।
(28 फरवरी 2011 को अमर उजाला के संपादकीय पेज पर प्रकाशित)
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