Tuesday, August 5, 2025

मुझे कायर और कातर बनाने की चेष्टा न करो : मणीन्द्र नाथ बनर्जी

अशोक मिश्र

क्रान्तिकारिणी माता और परिवार के प्रेरणा से क्रांतिकारी बनने वालों में से थे मणीन्द्र नाथ बनर्जी जिनकी शहादत का लक्ष्य अभी अधूरा है। विप्लवी पथ पर उन्होंने हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन(H.R.A) के इंकलाबी मानववादी लक्ष्य- मानव द्वारा मानव के शोषण व गुलामी से मुक्त शोषण-विहीन, वर्ग-विहीन समाज की स्थापना को अपना जीवन लक्ष्य बनाया था। जिसकी पूर्ति हेतु अपनी अंतिम सांस तक वे दृढ़ प्रतीज्ञ व क्रियाशील रहे।

दिसंबर 1927 में काकोरी षड्यंत्र केस में एच. आर. ए. के योद्धाओं पंडित राम प्रसाद बिस्मिल,अशफाक उल्ला खान,राजेंद्र नाथ लहरी व ठाकुर रोशन सिंह को साम्राज्यवादी दरिंदों द्वारा फांसी पर चढ़ा देने का उनके मस्तिष्क पर गहरा आघात लगा था। वे इन शहादतों का बदला लेने के लिए आकुल हो उठे थे। अन्ततः उन्होंने अपने भाई प्रभाषचंद्र बनर्जी के सहयोग व अपनी महान क्रांतिकारी माता के आशीर्वाद से 13 जनवरी 1928 को एच.आर.ए. के महान योद्धाओं को फांसी पर लटकाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले साम्राज्यवादी शासकों के पालतू कुत्ते गुप्तचर विभाग के डी.एस.पी. जितेंद्र नाथ बनर्जी को वाराणसी में गोली मारकर अपना जन्म दिवस मनाया। जिसके अपराध में उन्हें 10 वर्ष के उम्र कैद की सजा हुई और वे फतेहगढ़ सेंट्रल जेल भेज दिया गये।

 यहीं पर राजनीतिक बंदियों को दी जाने वाली यातनाओं के खिलाफ लड़ते हुए वे भूख हड़ताल के दौरान 20 जून 1934 को शहीद हो गए। उनकी क्रांतिकारी दृढ़ता व समझदारी का आलम यह था कि जब वे मृत्यु शैय्या पर पड़े हुए मर्मान्तक पीड़ा से तड़प रहे थे तो उनके पास बैठे काकोरी केस के बंदी श्री मन्मथनाथ गुप्त उनकी पीड़ा को कम करने हेतु भगवान की प्रार्थना करने लगे। इस पर बिगडकर उन्हें फटकारते हुए शहीद मणीन्द्र बनर्जी ने कहा था-  मेरी अंतिम घड़ियों में मेरा मस्तिष्क धुंधला मत करो। मुझे कायर और कातर बनाने की चेष्टा न करो। मुझे शांतिपूर्वक मरने दो। 

यह थी शहीद मणीन्द्र की अपने लक्ष्य व अपनी सैद्धांतिक राजनीतिक समझ के प्रति विप्लवी दृढ़ता। अमर शहीद मणीन्द्रनाथ बनर्जी को शहीद हुए 88 वर्ष पूरे हो रहे हैं। परंतु अफसोस। जिन लक्ष्यों एवं उद्देश्यों को लेकर सशस्त्र राष्ट्रीय जनतांत्रिक क्रांति की बलिवेदी पर उन्होंने अपनी आहुति दी थी वे आज भी अधूरे हैं। शोषण- विहीन, वर्ग-विहीन समाज की रचना ही उनका मुख्य उद्देश्य था।

उपन्यास मदर लिखकर अमर हो गए मक्सिम गोर्की

बोधिवृक्ष

अशोक मिश्र

रूस में 18 मार्च 1868 में जन्मे मक्सिम गोर्की का वास्तविक नाम अलेक्सी मैक्सिमोविच पेशकोव था। उनके साहित्य में मार्क्सवाद और समाजवाद वैचारिक रूप से मौजूद दिखाई देता है। वह कुछ दिनों तक लेनिन के नेतृत्व में जारशाही से संघर्ष करने वाली वोल्शेविक पार्टी में भी रहे, लेकिन वस्तुत: वह स्टालिनवादी ही रहे। उनका विश्व प्रसिद्ध उपन्यास मदर (मां) आज भी दुनिया में काफी पढ़ा जाता है। 

