‘आज को आज, कल को कल लिखना
सिर्फ थोड़ा संभल-संभल लिखना
दिल में बस दर्द का अहसास रहे
कोई मुश्किल नहीं गजल लिखना।’
ये जजबात हैं गजलगो कुंवर ‘कुसुमेश’ के। वे अपनी गजल संग्रह ‘कुछ न हासिल हुआ’ में आदमीयत के ह्रास और धन-दौलत के पीछे भागने की प्रवृत्ति पर प्रहार करने से नहीं चूकते हैं। वे कहते हैं, ‘आदमी छोड़कर आदमीयत, डूबता जा रहा मालो-जर में।’ दरअसल आज के युग की वास्तविक पहचान जैसे मालो-जर ही हो गए हैं। यह कैसी विडंबना है कि इंसान अपने चारित्रिक, मानसिक और सामाजिक गुणों की बजाय धन-दौलत से पहचाना जाने लगा है। आज समाज में उसी को महत्व दिया जा रहा है, जो जायज-नाजायज तरीके से अकूत धन कमा रहा है। वे आदमी को पहचाने की हिदायत देते हुए कहते हैं, ‘कभी घर से बाहर निकलकर तो देखो, पलटकर जमाने के तेवर तो देखो। जिसे फख्र से आदमी कह रहे हो, मियां झांककर उसके अंदर तो देखो।’ फैशनपरस्ती और पाश्चात्य सभ्यता के अंधानुकरण का खामियाजा हमारी पुरानी सभ्यता और संस्कृति को उठाना पड़ रहा है। फैशन के नाम पर नग्नता बढ़ती जा रही है। विज्ञापन भले ही किसी वस्तु का हो, उसमें आज के बाजार ने स्त्रियों की उपस्थिति अनिवार्य बना दी है। यहां तक कि ट्रैक्टर और ट्रक के विज्ञापन में भी नारी किसी न किसी बहाने मौजूद रहती है। बाजार ने स्त्री को एकदम वस्तु बना दिया है। शायर कुंवर ‘कुसुमेश’ के शब्दों में-
‘वाकई वक्त अच्छा नहीं है
हो रहा जो वो होता नहीं है
पश्चिमी सभ्यता का नतीजा-
तन पे नारी के कपड़ा नहीं है।’
ग्लोबल वार्मिंग आज की प्रमुख समस्या है। पृथ्वी का लगातार बढ़ता तापमान और समुद्र का तल हमें आगाह कर रहा है कि यदि हम अब भी नहीं संभले, तो इसका खामियाजा हमारी आने वाली पीढ़ी को भुगतना पड़ेगा। महानगरों में बढ़ती कारों, एयरकंडीशनरों और कल-कारखानों से निकलने वाले प्रदूषित पदार्थों के चलते पर्यावरण का मिजाज बिगड़ रहा है। यही वजह है कि पिछले कुछ सालों से कुछ ऐसे इलाकों में बर्फबारी हो रही है, जहां पहले बर्फबारी नहीं होती थी। वहीं मास्को के रेड स्क्वायर जैसे इलाकों में पिछले साल बर्फ ही नहीं पड़ी। इन पर्यावरणीय परिवर्तन के प्रति कुंवर ‘कुसुमेश’ की नजर गयी है। वे मानव जाति को सचेत करते हुए कहते हैं,
‘धरातल डगमगाना जानता है
फलक गुस्सा दिखाना जानता है।
सुनामी से चला हमको पता यह
समंदर भी डराना जानता है।
समझना मत कभी कुदरत को गूंगा
ये गूंगा गुनगुनाना जानता है।’
झूठ, फरेब और मतलबपरस्ती के इस दौर में भी दोस्ती, पाकीजा प्रेम और इंसानियत का जज्बा भले ही मात्रात्मक रूप से कम पाया जाता हो, लेकिन पाया जरूर जाता है। अकसर वे लोग अपने जीवन में सफल दिखते हैं, जो जीवन भर स्वार्थपरता, बेईमानी और झूठ का कारोबार करते हैं। दुनिया उन्हीं को झुककर सलाम करती है, लोग उनकी बातों को अहमियत भी देते हैं। बेईमान और दगाबाज लोग इसके बावजूद लबादा ईमानदारी और प्रेम का ही ओढ़ते हैं। कुसुमेश का एक शे’र ऐसी स्थिति का खुलासा करता है, ‘दौरे हाजिर में हरिश्चंद्र वो हुआ जो, झूठ बोला है सरासर जिंदगी में। दुश्मनी इंसान की फितरत में शामिल, दोस्ती किसको मयस्सर जिंदगी में।’ गजल संग्रह ‘कुछ न हासिल हुआ’ में शायर कुंवर कुसुमेश ने जीवन के विविध पक्षों और रंगों को उकेरने का प्रयास किया किया है। राजनीति, पर्यावरण, शिक्षा, सभ्यता, गांव-गिरांव, खेती और जीवन के विविध रंग इसमें बिखरे पड़े हैं। ‘नाहक जरा से चांद पर इतरा रहा फलक, एक चाँद इस जमीं पे हमारा है देखिए’ कहकर माहताब को चुनौती देने वाले शायर कुंवर कुसुमेश ने वर्तमान राजनीति की नब्ज कुछ इस तरह टटोली है,
‘फूल के नाम पे कांटे ही मिले हैं अब तक,
और हम हैं कि उम्मीदों पे टिके हैं अब तक।
दौरे हाजिर ने उसे काबिले-कुर्सी माना,
हाथ जिस जिस के गुनाहों में सने हैं अब तक।’
कुसुमेश जी बहुत अच्छा लिखते हैं, मानवीय भावनाओं से ओत-प्रोत.
ReplyDelete‘फूल के नाम पे कांटे ही मिले हैं अब तक,
ReplyDeleteऔर हम हैं कि उम्मीदों पे टिके हैं अब तक।
दौरे हाजिर ने उसे काबिले-कुर्सी माना,
हाथ जिस जिस के गुनाहों में सने हैं अब तक।’....
सच्ची बात !
कुसुमेश जी बहुत अच्छा लिखते हैं। मैं भी उनकी नियमित पाठक हूँ।
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