-अशोक मिश्र
घरैतिन और बच्चों ने सुबह से ही घर को संसद भवन बना रखा था। कोई पटाखों के लिए अनुदान मांग रहा था, तो कोई लक्ष्मी पूजा के लिए हजारों का वित्त विधेयक पारित कराने की जुगत में घेराव पर आमादा था। मैं हर बार की तरह सिर्फ आश्वासन और अंतरिम राहत के बल पर दीपावली सत्र बिता लेना चाहता था। बच्चे पटाखों, फुलझड़ियों के लिए मेरे आगे पीछे ठुनक रहे थे, बेटी, स्टाइलिश लहंगा-चुन्नी की पुरानी मांग का प्रस्ताव अपनी जननी से स्वीकृत करवाकर मेरे सामने भी पेश कर चुकी थी। बेटा दो-ढाई हजार रुपये की कीमत वाले पटाखों और बमों की लिस्ट थमाकर पड़ोस में खेलने जा चुका था। घरैतिन को बनारसी साड़ी और दो तोले वजन वाले सोने के कंगन चाहिए थे। बार-बार प्रस्ताव अस्वीकृत कर दिए जाने से वे मौन रहकर विरोध प्रकट कर रही थीं। सो, मरता क्या न करता वाली कहावत चरितार्थ करते हुए मैं सभी प्रस्तावों और मांगों की सूची समेटकर बाजार जाने के लिए घर से निकल पड़ा।
हाथ में थैला पकड़े मैं खरामा-खरामा पैदल ही बाजार की ओर चला जा रहा था। जेब में पड़ी मामूली सी रकम और पर्ची में लिखे सामान की कीमत का समीकरण बनाता-बिगाड़ता मैं बगिया नाले के पास स्थित काफी पुराने पीपल के पेड़ के पास पहुंचा ही था कि ऊपर से आवाज आई, ‘मैं उल्लू हूं। तुम बुद्धिबेचू व्यंग्यकार हो।’ इस आवाज को मैंने पहले तो अपना भ्रम समझा। सोचा कि पिछले कई दिनों से पैसे की किल्लत और घरैतिन की लगातार बढ़ती मांग के चलते दिमाग का कोई नट-बोल्ट ढीला होकर गिर गया है और चलने से इस नट-बोल्ट की आवाज आती है। या फिर ज्यादा सोचने की वजह से शायद मेरे कान बज रहे हैं। यही सोचकर आगे बड़ा ही था कि एक बार आवाज आई, ‘मैं उल्लू हूं। तुम नादान हो।’ इस बार मुझे दिमाग के हिल जाने का कोई भ्रम नहीं रहा। मैं चौंक उठा। बचपन में मेरी मां अक्सर कहा करती थीं, दोपहर में बाहर खेलने मत जाया करो। पुराने पीपल के पेड़ पर भूत, पिशाच या ब्रह्मराक्षस रहता है। भूत-पिशाच से बचने के लिए सचमुच दोपहर को हम सभी भाई बाहर नहीं निकलते थे। एकाएक याद आया कि कहीं कोई भूत-पिशाच तो नहीं? मैंने ऊपर की ओर देखा। एक बड़ा-सा उल्लू बैठा मुझे उल्लू की तरह निहार रहा था। उसने मुझे घूरते हुए कहा, ‘अबे उल्लू की दुम! मैं कोई ऐरा-गैरा उल्लू नहीं हूं। लक्ष्मी जी का वाहन उल्लूकराज हूं। लक्ष्मी जी इस बार मृत्युलोक वासियों को एक विशेष पैकेज देने जा रही हैं। उसी की सेटिंग के लिए मैं पहले से भेजा गया हूं।’
मैं उस उल्लू को मनुष्यों की तरह बोलता पाकर भौंचक था, ‘हे उल्लूकराज! पहले तो दीपावली की रात किसी दीन-हीन के घर आकर देवी लक्ष्मी उसका भाग्य बदल देती थीं। लेकिन क्या अब ऐसा नहीं होता?’
उल्लूकराज ने व्यंग्यात्मक लहजे में कहा, ‘तुम तो रहे पूरे काठ के उल्लू। बाइसवीं शताब्दी में रहकर उन्नीसवीं शताब्दी की बात करते हो। क्या मर्त्यलोक में मुंह देखकर पैकेज नहीं दिया जाता। विधवा पेंशन, वृद्धावस्था पेंशन से लेकर दाह संस्कार पर मिलने वाला अनुदान क्या बिना लिए-दिये मिल जाता है? जब तुम मर्त्यलोकवासी हर बात में उत्कोच का मुंह देखते हो, तो हम क्यों पीछे रहें। अगर इस बार दीपावली पर दरिद्रता हरण परियोजना के तहत अनुदान लेना है, तो बताओ कितने प्रतिशत मुझे और कितने प्रतिशत लक्ष्मी जी को दोगे? जल्दी सोचकर बताओ। इस बार विष्णु जी ने बहुत कम फंड दरिद्रता हरण परियोजना के लिए पारित किया है। महामहिम विष्णु जी तो इस पूरे प्रोजेक्ट को ही खत्म करने पर तुले हुए थे, लेकिन लक्ष्मी जी ने अपने विशेषाधिकार का उपयोग कर इस वर्ष के लिए मंजूरी ले ली है। अब तक पूरे देश में चार सौ उन्नीस लोग तलाशे जा चुके हैं। अब केवल एक की तलाश बाकी है। अगर तुम ठीक-ठाक उत्कोच, वह भी एडवांस देने का वायदा करो, तो मैं इस बार तुम्हें करोड़पति बनवा सकता हूं।’
मैं सोच में पड़ गया। एक तरफ तो मुझे करोड़पति बनने का लालच कुछ कर गुजरने को उकसा रहा था, दूसरी तरफ बुद्धिजीवी होने का दंभ इस बात को मानने को तैयार नहीं था कि यह मनुष्य की भाषा में बोलने वाला उल्लू लक्ष्मी का वाहन हो सकता है? लक्ष्मी और विष्णु की गाथाएं मुझे हमेशा कपोल कल्पित लगते रहे हैं। लेकिन एक बार फिर मन डांवाडोल हुआ कि क्या पता सचमुच यह लक्ष्मी का वाहन हो और मेरी किस्मत बदलने वाली हो! मैंने साहस करके पूछा, ‘लक्ष्मी के प्रिय वाहन उल्लूकराज जी! यह बताइए कि मुझे आपके और आदरणीया मिसेज लक्ष्मी जी के लिए क्या करना होगा?’
