बचपन की कुछ यादें-4
एक बार की बात है। गर्मी की छुट्टियों में गांव गया हुआ था। तब शायद
पांचवीं या छठी कक्षा में पढ़ता था। तब अप्रैल में परीक्षा होने के बाद स्कूल सीधे
जुलाई में खुला करते थे। बच्चे सात-आठ जुलाई तक स्कूल में लौटते थे। जून का महीना
था। बारिश हो चुकी थी और बप्पा उंचउवा (हम लोगों का वह खेत जो गांव में सबसे ऊंचे
पर स्थित है) पर धान बैठाने जा रहे थे। बियाड़ (रोपने के लिए तैयार किए गए धान के
पौधे) उखाड़कर खेत में पहुंचा दिया गया था। लोकई काका पलेवा करने के बाद हेंगा
(पाटा जिससे खेत को समतल किया जाता है) चला रहे थे। मैंने भी जिद पकड़ ली कि हेंगा
पर बैठूंगा। बप्पा बार-बार मना करते- अब्बै हेंगा पर से मुंह के बले गिरिहौ और
परान निकरि जाई। इसके बाद बहन और बेटी की तीन-चार गालियां। लोकई काका ने बैलों को
रोककर मुझे हेंगा पर बिठा लिया। थोड़ी देर तक तो बड़ा मजा आया। लेकिन अचानक पता
नहीं क्या हुआ कि हेंगा उछला और मैं पीछे पीठ के बल गिरा और सारा शरीर मिट्टी से
लथपथ हो गया। बप्पा गरियाते हुए मारने को दौड़े। मैं उठते ही दो-तीन बार पलेवा
वाले खेत में गिरा, लेकिन बप्पा मारने की बजाय मुझे खेत से भगाना चाहते थे। सो,
उन्होंने जानबूझकर मुझे नहीं पकड़ा और मैंने समझा कि अपनी तेज रफ्तार और
चुस्ती-फुर्ती की वजह से पकड़ में नहीं आया।
सुबह सोकर उठता, तो हम भाई भर बप्पा को घेर लेते। कभी मैं और राजेश,
पप्पू या ओम प्रकाश बप्पा के कांधे पर सवार हो जाते-बप्पा...बप्पा...झाड़े फिराय
लाओ। (लैट्रीन करवा लाओ)। बप्पा प्रसन्न होते, तो दो लोगों को कांधे पर बिठाकर
लैट्रीन करवा लाते। नाराज होते, तो दो-चार गालियों के बाद बप्पा लैट्रीन करवाने ले
जाते। यह सिलसिला तब तक चलता रहा, जब तक मैं पंद्रह साल का नहीं हो गया। बप्पा
गांव में जब तक रहते, नंगे पैर ही रहते थे। जूता वे तभी पहनते थे, जब उन्हें कहीं
आना-जाना होता था। एक तो नौ-दस नंबर का जूता आसानी से मिलता नहीं था, दूसरे दो-तीन
दशक पहले तक किसान तभी जूता या चप्पल पहनते थे, जब उन्हें अपनी ससुराल जाना हो या समधियाने
जाना हो। मेरी या मेरे चचेरे भाइयों की ननिहाल जाते समय बप्पा धुला-धुलाया
कुर्ता-धोती और जूता जरूर पहनते थे।
बात शायद 1982 की है। यह वर्ष 1984 भी हो सकता है। ठीक से मुझे याद
नहीं। इन्हीं दोनों वर्षों में से किसी एक वर्ष में करुणेश भइया की शादी तय हुई।
करुणेश भइया हमारे दादा श्री बालेश्वर प्रसाद मिश्र के ज्येष्ठ पुत्र हैं। शादी से
कुछ दिन पूर्व ही मुझे किसी काम से अचानक लखनऊ आना पड़ा। इस वैवाहिक समारोह में
बाबू और भइया के साथ-साथ मेरे सभी भाइयों ने भाग लिया था। शादी के दौरान ही बप्पा
बीमार पड़े। हाथ-पैरों में असहनीय पीड़ा होती थी। उम्र भी लगभग 75 के आसपास हो रही
