-अशोक मिश्र
सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक ही नहीं, जीवन के सभी क्षेत्रों में स्थापित मूल्यों में ह्रास आया है। पत्रकारिता इससे अछूती कैसे रह सकती है। पिछले दो दशकों में राजनीति और पत्रकारिता का बड़ी तेजी से पतन हुआ है। पैसा, चमक-दमक, रुतबा और दलाली का पर्याय बनती पत्रकारिता का खूबसूरत चेहरा ही बदरंग होता नजर आ रहा है। पत्रकारिता जगत में चल रही उठापटक, खींचतान, अखबार के दफ्तरों में चलने वाली राजनीति का चित्र उकेरता दयानंद पांडेय का उपन्यास ‘हारमोनियम के हजार टुकड़े’ अपने उद्देश्य में काफी हद तक सफल रहा है। लखनऊ से प्रकाशित होने वाले एक अखबार ‘आजाद भारत’ के माध्यम से लखनऊ और दिल्ली की पत्रकारिता की कलई खोलकर उपन्यासकार दयानंद पांडेय ने रख दी है। इस उपन्यास को पढ़ने का आनंद तब द्विगुणित हो जाता है, जब उन पात्रों से आप किसी न किसी रूप में जुड़े रहे हों। उपन्यास ‘हारमोनियम के हजार टुकड़े’ के कई पात्र ऐसे हैं जिन्हें मैं व्यक्तिगत रूप से जानता हूं, उनके साथ काम किया है या लखनऊ की पत्रकारिता में कुछ वर्ष सक्रिय रहने की वजह से उन तमाम पात्रों को जानता-पहचानता हूं। उपन्यास में उकेरी गई स्थितियां कमोबेश आज लगभग हर अखबार के दफ्तर में दिखाई देती हैं। अखबार के दफ्तरों में वरिष्ठ पदों पर बैठे लोगों के बीच चलने वाली घृणित राजनीति से मीडिया जगत से जुड़ा हर व्यक्ति वाकिफ होगा। उपन्यासकार एक स्थान पर मीडिया जगत की कलई खोलते हुए लिखता है कि दलाली करना, दुम हिलाना और बात है, अखबार चलाना और बात। उन दिनों अखबारों में क्या था कि अस्सी परसेंट पत्रकार काम करने वाले होते थे और बीस परसेंट दलाली करने वाले। और यह अनुपात रिपोर्टरों के बीच का ही होता था। डेस्क का कोई इक्का-दुक्का ही दलाल पत्रकार होता। तो यह दलाल पत्रकारिता के नाम पर अखबार मालिकों से लेकर मंत्रियों, अधिकारियों, दारोगाओं तक के आगे जी-हुजूरी और दुम हिलाने में एक्सपर्ट। एक स्थान पर उपन्यासकार जातीय और सिफारिश के बल पर कुर्सी हथिया लेने वाले अक्षम संपादकों पर टिप्पणी करते हुए कहता है, ‘मुकुट जी जिला संवाददाता होने की योग्यता नहीं रखते, लेकिन उनकी किस्मत देखिए कि वह वर्षों से विशेष संवाददाता हैं और विधानसभा कवर करते हैं। और अब यही मुकुट जी कार्यकारी संपादक बनने जा रहे हैं।
उपन्यास की कथा वस्तु एक हारमोनियम के माध्यम से पिरोई गई है। वस्तुत: हारमोनियम प्रतीक है पत्रकारिता जगत की पेशेगत पवित्रता का, उसकी साफगोई और जन पक्षधरता का, जो वक्त-बेवक्त बजता ही रहता है। लेकिन अफसोस है कि जब संपादक नामधारी गुंडा इसे तोड़ देता है, तो पेशेगत पवित्रता, जनपक्षधरता और साफगोई विपरीत समय जानकर चुप हो जाती है। सुनील कथा का नायक है, उसके माध्यम से कथा आगे बढ़ती है। आजाद भारत में कभी एक ट्रेडयूनियन होती थी। हालांकि अपने जन्म काल में ट्रेड यूनियन भले ही इस व्यवस्था के खिलाफ रही हो, लेकिन कालांतर में इसका स्वरूप बदला और मिल, कारखानों से लेकर अखबार के दफ्तरों में सक्रिय ट्रेड यूनियनें मालिकों की दलाली ही इनका पेशा बन गया। उपन्यास में ट्रेड यूनियन की कलई पर्त-दर-पर्त प्याज के छिलके की तरह खोली गई है। इस उपन्यास में संपादक और अन्य वरिष्ठ अधिकारियों के बीच चलने वाली उठापटक, भितरघात और आपसी खींचतान का प्रामाणिक खाका खींचा गया है। उपन्यास ‘हारमोनियम के हजार टुकड़े’ में मालिक या संपादक बदल जाने पर अखबार आजाद भारत के मुलाजिमों को होने वाली परेशानी, जुझारू और चमचागिरी न कर पाने वाले रिपोर्टरों और डेस्क पर काम करने वालों को क्या-क्या और किस तरह की दिक्कत होती है, उसका खाका नायक सुनील के माध्यम से खींचा गया है। उपन्यास पत्रकारिता के बदलते चरित्र का एक खूबसूरत कोलाज रचता हुआ अपनी यात्रा पूरी करता है।
