वे मुझसे श्मशानघाट में मिले। मुझे देखते ही लपक कर मेरे पास आए। बोले, ‘यही वह जगह है जहां आदमी को एहसास होता है कि यह जगत मिथ्या है, भ्रम है। यहां आकर इंसान राग-विराग, ईर्ष्या-द्वेष, निंदा-प्रशंसा आदि मानवीय गुणों-अवगुणों से मुक्ति पा लेता है। राजा-रंक सभी एक समान हो जाते हैं। या यों कहिए कि श्मशान घाट में सच्चा समाजवाद स्थापित हो जाता है। मैं तो जब भी श्मशान घाट में जाता हूं, तो अपने को सांसारिक मोह-माया से मुक्त पाता हूं। कोई कामना, कोई इच्छा बाकी नहीं रह जाती है। जैसे कि अब हूं। ऐसा लगता है कि यहां आने के बाद ज्ञान चक्षु खुल जाते हैं और परम ब्रह्म के दर्शन हो जाते हैं।’
मैंने पास में अंतिम संस्कार के लिए तैयार किए जा रहे एक शव की ओर इशारा करते हुए कहा, ‘आपके रिश्तेदार थे?’ वे अंतरिक्ष की ओर निहारते हुए निर्लिप्त भाव से बोले, ‘हां..बहुत अच्छे थे, लेकिन परम दर्जे के स्वार्थी भी थे। पैसे के आगे इन्होंने जीवन भर मां को मां नहीं समझा,
बीवी को बीवी, बेटी-बेटों को बेटी-बेटा नहीं समझा। बस, जैसे एक ही धुन सवार थी, पैसा कमाना है, सभी सुखों को तिलांजलि देकर बस पैसा कमाते गए। इतना कमाया कि हमारे सभी रिश्तेदारों में सबसे अमीर हो गए।’
मैंने उत्सुक भाव से पूछा, ‘इनकी मौत कैसे हुई? बीमार थे?’ ‘नहीं भाई..हार्ट अटैक से मर गए। जब से नोटबंदी हुई है, तब से काफी बेचैन थे। डॉक्टर ने काफी प्रयास किया कि वे बेचैन न रहें, लेकिन जैसे-जैसे दिन बीतते जा रहे थे, उनकी बेचैनी बढ़ती जा रही थी। कल रात बेचैनी इतनी बढ़ी थी कि इन्हें हार्ट अटैक पड़ा। कोई कुछ कर पाता कि उससे पहले थोड़ी ही देर में टें बोल गया ससुर का नाती...हरामखोर..बेहूदा।’
मैंने विस्मय से उन्हें देखा। थोड़ी देर पहले श्मशान घाट में राग-विराग से मुक्त होने और परम ब्रह्म का दर्शन कर लेने का दावा करने वाला व्यक्ति अपने दिवंगत रिश्तेदार के लिए ऐसी भाषा का इस्तेमाल कर रहा था। हालांकि, भारतीय संस्कृति में बुरे आदमी को भी अच्छा बताने की परंपरा रही है।
मैं कुछ बोलता, उससे पहले वे बोल उठे, ‘चार करोड़ रुपये पड़े के पड़े रह गए..साथ कुछ नहीं गया..दो हाथ का यह कफन भी अभी जल कर खाक हो जाए। एक हफ्ते पहले मैंने इस ससुरे से कहा था, तुम्हारे पास इतना पैसा है, पांच-दस लाख रुपये मुझे दे दो, मैं इसे ठिकाने लगा लूंगा। अपने एक दूसरे रिश्तेदार का मामला सुलटा कर चार लाख रुपये कमा चुका हूं। मैंने सोचा था, इससे भी पांच-दस लाख रुपये कमा लूंगा, लेकिन ससुरे ने जान दे दी, रोकड़ा नहीं दिया।’ इतना कहकर उन्होंने जमीन पर थूक दिया, मानो उन्होंने रिश्तेदार के मुंह पर थूक दिया हो। इतना कहकर वे मुड़े और शव के पास चले गए। मैं सन्न खड़ा उन्हें देखता रहा।
मैंने पास में अंतिम संस्कार के लिए तैयार किए जा रहे एक शव की ओर इशारा करते हुए कहा, ‘आपके रिश्तेदार थे?’ वे अंतरिक्ष की ओर निहारते हुए निर्लिप्त भाव से बोले, ‘हां..बहुत अच्छे थे, लेकिन परम दर्जे के स्वार्थी भी थे। पैसे के आगे इन्होंने जीवन भर मां को मां नहीं समझा,
बीवी को बीवी, बेटी-बेटों को बेटी-बेटा नहीं समझा। बस, जैसे एक ही धुन सवार थी, पैसा कमाना है, सभी सुखों को तिलांजलि देकर बस पैसा कमाते गए। इतना कमाया कि हमारे सभी रिश्तेदारों में सबसे अमीर हो गए।’
मैंने उत्सुक भाव से पूछा, ‘इनकी मौत कैसे हुई? बीमार थे?’ ‘नहीं भाई..हार्ट अटैक से मर गए। जब से नोटबंदी हुई है, तब से काफी बेचैन थे। डॉक्टर ने काफी प्रयास किया कि वे बेचैन न रहें, लेकिन जैसे-जैसे दिन बीतते जा रहे थे, उनकी बेचैनी बढ़ती जा रही थी। कल रात बेचैनी इतनी बढ़ी थी कि इन्हें हार्ट अटैक पड़ा। कोई कुछ कर पाता कि उससे पहले थोड़ी ही देर में टें बोल गया ससुर का नाती...हरामखोर..बेहूदा।’
मैंने विस्मय से उन्हें देखा। थोड़ी देर पहले श्मशान घाट में राग-विराग से मुक्त होने और परम ब्रह्म का दर्शन कर लेने का दावा करने वाला व्यक्ति अपने दिवंगत रिश्तेदार के लिए ऐसी भाषा का इस्तेमाल कर रहा था। हालांकि, भारतीय संस्कृति में बुरे आदमी को भी अच्छा बताने की परंपरा रही है।
मैं कुछ बोलता, उससे पहले वे बोल उठे, ‘चार करोड़ रुपये पड़े के पड़े रह गए..साथ कुछ नहीं गया..दो हाथ का यह कफन भी अभी जल कर खाक हो जाए। एक हफ्ते पहले मैंने इस ससुरे से कहा था, तुम्हारे पास इतना पैसा है, पांच-दस लाख रुपये मुझे दे दो, मैं इसे ठिकाने लगा लूंगा। अपने एक दूसरे रिश्तेदार का मामला सुलटा कर चार लाख रुपये कमा चुका हूं। मैंने सोचा था, इससे भी पांच-दस लाख रुपये कमा लूंगा, लेकिन ससुरे ने जान दे दी, रोकड़ा नहीं दिया।’ इतना कहकर उन्होंने जमीन पर थूक दिया, मानो उन्होंने रिश्तेदार के मुंह पर थूक दिया हो। इतना कहकर वे मुड़े और शव के पास चले गए। मैं सन्न खड़ा उन्हें देखता रहा।
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