बचपन की यादें-5
अशोक मिश्र
होली..होली शब्द आते ही याद आ जाती है लखनऊ के आलमबाग
थाना क्षेत्र में स्थित मोहल्ला छोटे बरहा की होली। बात शायद 1980 के एकाध साल पहले
या एकाध साल बाद की है। तब सातवीं-आठवीं पढ़ता था। होली का उत्साह तब सबसे ज्यादा बच्चों
में होता था। होली का असली मजा तो बच्चे ही उठाते थे। आज की तरह तब पढ़ाई और इम्तहान
का इतना दबाव और बोझ भी नहीं होता था। होलिका गाड़ने के साथ ही हम बच्चों की मस्ती
और होली पर क्या-क्या करेंगे इसकी योजनाएं बनने लगती थीं। किसको रंगना है, कितना रंगना
है, कालिख लगानी है या सफेदा, किसको छोड़ देना है, किसको थोड़ा लगाना है, इसकी योजनाएं
बनाते-बनाते सारा दिन बीत जाता था। अंगुलियों पर गिने जाते थे दिन..इतने दिन बचे हैं
होली के। रंग, अबीर, गुलाल किसकी दुकान से खरीदना है, पिछले साल किस दुकानदार ने आठ
आने लेकर चार आने भर का ही रंग दिया था, किसने
चार आने में छह आने भर का रंग दिया था, इसको याद किया जाता था। रामू, टिर्रू, गॉटर,
सलीम की योजनाएं अलग, तो अपनी अलग। छोटे भाइयों की योजनाएं अलग। सबके अपनी-अपनी योजनाएं,
सबकी अपनी-अपनी मंडली। बरहा जूनियर हाई स्कूल में पढ़ने वाले कुछ सहपाठियों के साथ
भी योजनाएं बनती और बिगड़ती थीं। टार्च वाली बैटरी की कालिख निकाली जाती, उसे पत्थर
पर रखकर पत्थर से ही पीसा जाता। कभी बस्ते में तो कभी छत पर छिपाकर पूरी कालिख रखी
जाती। कालिख निकालने-पीसने के चक्कर में शर्ट-पैंट रंग जाती, तो अम्मा के हाथों मार
भी खाता। अम्मा जैसे-जैसे कपड़े धोती जातीं, उसी अनुपात में हाथ भी साफ करती जातीं।
होलिका दहन वाली रात में ही सिर, मुंह, हाथ, पैर में
कड़ुवा तेल लगाकर सोते थे, ताकि सुबह उठते ही कोई कालिख या सफेदा पोत दे, तो छुड़ाने
में दिक्कत न आए। सुबह उठते ही सबसे पहले भरपेट नाश्ता करते। नाश्ते में भी पूड़ी,
कचौड़ी या पापड़ तो बिल्कुल कम..गुझिया ज्यादा खाऊं, यही कोशिश रहती थी मेरी। बाकी
भाई तो जो मिल जाता खा लेते, उसके बाद स्वाभाविक उल्लास के साथ होली खेलने निकल जाते।
होली त्यौहार का सबसे बड़ा आकर्षण तो हमारे लिए हुड़दंग मचाना और गुझिया खाना ही था।
गुझिया हमारे परिवार मे लगभग सबको बहुत पसंद है। बाबू जी (अब दिवंगत), भइया, दद्दा..सबको
गुझिया आज भी बहुत लुभाती है। बारह एक बजे तक इतना हुड़दंग मचाते, इतना रंगते-रंगे
जाते कि पूरे साल भर की कसर पूरी हो जाती थी। कई बार तो इतनी कालिख, सफेदा और रंग लग
जाता था कि छुड़ाते समय रोना आ जाता। मुंह एकदम काले बंदर जैसा हो जाता। पूरे चेहरे
पर बस आंखें या दांत चमकते थे। बाकी सारा शरीर काला और रंग-बिरंगा दिखता था। खूब टूटकर
और छककर होली खेली जाती थी। हिंदू-मुसलमान का कोई भेद नहीं था। जितने उत्साह में छोटे
बरहा के राजू, रामू, टिर्रू, सुरेश होली खेलते थे, उतने ही उत्साह में सलीम और स्कूल
में हशीम अंसारी होली खेलते थे। होली में सलीम की अम्मी तो बाहर नहीं निकलती थीं, लेकिन