इस उपन्यास में अखबार के मालिक और संपादक के बदलते संबंधों को अच्छी तरह से रेखांकित किया गया है। आजाद भारत के मालिकान की पहली पीढ़ी अपने ही अखबार के संपादक को फोन करके पूछते थे कि आपके पास समय हो, तो बताइए। हम आपसे मिलना चाहते हैं, एक बहुत जरूरी काम है। लेकिन बाद की पीढ़ी के मालिक संपादक को हुक्म देते हुए कहते कि जरा कोठी पर जल्दी आ जाइए। हमें आपसे कुछ बातें करनीहै। अगर कहीं संपादक का अहम जागा और वह कह बैठा कि अभी तो मैं व्यस्त हूं। अखबार के काम से फुरसत पाकर आपके पास हाजिर हो जाऊंगा। तो मालिकान झिड़क देते कि बाद में मेरे पास फुरसत नहीं है। आजाद भारत में दूसरी पीढ़ी के मालिकों का वर्चस्व कायम होने पर जब ऐसा ही कुछ शुरू हुआ तो पैंतीस साल से दैनिक आजाद भारत में नौकरी करने के बाद अपनी मेहनत और योग्यता के बल पर बने संपादक को लग गया कि अब नौकरी के दिन पूरे हो गए हैं। वह किसी की सिफारिश या चापलूसी करके तो संपादक बने नहीं थे। कोई लालच या कोई दबाव उनके आगे बेमानी था। वे कभी झुकते नहीं थे। सिद्धातों और पत्रकारिता के मूल्यों को सर्वोपरि समझने वाले संपादक ने जब इस्तीफा दिया, तो आफिस से घर जाते और अपने निजी सामान ले जाते समय उनकी तलाशी ली गयी। उन्हें निजी सामान और किताबें ले जाने की अनुमति नहीं दी गई। संपादक के इस अपमान के विरोध में न तो यूनियन का कोई नेता बोला, न ही पत्रकार और मैनेजमेंट से जुड़े कर्मचारी। यह पत्रकारिता के पतन की शायद पहली सीढ़ी थी। इतना ही नहीं, इस अखबार के साथ-साथ निकल रहे अंग्रेजी अखबार के एडीटर इन चीफ मेहता को भी अखबार मालिकों और राजनीतिज्ञों के तलवे सहलाना या तलवे चाटना पसंद नहीं था। नतीजा यह हुआ कि उनकी अखबार प्रबंधन से आए दिन ठनी रहती। अखबार में जब प्रबंधन और मालिकों का हस्तक्षेप कुछ ज्यादा बढ़ गया, तो उन्होंने भी इस्तीफा दे दिया। वैसे भी मेहता जी किसी अखबार में दो-तीन साल से ज्यादा टिक नहीं पाते थे। वे अखबार के मामले में किसी का हस्तक्षेप बर्दाश्त नहीं कर पाते, तो मालिक उन्हें बर्दाश्त नहीं कर पाता।
संपादक के त्यागपत्र देने के बाद कार्यकारी संपादक बनाए गए मुकुट जी। मुकुट जी का सपना अखबार का संपादक बनना, विधानपरिषद में जाना और पद्मश्री हासिल करना था। लेकिन उनके ये तीनों सपने पूरे नहीं हुए। नया संपादक मुख्यमंत्री की सिफारिश से नियुक्त किया गया। मुख्यमंत्री ने लाखों रुपये के विज्ञापन एडवांस दिलाये। इस संपादक ने सबको साध लिया, मुख्यमंत्री, सरकारी अधिकारियों, अखबार के एमडी और चेयरमैन सबको। नए संपादक ने आजाद भारत के सहयोगी प्र्रकाशन की 125वीं जयंती पर तत्कालीन प्रधाानमंत्री स्व. राजीव गांधी से अखबार के मालिकों की मुलाकात करवाई, तो मालिकों ने इस मौके का फायदा उठाया और दो केमिकल फैक्ट्रियों का लाइसेंस ले लिया। यह वही समय था, जब अखबार के मालिकों में अपने संपादक या रिपोर्टरों की बदौलत फायदा उठाने की प्रवृत्ति सिर उठा रही थी।
