Sunday, June 6, 2010

कंपनियों का मुनाफा और हमारा विनाश


मुनाफा कमाने की होड़ में लगी राष्ट्रीय और बहुराष्ट्रीय कंपनियों की मुनाफा कमाने की होड़ के चलते हमारे देश की ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया की जैव विविधता खतरे में है। कई वनस्पतियां हमारे बीच से विलुप्त हो चुकी हैं। चिडिय़ा गौरेया, फाख्ता, गिद्ध, कौवे, गंगा में पायी जाने वाली डाल्फिन सहित कई प्रजाति की मछलियां, मेंढक, सांप आदि कल तक हम सबके जीवन का हिस्सा थे, लेकिन आज वे खोजने पर भी नहीं मिलते। नील गाय, मोर, गीदड़, सियार, रोही बिल्ली, पाटा गोह, उडऩे वाली गिलहरी, खनखजूरा, विभिन्न प्रकार के मेंढक अब विलुप्त होने की कगार पर हैं। इसका कारण जैव विविधता वाले क्षेत्र यानी प्रकृति में पाये जाने वाले सूक्ष्मतम और विशालतम जीव जंतुओं के जीवन चक्र क्षेत्र में लगातार और अनियंत्रित रूप से बढ़ता मानवीय हस्तक्षेप है। नदियों और समुद्रों में पाये जाने वाले जीव जंतु बड़े पैमाने पर शिकार और अनुकूल परिस्थितियां न रहने के कारण विनष्ट होते गये। खेती-बाड़ी में उपयोग होने वाले रासायनिक उवर्रकों के चलते प्रकृति के मित्र समझे जाने वाले कीट-पतंग या तो नष्ट हो गये या फिर उनकी प्रजननक्षमता कम हो गयी। नतीजा यह हुआ कि वे धीरे-धीरे हमारे बीच से विलुप्त हो गये, जब तक हमें पता लगता, मामला काफी गंभीर हो चुका था। मोबाइल टावरों, हवाई जहाजों से निकलने वाली तरंगों ने हमारी जैव विविधता को कम नुकसान नहीं पहुंचाया।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पशु-पक्षियों के संरक्षण को लेकर सक्रिय संस्था आईयूसीएन (इंटरनेशनल यूनियन कंजरवेशन फार नेचर) की रिपोर्ट चौंकाती ही नहीं, प्रकृति प्रेमियों और पर्यावरणविदें को डराती भी है। आईयूसीएन की रिपोर्ट में कहा गया है कि दुनिया में पाए जाने वाले जीवों में से एक तिहाई विलुप्त होने के कगार पर हैं। यह खतरा हर दिन बीतने के साथ बढ़ता जा रहा है। रिपोर्ट में किहांसी स्प्रे टोड के बारे में खास तौर पर चर्चा की गयी है जिसके मुताबिक मेंढक की यह प्रजाति इसलिए विलुप्त हो गयी क्योंकि जिस नदी में इनका निवास था, उस नदी के ऊपरी हिस्से पर बांध बना दिया गया। पानी के बहाव में कमी आने से ये मेंढक खत्म हो गये। ठीक ऐसा ही हमारे देश में भी हुआ। गंगा, यमुना, राप्ती और व्यास आदि नदियों और उसके किनारे रहने वाले जीव जंतु पानी कम होने की वजह से या तो नष्ट हो गये या भविष्य में नष्ट हो जायेंगे।
आईयूसीएन के रिपोर्ट के मुताबिक महासागरों की हालात काफी चिंताजनक है। रिपोर्ट से पता चलता है कि समुद्री प्रजातियों में से ज्यादातर जीव-जंतु अधिक मछली पकडऩे, जलवायु परिवर्तन, तटीय विकास और प्रदूषण की वजह से नुकसान का सामना कर रहे हैं. शार्क सहित कई समुद्री प्रजाति के जलीय जीव, छह-सात समुद्री प्रजातियों के कछुए विलुप्त होने के कगार पर हैं। चट्टान मूंगों की 845 प्रजातियों में से 27 प्रतिशत विलुप्त हो चुकी हैं, 20 प्रतिशत विलुप्त के निकट हैं। समुद्री पक्षियों पर खतरा कुछ अधिक है। स्थलीय पक्षियों के 11.8 प्रतिशत की तुलना में 27.5 प्रतिशत समुद्री पक्षियों पर विलुप्त होने के खतरा अधिक है। थार की पाटा गोह हो या फोग का पौधा, गंगा की डाल्फिन हो, हिमालय के ग्लेशियर हों या तंजानिया का का किहांसी स्प्रे मेंढक, सब पर खतरा मंडरा रहा है। भारत में 687 पौधे और इतने ही जीवों पर संकट के बादल गहराते जा रहे हैं।
आईयूसीएन की रेड लिस्ट बताती है कि 47,677 में से कुल 17,291 जीव प्रजातियां कब खत्म हो जायें, कहा नहीं जा सकता है। इसमें 22 प्रतिशत स्तनधारी जीव हैं, 30 प्रतिशत मेंढकों की प्रजातियां हैं, इसमें 70 प्रतिशत पौधे और 35 प्रतिशत सरीसृप जैसे जीव हैं। भारत में ही पौधे और वन्य जीवों की कुल 687 प्रजातियां लुप्त होने वाली हैं। इनमें 96 स्तनपायी, 67 पक्षी, 25 सरीसृप, 64 मछली और 217 पौधों की प्रजातियां हैं।
