अशोक मिश्र
इसे संयोग कहिए या दुर्योग, जनकवि ‘रसिक’ जी की मुलाकात प्रख्यात आलोचक ‘कवि दहल’ से हो ही गई। दोनों यथा नामे, तथा गुणे। एक की कविता में सिर्फ रस की ही उत्पत्ति होती है, तो दूसरे की आलोचना से कवि दहल जाया करते हैं। कुछ ही दिन पहले कविदहल जी जनकवि रसिक जी को अपनी आलोचना से दहला चुके थे। तब से रसिक जी पगलाए सांड की तरह पूरे शहर में कविदहल को ढूंढ रहे थे। आखिरकार दोनों की मुलाकात हो ही गई। रसिक जी कवि दहल को देखते ही गुर्राये, ‘कल का छोरा...आलोचक की दुम बना फिरता है। क्या लिखा था तूने अखबार में, मैं घसकटा छंद लिखता हूं। मेरी कविताओं में किसी भी रस की निष्पत्ति नहीं होती है। चल..माना, मैं घसकटा छंद लिखता हूं, तू एक छंद लिखकर दिखा।’
रसिक जी को साक्षात सामने देखकर कविदहल के पसीने छूट गए। घिघियाए स्वर में बोले, ‘कपड़ा अच्छा सिला या बुरा, इसको परखने के लिए दर्जी होना कोई जरूरी थोड़े न है।’ कविदहल ने तर्क पेश किया। रसिक जी ने मुंह खोलकर थूक की बौछार की, ‘मेरी कविता की इस पंक्ति में तुझे क्या खामी नजर आती है-‘प्रिये! तुम्हारे विरह में दुख गड़ता है।’ अपनी आलोचना में क्या लिखा था तूने-दुख न हो गया खूंटा हो गया, जो बेध्यानी से आते-जाते पांव में गड़ता है। अबे..तुझे विरह का दुख गड़ता है या नहीं, मुझे नहीं मालूम, लेकिन मुझे तो गड़ता है। क्या कर लेगा तू। चालीस साल से जनकवि हूं, आज तक किसी की िहम्मत नहीं हुई अंगुली उठाने की। तू अब मेरी कविताओं की व्याख्या करेगा? तू जानता है, एक-एक पंक्तियों का सृजन करने के लिए किस-किस पीड़ा के दौर से गुजरना पड़ता है। किस-किस से प्रेरणा लेनी पड़ती है। कभी बीवी से प्रेरणा लेनी पड़ती है, तो कभी प्रेमिकाओं की शरण में जाना पड़ता है। कभी साली-सलहज ही प्रेरक हो जाती हैं। इधर-उधर तांकना-झांकना पड़ता है, तब कहीं चार पंक्ति की कविता में रसोत्पत्ति होती है। और तू है कि पल भर में सारे किए धरे पर पानी फेर देता है आलोचना के नाम पर। तू आलोचक है या कसाई। तुझे तनिक भी दया नहीं आती..कविता की निर्मम शवपरीक्षा करते हुए।’
कविदहल ने माथे का पसीना पोंछते हुए कहा, ‘रसिक जी..पिछले चालीस साल से तीन कविताएं लिए कवि सम्मेलनों से लेकर अखबार और पत्र-पत्रिकाओं के दफ्तर में दनदनाते हुए घूम रहे हैं। जहां देखो वहीं, या तो विरह में दुख आपके गड़ने लगता है या फिर ‘डमड डमड डिमिड डिमिड’ करके शंकर जी की बारात गाने लगते हैं। कुछ नया कीजिए। अब तो कविता को अपने चंगुल से मुक्त कर दीजिए।’ इतना कहकर युवा आलोचक कविदहल किसी दूसरे कवि की तलाश में चलता बना।
इसे संयोग कहिए या दुर्योग, जनकवि ‘रसिक’ जी की मुलाकात प्रख्यात आलोचक ‘कवि दहल’ से हो ही गई। दोनों यथा नामे, तथा गुणे। एक की कविता में सिर्फ रस की ही उत्पत्ति होती है, तो दूसरे की आलोचना से कवि दहल जाया करते हैं। कुछ ही दिन पहले कविदहल जी जनकवि रसिक जी को अपनी आलोचना से दहला चुके थे। तब से रसिक जी पगलाए सांड की तरह पूरे शहर में कविदहल को ढूंढ रहे थे। आखिरकार दोनों की मुलाकात हो ही गई। रसिक जी कवि दहल को देखते ही गुर्राये, ‘कल का छोरा...आलोचक की दुम बना फिरता है। क्या लिखा था तूने अखबार में, मैं घसकटा छंद लिखता हूं। मेरी कविताओं में किसी भी रस की निष्पत्ति नहीं होती है। चल..माना, मैं घसकटा छंद लिखता हूं, तू एक छंद लिखकर दिखा।’
रसिक जी को साक्षात सामने देखकर कविदहल के पसीने छूट गए। घिघियाए स्वर में बोले, ‘कपड़ा अच्छा सिला या बुरा, इसको परखने के लिए दर्जी होना कोई जरूरी थोड़े न है।’ कविदहल ने तर्क पेश किया। रसिक जी ने मुंह खोलकर थूक की बौछार की, ‘मेरी कविता की इस पंक्ति में तुझे क्या खामी नजर आती है-‘प्रिये! तुम्हारे विरह में दुख गड़ता है।’ अपनी आलोचना में क्या लिखा था तूने-दुख न हो गया खूंटा हो गया, जो बेध्यानी से आते-जाते पांव में गड़ता है। अबे..तुझे विरह का दुख गड़ता है या नहीं, मुझे नहीं मालूम, लेकिन मुझे तो गड़ता है। क्या कर लेगा तू। चालीस साल से जनकवि हूं, आज तक किसी की िहम्मत नहीं हुई अंगुली उठाने की। तू अब मेरी कविताओं की व्याख्या करेगा? तू जानता है, एक-एक पंक्तियों का सृजन करने के लिए किस-किस पीड़ा के दौर से गुजरना पड़ता है। किस-किस से प्रेरणा लेनी पड़ती है। कभी बीवी से प्रेरणा लेनी पड़ती है, तो कभी प्रेमिकाओं की शरण में जाना पड़ता है। कभी साली-सलहज ही प्रेरक हो जाती हैं। इधर-उधर तांकना-झांकना पड़ता है, तब कहीं चार पंक्ति की कविता में रसोत्पत्ति होती है। और तू है कि पल भर में सारे किए धरे पर पानी फेर देता है आलोचना के नाम पर। तू आलोचक है या कसाई। तुझे तनिक भी दया नहीं आती..कविता की निर्मम शवपरीक्षा करते हुए।’
कविदहल ने माथे का पसीना पोंछते हुए कहा, ‘रसिक जी..पिछले चालीस साल से तीन कविताएं लिए कवि सम्मेलनों से लेकर अखबार और पत्र-पत्रिकाओं के दफ्तर में दनदनाते हुए घूम रहे हैं। जहां देखो वहीं, या तो विरह में दुख आपके गड़ने लगता है या फिर ‘डमड डमड डिमिड डिमिड’ करके शंकर जी की बारात गाने लगते हैं। कुछ नया कीजिए। अब तो कविता को अपने चंगुल से मुक्त कर दीजिए।’ इतना कहकर युवा आलोचक कविदहल किसी दूसरे कवि की तलाश में चलता बना।
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