Wednesday, November 8, 2017

बौद्ध और जैन धर्म के प्रभाव क्षेत्र में बसा नथईपुरवा

बचपन की कुछ यादें-2

मेरा गांव नथईपुरवा बलरामपुर-बहराइच मार्ग पर पूर्व-उत्तर दिशा में थोड़ा हटकर लगभग एक किमी की दूरी पर स्थित है। यह गांव बलरामपुर से 18 किमी और श्रावस्ती से मात्र दो किमी की दूरी पर है। यह वही श्रावस्ती है जिसके बारे में कहा जाता है कि इसे राम के पुत्र कुश ने बसाया था। कुश वंश के अंतिम शासक प्रसेनजित के शासनकाल में ही महात्मा बुद्ध ने 24 चौमासा बिताया था। महात्मा बुद्ध वर्ष भर भ्रमण करते रहते थे, लोगों को उपदेश देते रहते थे, लेकिन वर्षाकाल में वे एक स्थान पर ठहर जाते थे। बुद्धत्व प्राप्त करने के बाद वर्षाकाल बिताने वाले कई प्रमुख स्थलों में श्रावस्ती प्रमुख स्थान रखती थी। राजकुमार जेत का वन महात्मा बुद्ध का निवास स्थान हुआ करता था। आज श्रावस्ती को स्थानीय लोग सहेट-महेट कहते हैं। सहेट-महेट का स्थानीय लोग अर्थ बताते हैं-उल्टा-पुल्टा हो जाना। पौराणिक नदी अचिरावती (राप्ती) श्रावस्ती के पास से ही बहती है। अचिरावती नदी की एक विशेषता यह है कि वह एक स्थान पर हमेशा नहीं बहती है। बरसात के दिनों में वह अपना स्थान बदलती रहती है। बहराइच और बलरामपुर में यह नदी गहरी नहीं रहती है। यह जब अपना स्थान बदलती है, तो छोड़ा गया इलाका दलदली हो जाता है। अचिरावती के रौद्र रूप का दुष्परिणाम हमारे इलाके से लोग आज भी हर साल बाढ़ के रूप में भुगतते हैं। सहेट-महेट के बारे में हमारी दादी एक लोकोक्ति का जिक्र करती थीं। कहती थीं कि सहेट-महेट का एक राजा था। उसने एक दिन भूल से अपनी भयो (अनुज वधु) की अंगुली छू लिया था, इससे नगर उल्टा-पुल्टा होकर धंस गया था यानि पूरा नगर सहेट-महेट हो गया। यह लोकोक्ति किस राजा के बारे में है, यह न दादी बता सकीं, न मुझे मालूम है। हां, यह कथा आज भी बलरामपुर या कहिए कि श्रावस्ती के इर्द-गिर्द बसे गांवों में आज भी कही जाती है। वैसे सहेट-महेट का अर्थ यह भी है कि क्षत-विक्षत कर देना, ध्वंस-विध्वंस कर देना, विनाश कर देना। हमारे इलाके में आज भी जब कोई काम बिगड़ जाता है, तो कहा जाता है-अरे मारा सहेट-महेट कर दिया। वैसे जहां तक मैं समझता हूं कि श्रावस्ती के बगल से होकर बहने वाली अचिरावती की वजह से आसपास का इलाका दलदली हो गया था और कालांतर में वह नगर धीरे-धीरे उस दलदल में समाता चला गया। जिसे बाद में राहुल सांस्कृत्यायन और अन्य पुरातत्वविदों ने खोज निकाला और श्रावस्ती को दुनिया के सामने लाकर खड़ा किया। राहुल सांस्कृत्यायन ने श्रावस्ती नामक पुस्तिका भी लिखी है जिसमें उन्होंने श्रावस्ती का गौरव विस्तार से लिखा है। यही वजह है कि श्रावस्ती बौद्ध धर्म मतावलंबियों के लिए प्रमुख है।
