Wednesday, November 8, 2017

कोलंबस बनते-बनते रह गया

बचपन की कुछ यादें--1

काश, कभी
मुझको अपना शैशव मिल जाता
मैं जा उसके पास, गले लगाता
और पूछता क्यों बिसराया मुझको।
यह कविता शायद 1994 से लेकर 1998 के बीच लिखी होगी। यह कविता का एक अंश मात्र है।पूरी कविता या तो किसी डायरी या कापी के पन्ने पर लिखी थी, जो अब कहां है मुझे नहीं मालूम। हो सकता है कि उस पन्ने का अवशेष ही न बचा हो। खैर.. ।
मेरा जन्म गोंडा जिले की कभी तहसील रहे बलरामपुर (वर्तमान में जिला) के नथईपुरवा गांव में हुआ था। मेरे बचपन की यादों का ज्यादातर हिस्सा लखनऊ से जुड़ा हुआ है, उसके बाद गांव की यादें हैं और एक बहुत मामूली सा हिस्सा इलाहाबाद के 113, पानदरीबा और सोहबतिया बाग से जुड़ा है। इलाहाबाद की वैसे तो कई घटनाएं याद हैं, लेकिन एक घटना ऐसी है जिसकी याद अब भी है।
कोलंबस बनते-बनते रह गया
जिन दिनों की बात है, उन दिनों रिवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सिस्ट-लेनिनिस्ट) का मुख्यालय 113, पानदरीबा इलाहाबाद में हुआ करता था। वह इमारत शायद तीन मंजिली थी। नीचे दुकानें हुआ करती थीं। पहले हम लोग पार्टी कार्यालय में ही रहते थे। बाद में किन्हीं कारणों से हम लोग सोहबतिया बाग में रहने चले गए। किराये के मकान में। जब पानदरीबा में थे, तो अम्मा हम लोगों को बार-बार याद करातीं- कोई पूछे कहां रहते हो? तो क्या बताओगे?
मैं रटा-रटाया जवाब देता था-113, पानदरीबा, इलाहाबाद।
घंटाघर जीरो रोड.....अम्मा साथ में यह भी जोड़ती थीं। इलाहाबाद आने के बाद बाबू जी ने अम्मा को भी यही पता रटवाया था। बाबू जी माने का. रामेश्वर दत्त मानव। आरएसपीआई (एमएल) के होलटाइमर मेंबर। दरअसल, अम्मा का नाम जरूर सरस्वती देवी मिश्रा था, लेकिन सरस्वती से जन्मजात बैर था। निपट निरक्षर अम्मा को यह सोचकर बाबू जी ने पता रटवाया था कि यदि कभी कहीं आते-जाते अम्मा रास्ता भूल जाएं, तो पता पूछते-पूछते घर तो आ जाएं। अम्मा भी इसी मंतव्य से मुझे भी पता याद करवाती थीं।
जब हम सोहबतिया बाग में रहने चले गए, तो बाबू जी की अंगुली पकड़कर सोहबतिया बाग से पानदरीबा आया-जाया करता था। बाबू जी तो ज्यादातर रिक्शा कर लेते थे, वरना पैदल ही आते-जाते। मुझे नहीं मालूम है कि पानदरीबा से सोहबतिया बाग की दूरी कितनी है? कभी-कभी भइया भी साथ ले जाते थे। भइया बोले तो आनंद प्रकाश मिश्र। इन दिनों आरएसपीआई (एमएल) के महामंत्री और साप्ताहिक क्रांतियुग के प्रधान संपादक। सोबतिया बाग में रहते हुए कई महीने बीत चुके थे। उन दिनों मुझसे छोटा भाई राजेश और मैं दोनों स्कूल नहीं जाते थे। मुझे एक धुंधली सी याद है कि सोहबतिया बाग में जहां हम रहते थे, वहीं से थोड़ी दूरी पर एक बंधा था। शायद नदी का किनारा था। हो सकता है कि वह गंगा नदी का किनारा हो। अम्मा सुबह उठकर गंगा नदी नहाने जाती थीं। हम दोनों भाई उस बंधे के पास दिन भर बैठकर उड़ती पतंगें देखा करते थे। अम्मा सुबह आठ-नौ बजे तक नहला-धुलाकर घर के बाहर बिठा देतीं और हम उनकी निगाह बचाकर बंधे पर उड़ती पतंगें देखने पहुंच जाते। बाद में जब अम्मा बाहर निकलती और घर के बाहर न पातीं, तो बंधे तक आतीं। वहां से पकड़कर हमें  घर लातीं। वह बाहर तो कुछ नहीं कहती थीं, लेकिन घर के भीतर आते ही ठोकने लगतीं। ठुक-ठुकाकर कुछ देर रोता और फिर निकल पड़ता पतंगें देखने।
