-अशोक मिश्र
बाप तो आखिरकार बाप ही होता है। बेटा बेटा होता है। बाप के आगे बेटे की क्या बिसात है। अगर आप माई बापों ने इस कहावत को रट्टा मारकर याद कर रखा है कि तो भूल जाइए। सच पूछिए, तो भूल जाने में ही भलाई है। अगर आप आसानी से नहीं भूले, तो बेटे भुलवा देंगे और आपको यह कहावत याद करा देंगे कि बेटे किसी के भी कान काट सकते हैं। अब आपको इस मुहावरे का अर्थ बताने की भी जरूरत है? टीपू ने कितनी खूबसूरती से नेताजी के कान काटे, यह सारी दुनिया देख-सुन रही है। उसने तो बाप के ही कान नहीं काटे, चाचा, अंकल सबके नाक-कान बिना उस्तरे के ही रेत दिया। हाय..हाय कर रहे हैं बेचारे। लखनऊ से दिल्ली तक दौड़ लगा रहे हैं। सबको अपने कटे कान दिखा रहे है, लेकिन बाप-बेटे की लड़ाई में अपनी टांग अड़ाए कौन? इस मामले में जिसकी भी टांग टूटी है या टूटेगी, उन्होंने जरूर पिता-पुत्र के पचड़े में अपनी टांग फंसाई होगी।
आप इतिहास उठाकर देख लें। जिस बेटे ने अपने बाप-दादाओं के कान काटे, उसी का नाम इतिहास में दर्ज हुआ है। इतिहास में नाम दर्ज कराने की पहली शर्त यही है कि वह अपने बाप से चार जूता आगे निकले। भला बताइए, अगर आप लोहिया के सिद्धांतों को धता बता सकते हैं। उनके सिद्धांतों के नाम पर सात-आठ चेले-चपाटों के साथ पार्टी खड़ी कर सकते हैं। फिर चेले-चपाटों को ठेंगा दिखाकर उस पार्टी के भी टुकड़े करा सकते हैं, तो अब बुढ़ौती में आपकी पार्टी और आपके साथ भी तो वही इतिहास दोहराया जा सकता है। अब काहे को दैया-दैया कर रहे हो, चच्चा! दई (विधाता) दई सो कुबूल। वैसे तो यह ध्रुव सत्य है कि आज जो बाप है, कभी वह बेटा था। जो आज बेटा है, वह कभी न कभी बाप बनेगा। बाप-बेटे की यह उठापटक सनातनी है। जिस बेटे ने बाप को गच्चा दिया, तो समझो, दुनिया को गच्चा देने में प्रवीण हो गया। अगर बुढ़ापे में अपने ही बेटे से गच्चा खा गया, तो दुनिया को दिखाने को भले चीखता-चिल्लाता हो, लेकिन भीतर ही भीतर वह खुश होता रहता है-वाह बेटा! इस पुरातन गच्चावादी परंपरा को कितनी खूबसूरती से आगे बढ़ाया है।
अगर आप चाहते हैं कि आपका बेटा बुढ़ापे में आपको गच्चा न दे, आपके और आपके बेटे के बीच जूते में दाल न बंटे, तो यह बात अच्छी तरह गांठ बांध लें कि बेटा किसी भी हालत में आपके जूते में पांव डालने ही न पाए। बचपन में ही जब वह आपके जूते में पांव डालने की कोशिश करे, तो उसे बरज दें, मना कर दें। यदि आपने ऐसा नहीं किया, तो जिस दिन आपके जूते में बेटे का पैर फिट हुआ, उसी दिन से समझ लीजिए कि अब आप बाप-बेटे के बीच जूते में दाल बंटने के दिन आ गए हैं। जूतमपैजार अवश्यंभावी है। इसे टाला नहीं जा सकता है। अब अगर समाजवादी बाप-बेटे में जूतमपैजार हो रही है, तो किम आश्चर्यम!
