Sunday, March 15, 2015

जंग जारी है

-अशोक मिश्र
मैं चाहता हूं
तुम्हारे रक्तिम अधर
चूम लूं,
हरी भरी वादियों में/ सुनहरी प्रात: की वेला में
या फिर दूधिया चांदनी के आंचल तले
जीवन भर न सही
एक पल ही सही
तुम्हारे साथ घूम लूं।
किंतु/ मैं ऐसा चाहकर भी
नहीं कर सकता क्योंकि
मुझे बार-बार याद आता है
उस दुधमुंहे बच्चे का
बिलख-बिलख कर रोना
जो अपनी मां के शव के पास
खड़ा/महज इसलिए रो रहा था
कि उसकी मां
बिना स्तनपान कराए ही/चल बसी थी
बच्चा/ शायद यह भी नहीं जानता था
कि समाज के ठेकेदारों की हवस की भेंट
न जाने कितनी बार/शायद बार-बार
हजार बार चढ़ी थी।
मुझे आज भी याद है/वो बच्चा
जो एक बूंद दूध के लिए
बार-बार अपनी मां के स्तन को
झिंझोड़ता था/ और फिर
स्तन में मुंह लगाकर
सो गया हमेशा के लिए।
प्रिये! सच कहता हूं
यह मेरी चिर अभिलाषा है
कि तुम्हारे कुंतलों की मदहोश कर देने वाली
छांव तले जीवन का एक-एक पल
गुजार दूं
तुम्हारी अनसुलझी अलकें बार-बार
सुलझाऊं और फिर उन्हें
यथावत..... उलझाऊं।
तुम्हारी वलयाकृत लटों में
उलझकर
संपूर्ण जीवन...हां...हां संपूर्ण जीवन
वार दूं
'परंतु....किंतु...और...' में उलझा
मैं
ऐसा नहीं कर सकता/क्योंकि
जिंदगी सिर्फ यही है
ऐसा भी तो नहीं कह सकता
आदि और अंतहीन
कहीं सरल तो कहीं सर्पिलाकार
सड़क जैसी दिखती है जिंदगी
हां/यह भी तो सच है
कि हजारों हजार बार
राहों, तिराहों और चौराहों...
अनगिनत राहों में
जाने-अनजाने/बंट जाती है आदमी की जिंदगी
शायद तुमने भी
जिंदगी के बार-बार बंटने की
पीड़ा कभी हंसकर, तो कभी रोकर
या बस यूं ही आदतन/भोगी है
कहीं ऐसा तो नहीं
इसीलिए तुम्हारा अंतरमन
बार-बार भीगा है।
हां...यह सच है कि मैं
अपने जीवन में आने वाले/राहों, तिराहों और चौराहों को
बड़े प्यार से दुलराता हूं/सहलाता हूं
और इसके बाद
इन्हीं कांपते हाथों से
प्रत्येक राहों, तिराहों और चौराहों पर
मील का सुंदरतम पत्थर लगाता हूं।
सच कहता हूं प्रिये!
जीवन के ये अनगिनत/मील के पत्थर
हिमालय की तरह मेरे सीने पर
बोझ सरीखे रखे हैं
ये वो अनपढ़े शिलालेख हैं
जिन्हें मैंने
जीवन प्रस्तर पर अनुभव की हथौड़ी/और संघर्ष की छेनी से
काल के घात-प्रतिघात/सहकर भी
अनवरत गढ़ा है।


सच कहता हूं प्रिये!
जब प्रात: काल प्राची में सूर्य
लाल बुश्शर्ट पहने/किसी शरारती बालक की तरह
चुपके-चुपके झांकता है
न जाने क्यों/तब मुझे
छत की मुंडेर से झांकता
तुम्हारा चेहरा याद आता है
और तब
मैं चाहता हूं/सूरज का मुंह लपक कर चूम लूं
परंतु सीने पर रखे मील के ये पत्थर
मुझे मजबूर कर देते हैं
मेरी अभिलाषाओं को
अभीप्सित कामनाओं के बढ़ते रथ को
पल भर में ही चूर चूर कर देते हैं।
किंतु मैं अभी हारा नहीं हूं
एक-न-एक दिन
मैं...हां...हां...मैं
सूरज का मुंह चूम कर रहूंगा
हारा तो मैं तब भी नहीं था/जब
मैं नंगा था/भूखा था
जानती हो/चौपाया से दोपाया बनने के प्रयास में
कितना बार गिरा था...!!!