रूस और कई देशों से निष्कासित मक्सिम गोर्की 1921 में रूस छोड़कर चले गए, लेकिन 1929 में स्टालिन के अनुरोध पर वह रूस लौट आए और  मृत्यु होने तक यानी 18 जून 1936 तक रूस में ही रहे। कहते हैं कि ग्यारह वर्ष की आयु में वह काम पर लग गए थे। उनका पालन पोषण उनकी नानी ने किया था। उनके पिता अत्यंत क्रोधी स्वभाव के थे। वह शिक्षा पर एक भी पैसा खर्च करना व्यर्थ मानते थे। 

गोर्की अपने पिता से बहुत डरते थे। यही वजह है कि वह बचपन में बहुत ज्यादा नहीं पढ़ सके। उन्होंने जो कुछ भी सीखा, स्वाध्याय से ही सीखा। छोटी ही उम्र में उनके पिता ने काम पर लगा दिया, लेकिन पढ़ने लिखने की ललक ने उन्हें अंतत: एक ऐसी जगह काम करने पर विवश कर दिया, जहां कबाड़ में काफी पुस्तकें आती थीं। वह खाली समय में कबाड़ में आई पुस्तकों को पढ़ते। 

इससे पहले उन्होंने अक्षर ज्ञान प्राप्त किया। जब कोई शब्द उनकी समझ में नहीं आता, तो वह दुकान के मालिक या दुकान पर आने वाले ग्राहकों से पूछ लिया करते थे। इस तरह पढ़ते-लिखते गोर्की ने धीरे-धीरे खुद भी लिखना शुरू किया। एक बार अपने विचारों को एक अखबार के संपादक को भेज दिया, तो वहां से शाबाशी भरा जवाब आया। इससे उनका साहस बढ़ गया और फिर उन्होंने रूसी भाषा में महान साहित्य की रचना की। उनका उपन्यास मदर और आत्मकथा मेरा बचपन, मेरा विश्वविद्यालय आज भी बहुत पढ़ा जाता है।

भ्रूण की लिंग जांच कराने वाले लिंगानुपात सुधारने में बाधक


अशोक मिश्र

फरीदाबाद के बल्लभगढ़ में एक ऐसे गिरोह का पर्दाफाश हुआ है, जो गर्भवती महिलाओं के भ्रूण के लिंग की जांच कराता था। इस मामले में तीन आरोपियों को गिरफ्तार किया गया है। इस मामले में एक डॉक्टर की भूमिका भी संदिग्ध बताई जा रही है। हालांकि अभी तक उस डॉक्टर के नाम का खुलासा नहीं हो पाया है। सीएम फ्लाइंग स्क्वाड और स्वास्थ्य विभाग को काफी पहले से भ्रूण के लिंग की जांच करने वाले गिरोह के बारे में सूचना मिल रही थी। सीएम फ्लाइंग स्क्वाड और स्वास्थ्य विभाग ने गिरोह को पकड़ने के लिए एक कार्य योजना तैयार की और एक डमी दंपति को इसके लिए तैयार किया गया। इसमें सीएमओ पलवल की भी सहायता ली गई। 

डमी दंपति ने मनीष से संपर्क किया। पैसे को लेकर बातचीत हुई और मनीष 35 हजार रुपये में भ्रूण के लिंग की जांच कराने को तैयार हो गया। इसके बाद सीएम फ्लाइंग स्क्वाड और स्वास्थ्य विभाग ने जाल बिछाकर तीन आरोपियों को गिरफ्तार कर लिया। प्रदेश में न जाने कितने ऐसे गिरोह चल रहे हैं जो सरकार के लिंगानुपात सुधारने के मंसूबे पर पानी फेर रहे हैं। 

प्रदेश की सैनी सरकार काफी प्रयास कर रही है कि किसी भी तरह लड़के-लड़कियों के जन्म का अनुपात लगभग बराबर हो जाए ताकि समाज में पैदा होने वाले असंतुलन को ठीक किया जाए। इसके लिए प्रदेश सरकार हर गर्भवती महिला पर नजर रखने का प्रयास कर रही है ताकि उसका सुरक्षित प्रसव हो जाए और वह कन्याभू्रण हत्या भी न करवा सके। इसके लिए उसने सरकारी और निजी अस्पतालों में इलाज कराने के लिए हर गर्भवती महिला का आईडी बनना अनिवार्य कर दिया है। सैनी सरकार ने आशा कार्यकर्ता, एएनएम और आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं को यह जिम्मेदारी दी है कि वह गर्भवती महिलाओं की एक सखी की तरह देखभाल करें और सुरक्षित प्रसव के बाद उन्हें एक हजार रुपये पुरस्कार स्वरूप प्रदान किए जाएंगे। 

