Sunday, January 24, 2021

मुर्दे कभी विद्रोह नहीं करते

 

-अशोक मिश्र
वो, जो हल की मुठिया पकड़े
जोत रहा है खेत, कर रहा है निराई-गुड़ाई
सर्दी, गर्मी, बरसात नहीं डिगा पाती उसे अपने कर्म से
वह नहीं जाता हमारी, आपकी तरह आफिस, कल कारखानों में
सूट-बूट, टाई, कोट, जूते-मोजे पहनकर
अपनी बगलों में इत्र छिड़क कर
सदियों से है उसके ‘आफिस’ में नंगे पांव जाने की व्यवस्था
खेत जोतना, निराई गुड़ाई करना, सिंचाई करना
संभव है सिर्फ नंगे पांव
बिना जूता, चप्पल पहने बीत जाती है उसकी आधी जिंदगी
धोती फटी सी, लटी दुपटी अरु पांय उपानह की नहिं सामा
की साक्षात प्रतिमूर्ति.... किसान
यह देश उसका भी है।
किसी शहर के किसी चौराहे के एक गुमनाम कोने में
किसी गली, कूचे में
फटी बोरी, प्लास्टिक की पन्नी पर
अपनी बकसिया से औजार निकाल
कटे, फटे जूते-चप्पलों की संवार रहा है किस्मत
ताकि उसके ही समान गरीब के जूते
हो जाएं कुछ दिन और चलने लायक
यह देश उसका भी है।
प्रसव के ठीक छह-सात दिन बाद
अपनी और अपने बच्चे की
पेट की आग बुझाने के लिए
सिर पर मिट्टी, बालू, सीमेंट और ईंट रखकर
ढोने वाली उस कृषकाय मजदूरिन का
इस देश पर है पूरा का पूरा हक
यह देश उसका भी है।
इन सबको नहीं चाहिए तुमसे
देश भक्ति का प्रमाण पत्र
इनका श्रम ही है इनकी देशभक्ति का प्रमाण
लेकिन सुनो महाराज!
अगर तुम इन सबको खारिज कर दो
तो देश के नाम पर बचेंगे
लंपट सर्वहारा, पतित नेता, भ्रष्ट नौकरशाह
गुलाम मानसिकता के पथ भ्रष्ट युवा
और तब
यह देश देश न होकर रह जाएगा सिर्फ एक नक्शा
जो ठीक वैसा ही होगा, जैसे प्राण निकलने पर रह जाता है शरीर
और तब
मुर्दों पर शासन करना, महाराज!
क्योंकि मुर्दे कभी विद्रोह नहीं करते।

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