या क्षुधाग्नि को शांत करने हेतु
जानी-अनजानी विपदाओं से
कितनी बार घिरा था....!!!
भूख से बिलबिलाते बच्चों को
बहलाने के लिए विवश होकर/मैंने ही तो
दो पाषाण खंडों को लड़ाया था
जिससे उत्पन्न आग में
जल मरे/बंधु-बांधवों, पुत्र, पुत्री व पत्नी
जंगली हिंस्र पशुओं के भुने मांस को
अपनी क्षुधाग्नि बुझाने के लिए/खाया था
तुम क्या समझती हो...
तब मैं हार गया था?
किंतु यह तुम्हारा भ्रम है
यही तो मेरी हार और जीत का/अनवरत क्रम है
और तब से मेरी यह लड़ाई जारी है
मैं तब भी नहीं हारा था जब
चंद मु_ी भर लोग शोषण पर आधारित
बिकाऊमाल की अर्थव्यवस्था को जन्म देकर
मेरे मालिक बन गए थे
और मुझे/मेरे तथाकथित मालिकों ने
दास, भूदास और न जाने कितने नामों से पुकारा था
मेरी नवविवाहिता पत्नी के साथ
बार-बार, हजार बार बलात्कार करने के बाद
उन्होंने मुझे ही धिक्कारा था
मैं तब भी लड़ रहा था/जब मुझे
मेरी ही श्रमशक्ति से उत्पादित माल के
अधिकार से कर दिया गया था वंचित
या फिर/जब मैं स्वयं बिकाऊ माल बन गया था
हाथों और पांवों में
हथकड़ी-बेड़ी डालकर/हाटों में, बाजारों में
बिकाऊ माल की तरह सजा दिया गया था
मेरा क्रेता
मुझे ही नहीं/मेरी आत्मा तक खरीद लेता था।
सच कहता हूं प्रिये!
मैं कितनी बार बिका हूं/शायद तुम गिन नहीं पाओगी
अगणित जन्म लेने के बाद भी
गिनते-गिनते थक जाओगी
किंतु/तुम्हें मेरी कसम है
यह मत कहना कि मैं हार गया था
मैं तब भी लड़ रहा था जब
मेरे श्रमशक्ति के खरीदारों ने
पांवों में बेडिय़ां डालकर/हाथों में हथौड़ी और छेनी पकड़ा दी थी
और मैं दीवानों की तरह
प्रस्तर खंडों से जूझता रहा स्वाधीनता की चाह में
विश्वास नहीं होता....न!
जरा एक बार जा कर
अजंता और एलोरा की गुफाओं में देखो
चप्पे-चप्पे पर मेरे संघर्ष की कहानी लिखी है।


सच कहता हूं प्रिये!
राजा जनक की भरी सभा में
याज्ञ्यवल्क्य की अमानवीय धार्मिक व्याखा का
विरोध करने के लिए/मैं भी उपस्थित था
पाखंडी याज्ञ्यवल्क्य द्वारा डपटी गई गार्गी को
सांत्वना देने के लिए मेरे ही हाथ आगे बढ़े थे
'गार्गी, यदि तूने अगला प्रश्र किया
तो क्षण भर में तेरा मस्तक भूलुंठित हो जाएगाÓ
कहते हुए पाखंड और शक्ति के बल पर
मेरे ही सामने गायें याज्ञ्यवल्क्य के लठैत हांक ले गए थे
धन्य था धर्माधिकारी! योगिराज जनक!!
जो विद्रूपतापूर्वक उन्मुक्त अ_ाहास करके
हंसा था न्याय पर अन्याय की विजय देखकर
यद्यपि मैं
गार्गी को नहीं दिला सका था न्याय
किंतु मैं ही अकेले बैठ
रोया था फूट-फूट कर
बल और शक्तिहीन होते हुए भी
मैं निराश नहीं था/जानती हो क्यों...?
क्योंकि मैं
अजानबाहु था, रक्तबीज की तरह मैं
विशाल आकार कर रहा था ग्रहण
देखना चाहती हो...!
विश्व के जर्रे-जर्रे में मेरे खून-पसीने की
देख सकती हो लालिमा
यह सुंदरतम दुनिया मेरे ही श्रम का
प्रतिफल है प्रिये!