मोहल्ले भर के बच्चों के बाल काटने वाले सलीम के अब्बा जरूर रंग दिए जाते थे।
होली खेलने के बाद बारी आती थी होली मिलने का। तब लखनऊ
में आठ दिन तक होली मिलन समारोह चलता रहता था। उस समय की परंपरा के अनुसार, होली के
आठवें दिन तक लोगों को अपने घरों में गुझिया जरूर रखनी पड़ती थी। आठवें का मेला खत्म,
समझो गुझिया खत्म। कई घरों में यदि गुझिया आठवें के मेले से पहले खत्म होने वाली होती
थी, तो वह घर होली मिलने आने वालों के आने से पहले ही गुझिया बनाकर तैयार कर लेता था।
होली खेलने के बाद नहा-धोकर नए कपड़े बड़े चाव से पहने जाते थे। अम्मा डांटती थीं कि
अभी नए कपड़े मत पहनो, कोई रंग डाल देगा। चार बजने दो, उसके बाद पहनना। खाना-पानी के
बाद कपड़े पहनना, लेकिन तब अम्मा की यह बात बहुत बुरी लगती थी। कई बार अम्मा की बात
सच भी साबित हो जाती थी। सज-धज कर बाहर निकले और किसी की छत से ‘फच्च’ से पीठ-पेट पर
आकर रंग भरा गुब्बारा फूटता और कपड़े रंग से सराबोर हो जाते। रुआंसे से घर लौट आते।
कपड़ों का सत्यानाश होते देखकर अम्मा का पारा चढ़ जाता। भइया भी रिसिया जाते। ऐसा नहीं
कि यह मेरे साथ होता था। भइया को छोड़कर हम सभी भाइयों में से किसी के साथ ऐसा हो जाता
था। भइया के डर से हम लोग यदि नए कपड़े नहीं पहनते थे, तो चार बजने की समय सीमा का
बड़ी बेसब्री से इंतजार करते। घड़ी की सुई लगता था कि जैसे बहुत सुस्त हो जाती थी उन
दिनों। हम सभी भाइयों की निगाह बार-बार घड़ी पर ही रहती थी। जैसे ही चार बजते हम सभी
नए कपड़ों पर टूट पड़ते। कपड़े-लत्ते पहनकर गर्व से सीना उठाए घर से बाहर निकलते। कई
बार तो लड़कों की मंडली घर के बाहर ही इंतजार करती रहती। हम भाइयों में से कोई निकलकर
उस मंडली से कहता, बस आधा घंटा रह गया है चार बजने में। बस..पंद्रह मिनट रह गए हैं..।
हम अभी आते हैं।
मंडली भी कैसी...एकदम शंकर जी की बारात जैसी। नाक बहाते
बच्चों से लेकर हाई स्कूल, इंटर के छात्र तक। हर उम्र, हर जाति के बच्चे। मोहल्ले में
अपनी-अपनी रुचि और दोस्ती-दुशमनी के अनुसार कई मंडलियां बनाई जाती थीं। कई बार तो होली
की शुरुआत में कोई इस मंडली में होता, तो शाम को दूसरी मंडली में। दो दिन बाद तीसरी
मंडली में। यह मंडली फिर तय करती कि किसके घर जाना है। आप सोचिए, सुबह ठीकठाक नाश्ता
करके रंग खेलने निकलते थे हम भाई भर। दोपहर में नहाने-धोने के बाद पूड़ी, कचौड़ी, कई
तरह की सब्जियां और अन्य पकवान आदि खाने के मात्र दो-ढाई घंटे के बाद ही होली मिलने
निकल जाते थे। होली मिलन के लिए जाने वाली मंडली में कम से कम मेरे लिए उन दिनों नमकीन,
पापड़ या मिठाई खाना नहीं होता था। मैं सीधा गुझिया पर ही टूटता था। पहले दिन तो जब
तक गुंजाइश होती गुझिया ही खाता। उसके बाद किसी के घर भी होली मिलने जाने पर दो गुझिया
उठाता और एक-एक हाथ में रख लेता। आपको बता दें। होली मिलने के लिए निकली मेरे मोहल्ले
