Wednesday, December 2, 2015

वो देवता तो नहीं थे, पर...

भाग-दो
अशोक मिश्र
बप्पा से लोग जरा भिड़ते कम थे। क्रोधी इतने कि एकदम परशुराम के अवतार। जो बात ठान ली तो ठान ली। एक बार मेरे मामा को बैल की जरूरत थी। मेरी ननिहाल रानीजोत मेरे गांव नथईपुरवा से मात्र दो-ढाई किमी की दूरी पर स्थित है। पहले तो पूरब-दक्षिण दिशा में गांव के बाहर आकर देखता था, तो मेरे मामा का घर धुंधला-धुंधला दिखाई देता था। पर अब नहीं दिखता। तो बात यह हो रही थी कि मेरे बड़े मामा स्व. अलखराम तिवारी मेरे बप्पा से पांच या साढ़े छह सौ रुपये में बछड़ा हांक ले गए, लेकिन पैसा नहीं दिया। यह पैसा बहुत दिनों तक पड़ा रहा। बाद में किसी बात को लेकर बप्पा और मेरे मामाओं में मनमुटाव हो गया, तो वे कई सालों तक रानीजोत नहीं गए। हर साल होली, दिवाली और अन्य तीज-त्यौहारों पर रानीजोते से आइसु (भोजन का निमंत्रण) आता, लेकिन वे नहीं जाते। लोगों को भी बाद में यह पता चल गया कि भग्गन मिसिर रानीजोत वालों से नाराज हैं। गांव-जंवार को लोगों ने जब रानीजोत वालों को हूंसना (निंदा करने का पर्यायवाची शब्द) शुरू किया, तो एक साल होली या दिवाली की सुबह (ठीक से याद नहीं) राजितराम तिवारी (अब स्वर्गीय) आकर दुआरे पर रोने लगे। बप्पा जितने क्रोधी, उतने ही नरम। उनके रोने से बप्पा पिघल गए। उन्होंने आइसु जीमने आने का आश्वासन देकर मामा को विदा कर दिया। शाम को वे न्यौता खाने भी गए। हां, उन्होंने अम्मा को उनके भाइयों की इस हरकत के लिए कभी उलाहना नहीं दिया।
बात शायद 1983 की है। उन दिनों मई का महीना था। हम सभी भाई रात में आंगन में खटिया डारे सो रहे थे। रात के दस-ग्यारह बजे होंगे। बप्पा घर के बाहर खटिया पर निखड़हरे यानी बिना कुछ बिछाए लेटे हुए थे। अचानक दरवाजा खटखटाया गया।
'ओ आनंद कै महतारी..आनंद कै महतारी..सोई गईउ का..?'
उन्नींदी सी अम्मा चौंक गई, 'का होय काकी?' इतना कहकर वह उठ बैठीं। यह बड़की काकी थीं। हम सब उन्हें बड़ी काकी कहते हैं, लेकिन वे रिश्ते में हमारी दादी हैं। चूंकि बाबूजी, दादू, दादा और सभी बुआ उन्हें काकी कहती थीं, तो हम लोग भी काकी कहते थे। अभी इधर कुछ सालों से यह संबोधन बदला है और अब हम लोग बड़ी आजी कहते हैं। ठीक वैसे ही जैसे हम लोग अपने बड़े बाबा को बप्पा कहते थे। वे बड़ी किस कारण थीं, यह हम आज तक नहीं जान पाए हैं। हां, इन दिनों शायद वे गांव की महिलाओं में सबसे बुजुर्ग हैं। इसी साल मई-जून में जब गांव गया था, तो बड़ी काकी..ओह..बड़ी आजी से मिला था। उनकी स्मृति अब उतनी काम नहीं करती है। अल्जाइमर की रोगी की तरह..बात करते-करते यह भूल जाती हैं कि वे क्या कह रही थीं?