मेरे रुधिर से अगणित बार
स्नान करने वाली असि की मूठ देखो
उस पर की गई चित्रकारी/मैंने ही तो की है
मेरे मालिक
पाषाणों के साथ-साथ तीर, तलवार, भाला, कृपाण पर भी
उत्साहित करते रहे चित्रकारी हेतु
और मैं
बड़ी लगन से अपने संहारक यंत्रों को
बनाता रहा
इसीलिए तो बार-बार
वक्ष पर घाव पाता रहा
तब भी तो मैं संघर्ष के पथ से रंचमात्र/विचलित नहीं हुआ
मानवजाति का इतिहास मेरे
संघर्षों की गाथाओं से भरा पड़ा है
इनके अनखुले पृष्ठों को सावधानी से
पलटो, तभी जान पाओगी कि
मानव मानव से कितनी बार/लड़ा है...
संपूर्ण विश्व का मित्र...विश्वामित्र
मैं ही तो था
जिसने शोषित पीडि़त मानवता के लिए
शोषक शासक के स्वर्ग से बेहतर स्वर्ग के
निर्माण हेतु सतत् प्रयास किया था
मेरे प्रतिद्वंद्वियों ने कितनी निर्ममता से
किया था धूल-धूसरित/मेरा स्वर्ग
यह आज भी मुझे याद है
मुझे जीवित जलना पड़ा था चिता में
क्यों....? क्योंकि
मैं संपूर्ण विश्व में ज्ञान का आलोक/फैलाना चाहता था
मानवता को अज्ञानता और मूढ़ता के महाकूप से निकाल कर
नई दुनिया, नए सत्य और मानवीय संवेदनाओं से
कराना चाहता था परिचित
हां...!! यदि मैं अपने लक्ष्य तक/पहुंच गया होता
तो....
तरह-तरह के दर्शन औ सिद्धांतों
तरह-तरह के वादों और मत-मतांतरों से सजी
धर्म की दुकानों को
किसी खंडहर के मलबे की तरह
खुद हटा देता शोषित पीडि़़त जनमानस
और तब/जर्जर खंडहर सरीखे तन वालों के
कंपित करों में होती शमशीरें
रक्त पिपासुओं से मांगते अपने एक-एक कतरा खून का
हिसाब
नि:शस्त्र मानव अपनी फौलादी छातियों से
खूनी भेडिय़ों के दांतों की नोक/धारहीन कर देते
सदियों से होते आए
अत्याचार का बदला ले ही लेते
किंतु अफसोस!
मुझे ही जीवित जलना पड़ा...
क्योंकि सदियों से कल्पित भगवान को
यथार्थ की कसौटी पर कसना चाहा था मैंने
पाषाण की उस प्रतिमा से
जिसे तुम भगवान कहती हो...
अपने एक-एक बूंद का हिसाब मांगा था मैंने
आह..! इससे पहले कि
कपोल कल्पित भगवान को
परमाणु और अणु की कसौटी पर कसता
उसे कल्पित और मिथ्या साबित करता
उससे पहले/मुझे आग में झोंक दिया गया।
सच कहता हूं प्रिये!
आग में जलने के बावजूद मैं
हारा नहीं था, निराश नहीं था
मैं अंतिम सांस तक कहता रहा
परमाणु...! परमाणु....!! प...र..मा..णु!!! प..
हां/तुमने ठीक पहचाना
मैं वही कणादि ऋषि हूं।




जब कभी
गुलाब की कोमल पंखुडिय़ों पर ओस बिंदु
हीरे-मोती की तरह/बिखरी दिखाई देती है
जी चाहता है इन हीरे-मोतियों को
चूम लूं/किंतु
डरता हूं कहीं एक अहिल्या धरा पर/एक बार फिर
मुक्ति की आस लिए पाषाण न बन जाए
आज भी याद है मुझे
अहिल्या की प्रश्न करती मूक आंखें
पूछती थीं मुझसे बार-बार/एक सौ/हजार बार
'तुम्हीं बता दो, मेरा दोष क्या था?
गौतम जैसे तत्वज्ञानी और विज्ञानी
मुझे पाषाण होने का अभिशाप देते समय
स्वयं पाषाण न था...?
उनका पौरुष कहर बन कर/टूटा था
मेरे कोमल और पवित्र तन पर
मैं पूछती हूं/है तुम्हारे पास इसका कोई उत्तर
आततायी और विलासी, कपटी-दुराचारी
देवराज इंद्र को
दंडित करने के लिए क्यों नहीं उठे थे हाथ...?Ó
सच कहता हूं सखे!