बाप तो आखिरकार बाप ही होता है। बेटा बेटा होता है। बाप के आगे बेटे की क्या बिसात है। अगर आप माई बापों ने इस कहावत को रट्टा मारकर याद कर रखा है कि तो भूल जाइए। सच पूछिए, तो भूल जाने में ही भलाई है। अगर आप आसानी से नहीं भूले, तो बेटे भुलवा देंगे और आपको यह कहावत याद करा देंगे कि बेटे किसी के भी कान काट सकते हैं। अब आपको इस मुहावरे का अर्थ बताने की भी जरूरत है? टीपू ने कितनी खूबसूरती से नेताजी के कान काटे, यह सारी दुनिया देख-सुन रही है। उसने तो बाप के ही कान नहीं काटे, चाचा, अंकल सबके नाक-कान बिना उस्तरे के ही रेत दिया। हाय..हाय कर रहे हैं बेचारे। लखनऊ से दिल्ली तक दौड़ लगा रहे हैं। सबको अपने कटे कान दिखा रहे है, लेकिन बाप-बेटे की लड़ाई में अपनी टांग अड़ाए कौन? इस मामले में जिसकी भी टांग टूटी है या टूटेगी, उन्होंने जरूर पिता-पुत्र के पचड़े में अपनी टांग फंसाई होगी।
आप इतिहास उठाकर देख लें। जिस बेटे ने अपने बाप-दादाओं के कान काटे, उसी का नाम इतिहास में दर्ज हुआ है। इतिहास में नाम दर्ज कराने की पहली शर्त यही है कि वह अपने बाप से चार जूता आगे निकले। भला बताइए, अगर आप लोहिया के सिद्धांतों को धता बता सकते हैं। उनके सिद्धांतों के नाम पर सात-आठ चेले-चपाटों के साथ पार्टी खड़ी कर सकते हैं। फिर चेले-चपाटों को ठेंगा दिखाकर उस पार्टी के भी टुकड़े करा सकते हैं, तो अब बुढ़ौती में आपकी पार्टी और आपके साथ भी तो वही इतिहास दोहराया जा सकता है। अब काहे को दैया-दैया कर रहे हो, चच्चा! दई (विधाता) दई सो कुबूल। वैसे तो यह ध्रुव सत्य है कि आज जो बाप है, कभी वह बेटा था। जो आज बेटा है, वह कभी न कभी बाप बनेगा। बाप-बेटे की यह उठापटक सनातनी है। जिस बेटे ने बाप को गच्चा दिया, तो समझो, दुनिया को गच्चा देने में प्रवीण हो गया। अगर बुढ़ापे में अपने ही बेटे से गच्चा खा गया, तो दुनिया को दिखाने को भले चीखता-चिल्लाता हो, लेकिन भीतर ही भीतर वह खुश होता रहता है-वाह बेटा! इस पुरातन गच्चावादी परंपरा को कितनी खूबसूरती से आगे बढ़ाया है।
अगर आप चाहते हैं कि आपका बेटा बुढ़ापे में आपको गच्चा न दे, आपके और आपके बेटे के बीच जूते में दाल न बंटे, तो यह बात अच्छी तरह गांठ बांध लें कि बेटा किसी भी हालत में आपके जूते में पांव डालने ही न पाए। बचपन में ही जब वह आपके जूते में पांव डालने की कोशिश करे, तो उसे बरज दें, मना कर दें। यदि आपने ऐसा नहीं किया, तो जिस दिन आपके जूते में बेटे का पैर फिट हुआ, उसी दिन से समझ लीजिए कि अब आप बाप-बेटे के बीच जूते में दाल बंटने के दिन आ गए हैं। जूतमपैजार अवश्यंभावी है। इसे टाला नहीं जा सकता है। अब अगर समाजवादी बाप-बेटे में जूतमपैजार हो रही है, तो किम आश्चर्यम!
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