थी, लेकिन उस साल भी वह अपने कंधे पर हम लोगों को बिठाकर लगभग एक किलोमीटर दूर
खेतों में झाड़ा फिराने ले जाते रहे। खैर...। शादी निबट जाने के बाद बाबू जी बप्पा
को इलाज के लिए लखनऊ ले आए। लखनऊ के केजीएमसी में उन्हें दिखाया गया। तब हम लोग
छोटा बरहा में हरनाम सिंह के हाते में किराये के मकान में रहते थे। मुझे इतना
अवश्य याद है कि तब मैंने आठवीं कक्षा पास कर ली थी। उन्हीं दिनों दादू यानी कि
कामेश्वर नाथ मिश्र के ज्येष्ठ पुत्र अरविंद कुमार मिश्र उर्फ लाल जी भइया
केजीएमसी से एमबीबीएस कर रहे थे। शायद पहला साल था और टैगोर हास्टल में रहते थे।
हालत बिगड़ने पर लाल जी भइया की मदद से बप्पा को केजीएमसी के गांधी वार्ड में
भर्ती कराया गया। कई तरह के परीक्षण शुरू हुए। इस दौरान तीन-चार महीने बीत गए।
जीवन भर वैष्णवों की तरह जीवन गुजारने वाले बप्पा की धार्मिक निष्ठा को देखते हुए
खाने-पीने की समस्या उठ खड़ी हुई कि उनका खाना-पीना अस्पताल में कैसे होगा, तो
बप्पा ने जवाब दिया था- सारे धार्मिक क्रिया कलाप शरीर रहने पर ही हो सकते हैं, जब
शरीर ही नहीं रहेगा, तो कैसा धर्म और कैसी पूजा? जिस आदमी ने जिंदगी भर शौच-अशौच के नियम का
कड़ाई से पालन किया हो, वह सोच के स्तर पर कितना प्रगतिशील रहा होगा, उनकी इस बात
से समझा जा सकता है। मैं दोपहर में स्कूल से आकर खाना खाता, बप्पा और दद्दा का
खाना टिफिन में रखता और छोटा बरहा से चारबाग तक पैदल जाता और फिर वहां से बस
पकड़कर केजीएमसी जाता। विनोद कुमार मिश्र उर्फ दद्दा खाना खाकर वहीं से रात में
ड्यूटी पर चले जाते थे।
उन दिनों जल निगम में इंजीनियर थे वेद प्रकाश श्रीवास्तव। वे
आरएसपीआई (एमएल) के जिला सेक्रेट्री थे। उन दिनों बरसात के मौसम में बाढ़ आपदा
राहत कैंप लगाया जाता था चार महीने के लिए। वे हर साल दद्दा को इस कैंप में रखवा
देते थे। उस समय गोमती नदी में बाढ़ का खतरा बरसात के दिनों में हुआ करता था। कैंप
में एक टेलीफोन रखा रहता था जिस पर लोग फोन करके बाढ़ से बचने के लिए सहायता
मांगते रहते थे। उन दिनों हम लोग आर्थिक तंगी के दौर से गुजर रहे थे, ऊपर से बप्पा
की दवाइयों का खर्चा, आने-जाने और दूसरे तरह के खर्चे बढ़ गए थे। काफी पैसा खर्च
हो रहा था और परिवार में निश्चित आय का कोई साधन भी नहीं था। दादू और दादा से भी
कोई मदद नहीं मिल पा रही थी। दादू उन दिनों सारनाथ में और दादा बलरामपुर में थे।
इस दौरान कुछ टेस्ट और हुए और पता चला कि बप्पा को रक्त कैंसर है जो
अपने अंतिम स्टेज में पहुंच चुका है। इस बीच जब लंबा समय बीत गया और बप्पा गांव
नहीं पहुंचे, तो दादी भी करुणेश भइया को साथ लेकर लखनऊ आ गईं। तब तक बप्पा की सेहत
काफी गिर चुकी थी। पेनकिलर्स का असर खत्म होता, तो बप्पा दर्द से कराहते। रात में
भइया या बाबू जी गांधी वार्ड में बप्पा की देखभाल के लिए रुकते, दिन में हम दोनों