शायद मैं पहली बार हुआ था निरुत्तर
जंग तब भी जारी था
हां, इस बार प्रतिद्वंद्वियों से नहीं
लड़ रहा था मैं अपने आप से
कुछ कांच स²श बिखर गए विश्वास से
और कुछ अभागिन अहिल्या के संताप से
राम भी तो/ अपने संपूर्ण 'रामत्वÓ का उपयोग करने के बाद
पतित और पापाचारी नृपति शिरोमणि देवराज इंद्र को
न तो दंडित कर पाए/और न ही
अहिल्या को उसका गौतम दिला पाए
धन्य हो महाप्रभु! विष्णु अवतार!!
यह केवल मैंने समझा था
तुम्हारी लीला है अपरंपार
एक आर्य का दूसरे आर्य के प्रति विद्रोह
एक शासक का दूसरे शासक के प्रति क्रोध
एक शोषक का दूसरे शोषक के प्रति रोष
भला कैसे संभव था
वह भी महज एक नारी के लिए
नहीं...नहीं...कदापि नहीं...
सच कहता हूं प्रिये!
सूपर्णखा के नासिका-कर्ण विच्छेदन पर
वैदेही हरण/ और अग्नि परीक्षा के बाद
मर्यादा पुरुषोत्तम द्वारा वैदेही निष्कासन पर
केवल और केवल मैंने
राम और रावण का प्रबलतम विरोध किया था
²ष्टिहीन धृतराष्ट्र की भरी सभा में बलात्
लाई गई द्रुपदसुता के चीर हरण का
विरोध मैंने ही किया था/क्योंकि मैं
विकर्ण के रूप में वहीं उपस्थित था
इतना ही नहीं/सूत पुत्र कर्ण मैं ही था
शायद तुम्हें ज्ञात हो?
सूत पुत्र होने के कारण नहीं पा सका था धुनर्शिक्षा
राजकुमारों के गुरु होने के कारण ही तो
द्रोण/मुझे हेय ²ष्टि से देखते थे
भरी सभा में 'सूत पुत्रÓ कह कर उपहास करने का
साहस पांचाली/ महज इसलिए कर सकी थी
क्योंकि मैं था
राजसी ठाठ-बाट से अपरिचित  गरीब की आंखों का तारा
'सूत पुत्रÓ कह कर उपहास करने वाली महारानी
शायद भूल गई थी कि
उसके स्वर्ण जडि़त सिंहासन
गगनचुंबी प्रासादों को मैंने ही अपने लोहित
औÓ स्वेद बिंदुओं से सींचा है
अपने पांच पतियों की वीरता पर अभिमान करने वाली
महारानी को शायद याद नहीं कि
विजय अभियान पर निकलने वाले उसके पति
मेरी पीठ पर पांव रख कर ही
अश्वों पर चढ़ सके थे/अन्यथा
अश्वों की वल्गा थामना तो दूर
राजसी ठाठ-बाट में पले सुकोमल गात को
अश्व पगों से इतनी बार/रौंदा गया होता कि
शायद उनके शवों को
पहचानने से कुंती और माद्री इनकार कर देतीं
समरांगण में/उनके पक्ष औÓ विपक्ष दोनों में
मैं ही तो हुआ था लहूलुहान
गिद्धों, चीलों, सियारों और भेडिय़ों को
मैं ही देने गया था न्यौता
मैंने ही अपने कटे फटे/इधर उधर बिखरे अंगों को
समेट पहुंचाया था श्मशान
मुझे आज भी याद है कि
मैंने पुन: एक बार सौगंध खाई थी
यह युद्ध फिलहाल चलता रहेगा।




सच कहता हूं प्रिये!
एक चुटकी सिंदूर की/ तुम्हारी
चिर अभिलाषा पूर्ण न कर पाने की पीड़ा
सालती रहती है मेरे अंतरमन को
उस पर तुम्हारी निष्कलंक स्नेहिल मुस्कान
मेरे हृदयतंत्र को
मथने के लिए है पर्याप्त
मेरी इच्छा है कि/तुम्हारा
रोम-रोम शाप दे कर मुझे शापित कर दे
ताकि वक्ष के हिमालय की बर्फ पिघले/और
दो गंगाएं एक साथ बह निकलें
ताकि गुरु द्रोण के मन का कल्मष धुल जाए
शायद पता नहीं, इसी तरह
सेत-मेत में लिया गया मेरा दाहिना अंगूठा
इसी बहाने वापस मिल जाए।
सच कहूं तो शायद तुम्हें रुचि कर न लगे
गुरु द्रोण/इतना गिर सकते हैं मुझे
कदापि विश्वास न था
किंतु मैं करता भी क्या?