इसके बाद बिहार के मुंगेर निवासी मनमोहन कमल दैनिक आजाद भारत के प्रधान संपादक नियुक्त किए गए। एक कांग्रेसी राज्यपाल की सिफारिश और कांग्रेस के कोषाध्यक्ष केशरी की बदौलत प्रधान संपादक बने मनमोहन कमल का स्त्री प्रेम विख्यात था। पढ़ाई के दौरान वैश्य परिवार की लड़की से प्रेम विवाह करने मनमोहन कमल की शोहरत महिला प्रेम के लिए कम नहीं थी। वे चाहे समाचार एजेंसी में रहे हों, किसी साप्ताहिक या दैनिक में, उनके अपनी पी.ए. से लेकर कई तरह की महिलाओ से संबंधों के चर्चे खूब चटखारे लेकर किए जाते रहे। लखनऊ में एक सूचना अधिकारी की पत्नी से उनके संबंधों की कथा अभी पूरी तरह से विस्मृत भी नहीं हुई थी कि एक दिन उसी सूचना अधिकारी की बेटी से संबंधों की कहानी आम हो गई। लोग पीठ पीछे रस ले-लेकर अवैध संबंधों का यह पुराण बाचने लगे। लेकिन मनमोहन कमल सूचना अधिकारी की बेटी को भोग कर अन्य औरतों की तरह किनारे नहीं कर पाए। उन्हें उससे विवाह करना ही पड़ा। जैसे-जैसे उनका कैरियर उछाल पाता जा रहा था, औरतों के प्रति उनकी आशक्ति बढ़ती जा रही थी। उनको कोई कुछ बिगाड़ भी नहीं पा रहा था। उनके कार्यकाल के दौरान ब्यूरो में भी यह बात प्रचलित हो गई थी कि लगभग हर यूनिट या ब्यूरो में किसी सुदर्शना का होना जरूरी था। ताकि जब कभी मनमोहन कमल वहां जाएं, तो उनका सौंदर्यबोध तृप्त हो और उन्हें काम करने में भी आसानी हो। आजाद भारत के लखनऊ यूनिट के पुरुष पत्रकार महिला साथियों की दिनोंदिन होती प्रगति को लेकर चिढ़ते थे। वे आपस में बातचीत करते हुए कहा करते थे कि यार हम लोग भी आपरेशन करवाकर अपना जेंडर चेंज करवा लें। सफलता, प्रमोशन और पैसा तभी मिलेगा। मनमोहन कमल के बारे में एक बात और मशहूर थी कि वे जिस अखबार में जाते हैं, वह अखबार या तो बिक जाता है या फिर बंद हो जाता है। अखबारों को बंद कराने का लांछन उनके आगे आगे चलता था।
मनमोहन कमल थे तो हिंदी भाषा के पत्रकार, पर रहते बड़े ठाठ से थे। बिल्कुल किसी करोड़पति-अरबपति सेठ की तरह। हरदम सफारी सूट में लकदक, सेंट से गमकते हुए। गले में सोने की मोटी सी चेन, हाथों की अंगुलियों में भारी-भरकम हीरे की अंगूठियां। महंगी घड़ी, महंगे कपड़े पहने हुए मनमोहन कमल पत्रकार तो एकदम नहीं लगते थे। हां, वे किसी कारपोरेट सेक्टर के सीईओ की तरह जरूर नजर आते थे। मनमोहन कमल के भीतर मानो चार-पांच किस्म के आदमी निवास करते थे। अपने चैंबर के भीतर का मनमोहन कमल अपने अखबार के मुलाजिमों के लिए झक्की, निर्दयी और तानाशाह होता था। चैंबर से बाहर निकलते ही उसका पूरा व्यक्तित्व बदल जाता था। तब मनमोहन कमल निहायत उदार, प्रजातांत्रिक और भाई चारे वाला चेहरे पर मुस्कान बिखेरता इंसान नजर आता थ। किसी बहते निर्मल पानी की तरह। पुरुषों से और, महिलओं से और। महिलाएं जब उसके चैंबर में जातीं, तो बाहर का लाल बल्ब जल जाता था। इसका मतलब यह था कि कोई भीतर नहीं आए।
