-अशोक मिश्र
थे तो वे दोनों गधे ही। उनकी मुलाकात अचानक हुई थी। अचानक हुई मुलाकात थोड़ी देर बाद मित्रता में बदल गई। बात यह थी कि मोहरीपुर के पास स्थित कालोनी के पार्क का खुला गेट देखकर एक गधा घुसा और जल्दी-जल्दी चरने लगा। थोड़ी देर बाद पता नहीं कहां से दूसरा गधा भी आ पहुंचा। पहले वाला गधा बाद में आने वाले गधे को देखकर भड़क उठा। उसने दुलत्ती झाड़ते हुए ‘ढेंचू-ढेंचू’ का गर्दभ राग अलापा और गुर्राया, ‘अबे..तुझे कोई दूसरा पार्क या खेत नहीं मिला था चरने के लिए? इतना बड़ा देश पड़ा है चरने के लिए, तू वहीं क्यों आ गया जहां पहले से मैं चर रहा था।’
बाद में आने वाले गधे ने लपकर एक खूबसूरत फूल के पौधे को दांतों से पकड़कर उखाड़ा और चबाते हुए बोला, ‘सचमुच..इन्सान अगर हिकारत से हमें ‘गधा’ कहते हैं, तो कोई गलत नहीं कहते। हम गधे हैं, गधे थे और भविष्य में भी गधे ही रहेंगे। इतने बड़े पार्क में अगर एक दिन मैंने चर लिया, तो कहां का पहाड़ टूट पड़ा। इंसानों को देखो। वे जब देश, प्रदेश, जिला या तहसील को चारागाह समझकर चरते हैं, तो आपस में मिल बांटकर चरते हैं। ‘थोड़ा तू चर, थोड़ा मैं चरता हूं’ वाले सिद्धांत पर बड़ी ईमानदारी से अमल करते हैं। एक हम हैं कि मुट्ठी भर घास के लिए आपस में दुलत्ती झाड़ रहे हैं। लानत है हम गधों पर इस प्रवृत्ति पर।’
पहले वाला गधा उसका गर्दभ राग सुनकर थोड़ा शर्मिंदा हुआ और पहले की अपेक्षा थोड़ा नर्म आवाज में बोला, ‘ठीक है..ठीक है..बहुत ज्यादा भाव मत खा। आज पेटभर चर ले और निकल ले।’ पहले वाले गधे का पेट थोड़ा बहुत पहले से ही भरा हुआ था, वह पार्क में लगे पेड़-पौधों को चुन-चुनकर चर रहा था, जबकि बाद वाला गधे को शायद कई दिनों से घास नहीं मिली थी। वह बिना कुछ सोचे-बिचारे बस चरता जा रहा था। जब थोड़ा पेट भर गया, तो उसने मुंह उठाया और पहले वाले गधे के पास जाकर बोला,‘भाई! यह बताओ, आज पार्क का रखवाला यानी माली नहीं दिखाई दे रहा है? कालोनी में भी चहल-पहल नहीं दिखाई दे रही है। मामला क्या है?’