भील पुत्र ही सही/मानवीय संवेदनाओं से हीन
मानव से घृणा करने वाला, ऊंच-नीच/अमीर-गरीब के
मध्य  खाई चौड़ी करने वाला तो नहीं था न!
निर्लज्जतापूर्वक मांगने पर
दाहिने हाथ का अंगूठा तो क्या
संपूर्ण दाहिना अंग दे देता/आखिर मानव पुुत्र जो ठहरा
जानती हो! यही गुरु द्रोण
मेरे पग रखने से अपवित्र हुई भूमि पर
थूक बैठे थे/घृणापूर्वक निहारा था पल भर को
'रे अस्पृश्य भील पुत्र
रंगशाला में प्रवेश करते समय
भावी विश्व विजयी महान धनुर्धर अर्जुन के धनुही की
प्रत्यंचा का प्रचंड नाद सुनाई नहीं पड़ा
लगता है भील पुत्र! तू बधिर है?Ó
कितना गर्व था उन्हें
भावी शासक, भावी शोषक के गुरु होने का
लगता था उनके पांव धरती पर नहीं
आसमान पर पड़ रहे थे
गुरु द्रोण...हां..हां..गुरु द्रोण ने ही
मुझसे कहा था कि
मैं एक शासक और एक शासित
एक शोषक और एक शोषित को एक साथ
धनुर्विद्या कैसे सिखा सकता हूं/तू इतना भी
नहीं जानता कि दोनों में द्वंद्वमय प्रवृत्ति के कारण
अनिवार्य है संघर्ष!
मैं चाहता तो
पूछ सकता था आचार्य द्रोण से/कि
आपने द्रुपद का उत्तर/क्यों नहीं स्वीकारा था सहर्ष...?
उस समय तो आप तिलमिला उठे थे श्रीमन!
और कर डाली थी प्रतिज्ञा
द्रुपद का मान खंड-खंड कर देने की
मेरे इस प्रश्र का है  आपके पास कोई उत्तर...?
किंतु मैं मौन साध गया था
तात्पर्य मेरी मौनता का/हार जाना कदापि न था
धनुर्धारी अर्जुन को समरांगण में
मैंने ही तो ललकारा था।
पतले बांस की बनी धनुही की टंकार को/सुनकर ही
अर्जुन का गांडीव कांप उठा था
क्योंकि धनुही पर चढ़ी
प्रत्यंचा डोरी की नहीं/मेरी सूखी आंत से बनी थी
तभी तो मेरी प्रत्यंचा की टंकार
अर्जुन से सौ गुनी थी।
गुरु द्रोण को मेरी शक्ति का आभास था
तभी तो उन्होंने षड्यंत्र रचकर
निर्लज्जतापूर्वक मांगा था मुझसे/दायें हाथ का अंगूठा
उन्हें अर्जुन के गांडीव पर
अपने सर्वाधिक प्रिय शिष्य पर
कदापि विश्वास न था
सच कहता हूं सखे!
द्रोण का यही अविश्वास
मेरी विजय पताका बन फहरती रहेगी युगों तक।


तुम्हारी कसम, एक बार फिर कहता हूं प्रियतमे!
महसूसता हूं तुम्हारे साथ किया गया अन्याय
चौरवृत्ति का प्रबलतम विरोधी होने के बावजूद
तुम्हारी निद्रा भंग हो/इससे पूर्व
मैं पलायन कर गया था स्वर्ण पिंजर से
दरअसल पलायन था राजत्व से
देवत्व, स्वामित्व, धार्मिक असंगतियों और सामाजिक कुप्रथाओं से
सबके सब शोषण के निमित्त मात्र
शोषणविहीन समाज की रचना हेतु
तुमने भी तो सौंपा था मुझे
अपना प्यारा दुलारा राहुल
भिक्षा पात्र में लाल डालते समय/नहीं कांपी थी तुम्हारी देहयष्टि
किंतु मैं जानता हूं
मेरे ओझल होने तक
ताकती रही थीं तुम आकुल
सच कहता हूं प्रिये!
