-अशोक मिश्र
जब मैं उस्ताद गुनाहगार के घर पहुंचा, तो वे भागने की तैयारी में थे। हड़बड़ी में उन्होंने शरीर पर कुर्ता डाला और उल्टी चप्पल पहनकर बाहर आ गए। संयोग से तभी मैं पहुंच गया, अभिवादन किया। उन्होंने अभिवादन का उत्तर दिए बिना मेरी बांह पकड़ी और खींचते हुए कहा, 'चलो..सामने वाले पार्क में बैठकर बतियाते हैं। अभी घर में ठहरना उचित नहीं है।' मैं भौंचक..ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था। जब भी घर गया, तो उन्होंने बड़े प्यार और आदर से घर में बिठाया, चाय-नाश्ते की तो बात ही छोडि़ए, बिना खाना खिलाए आने ही नहीं दिया। अब तो हालत यह है कि जब भी मैं उनके घर आता हूं, घरैतिन मान लेती हैं कि मैं खाना खाकर ही आऊंगा। मगर आज..एक अजीब सी हड़बड़ी में थे। खैर...मैं भी उनके साथ हो लिया।
पार्क में पहुंचकर उन्होंने तीन-चार बार खूब गहरी सांस ली, मानो प्राणायाम कर रहे हों। थोड़ी देर बाद बोले, 'उफ...बाल-बाल बच गया!' उनकी बात सुनकर मैं घबरा गया, 'क्या बात कह रहे हैं भाई साहब? कोई हादसा हुआ था क्या? कहीं चोट-वोट तो नहीं लगी?'
उन्होंने पार्क में बनी सीमेंट की बेंच पर बैठते हुए कहा, 'अरे यार..चोट-वोट की बात नहीं है। इसकी कभी परवाह की है मैंने? तुम बात को इस तरह समझो कि आज तमाशा बनने से बच गया। तमाशा बनता तो अखबारों में फोटू-शोटू छपता, चेले-चपाटे कहते कि उस्ताद का मुंह काला हो गया। मुंह काला हो जाता, तो किसी को क्या मुंह दिखाता?' बात की पूंछ मेरी पकड़ में नहीं आ रही थी। मैंने उकताए स्वर में कहा, 'उस्ताद! बात क्या है? साफ-साफ बताइए, वरना मैं चला।'
गुनाहगार सामने देखते हुए खोये-खोये से अंदाज में बोले, 'यार क्या बताऊं? मैंने कभी तुम्हारी भाभी के खिलाफ बयान भी नहीं दिया। पिछले चार-पांच हफ्तों से कोई ऐसी-वैसी हरकत भी नहीं की, पिछले शनिवार को जब साली आई थी, तो उससे भी ज्यादा लप्पो-झप्पो नहीं की। फिर क्यों मुंह पर कालिख पोतना चाहती है?' मैंने उस्ताद गुनाहगार की बांह पकड़कर झिंझोड़ते हुए कहा, 'मामला क्या है? कैसी कालिख, कैसा मुंह? यह क्या गड़बड़झाला है, उस्ताद?'
उस्ताद गुनाहगार झिंझोड़े जाने से सहज हो गए। बोले, 'यार! यही तो..यही गुत्थी तो पिछले चार घंटे से सुलझा रहा हूं। एक सिरा सुलझता है, तो दूसरा उलझ जाता है। यह गुत्थी न होकर भारत-पाक सीमा विवाद हो गया। दोनों सीमा पर फायरिंग करते हैं, फिर बातचीत का सिलसिला शुरू होता है, लगता है कि बस..बस समस्या सुलझने वाली है और फिर एकाएक कोई पेच फंस जाता है और वार्ता टूट जाती है। फिर सीमा पर गोली-बारी शुरू हो जाती है।'
उस्ताद की बात सुनकर मैंने माथा पीट लिया, 'अरे उस्ताद! इस बात की क्या गारंटी है कि भाभी जी ने स्याही आपके मुंह पर पोतने के लिए मंगाई है। हो सकता है किसी दूसरे काम के लिए मंगाया हो। और फिर..मुंह पर आपके अगर कालिख पुत ही जाएगा, तो क्या हो जाएगा! बस, चरित्र पर कालिख नहीं पुतनी चाहिए। चेहरा काला हो, तो चलेगा, लेकिन चरित्र काला हो, तो नक्को...कतई नहीं चलेगा। आजकल जो चेहरे पर कालिख पोतने का फैशन चल निकला है न, वह फितूर है इंसान के दिमाग का। मैं जानता हूं, आपका चरित्र इस देश के नेताओं से कहीं ज्यादा उजला है।'
मेरी बात से उस्ताद गुनाहगार का आत्मविश्वास लौट आया, कहने लगे, 'यार! तुम तो जानते हो, मैं पाकेटमार हूं। लेकिन कभी किसी गरीब, बेबस और ईमानदार का पाकेट नहीं मारा। महिलाओं और बच्चों की जेब पर मेरी ब्लेड कभी नहीं चली। आज जब बीवी को स्याही मंगाते सुना, तो मैं डर गया और घर से भाग खड़ा हुआ।'
तभी गुनाहगार के पड़ोसी वर्मा का बेटा एक डिब्बा लिए हुआ आया और बोला, 'अंकल.. यह स्याही का डिब्बा आंटी ने तिवराइन आंटी के यहां दे आने को कहा है। तिवराइन आंटी के स्कूल में हो रहे एक नाटक में भाग लेने वाले बच्चों के चेहरे पर यह स्याही पोती जाएगी।' इतना कहकर और डिब्बे को गुनाहगार के हाथों में थमाकर वह रफूचक्कर हो गया। हम दोनों बेवकूफों की तरह उस बच्चे को जाता हुआ देखते रहे।
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