‘यह सब किसी नोटबंदी का कमाल है। सुना है कि इस देश के प्रधानमंत्री ने नोटबंदी लागू की है। तब से सारे लोग परेशान हैं। अमीर भी, गरीब भी। चोर भी, उचक्के भी। सज्जन भी, दुर्जन भी। बेईमान भी, शाह भी। जो भ्रष्टाचारी हैं, बेईमान हैं, वे अपने नोट को तीरे-थाहे (सुरक्षित करने) लगाने में लगे हैं। जो ईमानदार हैं, वे सुबह से लेकर शाम तक लाइन में लगे हुए हैं। जितने दिन यह कतारबंदी चलेगी, उतने दिन तक समझो, हम गधों की मौज है।’ इतना कहकर पहले वाला गधा चरने लगा। पहले गधे को चरता देखकर दूसरा भी चरने लगा।
थे तो वे दोनों गधे ही। उनकी मुलाकात अचानक हुई थी। अचानक हुई मुलाकात थोड़ी देर बाद मित्रता में बदल गई। बात यह थी कि मोहरीपुर के पास स्थित कालोनी के पार्क का खुला गेट देखकर एक गधा घुसा और जल्दी-जल्दी चरने लगा। थोड़ी देर बाद पता नहीं कहां से दूसरा गधा भी आ पहुंचा। पहले वाला गधा बाद में आने वाले गधे को देखकर भड़क उठा। उसने दुलत्ती झाड़ते हुए ‘ढेंचू-ढेंचू’ का गर्दभ राग अलापा और गुर्राया, ‘अबे..तुझे कोई दूसरा पार्क या खेत नहीं मिला था चरने के लिए? इतना बड़ा देश पड़ा है चरने के लिए, तू वहीं क्यों आ गया जहां पहले से मैं चर रहा था।’
बाद में आने वाले गधे ने लपकर एक खूबसूरत फूल के पौधे को दांतों से पकड़कर उखाड़ा और चबाते हुए बोला, ‘सचमुच..इन्सान अगर हिकारत से हमें ‘गधा’ कहते हैं, तो कोई गलत नहीं कहते। हम गधे हैं, गधे थे और भविष्य में भी गधे ही रहेंगे। इतने बड़े पार्क में अगर एक दिन मैंने चर लिया, तो कहां का पहाड़ टूट पड़ा। इंसानों को देखो। वे जब देश, प्रदेश, जिला या तहसील को चारागाह समझकर चरते हैं, तो आपस में मिल बांटकर चरते हैं। ‘थोड़ा तू चर, थोड़ा मैं चरता हूं’ वाले सिद्धांत पर बड़ी ईमानदारी से अमल करते हैं। एक हम हैं कि मुट्ठी भर घास के लिए आपस में दुलत्ती झाड़ रहे हैं। लानत है हम गधों पर इस प्रवृत्ति पर।’
पहले वाला गधा उसका गर्दभ राग सुनकर थोड़ा शर्मिंदा हुआ और पहले की अपेक्षा थोड़ा नर्म आवाज में बोला, ‘ठीक है..ठीक है..बहुत ज्यादा भाव मत खा। आज पेटभर चर ले और निकल ले।’ पहले वाले गधे का पेट थोड़ा बहुत पहले से ही भरा हुआ था, वह पार्क में लगे पेड़-पौधों को चुन-चुनकर चर रहा था, जबकि बाद वाला गधे को शायद कई दिनों से घास नहीं मिली थी। वह बिना कुछ सोचे-बिचारे बस चरता जा रहा था। जब थोड़ा पेट भर गया, तो उसने मुंह उठाया और पहले वाले गधे के पास जाकर बोला,‘भाई! यह बताओ, आज पार्क का रखवाला यानी माली नहीं दिखाई दे रहा है? कालोनी में भी चहल-पहल नहीं दिखाई दे रही है। मामला क्या है?’
‘यह सब किसी नोटबंदी का कमाल है। सुना है कि इस देश के प्रधानमंत्री ने नोटबंदी लागू की है। तब से सारे लोग परेशान हैं। अमीर भी, गरीब भी। चोर भी, उचक्के भी। सज्जन भी, दुर्जन भी। बेईमान भी, शाह भी। जो भ्रष्टाचारी हैं, बेईमान हैं, वे अपने नोट को तीरे-थाहे (सुरक्षित करने) लगाने में लगे हैं। जो ईमानदार हैं, वे सुबह से लेकर शाम तक लाइन में लगे हुए हैं। जितने दिन यह कतारबंदी चलेगी, उतने दिन तक समझो, हम गधों की मौज है।’ इतना कहकर पहले वाला गधा चरने लगा। पहले गधे को चरता देखकर दूसरा भी चरने लगा।
बढ़िया व्यंग्य है। 'गर्दभ-राग' अति साधारण पद है। इसके बदले कुछ व्यंजनापूर्ण शब्द-प्रयुक्ति से मारक क्षमता बढ़ जाती। कुल मिलकर रचना सफल और सार्थक है।
ReplyDeleteभाई साहब, आभार
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