भाई। दद्दा और मेरी पढ़ाई का भी नुकसान हो रहा था, लेकिन किया क्या जा सकता था। तब
भी बाबू और भइया जूझ रहे थे संकट से उबरने के लिए। चूंकि केजीएमसी एक कालेज था, तो
एमबीबीएस करने वाले लड़के-लड़कियां अक्सर आकर घेर लेते और पूछते रहते तरह तरह के
सवाल। एक बैच जाता, तो दूसरा आ जाता। फिर वही सवाल दोहराए जाते, बप्पा जवाब
देते-देते थक जाते। बप्पा झुंझला जाते, तो अवधी में गरियाते हुए कहते-आओ
भौजी...तुहूं एक्कै बतिया पूछि लेव। स्टूडेंट अवधी समझ पाते थे या नहीं, मैं कह
नहीं सकता।
बप्पा की हालत जैसे-जैसे बिगड़ रही थी, दर्द बेपनाह बढ़ता जा रहा था।
मैं उन्हें दर्द से छटपटाता देखता रहता। जिन लोगों ने कैंसर पीड़ित व्यक्ति के साथ
कुछ दिन बिताया होगा, वे बप्पा की पीड़ा को समझ सकते हैं और सोलह-सत्रह साल की
उम्र फिर एक दिन बाबू जी ने कहा-आनंद (भइया को) मैं पार्टी की केंद्रीय कमेटी की
बैठक में कलकत्ता जा रहा हूं, तुम कुछ पार्टी कामरेड्स से मिल लो। उन्होंने कुछ
मदद करने का आश्वासन दिया है। और फिर एक दिन भइया और बाबू जी लखनऊ से बाहर चले गए।
अब बप्पा की जिम्मेदारी दद्दा और मुझ पर थी। दद्दा रात में राहत शिविर वाली
अस्थायी नौकरी के चलते रात में रुक नहीं सकते थे। अब रात में भी बप्पा के पास मुझे
रुकना पड़ता था। 8 सितंबर 1982 (या 84) की रात घर से खाना खाकर आया था और दद्दा का
खाना साथ लेकर आया था। बप्पा तब तक ठोस पदार्थ ग्रहण कर पाने की स्थिति में नहीं
रह गए थे। नाक में एक नली लगा दी गई थी और उसी के माध्यम से दवा और तरल रूप में
पथ्य दिया जाने लगा था। लैट्रीन कराने के लिए भी टेकाकर ले जाना पड़ता था और साफ
भी करना पड़ता था। हां, इसके बाद तो जब नाक में नली लगा दी गई, तो तीसरे-चौथे दिन
एनीमा लगाना पड़ता था। नर्से जब एनीमा लगाती तो आपस में मजाक भी करतीं। एक तो
बप्पा की दयनीय होती स्थिति और उस पर नर्सों का आपस में मजाक करना बहुत बुरा लगता।
तबीयत होती कि लगा दूं एक कंटाप कान के नीचे। लेकिन विवशता बहुत कुछ सहने को मजबूर
कर देती है।
उस दिन मेरी जेब में सिर्फ दो रुपये पड़े थे। वह भी मेडिकल कालेज से
चारबाग तक के बस किराये के लिए। सुबह उठकर चाय और बन्न खरीदकर खाया। सोचा, दद्दा
आएंगे, तो किराये के पैसे मांग लूंगा। लेकिन 9 सितंबर बीत गया, न दद्दा आए और न ही
किसी के हाथ खाना भिजवाया। दिन और रात मूसलधार बारिश हुई, सो अलग। भूख के मारे जान
निकल रही थी। बार-बार पानी पीता और मन को ढांढस देता कि शायद किसी काम में दद्दा
फंस गए होंगे और अभी आ जाएंगे। 10 सितंबर भी इसी ऊहापोह में बीत गया। भूख से हाल
बेहाल था। उस समय यदि कुछ भी खाने को मिल जाता, तो शायद मैं खा लेता। किसी का जूठा
भी। लाल जी भइया के पास जा सकता था, लेकिन बप्पा को छोड़कर कैसे जाता। बप्पा का दर्द से कराहना सुनकर अपनी भूख