आशा कार्यकर्ता, एएनएम और आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं को लाडो सखी नाम दिया गया है। इतने प्रयास के बाद भी न प्रदेश में भ्रूण लिंग जांच रुक रही है और न ही कन्या भ्रूण हत्या। इसके लिए प्रदेश के हर जिले में नाजायज तौर पर खुले निजी अस्पताल, क्लीनिक और चिकित्सा क्षेत्र से जुड़े कंपाउंडर और रजिस्टर्ड मेडिकल प्रैक्टिशनर जिम्मेदार हैं। ऐसे लोग शहर के किसी भी इलाके में क्लीनिक खोलकर लोगों का इलाज करने की आड़ में अवैध रूप से गर्भपात कराने का काम करते हैं।

इससे सरकार को अपना लक्ष्य पूरा करने में काफी परेशानी का सामना करना पड़ता है। जब तक गांव और मोहल्ला स्तर तक अभियान चलाकर ऐसे लोगों का सफाया नहीं किया जाता है, तब तक सरकार को अपना लक्ष्य प्राप्त करने में परेशानी होगी।

Monday, August 4, 2025

ईस्ट इंडिया कंपनी शुरू से ही विस्तारवादी रही

 बस यों ही बैठे ठाले-10---रचनाकाल--13 जुलाई 2020

अशोक मिश्र

हां, तो बात हो रही थी भारतीय स्वाधीनता संग्राम की पहली बगावत को लेकर। संन्यासी विद्रोह का जिस वर्ष (सन 1820) पूरी तरह दमन हो गया, उसके एक साल बाद तित्तू मियां के नेतृत्व में बंगाल के पांच हजार किसानों ने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ परचम लहरा दिया। कुछ ही दिनों में बंगाल के गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स के नेतृत्व में ब्रिटिश फौजों ने किसान बगावत को बुरी तरह कुचल दिया।
अधिसंख्य किसान पकड़कर फांसी पर लटा दिए गए। कुछ को अंग्रेज भक्त जमींदारों ने पकड़कर राजभक्ति दिखाने के लिए बुरी तरह प्रताड़ित किया, उन्हें मार दिया। इस विद्रोह में जिन-जिन गांवों के लोग शामिल थे, वे गांव के गांव अंग्रेज भक्त जमींदारों ने तबाह कर दिए। गांव के गांव जला दिए गए। पुरुषों और बच्चों को पकड़कर लाठियों, डंडों और कोड़ों से सरेआम पीटा गया, उनकी चमड़ी उधेड़ दी गई। ताकि भविष्य में कोई भी जालिम जमींदारों और अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ बगावत करने की हिम्मत न जुटा सके।
महिलाओं के साथ बलात्कार किए गए। उनके शरीर को चाकुओं, तलवारों और नुकीले बल्लम से गोदा गया। खूबसूरत और कम उम्र लड़कियों को अंग्रेज अफसरों और जमींदारों की हवेलियों और महलों में पहुंचा दिया गया। इस लूट खसोट का लाभ सबने उठाया, चाहे वह हिंदू जमींदार रहा हो, अफसर रहा हो या मुस्लिम जमींदार और अफसर रहा हो। इसमें जाति, धर्म का कोई भेद नहीं थी। और इस लूट खसोट को अंजाम दिया उन भारतीयों ने, जो रुपये दो रुपये की नौकरी जमींदारों के यहां करते थे। ब्रिटिश हुकूमत की नौकरी करते थे या कहो कि ईस्ट इंडिया कंपनी की करते थे। मेरा मानना है कि (पाठकों को मेरे इस मत से असहमत होने का पूरा अधिकार है) अपने स्थापना काल से ही ईस्ट इंडिया कंपनी भले ही लंदन के व्यापारियों की कंपनी रही हो, लेकिन उसके विस्तारवादी, उत्पीड़न, शोषण और दोहन की नीतियों के प्रति इंग्लैंड के शासकों की सहमति अवश्य थी।
दरअसल, शाही अधिकार पत्र लेकर वर्ष 1608 में पहली बार ईस्ट इंडिया कंपनी का पहला पोत व्यापार करने सूरत (भारत) आया था। इसका पुर्तगालियों ने जबरदस्त विरोध किया। ईस्ट इंडिया कंपनी लंदन के व्यापारियों की एक निजी कंपनी थी जिसे वर्ष 1600 की एक घोषणा के आधार पर महारानी एलिजाबेथ प्रथम ने व्यापार करने का एकाधिकार प्रदान किया था। ईस्ट इंडिया कंपनी की प्रतिद्वंद्वी कंपनी न्यू कंपनी का विलय वर्ष 1708 में भारत में प्रवेश के ठीक सौ साल बाद ईस्ट इंडिया कंपनी में हो गया था।
ईस्ट इंडिया कंपनी के व्यापार की देखभाल के लिए ‘गवर्नर इन काउंसिल’ की स्थापना हुई और ईस्ट इंडिया कंपनी का नाम रखा गया ‘द यूनाइटेड कंपनी आफ मर्चेंट्स आफ इंग्लैंड ट्रेडिंग टू ईस्ट इंडीज’। चूंकि कंपनी के व्यापार में गवर्नर इन काउंसिल का पूरा दखल रहता था, इसलिए भारत में होने वाले अत्याचार, शोषण, दोहन, उत्पीड़न आदि के लिए ब्रिटिश हुकूमत को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है और ईस्ट इंडिया कंपनी की जगह पर ब्रिटिश हुकूमत कहा जा सकता है। यह भी सही है कि सन अट्ठारह सौ सत्तावन के गदर (स्वाधीनता संग्राम) की शुरुआत के एक साल बाद वर्ष 1858 में ब्रिटिश हुकूमत ने ईस्ट इंडिया के सारे अधिकार रद्द करते हुए कंपनी की बागडोर खुद संभाल ली।