कहा तो यह भी जाता है कि जैन धर्म के संभवतः तीसरे तीर्थंकर संभवनाथ का जन्म भी यहां हुआ था। श्रावस्ती से आदि तीर्थंकर महावीर का भी प्रगाढ़ संबंध रहा है। कहा तो यह भी जाता है कि महात्मा बुद्ध और महावीर स्वामी समकालीन रहे हैं। इस तरह बौद्ध और जैन धर्म के प्रभाव क्षेत्र में बसे नथईपुरवा में मेरे पूर्वज निवास करते थे। मेरे बाबा दो भाई और एक बहन थे। मेरे बाबा रामाचार्य मिश्र उर्फ छोटे पंडित ब्रिटिश शासन काल में ही प्राइमरी के मास्टर थे। बलरामपुर के कई प्राइमरी स्कूलों में उन्होंने अध्यापन कार्य किया था। उनके बड़े भाई रामचंद्र मिश्र उर्फ भग्गन मिसिर वैसे कक्षा दो तक ही पढ़े थे। विशालकाय शरीर और शरीर के अनुरूप बलशाली भग्गन के बारे में आज भी लोग मिसाल देते हैं। गांव जवार में जिन्होंने भग्गन मिसिर को देखा है, उनके साथ जीवन के कुछ साल बिताए हैं, वे कहते हैं कि जब भग्गन काका रिसियाते थे, तो बैल से भिड़ जाया करते थे। लोग उन्हें अपने-अपने रिश्ते के हिसाब से भग्गन भाई, भग्गन काका कहते थे। हम लोग उन्हें बप्पा कहते थे क्योंकि हमारी छहों बुआ, बाबू जी, दादू जी यानी प्रो. कामेश्वर नाथ मिश्र और दादा जी यानी श्री बालेश्वर प्रसाद मिश्र उन्हें बप्पा ही कहते थे। एक मजेदार बात बताऊं। हमारी दोनों दादियां यानी भग्गन मिसिर की पत्नी और छोटे पंडित की पत्नी सगी बुआ-भतीजी थीं। हमारी दादी बुआ थीं और बप्पा की पत्नी भतीजी। लेकिन भतीजी अपनी बुआ से उम्र में बड़ी थीं। शादी के बाद भतीजी अपनी बुआ की जेठानी हो गई और बुआ देवरानी। बप्पा और बाबा यानी दोनों भाइयों की शादी एक ही दिन एक ही मंडप में हुई थी। मुझे अपने बाबा यानी छोटे पंडित को देखने का सौभाग्य नहीं मिला। जब मैं साल-डेढ़ साल का ही था, तभी उनकी क्षय रोग से मृत्यु हो गई थी। हां, अम्मा और दादी बताती थीं कि मेरा नामकरण उन्होंने ही किया था।
जब मैं सात-आठ महीने का था, तो अम्मा तेल-बुकवा (सरसों का उबटन), काजल लगाकर कपड़ा-लत्ता पहना-ओढ़ाकर धूप में लिटा देती थीं और कामकाज में लग जाती थीं। मैं लेटा लोगों को टुकुर-टुकुर देखता रहता था। बाबा जब गांव में होते, तो फुरसत पाकर मेरे खटोले के पास बिछी चारपाई या तख्त पर बैठ जाते। कभी कभी दुलार करते हुए कहते-संतोषी हो, अशोक हो...। बात दरअसल यह थी कि उस उम्र के अन्य बच्चों की तरह मैं अकेला होने पर रोता नहीं था। और इस तरह मेरा नाम अशोक रख दिया गया।
बाबू, भइया, दादू, दादा, दादी, बुआ और अम्मा से मिली जानकारियों के मुताबिक छोटे पंडित अनुशासन प्रिय बहुत थे। वे बोलते थे, तो बेलौस बोलते थे। सच बात कहने में तनिक भी हिचक उन्हें नहीं होती थी। चाहे वह कोई भी हो। गांव भर की औरतों की बात कौन कहे, गांव के बूढ़े-बुजुर्ग भी छोटे पंडित से डरते थे। यहां तक बप्पा भी अपने छोटे भाई से डरते थे।

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