तब मेरे गर्वोन्नत भाल को देख
आकाश भी हो उठा था लज्जित
धरती तुम्हारे त्याग से विचलित
कंपायमान हो उठा था अचल गिरिराज हिमालय
मेरे प्रतिपक्षियों का भी वक्ष
तुम्हारे आत्मोत्सर्ग और विश्व करुणा को देख
द्रवित हो उठा था/शायद तुम्हें याद हो
तब मैंने जाना
तुम आमोद-प्रमोद, हास-विलास की ही नहीं
तप्त रेगिस्तान, झंझा-भूचाल और प्रलय में भी
सहचरी हो
राहुल की दी गई शपथ
मेरे लिए पृथ्वी से भी थी गुरुतर
लाख तर्क-वितर्क के बावजूद
स्वीकारा मैंने भिक्षा हो निरुत्तर
सच कहूं
तो मैं उस दिन सहर्ष हारा
तुम्हारे त्याग को/मैंने ही नहीं/बाद में
संपूर्ण संसृति ने जयनाद करते हुए स्वीकारा
राहुल को अपने पुत्रत्व पर
और संपूर्ण संसृति को
तुम्हारे कृतित्व पर है गर्व और अभिमान
रहे युग-युगांतर तक तेरा जयगान
किंतु हंत!
प्राणाधिक प्रिय सहचरी!
तुम्हारा त्याग और बलिदान
मेरा सत्य, अहिंसा और विश्व प्रेम का संदेश
युगों से पोषित
युद्ध व राज्य लिप्सा और शोषण उत्पीडऩ का
ध्वंस और उन्मूलन नहीं कर सका
इनके विरुद्ध जंग आज भी जारी है।



सच बताऊं प्रिये!
कुंजों में गलबहियां डाले
जब झूमती हैं मस्त हो कर दो लताएं
तब लगता है
वर्षों बाद मिलने वाली दो बहनें
सुना रही हों सुख-दुख की गाथाएं
और ओस की मोती जैसी बूंदें
बिखेर दी गई हों
उवारे गए राई-नोन की तरह।
जब दूर कहीं ओस की बूंदें
टपाटप...टपाटप...
धरती के आंचल को भिगो देती हैं
तो मैं जानता हूं कि
रजनी
रत्नगर्भा वसुंधरा के क्षत-विक्षत अंगों को
देखकर/क्रंदन कर रही है
बर्फीली हवा क्रोध में
सर्पिणी की तरह फुंफकारती है
हहर...हहर कर चलने वाली
बर्फीली हवाएं
झकझोर-झकझोर नेस्तनाबूत कर
देने को आतुर हैं
हत्यारों के इस निजाम को
किंतु बर्फीली हवाओं का आक्रोश
साबुन के झाग की तरह
बैठता जा रहा है
ज्यों
हवस के भेडिय़ों के चंगुल में फंसी
बेटी को देख कर
और कुछ न कर पाने की विवशता से
बाप का रोष, आक्रोश
पानी के बुलबुले के समान
फूट-फूट कर विलुप्त होता जा रहा हो।
चिंतित मत हो प्रिये!
देखना एक दिन
ये बेचैन हवाएं अपना प्रतिशोध ले लेंगी
फूल के कोमलांगों को
क्षत-विक्षत करने वाले
तितलियों के मनोहारी परों को
अपनी नोकों से बींधने वाले
शूलों के दंत को
तोड़ कर रख देंगी।
इन विवश और शक्तिहीन लगने वाली
हवाओं का शौर्य
तब तुम देख लेना।
सच कहता हूं प्रिये! तुब तुम देख लेना! ये हवाएं
फूलों को तोडऩे के लिए बढ़ते
हाथों का रुख मोड़ देंगी
या फिर
उन्हें एक ही झटके में
तोड़ देंगी
जो सुंदर गुलाब, बेला, चमेरी और जूही की
पुष्पित, पल्लवित कलियों को
'फूल तोडऩा मना हैÓ की
तख्तियां लगाने के बाद
कोट में लगाने के लिए तोड़ते हैं
और जो इन बागीचों में खिले
पुष्पों को अपनी बपौती समझते हैं।
तुम सोच नहीं सकती
वह दिन बहुत शीघ्र आने वाला है
जब प्रत्येक कुचली गई कली को
न्याय मिल जाने वाला है
फूलों और बेचैन बर्फीली हवाओं का
संघर्ष आज भी जारी है
इनके हृदय में सुप्त चिंगारी को
धधकाना/दावाग्नि भड़काना
मेरी अपनी लाचारी है
क्योंकि
जंग आज भी जारी है।
सच बताना प्रिये!