आखिर जंग जीत गया सात बार हारने वाला राजा

बोधिवृक्ष

अशोक मिश्र

हमारे देश के धर्मग्रंथों और विभिन्न भाषाओं में रचे गए साहित्य में एक बात जरूर कही गई है कि मन के हारे हार है। यदि आदमी मन मान गया कि वह हार जाएगा, तो निश्चित रूप से उसका हारना तय है। जब मनुष्य के दिलोदिमाग में यह बात घर कर जाती है कि वह किसी भी हालत में जंग या संकट से वह नहीं जीत सकता है, तो वह जीतती हुई बाजी भी हार जाता है। लेकिन जो व्यक्ति हारने के बाद भी हार नहीं मानता है, वह अपने अथक प्रयास से जंग हो या जीवन की समस्या उसको हरा सकता है।

 एक राजा की ऐसी ही कहानी है। राजा के राज्य के एक हिस्से पर पड़ोसी राजा ने हमला करके अपने अधिकार में ले लिया। राजा ने अपनी हारी हुई जमीन जीतने के लिए पड़ोसी राजा पर छह बार हमला किया, लेकिन वह हर बार पराजित हुआ। सातवीं बार तो उसकी हिम्मत ही टूट गई। हारने के बाद राजा अपने सैनिकों से बिछड़ गया। वह थका-हारा एक वन में पहुंच गया। 

जंगल काफी घना था। वह एक पेड़ के तने से टेक लेकर बैठ गया और अपनी पराजय के बारे में सोचने लगा। उसे अब विश्वास हो चुका था कि वह अपने पड़ोसी राजा को हरा नहीं सकता है। यह सब सोचते-सोचते उसे नींद आ गई। सुबह जब वह जागा, तो उसने देखा कि एक मकड़ी तने के पास जाला बना रही थी। जैसे मकड़ी थोड़ा ऊपर पहुंचती धागा टूट जाता और वह गिर जाती। 

राजा मकड़ी का यह करतब गौर से देखने लगा। दस-पंद्रह बार कोशिश करने के बाद मकड़ी अपने प्रयास में सफल हो गई। यह सब कुछ थोड़ी दूर खड़ा एक साधु भी देख रहा था। उसने राजा से कहा कि तुम भी ऐसा प्रयास क्यों नहीं करते हो। राजा ने कहा कि मैं सात बार हार चुका हूं। तब साधु ने कहा कि जंग हार कोई बड़ी बात नहीं है, मन से हार जाना बड़ी बात है। अपने सैनिकों को इकट्ठा करो और फिर लड़ो। राजा ने वैसा ही किया और इस बार वह जंग जीत गया।