इन प्रजातियों पर सबसे बड़ा खतरा मुनाफा कमाने की होड़ में लगी देशी और विदेशी कंपनियों से है। जैव विविधता पर सबसे ज्यादा हमला करने वाली कंपनियां अमेरिका, रूस, चीन जैसी विकसित देशों की हैं। यही वजह है कि ये विकसित देश दुनिया भर के विकासशील देशों और उनमें बसे लोगों को आगाह कर रहे हैं कि जैव विविधता और ग्लोबल वार्मिंग के चलते इससे पृथ्वी पर एक भीषण खतरा मंडरा रहा है। बेमौसम बरसात, आंधी-पानी, बर्फबारी, भूकंप और ज्वालामुखी का सक्रिय होना, ग्लोबल वार्मिंग का ही नतीजा है। जैव विविधता पर बढ़ते संकट के चलते दुनिया भर में समुद्र, नदियों, पहाड़ों और मैदानों में रहने वाले हजारों जीवों का संकट खतरे में हैं। जीव-जंतुओं की हजारों प्रजातियां विलुप्त हो चुकी हैं, हजारों विलुप्त होने के कगार पर हैं। यह बात भी सही है। मजेदार बात तो यह है कि इस बात को चीख वही लोग कह रहे हैं, जो जैव विविधता पर लगातार बढ़ रहे खतरे और ग्लोबल वार्मिंग के लिए सबसे ज्यादा दोषी हैं। विकसित देश दुनियाभर में स्थापित अपनी कंपनियों के माध्यम से न तो जैव विविधता के दोहन पर रोक लगाने को और न ही ग्लोबल वार्मिंग के प्रमुख कारण कार्बन डाई आक्साइड के उत्सर्जन को कम करने को तैयार हैं। वे विकासशील देशों को प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कम करने और कार्बन डाई आक्साइड उत्सर्जन घटाने की घुड़की देते रहते हैं।
भारत में सरकार की लापरवाही और लोगों की अनभिज्ञता के चलते जैव विविधता पर खतरा कुछ ज्यादा ही मंडरा रहा है। सरकार के ढुलमुल रवैया का इससे बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता है कि भारत के दक्षिण पूर्व में स्थित मन्नार की खाड़ी से करोड़ों रुपये का समुद्री शैवाल निर्यात करने वाली कंपनी पेप्सी राष्ट्रीय जैव विविधता प्राधिकरण के दबाव के चलते रायल्टी दे भी तो सिर्फ 38 लाख रुपये। अभी पिछले महीने पर्यावरण और वन राज्य मंत्री जयराम रमेश ने एक कार्यक्रम में बड़े गर्व से कहा था कि पेप्सी से हुए करार के तहत समुद्री शैवाल के निर्यात के लिए उससे 38 लाख रुपये की रायल्टी हासिल की गयी है। इस राशि को उस स्थानीय समुदाय के बीच वितरित किया जायेगा, जहां से पेप्सी कंपनी समुद्री शैवाल का निर्यात करती है। करोड़ों रुपये का सालाना कारोबार करने वाली कंपनी से सिर्फ 38 लाख रुपये की रायल्टी वसूल लेना वाकई काबिलेतारीफ है। पेप्सी जैसी विभिन्न कंपनियां जिस समुद्री शैवाल का सिंगापुर, मलेशिया और अन्य देशों में निर्यात करती हैं, उस शैवाल को भारत के दक्षिण पूर्व में स्थित मन्नार की खाड़ी से निकाला जाता है। मन्नार की खाड़ी के आसपास रहने वालों के बीच जब यह रायल्टी (38 लाख रुपये) वितरित किये जायेंगे, तो स्थानीय समुदाय के लोगों को कितनी रकम प्राप्त होगी, इसका अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। इससे इनका कितना भला हो पायेगा, यह भी विचारणीय प्रश्न है।
अब दुनिया के 193 देशों के प्रतिनिधि आगामी अक्टूबर 2010 में जापान के नागोया शहर में जैव विविधता पर अंतरराष्ट्रीय संधि करने जा रहे हैं। इससे पहले विभिन्न मुद्दों पर आम सहमति बनाने को जुलाई 2010 में कनाडा के मांट्रियाल में एक बैठक होगी। इन दोनों बैठकों में जो भी फैसले होंगे, उसके आधार पर नई दिल्ली में सन 2012 के अक्टूबर महीने में होने वाली कॉप-11 (कांफ्रेंस ऑफ पार्टीज) की 11वीं बैठक में जैव विविधता पर अंतरराष्ट्रीय संधि होगी जिसका पालन करने को सभी वार्ताकार बाध्य होंगे। लेकिन सबसे बड़ा सवाल यही है कि दिल्ली में होने वाली कॉप-11 की बैठक का नतीजा वही तो नहीं होगा जो अभी कुछ महीने पहले ग्लोबल वार्मिंग को लेकर कोपेनहेगन में होने वाली बैठक का हुआ था। अपने-अपने हितों की सुरक्षा को लेकर अड़े विकसित देशों के अडिय़ल रवैये के चलते कोपेनहेगन में होने वाली यह बैठक सफल नहीं हो पायी थी।

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