अशोक मिश्र
विधानसभा चुनाव की रणभेरी क्या बजी, तरह-तरह के डमरू, बंदर-बंदरिया लेकर मदारी की तरह उम्मीदवार लगे करतब दिखाने। वे अपना करतब दिखाने में मस्त हैं। उन्हें मजा आ रहा है। मजा आए भी क्यों न! यदि चुनाव जीते, तो सत्ता सुंदरी के वरण का मौका जो मिलेगा। ये उम्मीदवार सिर्फ डमरू, बंदर-बंदरिया या जमूरे के भरोसे ही चुनाव जीतने की कोशिश में नहीं हैं। इन्होंने अपनी-अपनी पीठ पर एक ढोल भी बांध रखी है। जहां भी इन्हें मतदाता दिखा बजाने लगते हैं-मैं सबसे बहुत अच्छा हूं। मैं यह करूंगा, वह करूंगा। एक मैं ही ईमानदार हूं, बाकी सब बेईमान हैं।
इन उम्मीदवारों को भले ही चुनाव में मजा आ रहा हो, लेकिन जब से चुनाव आयोग अंग्रेजों के जमाने का जेलर बना है, तब से मतदाताओं का सारा मजा अली रजा ले गए। मुझे याद है कि दस-बीस साल पहले चुनाव के दौरान कितना मजा आता था। चुनाव से डेढ़-दो महीना पहले ही गली-मोहल्ले में दली-निर्दली सबके बैनर-पोस्टर लग जाते थे। किस्म-किस्म के पंपलेट, बुकलेट बांटे जाते थे। चुनाव खत्म होते-होते घर में दस-बीस किलो रद्दी इकट्ठा हो जाती थी। घरैतिन केरोसिन खत्म हो जाने पर उसी पंपलेट, बुकलेट और पोस्टर आदि से चाय और दूध गरम कर लेती थीं। घर के बच्चों को दूध और मुझे चाय नसीब हो जाती थी। पूरा घर उम्मीदवारों को जीभर कर आशीष देता था। रात-बिरात गाटरवा, पिंटुआ, बबलुआ, रमेशवा, सुरेशवा को उकसाकर, टाफी-कंपट, चना-चबैना का लालच देकर झंडे, बैनर उतरवा लिए जाते थे।
दलियों-निर्दलियों के ये झंडे-बैनर घरैतिन के बूटीक कला में पारंगत होने के जीवंत उदाहरण के रूप में काफी दिनों तक घर में शोभायमान रहते थे। बच्चों से लेकर घर के बड़े-बूढ़ों तक की जांघिया-कच्छे बनाने में ये झंडे-बैनर काम आते थे। घर के बच्चे यदि ज्यादा ऊर्जावान हुए, तो तकिए की लंबाई, चौड़ाई और ऊंचाई बढ़ जाया करती थी।
उन दिनों जब तक विधानसभा या लोकसभा के चुनाव चलते थे, लंपटों, निठल्लों, कामचोरों की मौज ही मौज हुआ करती थी। घर में भले ही फाकाकशी की नौबत हो, लेकिन उम्मीदवारों और उनके चिंटुओं-पिंटुओं की बदौलत चाय-पानी, पूड़ी-तरकारी से लेकर कच्ची-पक्की का जुगाड़ हो जाता था। हां, बस इलाके में रहने वाले उम्मीदवारों के खास चमचों की थोड़ी लल्लो-चप्पो करनी पड़ती थी। अब वह सुख तो जैसे सपना हो गया। ललिता पवार की तरह खूसट सास बना चुनाव आयोग राई-रत्ती का हिसाब-किताब मांग रहा है। सच्ची बात बता दो कि फलां को कच्ची दी, अमुक को पक्की, तो परचा खारिज। भला बताओ, यह भी कोई बात हुई।
विधानसभा चुनाव की रणभेरी क्या बजी, तरह-तरह के डमरू, बंदर-बंदरिया लेकर मदारी की तरह उम्मीदवार लगे करतब दिखाने। वे अपना करतब दिखाने में मस्त हैं। उन्हें मजा आ रहा है। मजा आए भी क्यों न! यदि चुनाव जीते, तो सत्ता सुंदरी के वरण का मौका जो मिलेगा। ये उम्मीदवार सिर्फ डमरू, बंदर-बंदरिया या जमूरे के भरोसे ही चुनाव जीतने की कोशिश में नहीं हैं। इन्होंने अपनी-अपनी पीठ पर एक ढोल भी बांध रखी है। जहां भी इन्हें मतदाता दिखा बजाने लगते हैं-मैं सबसे बहुत अच्छा हूं। मैं यह करूंगा, वह करूंगा। एक मैं ही ईमानदार हूं, बाकी सब बेईमान हैं।
इन उम्मीदवारों को भले ही चुनाव में मजा आ रहा हो, लेकिन जब से चुनाव आयोग अंग्रेजों के जमाने का जेलर बना है, तब से मतदाताओं का सारा मजा अली रजा ले गए। मुझे याद है कि दस-बीस साल पहले चुनाव के दौरान कितना मजा आता था। चुनाव से डेढ़-दो महीना पहले ही गली-मोहल्ले में दली-निर्दली सबके बैनर-पोस्टर लग जाते थे। किस्म-किस्म के पंपलेट, बुकलेट बांटे जाते थे। चुनाव खत्म होते-होते घर में दस-बीस किलो रद्दी इकट्ठा हो जाती थी। घरैतिन केरोसिन खत्म हो जाने पर उसी पंपलेट, बुकलेट और पोस्टर आदि से चाय और दूध गरम कर लेती थीं। घर के बच्चों को दूध और मुझे चाय नसीब हो जाती थी। पूरा घर उम्मीदवारों को जीभर कर आशीष देता था। रात-बिरात गाटरवा, पिंटुआ, बबलुआ, रमेशवा, सुरेशवा को उकसाकर, टाफी-कंपट, चना-चबैना का लालच देकर झंडे, बैनर उतरवा लिए जाते थे।
दलियों-निर्दलियों के ये झंडे-बैनर घरैतिन के बूटीक कला में पारंगत होने के जीवंत उदाहरण के रूप में काफी दिनों तक घर में शोभायमान रहते थे। बच्चों से लेकर घर के बड़े-बूढ़ों तक की जांघिया-कच्छे बनाने में ये झंडे-बैनर काम आते थे। घर के बच्चे यदि ज्यादा ऊर्जावान हुए, तो तकिए की लंबाई, चौड़ाई और ऊंचाई बढ़ जाया करती थी।
उन दिनों जब तक विधानसभा या लोकसभा के चुनाव चलते थे, लंपटों, निठल्लों, कामचोरों की मौज ही मौज हुआ करती थी। घर में भले ही फाकाकशी की नौबत हो, लेकिन उम्मीदवारों और उनके चिंटुओं-पिंटुओं की बदौलत चाय-पानी, पूड़ी-तरकारी से लेकर कच्ची-पक्की का जुगाड़ हो जाता था। हां, बस इलाके में रहने वाले उम्मीदवारों के खास चमचों की थोड़ी लल्लो-चप्पो करनी पड़ती थी। अब वह सुख तो जैसे सपना हो गया। ललिता पवार की तरह खूसट सास बना चुनाव आयोग राई-रत्ती का हिसाब-किताब मांग रहा है। सच्ची बात बता दो कि फलां को कच्ची दी, अमुक को पक्की, तो परचा खारिज। भला बताओ, यह भी कोई बात हुई।
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