जंगल सफारी तैयार होने पर प्रदूषण को कम करने में मिलेगी सफलता

अशोक मिश्र

गुरुग्राम के छह हजार एकड़ और नूंह के चार हजार एकड़ में बनने वाले जंगल सफारी का डिजाइन तैयार कर लिया गया है। अनुमान लगाया जा रहा है कि निकट भविष्य में इस दिशा में बहुत तेजी से काम शुरू होगा। एशिया की सबसे बड़ी जंगल सफारी को लेकर प्रदेश में ही नहीं, देश और विदेश में भी काफी उत्सुकता है। जंगल सफारी बनकर तैयार होने के बाद हरियाणा के लिए एक महत्वपूर्ण पर्यटन स्थल साबित होगी। इससे जहां हरियाणा के राजस्व में बढ़ोतरी होगी, वहीं अरावली पर्वत श्रंखला को भी सुरक्षित रखा जा सकेगा। लोगों के आवागमन और जंगल सफारी के लिए नियुक्त किए गए अधिकारियों और कर्मचारियों की वजह से अरावली क्षेत्र में होने वाले अवैध खनन पर भी लगाम लगेगी। 

अरावली की पहाड़ियों पर कई दशकों से अवैध खनन हो रहा है जिस पर लगाम लगा पाने में अधिकारी और कर्मचारी नाकाम साबित हो रहे हैं। कई मामलों में ग्रीन ट्रिब्यूनल से लेकर सुप्रीमकोर्ट तक अपनी नाराजगी जाहिर कर चुका है। लेकिन अब जब जंगल सफारी प्रोजेक्ट पर काम शुरू हो गया है, तो इस क्षेत्र में अवैध खनन रुकने की उम्मीद पैदा हो गई है। वन विभाग ने पहले चरण की योजना का डिजाइन तैयार कर लिया है। केंद्रीय ऊर्जा मंत्री मनोहर लाल, केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्री भूपेंद्र यादव और प्रदेश के वन, पर्यावरण और वन्य जीव मंत्री राव नरबीर ने शनिवार को पहले फेज की योजना का निरीक्षण भी कर लिया है। 

केंद्रीय मंत्री मनोहर लाल ने तो यह संभावना भी व्यक्त की है कि हरियाणा में बनने वाला जंगल सफारी पर्यटन का एक बड़ा केंद्र बनेगी। जंगल सफारी में प्रवेश के लिए चार गेट सोहना के पास, ताबडू-सोहना मार्ग, नौरंगपुर और सकटपुर गांव में बनाए जाएंगे। दरअसल, हरियाणा से शुरू होकर अहमदाबाद तक जाने वाली अरावली पर्वतमाला की प्राकृतिक सुंदरता, जैव विविधता और यहां पाए गए ऐतिहासिक विरासत की छटा देखते ही बनती है। ऐसी स्थिति में जब पहले चरण में ढाई हजार एकड़ में शाकाहारी जोन, बड़ी बिल्ली जोन, बड़ा स्वतंत्र पक्षी जोन, विदेशी जानवर जोन के साथ-साथ प्राकृतिक पगडंडियां बनकर तैयार होंगी, तब इसका अलौकिक सौंदर्य देखने लायक होगा। 

पहले चरण में बनकर तैयार होने वाली जंगल सफारी में अंतर्राष्ट्रीय स्तर की सुविधाएं देने की कोशिश की जाएगी। यहां स्थानीय प्रजाति के पौधों को लगाने पर विचार किया जा रहा है। इतना ही नहीं, इस परियोजना को चरणबद्ध तरीके से तैयार करने पर केंद्र और राज्य सरकारें बड़ी गंभीरता से विचार कर रही हैं। जंगल सफारी तैयार हो जाने पर प्रदेश में पर्यावरण प्रदूषण को भी कम करने में सफलता मिलेगी।