तो बात उस घटना की हो रही थी। मेर घर के ठीक बगल में पहलवान बाबा का घर है। इन दिनों उनके भांजे और उनका परिवार रहता है। पहलवान बाबा के आंगन और मेरे आंगन से एक छोटा सा स्थान ऐसा छोड़ा गया था, जो हमेशा खुला रहता था। उस हिस्से में दरवाजा कभी नहीं लगा था। अभी कुछ साल पहले जब हमारे यहां घर बनने लगा और पांच-पांच, छह-छह महीने तक कोई भी गांव में रहने की स्थिति में नहीं रह गया, तो बड़कऊ काका (पहलवान बाबा के भांजे) की सहमति से दीवार उठा दी गई। अब उनके घर में भी बहू-बेटियां होने की वजह से यह जरूर सा हो गया था। तो उसी चोर दरवाजे से बड़ी काकी हमारे आंगन में आ खड़ी हुईं। उनके हाथ में एक बड़ी सी लाठी थी, जिसके एक सिरे पर लोहे का मोटा सा ठोस छल्ला लगा था। वह हाथ में लाठी लिए दादी की खटिया के पास आ खड़ी हुईं और बोली, 'तू सबे सोवत हौ, गांव मा डकहा (डाकू) आय गे हैं।'
बड़ी काकी की बात सुनकर दादी ने एकदम उपहासजनक लहजे में कहा, 'जाय देव बडी..तुहूं बहुत डरपोक हौ..कहां डकहा आय गे हैं?'
'नाहीं अम्मा...सही ओढ़ाझार की ओर डकहा आए हैं। सड़किया पर रोशनी होत है। हमै लागत है कि चार-पांच मिला (आदमी) हैं, वै कांदभारी (एक गांव) और ओढ़ाझार की ओर से आवात हैं।' यह कहकर काकी ने अंधेरे में ही अपने चेहरे पर शायद चुहचुहा आए पसीने को पोंछा। आपको बता दें कि बड़ी काकी को वैवाहिक सुख ज्यादा दिन नहीं मिला था। वे काफी कम ही समय में विधवा हो गई थीं। उनके एक बेटी फुलमता बुआ हैं। वैसे तो फुलमता बुआ की ससुराल बगल के ही गांव नेतुआ में है, लेकिन अब बुआ-फूफा और उनका परिवार नथईपुरवा में ही रहता है।
तब तक अम्मा बोली, 'काकी..कहूं नाही डकहा आवत हैं। जाय कै चुप्पै सोइ रहौ।' बड़ी काकी जिद भरे स्वर में बोली, 'नाहीं आनंद कै महतारी..सचमुच डकहा आय गे है। अब तौ भगवानै बेड़ा पार लगइहैं।' एक बड़ी काकी ही उन दिनों अम्मा को 'आनंद कै महतारी' कहती थीं, बाकी औरतें बड़कू की अम्मा या अरुन कै अम्मा कहकर संबोधित करती थीं। या फिर काकी, बड़की अम्मा, बड़की दीदी आदि।
बड़ी काकी बात सुनकर हम लोगों की फूंक सरक गई। छोटा भाई राजेश जो चारपाई पर किनारे लेटा हुआ था, झट से बीच वाली चारपाई पर जाकर लेट गया और चुपचाप लेटा रहा। मैंने थोड़ी हिम्मत दिखाई, 'बड़ी काकी जब डकहा अहैं, तो पहले पच्छूं टोला (पश्चिमी टोला) की ओर ही तौ अइहैं।'
काकी बोलीं, 'अब का बताई..न जाने कौने तरफ से गांव मा घुसैं। अच्छा अम्मा..अब चलित है। सब लोग अंगना मा जागत रहौ और जब गुहार होइ, तो सब लोग लाठी, फरसा, बल्लम जौन मिले, लैके तुरंत फारिग ह्वै जाओ।' इतना कहकर वे पहलवान बाबा के आंगन की ओर चलीं। तभी दरवाजे पर आवाज आई, 'दादी..बड़की दीदी..दरवाजा खोलो..'
यह लाल जी की आवाज थी। लाल जी बोले, तो चचेरे भाई डॉक्टर अरविंद कुमार मिश्र, गोंडा जिले के सुप्रसिद्ध चिकित्सक और कुछ रोगों के विशेषज्ञ।  लाल जी दादू यानी प्रोफेसर कामेश्वर नाथ मिश्र जी के बड़े बेटे। पीछे से भइया की भी आवाज आने लगी। दुआरे पर चहल-पहल मच गई। भइया बोले, तो बड़कू..यानी आनंद प्रकाश मिश्र..।
(शेष..फिर..)

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