सद्य: प्रकाशित व्यंग्य संकलन ‘दीदी तीन जीजा पांच’ का आत्मकथ्य
क्या लिखूं....कुछ लिखना, वह भी अपने बारे में बड़ा मुश्किल होता है। हां, अपने बारे में सिर्फ इतना कह सकता हूं कि व्यंग्यकार मैं बाई चांस बन गया हूं, ऐसा भी नहीं है। हां, मैं यह कहने का साहस जरूर रखता हूं कि मैंने अपने दिवंगत पिता का. रामेश्वर दत्त च्मानवज् या भइया का. आनंद प्रकाश मिश्र की व्यंग्य परंपरा को आगे बढ़ाया है, यह भी सही नहीं है। सच तो यह है कि उनके मार्ग पर चलने का साहस ही अपने में नहीं पैदा कर सका। मेरे पिता रिवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सिस्ट-लेनिनिस्ट) की केंद्रीय कमेटी के सदस्य रहे। बाबू जी ने आजीवन लगभग पैंतीस वर्षों तक पार्टी मुखपत्र साप्ताहिक च्क्रांतियुगज् में अनवरत मुजरिम के नाम से लैटर टू एडिटर की तर्ज पर व्यंग्य कालम च्तुम बहुत वैसे हो, सच बात भी कह देते होज् लिखा था। तब शायद सातवीं या आठवीं का छात्र रहा होऊंगा, जब पहली बार क्रांतियुग का वह व्यंग्य कालम पढ़ा था। बड़ा मजा आया। फिर तो एक लत सी लग गई मुजरिम को पढ़ने की। क्रांतियुग की भाषा बड़ी क्लिष्ट हुआ करती थी, अब भी है। बड़ी-बड़ी मार्क्सवादी लेनिनवादी अवधारणाएं तो पल्ले नहीं पड़ती थीं, लेकिन संपादक के नाम से मुजरिम का लिखा गया पत्र सहज और बोधगम्य हुआ करता था। व्यंग्य अपने लक्ष्य पर तीक्ष्ण प्रहार करता था। बाद में भइया का भी व्यंग्य पढ़ने लगा। वे विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में गुनाहगार के नाम से व्यंग्य लिखते थे। कई समाचार पत्रों में तो उन्होंने कई वर्षों तक इसी नाम से व्यंग्य लिखा। पिता और बड़े भाई की अंगुली पकड़कर व्यंग्य लिखना कब शुरू किया, यह याद नहीं है।
हां, बात सन 1986 या 1987 की है। लखनऊ में लीला सिनेमा के पास एक सांध्य दैनिक सरहदी निकलना शुरू हुआ था। उस अखबार के मालिक कोई भंडारी थे, शायद इंदुभूषण भंडारी या नरेंद्र भंडारी। उनके पिता कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और केंद्र या प्रदेश सरकार में मंत्री रहे थे। एनडी तिवारी के खास माने जाते थे। सांध्य दैनिक सरहदी के संपादक थे स्व. चचा अशोक रजनीकर और समाचार संपादक भैया आनंद प्रकाश मिश्र नियुक्त किए गए। मैं भी दैनिक सरहदी में गाहे-बगाहे जाने लगा। चचा रजनीकर लखनऊ यूनिवर्सिटी में मेरे पिता जी के एमए (अंग्रेजी) में क्लासफैलो थे। जहां तक मुझे याद है, बाद में सांध्य दैनिक सरहदी का आफिस जियामऊ चला गया और कुछ ही दिनों बाद बंद हो गया। इसके बाद जियामऊ से ही साप्ताहिक अवध स्काई लाइन का प्रकाशन शुरू हुआ जिसके संपादक थे पप्पू अलवी और कार्यकारी संपादक थे भैया यानी आनंद प्रकाश मिश्र। लगभग आठ-नौ साल तक अवध स्काई लाइन प्रकाशित हुआ और बाद में यह भी बंद हो गया।
बाद में जब पिता जी दिवंगत हुए, तो पार्टी की जरूरतों को समझते हुए भइया ने पत्रकारिता को अलविदा कह दिया और पूरी तरह से आरएसपीआई (एम-एल) का काम करने लगे। अवध स्काई लाइन के दिनों में ही व्यंग्य के नाम पर कुछ जोड़ने घटाने लगा था। कुछ छोटी-मोटी पत्र-पत्रिकाओं में लिखने भी लगा था, लेकिन जिस अखबार या पत्रिका में व्यंग्य छपता, उसकी प्रति घर लेकर नहीं जाता था। बाद में एकाध बार बड़ी हिम्मत करके प्रकाशित व्यंग्य को घर ले गया और यह जताने की कोशिश की कि मैं भी व्यंग्य की दुनिया में नाली-दुनाली बंदूक नहीं, अब तोप गया हूं। बाबू जी तो मेरा व्यंग्य पढ़ते और नाक से च्हूं.....