Sunday, August 3, 2025

बुद्ध ने कहा, अप्प दीपो भव

अशोक मिश्र

प्रकाश! क्या है प्रकाश? ऊर्जा का एक परिवर्तित रूप। एक विशेष किस्म की ऊर्जा ही प्रकाश है। और ऊर्जा किसमें? चेतन में, अचेतन (यानी जड़) में यानी समस्त पदार्थ में। इस संपूर्ण प्रकृति के प्रत्येक अंग, उपांग में ऊर्जा मौजूद है। इसका एक निहितार्थ यह हुआ कि संपूर्ण प्रकृति में जो कुछ भी है, वह ऊर्जावान है। इसी ऊर्जा के कारण के कारण प्रकृति में गति है। प्रकृति का निर्माण भी पदार्थ और गति से हुआ है। गतिमय पदार्थ और पदार्थ में गति।
और अंधकार क्या है?…प्रकाश का न होना अंधकार है। जब किसी पदार्थ में एक विशेष किस्म की ऊर्जा अनुपस्थित होती है, तब अंधकार होता है। अंधकार और प्रकाश पदार्थ के बिना नहीं हो सकते। अभौतिक नहीं हो सकते, अपदार्थिक नहीं हो सकते। प्रकृति विज्ञानी कहते हैं कि संपूर्ण प्रकृति की ऊर्जा का योग शून्य होता है। जब हमारे वैज्ञानिक कहते हैं कि ग्लोबल वार्मिंग के कारण पृथ्वी का तापमान बढ़ रहा है, इसका एक मतलब यह भी है कि इस प्रकृति में कहीं न कहीं किसी जगह पर उतना ही तापमान घट रहा है क्योंकि इस संपूर्ण ब्रह्मांड में सभी तरह की ऊर्जाएं नियत हैं, निश्चित हैं। न उन्हें घटाया जा सकता है, न बढ़ाया जा सकता है।
यह हमारी पृथ्वी या ब्रह्मांड के किसी हिस्से में हो सकता है, पृथ्वी से बाहर भी हो सकता है। यही प्रकृति की द्वंद्वात्मकता है।अंधकार और प्रकाश एक दूसरे के पूरक हैं। इस प्रकृति में जितना महत्व प्रकाश का है, उतना ही महत्व अंधकार का भी है। अंधकार उतना भी बुरा नहीं होता है, जितना हम समझते हैं। अंधकार के बिना प्रकाश का कोई महत्व नहीं है। संख्या ‘एक’ का महत्व तभी तक है, जब तक संख्या ‘दो’ मौजूद है। इस दीप पर्व पर हम संपूर्ण जगत को प्रकाशित तो करें, लेकिन तिमिर के महत्व को भी न भूलें।
भारतीय दार्शनिक जगत में अवतारवाद के सबसे पहले विरोधी महात्मा बुद्ध ने ‘अप्प दीपो भव’ कहकर प्रकाश और तिमिर को पारिभाषित किया। उन्होंने कहा कि अपना प्रकाश खुद बनो। इसका एक तात्पर्य यह भी हुआ कि अपने भीतर प्रकाश पैदा करो। भीतर तम है, प्रकाश की आवश्यकता है। तम किसका है? अज्ञानता का है, रूढ़ियों का है, अंध विश्वासों का है, सामाजिक, राजनीतिक वर्जनाओं का है। पाबंदियों का है। इन्हें दूर करने के लिए महात्मा बुद्ध कहते हैं कि अप्प दीपो भव। इसका एक दूसरा तात्पर्य यह हुआ कि अपना आदर्श खुद बनो।