एक दिन बंधे पर पतंगें देखते-देखते पता नहीं क्यों मन में आया कि बाबू जी के पास पानदरीबा चला जाए। लगभग रोज सोहबतिया बाग से पानदरीबा आते-जाते यह विश्वास हो चला था कि अरे पानदरीबा जाना कौन सी बड़ी बात है। बस फिर क्या था? अपने तीन-चार वर्षीय भाई राजेश का हाथ पकड़ा और चल दिया पानदरीबा की ओर। तब दद्दा पास के ही किसी स्कूल में पढ़ते थे और उनका स्कूल दस से पांच बजे तक लगता था। दद्दा यानी ननकू यानी अरुण कुमार यानी कि विनोद कुमार मिश्र। कुछ दूर जाने के बाद लगा कि अरे..यह रास्ता तो पानदरीबा की ओर नहीं जाता है। मेरा ख्याल है कि बमुश्किल चार-पांच सौ मीटर ही बंधे से चले होंगे कि रास्ता भटक गए। ऊपर से राजेश रोने भी लगा। राजेश को रोता देखकर मैं भी रोने लगा। हम दोनों भाई एक दूसरे का हाथ पकड़े रोते हुए चले जा रहे थे कि हम दोनों पर सड़क के किनारे सब्जी बेचने वाली एक महिला की पड़ी, तो उसने रोक लिया। और हम दोनों भाइयों को पास के बोरे पर बिठा लिया। हम दोनों को रोटी खाने को भी दी, लेकिन मैंने नहीं खाया। राजेश थोड़ी-थोड़ी देर में अम्मा कहकर रोता और रोने से थककर सब्जी वाली ने जो रोटी पकड़ाई थी, वह कुतरने लगता। दस-ग्यारह बजे पानदरीबा के लिए निकले दोनों भाई लगभग चार बजे तक सब्जीवाली के पास ही बैठे रहे।
उधर अम्मा जब थोड़ा-बहुत काम निबटाकर बाहर निकलीं, तो हम दोनों भाइयों को नदारद पाया। आसपास काफी खोजबीन की। बंधे पर जाकर ढूंढा। लोगों को पहचान बताकर पूछताछ की। काफी देर तक खोजने के बाद दिमाग में आया कि कहीं हम दोनों पानदरीबा तो नहीं चले गए हैं। सो, वह तीन-साढ़े तीन बजे तक थक-हारकर पानदरीबा की ओर चल पड़ीं। उधर राजेश या तो रोटी कुतरता या फिर अम्मा अम्मा कहकर रोने लगता। शुरुआत में मैं भी रोया था, पर बाद में कठुआया से बैठा लोगों को आते-जाते टुकुर-टुकुर निहारता रहता था। चार बजे के आसपास अचानक राजेश अम्मा कहता हुआ उठकर उधर ही भागा जिधर से हम आए थे। मैंने देखा-थोड़ी दूर पर अम्मा बदहवास सी चली  आ रही हैं। राजेश जाकर अम्मा से लिपट गया। अम्मा भी हमार बच्चा कहकर रोने लगीं। वह मेरे पास आईं, तो उसने अम्मा को पूरी कहानी बताई। अम्मा ने उसका बहुत-बहुत आभार व्यक्त किया और हम दोनों को घर ले आई। पहले तो बड़े प्यार से पूछताछ चली, जैसे कोई थानेदार अपराधी से पहले फुसलाकर पूछताछ करता है। उसके बाद वह ठुकाई हुई कि पूछिए मत।

अम्मा बहुत बाद तक इस घटना का सविस्तार बताती रहीं। वह बाद में चिढ़ाने के लिए भी इस घटना का जिक्र करती थीं। यह प्रसंग भी अम्मा द्वारा विस्तार से बताई गई बातों पर ही आधारित है। मेरे जेहन में तो बस सोहबतिया बाग के बंधे और हम दोनों भाइयों का बंधे पर बैठकर उड़ती पतंगों को निहारने की धुंधली सी तस्वीर है। बाकी बातें तो अम्मा की बताई हुई बातों की वजह से जेहन में अटकी रह गई हैं।

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