की बाल मंडली को इस बात से कतई मतलब नहीं होता था कि जिस घर में हम सब होली मिलने जा
रहे हैं, उस घर के किसी प्राणी को हम में से कोई जानता पहचानता है भी या नहीं। उन दिनों
हमारा एकमात्र लक्ष्य होता था कि जब तक पेट इजाजत दे, तब तक सुबह से शाम तक होली मिलन
कार्यक्रम चलाए रखना है। कई बार तो होली मिलन कार्यक्रम बीच में ही रोककर हम में से
कोई भी घर जाकर निवृत्त हो आता और तब तक मंडली रास्ते में खड़ी उसका इंतजार करती रहती
थी। होली के अगले दिन से खट्टी डकारें आने लगती थीं। लेकिन मेरा गुझिया बटोरो अभियान
जारी रहता। पेट खराब होने के कारण गुझिया खाना तो बंद हो जाता था, लेकिन लोगों की निगाह
बचाकर एक या दो गुझिया जेब में पहुंचाना नहीं भूलता। जब जेब भर जाती, तो उसे बस्ते
में रख आता। कई बार ऐसा भी होता कि किताब-कापियों के बोझ से गुझिया दब जाती। कापियां-किताबें
गुझियामय हो जाती थीं। अम्मा देखती, तो पहले जीभर कर ठोंकती, फिर कापियां-किताबें निकालकर
उन पर नए कागज चढ़ाए जाते। बस्ता धोया जाता। अम्मा गुर्राती हुई कहतीं-खबरदार..अब अगर
बस्ते में गुझिया रखी तो....हाथ-पैर तोड़ दूंगी। भइया तो ठुकाई पहले करते, समझाते बाद
में। बाबू जी पहले तो कुछ नहीं बोलते-लेकिन ठुकाई-पिटाई के बाद जब पस्त होकर कहीं बैठा
रो रहा होता, तो वे समझाने आ जाते। कहते-अरे, गुझिया दिन में चार-पांच से ज्यादा खाओगे,
तो नहीं पचेगी। पेट खराब हो जाएगा। होली में लोगों के घरों में जाते हो, तो जाओ। मैं
रोकूंगा नहीं, लेकिन खाने-पीने में संयम बरतो। मैं भी कहता-मैं पापड़, चिप्स, कचरी,
नमकीन थोड़े न खाता हूं। गुझिया ही तो खाता हूं, वह भी एक या दो। जब पेटभर जाता है,
तो अपने हिस्से की गुझिया जेब में रख लेता हूं। तो क्या बुरा करता हूं। आठवां का मेला
बीत जाएगा, तो मैं एक-एक करके खाता रहूंगा। यह सुनकर कई बार तो बाबू जी ठहाका लगाकर
हंसते, कई बार सिर्फ मुस्कुराकर रह जाते। कहते-तब तक यह खराब नहीं हो जाएगा? इतनी गर्मी
में इतने दिन की बासी गुझिया खाना सेहत के लिए नुकसानदायक हो सकती है। इसके बावजूद
तब बाबू जी की बात हमारी समझ में कहां आती थी। हम तो हर साल अपनी हरकत से बाज ही नहीं
आते थे। उन दिनों किसी के यहां भी होली मिलने यानी होली मिलने के बहाने बच्चों के गुझिया,
पापड़, चिप्स, नमकीन खाने की आदत, रवायत को स्टेट्स सिंबल से नहीं जोड़ा जाता था। तब
लोगों में यह भावना नहीं पनपी थी कि लोग उनके बच्चों को देखकर क्या कहेंगे? उसके घर
में जाकर गुझिया खाकर बेटे या बेटी ने तो नाक ही कटा दी। अब तो सब कुछ कैलकुलेटेड हो
गया है। बच्चे या परिवार के सदस्य किसके-किसके यहां जाएंगे, किसके यहां नहीं, यह सब
कुछ हैसियत के हिसाब से तय हो जाते हैं। उन दिनों स्कूलों में भी होली की दस दिन की
छुट्टियां होती थीं। आज जब मैं अपने बेटे को यह बताता हूं, तो वह आश्चर्यचकित होकर
कहता है-अच्छा...।
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