अतीत के इन अनगढ़ शिलालेखों के पृष्ठ
उलटते-पलटते
तुम्हारी नाजुक अंगुलियां/रक्तिम तो नहीं हो गईं
या फिर
कटु यथार्थ के ऊबड़-खाबड़/पथरीले
धरातल से टकराने से बने
फफोलों को सहलाते-सहलाते
कल्पनालोक की वीथिकाओं में
खो तो नहीं गईं
तुम्हारी निर्निमेष आंखों की भाषा
पढ़ता आ रहा हूं युगों से
केवल...हां..केवल
मैं ही तो समझता हूं कि
तुम क्या कहना और करना चाहती हो
हां, मैं समझता हूं
मैं सब समझता हूं
तुम्हारी आंखों का मौन प्रश्न
देवदासी, पतिव्रता, देवी जैसे
शब्दों की आड़ में
किए गए अन्याय का प्रतिकार
तुम करना चाहती हो।
हर अन्याय, अत्याचार और बलात्कार का
एक मात्र मैं ही तो साक्षी हूं
राजभक्ति के नाम पर
नवपरिणीता भार्या को
रंग महल में भेजने के बाद
फूट-फूट कर मैं ही तो रोया था
कामांध नृपति का काम ज्वर उतरते ही
सीलन और बदबूदार कुटिया में
जब तुम आई थीं
तो हम तुम गले लग/फूट-पूट कर रोए थे
तुम
साजन....साजन कह कर वक्ष से
सटी जा रही थी/और मैं
पाषाणखंड-सा खड़ा
बाहों का हार भी न पिन्हा सका था।
कि नृपति का कारिंदा
एक बार फिर/बुलाने आ पहुंचा था।
सातवीं बार
तुम्हारे मुर्छित होने पर
दो घूंट...हां..हां..दो घूंट
पानी पिलाने के अपराध में/लाठियों से
पीटा गया था मैं ही
और तब
क्रोध से दांत पीसते हुए
विद्रोह की पताका पहली बार
फहराई थी मैंने ही।
शायद तुम्हें याद हो प्रिये!
युद्ध की घोषणा होते ही मैं
बागी घोषित किया गया था नृपति द्वारा
अहा! निहत्था और एकाकी होने के बावजूद
समरांगण में मुझे...
'विजय श्रीÓ के रूप में मिली कारा
किंतु तुम...
कितना फूट-फूट कर रोई थी
विजयोन्माद के नशे में
मैं रो भी तो नहीं सकता था
क्योंकि संघर्ष तब भी जारी था।


अरे प्रिये!
तुम पार्क में पुष्पित-पल्लवित
लता-वल्लरी गुल्मों को
देख इतनी चकित क्यों हो...?
सच कहूं
तो शायद विश्वास न हो...
ये सब...ये सब कुछ
मेरा है/मैंने अपने खून से इसे सींचा है
सच कहूं तो
यही मेरे स्वप्नों में छाया हुआ बगीचा है।
तुम इसे स्पर्श करना चाहोगी
नजदीक जाओ और देखो
मेरे श्रम का प्रतिफल है कितना अनुपम
किंतु ठहरो!
इन लता-वल्लरियों को स्पर्श करने का
मत करना दुस्साहस
इन पर स्वामित्व को लेकर
विवाद है मेरे और कथित मालिक के बीच
लेकिन...! लेकिन...!!
तुम्हें मेरी कसम/सच बताना
मेरी कृति/ मुझसे सुंदर है न
यही क्यों
इन गगनचुंबी अट्टालिकाओं-प्रासादों को
देखो
इसे भी तो मैंने गी बनाया है
किंतु मैं
सड़कों-फुटपाथों पर ही
पैदा होने के बाद मरता भी
सड़कों-फुटपाथों पर हूं
तुम विधि का विधान समझ
भले ही कर लो संतोष
किंतु मैं तो इसे
धनिकों और शासकों का युगों से
रचा जा रहा षड्यंत्र ही कहूंगा
कई बार तुम तो जानती हो
मैं इनके विरुद्ध/जंग का ऐलान कर चुका हूं।
कई बार फूटा है मेरा असंतोष
जानती हो प्रियतमे!