बंगाल में बहुत अधिक व्यापक था तित्तू मीर का विद्रोह

 बस यों ही बैठे ठाले-9-------------रचनाकाल 10 जुलाई 2020

अशोक मिश्र
हां, तो बात हो रही थी राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में राष्ट्रवादी विप्लवी नेताजी सुभाष चंद्र बोस के खिलाफ पेश किए गए पंत प्रस्ताव के समर्थन में जय प्रकाश नारायण और राम मनोहर लोहिया की भूमिका की। तो इस बात को अच्छी तरह समझने के लिए जरूरी है कि हम भारतीय स्वाधीनता संग्राम को सिलसिलेवार समझें। यह पंत प्रस्ताव क्यों, किन परिस्थितियों और किसके इशारे पर पेश किया गया था, इसे समझने से पहले स्वाधीनता संग्राम का संक्षिप्त इतिहास जान लें, तो बेहतर होगा। अगर हम भारतीय स्वाधीनता संग्राम पर दृष्टि डालें, तो पता चलता है कि ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ सबसे पहली बगावत सन 1821 में तित्तू मियां (कुछ इतिहासकार तित्तू मीर के नाम से भी पुकारते हैं) के नेतृत्व में बंगाल में हुई थी। पांच हजार किसानों ने ब्रिटिश हुकूमत के अत्याचार और शोषण के खिलाफ बगावत की।
ब्रिटिश हुकूमत और उसके नुमाइंदे जमीदार न केवल किसानों, मजदूरों का निर्मम शोषण करते थे, बल्कि यहां से कच्चा माल ब्रिटेन ले जाकर वहां बना सामान भारत में लाकर दोहरा मुनाफा कमाते थे। ब्रिटिश हुकूमत के नुमाइंदे जमींदार अपने मालिक के प्रति अपनी भक्ति दिखाने के लिए किसानों और मजदूरों का निर्मम शोषण करते थे। इस हालात से समझौता करने के सिवा उनके पास कोई दूसरा चारा भी नहीं था। लेकिन तित्तू मियां से यह बर्दाश्त नहीं हुआ और उसने किसानों को संगठित करना शुरू कर दिया। पांच हजार किसानों ने अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह कर दिया। अंग्रेजी फौज और पुलिस ने पूरे बंगाल में दमन चक्र चलाया। काफी संख्या में किसान मारे गए। बगावत विफल होने पर बहुतों को फांसी पर लटा दिया गया। कुछ जंगलों में जा छिपे और भूखों मारे गए।
यह भारतीय स्वाधीनता संग्राम की पहली चिन्गारी थी, जो भड़की जरूर लेकिन अपनी निहित विसंगतियों और अंतरविरोधों के चलते जल्दी ही बुझ गई। लेकिन इससे इस सशस्त्र बगावत का महत्व कम नहीं होता है। कुछ लोग तित्तू मियां के नेतृत्व से पहले हुए संन्यासी विद्रोह (1763 से लेकर 1820) को स्वाधीनता संग्राम का पहला विद्रोह मानते हैं। यदि दोनों विद्रोहों के उद्देश्य को लेकर बात करें, तो यह स्पष्ट होता है कि संन्यासी विद्रोह का आधार अंग्रेजों द्वारा तीर्थयात्रा पर लगाया गया प्रतिबंध था।
इन विद्रोही संन्यासियों का नारा ओम वंदेमातरम था। यह सही है कि ब्रिटिश हुकूमत की शोषण और दोहन की नीति के प्रति किसानों, मजदूरों, कुछ जमींदारों में असंतोष था। बंगाल और बिहार के नागा और गिरि संन्यासियों ने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ बगावत का झंडा बुलंद इसलिए किया था क्योंकि ब्रिटिश हुकूमत ने उनकी तीर्थयात्रा पर प्रतिबंध लगा दिया था। संन्यासियों ने इस प्रतिबंध के खिलाफ आवाज बुलंद की और उनके साथ मुस्लिम फकीर, जमींदार और किसान आ मिले। और यह विद्रोह किसी न किसी रूप में 1820 तक चलता रहा।
संन्यासी विद्रोह अपने शुरुआती दौर (1763 और उसके कुछ वर्षों तक) में जितना प्रबल था, बाद में जैसे-जैसे समय बीतता गया कमजोर पड़ता गया। बंगाल के गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स ने 1820 में संन्यासी विद्रोह का पूरी तरह दमन कर दिया। प्रसिद्ध उपन्यासकार बंकिम चंद्र चटर्जी ने 1882 में आनंदमठ की रचना की। आनंदमठ का मूल आधार यही संन्यासी विद्रोह है। इन संन्यासियों का उद्देश्य उतना व्यापक नहीं था जितना सैयद मीर निसार अली तित्तू मीर के विद्रोह का था। तित्तू मियां और उनके पांच हजार किसान साथी पूरे बंगाल में शोषण और दमन का खात्मा करने के लिए उठ खड़े हुए थे। वे पूरी ब्रिटिश हुकूमत को उखाड़ फेंकने को प्रतिबद्ध थे।

चिंता व्यक्ति को खोखला कर देती है

बोधिवृक्ष

अशोक मिश्र

चिंता को चिता के समान माना गया है। व्यक्ति चाहे जितना आत्मबल और सामर्थ्य रखने वाला हो, अगर उसे किसी प्रकार की चिंता ने जकड़ लिया, तो उसका क्षय निश्चित है। चिंता कई प्रकार की बीमारियों की जन्मदात्री भी मानी जाती है। चिंतित व्यक्ति धीरे-धीरे उसी प्रकार सूख जाता है जिस प्रकार कोई विशालकाय वृक्ष पानी न मिलने पर सूख जाता है। चिंता सचमुच बहुत घातक होती है। 

इस संदर्भ में एक बड़ा रोचक किस्सा है। किसी जगह पर दो वैज्ञानिक आपस में बात कर रहे थे। उनमें से एक वैज्ञानिक वृद्ध था और दूसरा युवा। बुजुर्ग वैज्ञानिक ने युवा से कहा कि विज्ञान ने बहुत ज्यादा प्रगति कर ली है। इसमें किसी प्रकार का कोई संदेह नहीं है, लेकिन वह अभी तक किसी ऐसी मशीन का आविष्कार नहीं कर पाया है जिससे चिंता को समाप्त किया जा सके। 

यह सुनकर युवा वैज्ञानिक हंस पड़ा। उसने कहा कि इस मामूली सी बात के लिए किसी मशीन के आविष्कार की क्या जरूरत है। चिंता से छुटकारा पाने के लिए मशीन बनाने में समय बरबाद करने से कोई फायदा नहीं होने वाला है। यह सुनकर बूढ़े वैज्ञानिक ने कहा कि आओ, मैं तुम्हें समझाता हूं। बुजुर्ग उस युवा को एक जंगल में ले गया।