इस उपन्यास में एक अंतरकथा और चलती है। भइया जी नामक एक दबंग संपादक की। यह भइया जी वास्तव में कौन है, इसे लखनऊ की पत्रकारिता से जुड़ा लगभग हर व्यक्ति बाखूबी समझता और जानता है। मनमोहन कमल जहां सब कुछ चैंबर के भीतर करते थे, वहीं भइया जी अखबार के दफ्तर में ही सब कुछ कर लेते। वह एक साथ दो-दो औरतों को गोद में बिठा लेते। सबके सामने गालों में चिकोटी काट लेते, किसी के भी आगे-पीछे, जहां कहीं भी मन होता हाथ फेर लेते। लेकिन मजाल है कि कोई इसके खिलाफ बोल सके। मनमोहन कमल भइया जी से इस मायने में पीछे थे कि वे गुंडे नहीं थे। भइया जी की गुंडई की चहुं ओर स्वीकृति पर सुनील जैसे पत्रकार शर्मसार तो थे, लेकिन बंद कमरों में। खुलेआम प्रतिरोध करने का साहस न तो तब किसी पत्रकार में था, अब तो खैर भइया जी और मनमोहन कमल दोनों इस असार संसार को विदा कह चुके हैं। भइयाजी ने अखबार का सरकुलेशन बढ़ाने के लिए हाकरों में शराब बंटवाई, उन्हें विभिन्न तरह के गिफ्ट दिए। लेकिन इस पर भी जो हाकर नहीं मानता, अपने गुंडों से पिटाई करवा देता। नतीजा यह हुआ कि भइया जी का अखबार लखनऊ में सबसे ज्यादा बिकने लगा। अपने संपादकीय विभाग में भी उसकी गुंडई खूब चलती थी।
उपन्यास में बेरोजगार पत्रकारों की बेबसी, उनकी पीड़ा और टूट कर समझौता करने या समझौता न कर पाने की वजह से टूटकर बिखर जाने की अंतरकथा भी साथ-साथ चलती रहती है। इस उपन्यास में एक पात्र है सूर्य प्रताप। वह अपनी लेखनी और खबरों के जरिये आगे बढ़ रहा था। उस समय मुख्यमंत्री से लेकर छुटभैये नेताओं का वह प्रिय रहा। मस्ती और स्वाभिमान से लवरेज पत्रकार सूर्य प्रताप की एक दलित महिला नेता से ठन गई। वह भी समाजवादी मुख्यमंत्री के लिए। जब वही दलित महिला प्रदेश की मुख्यमंत्री बनी, तो उसका सबसे पहला हमला सूर्य प्रताप पर ही हुआ। मालिकों ने दबाव में आकर उसको इस्तीफा देने पर मजबूर कर दिया। बेरोजगारी के दौर में उसने क्या-क्या झेल, इसकी विशद गाथा उपन्यास ‘हारमोनियम के हजार टुकड़े’ में। कभी ब्यूरो चीफ रहे सूर्य प्रताप को आजीविका चलाने के लिए स्ट्रिंगर की नौकरी तक करनी पड़ी। यह वह दौर था जब उसके अंदर से टूट-फूट चल रही थी। वह अकेले में बैठकर रोता, लेकिन अपने दुख-दर्द किसी को नहीं बताता। आजाद भारत एक बार फिर बिका, तो सबकी तनख्वाह में भारी कटौती की गई। विरोध प्रदर्शन हुआ। धरने पर बैठे कर्मचारियों की संपादक ने अपने गुंडों से पिटाई करवा दी। उनके तंबू कनात उखाड़ दिये। यह नया संपादक आपराधिक प्रवृत्ति का था। हत्या के चार मुकदमे लंबित थे। यह पत्रकारिता के पतन का चरम था, जब कोई हत्या का आरोपी संपादक बना हो। मैनेजमेंट ने उसे संपादक भी इसी लिए बनाया था ताकि वह पुराने कर्मचारियों को डरा-धमका कर बाहर कर दे। यह हिंदी पत्रकारिता के पतन और पराभव की गाथा रुकी नहीं है। किसी न किसी रूप में आज भी प्रवाहमान है। किसी बदबूदार नाली की तरह बजबजाती, गंधाती पत्रकारिता का सम्यक चत्रिण उपन्यास ‘हारमोनियम के हजार टुकड़े’ में है। अट्ठासी पेज के इस उपन्यास की भाषा और शैली कन्टेंट के हिसाब से बिल्कुल फिट बैठती है। एक बार पढ़ना शुरू करने पर उपन्यास को छोड़ पाना कठिन है। पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय रहे पराजित लोगों की कथा बड़ी शिद्दत से महसूस की जा सकती है। उपन्यास की छपाई और कागज अच्छा है। इसका मूल्य भी महंगाई के इस दौर में उचित ही प्रतीत होता है।
उपन्यास : हारमोनियम के हजार टुकड़े
उपन्यासकार : दयानंद पांडेय
प्रकाशक : जनवाणी प्रकाशन प्रा. लि.
30/35-36, गली नंबर-9, विश्वास नगर, दिल्ली- 32
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