कल मेरा भाई
किसी धनिक के घर से फेंके गए
कूड़े के ढेर में से/दो दाना अन्न बीनने की
प्रार्थना करते-करते
जीवन से जंग हार बैठा
मैं रो बी तो नहीं सका था
उसकी मृत्यु पर रोता/तो शायद
उसकी मौत का अपमान ही होता न!
अरे! तुम्हारी आंखों से एक साथ
अश्रु और ज्वाला निकलने क्यों लगी...?
वाह..वाह..तुमने तो कमाल कर दिया
कितनी सहजता से
जंग का ऐलान कर दिया।
तुम्हें निराश तो नहीं करना चाहता
किंतु सच तो यह है कि
तुम लड़ नहीं पाओगी/हार जाओगी
अस्तु, पहले अपना हृदय
फौलाद सरीखा बनाओ/ अपनी
अस्थियों को वज्र की तरह कठोरतम
कोमल कमनीय काया को
शिलाखंड सा।
वर्गीय चेतना पर धार रख कर
असि की नोक सरीखी बनाओ प्रखरतम
तब...शायद तुम भी
इस महाजंग की सैनिकों की पंक्ति में
स्थान पा जाओ
तुम वो...दूर
सिर पर ईंट-दर-ईंट रखे
बांस की सीढिय़ों पर
कुशलतापूर्वक सधे पगों से चढऩे वाली
महिला को देख रही हो न...!
फटे वस्त्रों से तेज निकल रहा है
धूल-धूसरित शरीर स्वर्णमय
वाणी में मधु
औÓ स्वेद बिंदु से चंदन की महक
वस्तुत: वही है क्रांति की देवी
और फिर.....
मेरे जंग की मुख्य सूत्रधार
सेनापति
वही तो है न!
उसके श्यामल और कृशकाय गात पर
संघर्ष के अनेक चिह्न/ अनगिनत गाथाएं
मिल सकती हैं तुम्हें
इस जंग का सहेजा गया इतिहास
हमें...तुम्हें....और भावी पीढ़ी को
भेडिय़ों, नरपिशाचों और शोषकों से
बचा कर रखना होगा...!
मिलों, कारखानों की चिमनियां भी
अब तो/सुलगने को हैं आतुर
सुंदरतम विश्व को रचने वाले हाथों में
अब दिखाई देने लगी हैं शमशीरें
जिन हाथों में था कल तक कन्नी, बसुली/फावड़ा-बेलचा
आज वो इस व्यवस्था के ध्वंस-उन्मूलनार्थ
मानवीय मानव समाज के सृजनार्थ
संगठित हो रहे हैं
शोषणविहीन....!
दोहनविहीन....!!
उत्पीडऩविहीन.....!!!
वर्गविहीन.....!!!
मानव समाज की स्थापना ही
इन मानवता के पुजारियों का अंतिम लक्ष्य
वो देखो प्रियतमे!
सिंहनाद से हो उठा वातायन कंपायमान
झुंड के झुंड/दल के दल
लक्ष्य की ओर बढ़ते जा रहे हैं
उधर देखो
प्रतिपक्षियों के कलेजे हैं कंपित
दूधिया गात से पीलापन झलकने लगा है
क्रूरता के साक्षात अवतारों को बी
मौत का तांडव होता दिखाई देने लगा है।
मैंने कहा था न, सखे!
वह दिन दूर नहीं
जब मैं सूरज का मुंह
चूम कर रहूंगा
आओ, हम तुम एक साथ मिल कर
सूरज का मुंह चूमें/उसे दुलराएं
क्योंकि
चंद क्षणों बाद
असंख्य मुख सूरज को चूमने के लिए
होंगे बेताब
निकट आती जा रही महाध्वनियां
परिवर्तन का दे रही हैं संकेत
लो, उस दुधमुंहे बच्चे को देखो!
उसने अंतिम जंग की घोषणा कर दी है
हां..हां..
अब अंतिम जंग जारी है....!
अब अंतिम जंग जारी है....!!
अंतिम जंग जारी है....!!!!
जंग जारी है.....!!!
(रचना काल : १९९३, लखनऊ)

2 comments:

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  2. मैं तब भी लड़ रहा था/जब मुझे
    मेरी ही श्रमशक्ति से उत्पादित माल के
    अधिकार से कर दिया गया था वंचित
    या फिर/जब मैं स्वयं बिकाऊ माल बन गया था
    हाथों और पांवों में
    हथकड़ी-बेड़ी डालकर/हाटों में, बाजारों में
    बिकाऊ माल की तरह सजा दिया गया था

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