‘कुछ नहीं...बस मेरे लिए सिर्फ एक प्रतिशत और मालकिन के लिए पांच प्रतिशत अभी देना होगा। आज रात आपको यह रकम इस तरह लौटाई जाएगी कि आप करोड़पति भी हो जाएं और सरकार को दमड़ी भी न देनी पड़े।’ उल्लूकराज जी मुस्कुराए।
मैंने विनीत भाव से कहा, ‘लेकिन लक्ष्मी जी से कहिएगा कि वे जो कुछ भी दें, जरा व्हाइट मनी के रूप में दें। ब्लैक मनी अपने से पचती नहीं है। छोटा-मोटा व्यंग्यकार हूं न, सो अपना हाजमा जरा कमजोर है।’
उल्लूकराज जी मुस्कुराये, ‘तुम इसकी चिंता मत करो। इस बार मर्त्यलोक पर जिसे भी दरिद्रता हरण प्रोग्राम के तहत उपकृत किया जाएगा, उसकी सूची मर्त्यलोक के आयकर विभाग के कमिश्नर को पहले से ही दे दी जाएगी। सौ करोड़ का पैकेज इस बार सूबे के आयकर कमिश्नर को भी दिया जा रहा है। अब जल्दी से रकम ढीली करो। शाम हो रही है, सात बजे तक लक्ष्मी जी को फाइनल सूची भी देनी है।’
‘पर मेरे पास सिर्फ पैंतीस हजार रुपये हैं, वह भी पत्नी और बच्चों के लिए गहने, खिलौने, कपड़े और मिठाइयां खरीदने के लिए हैं।’ मैंने दांत निपोर दिये।उल्लूकराज भुनभुनाए, ‘पता नहीं किस भुक्खड़ से पाला पड़ गया है? अब तक जिसके सामने भी प्रस्ताव रखा है, उसने न केवल अपना हिस्सा अदा कर दिया, बल्कि दस-बीस हजार मुझे बख्शीश भी दी है। लाओ, अभी जितना है, बाकी अनुदान मिलने के बाद दे देना। लक्ष्मी जी का हिस्सा मैं अपने पास से दे दूंगा।’मैंने अपने जेब में पड़े पैंतीस हजार छह सौ रुपये में से छह सौ निकालने के बाद रकम पीपल के पेड़ के पास रख दी। उल्लूकराज ने पेड़ की डाल से उड़ान भरी और चोंच में रकम दबाकर अनंत आकाश में विलुप्त हो गये।
मैं खाली हाथ घर पहुंचा, तो सबने घेर लिया और सवालों की झड़ी लगा दी। मैंने मुस्कुराते हुए लक्ष्मीवाहन उल्लूकराज से मुलाकात और दरिद्रता हरण अनुदान मिलने की गाथा सुनाई, तो सब खुश हो गये। बेसब्री और चहलकदमी करते-करते रात आई। पूजा का समय हुआ, तो सजी-धजी घरैतिन और बच्चे अमीर होने की खुशी में चमक रहे थे। लेकिन यह क्या...? पूजा का समय निकल गया, लेकिन लक्ष्मी जी तो क्या...उल्लूकराज के भी दर्शन नहीं हुए। फिर तो पूरी रात गुजर गयी। न लक्ष्मी जी आईं और न उल्लूकराज। घरैतिन को लगता है कि मैं सारी रकम जुए में हार गया था और उन्हें कपोल-कल्पित कहानी सुनाकर बहलाने की कोशिश की थी। बच्चे भी अपनी मां के साथ हैं। पिछले चार दिन से मैं अपने ही घर में बेगानों की तरह रहकर उल्लूकराज का इंतजार कर रहा हूं। मैं अब भी निराश नहीं हूं। हो सकता है, इस बार लेट हो जाने से सूची में नाम न पड़ पाया हो और अगले साल मेरी किस्मत बदल ही जाए।
maanniya mishra ji, ye article bahut pyara hai, sabse pyara is article mai jo mujhhe laga wo aapka paatra hai, "ullu", aapko is article ko likhne ki prena shayad kisi aise hi Vyakti se mili hogi...... !
ReplyDeleteअशोक जी, दुनिया में ऐसे ही उल्लू रहेंगे तो लोग अपना उल्लू तो सीधा ही करेंगे ना। अच्छा व्यंग्य, दीपावली की बधाई।
ReplyDeleteव्यंग तो अच्छा है ही मगर दीवाली के मौक़े पर और भी अच्छा और सामयिक लगा. बहुत बढ़िया
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