भूल जाता था। 11 सितंबर को बप्पा को नली के जरिये दवा दी, दूध पिलाया, जो मरीजों
के लिए सरकारी तौर पर मिलता था। आधी कटोरी दूध बचा, तो खुद पी लिया। बप्पा ने कहा
लिटा दो। तो मैंने उन्हें लिटा दिया। लिटाते समय कराहे।
बप्पा को लिटाने के बाद मैं गांधी वार्ड के बाहर आकर बैठ गया कि शायद
दद्दा आते दिख जाएं या लाल जी भइया ही क्लास में आते-जाते दिख जाएं। कई बार लाल जी
भइया गांधी वार्ड के सामने से आते-जाते दिखे भी थे और हर बार वे बप्पा का हालचाल
जानने आ जाया करते थे। दो ढाई घंटा इंतजार करने के बाद मन में आया कि बप्पा को देख
आऊं। उनके बेड के पास पहुंचा, तो वे एकदम शांत सोए हुए थे। सांस लेते नहीं दिख रहे
थे। मैंने अपनी अंगुली नाक के पास रखी, तो लगा कि कुछ गड़बड़ है। बप्पा को
हिलाया-डुलाया। कोई हरकत नहीं हुई, तो भागकर नर्स के पास
पहुंचा-सिस्टर....सिस्टर....बेड नंबर 26 की हालत खराब हो रही है। यह सुनते ही सिस्टर
और जूनियर डॉक्टर्स भागे हुए आए और सीने को जोर-जोर से दबाने लगे। काफी देर तक
मशक्कत करने के बाद उन्होंने बप्पा के शव को वार्ड से हटाकर दूसरी तरफ कर दिया और
बेड पर लगे कागज पत्र समेटकर चले गए। मैं तो हिलाने-डुलाने से ही समझ गया था कि
बप्पा साथ छोड़ गए हैं।
बप्पा के शव को छोड़कर मैं भागा टैगोर हास्टल की ओर, लाल जी को खबर
देने के लिए। टैगोर हास्टल के गेट पर ही लाल जी मिल गए। वे क्लास अटेंड करने जा
रहे थे। मैं बदहवास उनके पास दौड़कर गया और बोला-भइया...बप्पा...। लाल जी समझ गए।
थोड़ी देर तक अवाक रहे और फिर मेरे चेहरे की ओर देखते हुए पूछा-तुमने खाना खाया है? बड़का दादा या भइया आए थे आज? मैंने रुंआसे स्वर में कहा, तीन दिन से कोई
नहीं आया। दद्दा भी नहीं। उन्होंने पांच रुपये निकालकर देते हुए कहा-जाकर खाना खा
लो। अब जो होना था, वह तो हो चुका है। उनको तो आज नहीं कल, जाना ही था।
मैंने पांच रुपये मुट्ठी में दबाए और मेडिकल कालेज के
गेट पर आया। वहां पांच रुपये की पूड़ी-सब्जी खरीदी और खाने के बाद पानी पिया। खाने
के बाद बप्पा के शव के पास बैठकर रोने लगा। उधर दद्दा की भी हालत ठीक मेरी जैसी ही
थी। आठ सितंबर की रात शुरू हुई मूसलधार बरसात 11 सितंबर को ही बंद हुई थी। तीन दिन
तक दद्दा का रिलीवर ही नहीं आया और ऐसी हालत में दद्दा राहत कैंप को छोड़ नहीं
सकते थे। दद्दा को मेरी तरह भूखे तो नहीं रहना पड़ा, लेकिन तीन दिन तक उन्हें फंसे
रहना पड़ा था। बप्पा की मौत के बाद शाम को भइया और रात में बाबू जी भी कलकत्ता से
लौट आए थे। 12 सितंबर की सुबह सारनाथ से दादू भी आ गए थे। बप्पा का दाह संस्कार
गोमती नदी के किनारे स्थित भैसाकुंड घाट पर किया गया और तेरहवीं संस्कार के लिए
सभी नथईपुरवा चले गए थे।
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