ज् आवाज निकालते और लंबी चुप्पी साध जाते। मैं भी भीतर ही भीतर कुढ़ता कि जिस व्यंग्य को पढ़कर मेरे मित्र और परिचित लहालोट हो जाते हैं, वह इनके मन ही नहीं भाता है। ऐसा भी नहीं था कि मैं उन दिनों दूसरे व्यंग्यकारों को पढ़ता नहीं था। शरद जोशी, श्री लाल शुक्ल, केपी सक्सेना आदि व्यंग्यकारों को बड़े मनोयोग से पढ़ता था। लेकिन मैंने कभी इन वरिष्ठ व्यंग्यकारों की तरह बनना चाहा। मेरे व्यंग्य के नायक तो बाबू जी और भइया थे। आज भी हैं। मैं बस बाबू जी या भइया की तरह व्यंग्य लिखना चाहता था। मेरा व्यंग्य पढ़कर बाबू जी तो कोई टिप्पणी नहीं करते थे, लेकिन भइया पूरे उत्साह पर गर्म राख फेर देते थे। व्यंग्य में न जाने कैसी-कैसी गलतियां निकाल देते थे कि मुझे लगता कि अरे यार! सचमुच कूड़ा व्यंग्य लिखा है। लेकिन मैंने हार नहीं मानी, तो भइया भी कभी आलोचक की भूमिका से पीछे हटे नहीं। आज भी कमजोर व्यंग्य प्रकाशित होने पर डांट पड़ ही जाती है।
मेरे घर में बाबू जी और भइया व्यंग्य, कहानी, कविता, दर्शन, इतिहास की पुस्तकें लाते ही रहते थे। हिंदी, बांग्ला (बांग्ला भाषा में भी और हिंदी अनुवाद भी), उर्दू के साथ-साथ रूसी साहित्य का भंडार हुआ करता था उन दिनों हमारे घर में। बाबू जी बांग्ला और उर्दू के भी अच्छे जानकार थे। कुरआन शरीफ भी बहुत दिनों तक हमारे घर में रही है, जब तक हम लोग लखनऊ के आलमबाग थाना क्षेत्र के छोटा बरहा मोहल्ले में रहते थे। खैर...। व्यंग्य एक दोधारी तलवार है। देश, समाज और परिवेश में व्याप्त विसंगतियों से सबसे पहले व्यंग्यकार ही आहत होता है, उसी का सीना चाक होता है, तब वह अपनी उस पीड़ा को, जो सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक या सांस्कृतिक विसंगतियों की देन होती हैं, लेकर व्यंग्य के माध्यम से अपने पाठक के सामने प्रस्तुत होता है। व्यंग्य की यह परिभाषा, यह निहितार्थ भइया ने ही समझाया है। वे अक्सर कहा करते हैं जिस विसंगति से व्यंग्यकार खुद पीड़ित नहीं होता है, उस विसंगति पर लिखने वाला खुद को तो छलता ही है, अपने पाठक को भी छलता है। जिसने पीड़ा का अनुभव ही नहीं किया, वह उस पीड़ा को अपने पाठकों तक कैसे पहुंचा सकता है। दूसरों को पीड़ित देखकर उसका वर्णन तो किया जा सकता है, लेकिन दूसरों का अनुभव और स्व अनुभव में कुछ तो फर्क आ ही जाएगा।
व्यंग्य संग्रह आपके हाथों में है। व्यंग्य कैसे हैं? यह तो पाठक ही बताएंगे। पाठकों से बढ़कर कोई अदालत नहीं होती है किसी भी लेखक के लिए। पाठक कहें कि पास, तो पास। नहीं तो फेल। हां, मैं आभारी हूं न्यूज फॉक्स के संपादक श्री रामेंद्र कुमार सिन्हा जी और अमर उजाला जालंधर में संपादक रहे श्री निशीथ जोशी जी (वर्तमान में सपादक नवोदय टाइम्स, देहरादून) का, जिन्होंने समय-समय पर अपने सुझावों से व्यंग्य को और निखारने में मदद की। मैं कृतज्ञ हूं अपनी दो बड़ी भाभियों श्रीमती शशि मिश्रा और श्रीमती मधु मिश्रा के साथ-साथ दद्दा श्री विनोद कुमार मिश्र जी का, जो अब तक मुझे एक संबल प्रदान करते आ रहे हैं। छोटे भाई राजेश मिश्र, विप्लव मिश्र और अनुज वधु सावित्री मिश्रा के सहयोग को भी भुलाया नहीं जा सकता है। इसके साथ ही वनिका पब्लिकेशन्स की कर्ता-धर्ता श्रीमती डॉ. नीरज सुधांशु शर्मा जी का भी आभारी हूं जिनके सहयोग के बिना यह व्यंग्य संग्रह आपके हाथों तक पहुंच ही नहीं सकता था। पाठकों की प्रतिक्रिया की अपेक्षा सदैव रहेगी।
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