 उसने एक विशालकाय पीपल के पेड़ की ओर इशारा करते हुए कहा कि तुम जानते हो, यह पीपल का पेड़ चार सौ साल  पुराना है। अब तक इस पेड़ पर कई बार बिजलियां गिर चुकी हैं। कई बार भीषण आंधी आने पर भी इस पेड़ का बाल बांका नहीं हुआ। यह हमेशा खड़ा रहा, लेकिन अब लगता है कि यह पेड़ जल्दी ही नष्ट हो जाएगा क्योंकि इसकी जड़ में दीमक लग गए हैं। चिंता भी दीमक की तरह होती है जो व्यक्ति को खोखला कर देती है। चिंता किसी व्यक्ति की सुख-समृद्धि तक को चट कर जाती है। यह सुनकर युवा वैज्ञानिक उस बूढ़े वैज्ञानिक की बात से सहमत हो गया।

हरियाणा में धीरे-धीरे एनीमिया के रोगियों का बढ़ना चिंताजनक

अशोक मिश्र

आधुनिक जीवन शैली और खान-पान की वजह से लोगों में एनीमिया के मामले बढ़ रहे हैं। कुछ दशक पहले तक यह आम धारणा थी कि गरीब और बेरोजगार परिवारों में उचित खानपान न मिलने से लोगों में खून की कमी हो जाती है। लेकिन आज के हालात इसके बिल्कुल उलट हैं। गरीब परिवार के सदस्यों में खून की कमी तो पाई ही जा रही है, लेकिन खाते-पीते परिवारों की महिलाओं, बच्चों और पुरुषों में भी रक्त की कमी पाई जा रही है। दो दिन पहले ही गुरुग्राम शहर में स्वास्थ्य विभाग ने एक सर्वे करवाया था। 

स्वास्थ्य विभाग के चिकित्सकों और अन्य कर्मचारियों ने पूरे मिलेनियम सिटी में रहने वाले 76 हजार लोगों के खून की जांच की थी। जांच रिपोर्ट में पाया गया कि 32 हजार लोगों में खून की कमी है। यह कुल जांच किए जाने वाले लोगों की संख्या का 42 प्रतिशत है। जब मिलेनियम सिटी के नाम से मशहूर गुरुग्राम की यह हालत है, तो हरियाणा के अन्य शहरों की स्थिति का अंदाजा लगाया जा सकता है। गुरुग्राम के डिप्टी सिविल सर्जन डॉ. जेपी राजलीवाल इसका कारण आधुनिक जीवन शैली मानते हैं। उनका कहना बिल्कुल सही प्रतीत होता है क्योंकि आजकल लोगों के पास अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखने के लिए समय ही नहीं है। 

सुबह उठते ही काम पर जाने की जल्दबाजी में नाश्ता गायब हो जाता है। लंच में जो कुछ मिल गया, खा लिया। यह नहीं देखते हैं कि वह पौष्टिक है भी या नहीं। चाऊमिन, बर्गर, पेस्ट्री या इसी तरह की चीजें बाजार से मंगाकर लंच कर लिया। घर से अगर लंच लेकर आए हैं, तो भी उसमें पौष्टिकता का अभाव मिलेगा। सुबह जल्दी-जल्दी कुछ बनाकर खुद, पति और बच्चों के लिए लंच पैक करने वाली महिला सेहत का ख्याल नहीं रख पाती है। रात को भी कुछ ऐसा ग्रहण नहीं किया जाता जिससे स्वास्थ्य ठीक रहे, एनीमिया जैसी बीमारी न होने पाए, इसका भी ख्याल नहीं रखा जाता है। 

नतीजा यह होता है कि परिवार के दो तिहाई लोग रक्त की कमी जैसी समस्या से जूझते हैं। नेशनल परिवार हेल्थ सर्वे में चौकाने वाले आंकड़े सामने आएं है। सर्वेे रिपोर्ट में खुलासा हुआ है कि प्रदेश में 61 फीसदी महिलाएं एनीमिया से पीड़ित हैं। खान-पान के लिए प्रसिद्ध हरियाणा प्रदेश की 61 फीसदी महिलाएं एनीमिया पीड़ित पाई जाएं, तो डॉक्टरों के लिए यह चिंता का विषय हो सकता है। यही नहीं, एनीमिया में प्रदेश ग्यारहवें स्थान पर है। इस मामले में पिछले साल का एक आंकड़ा बताता है कि हर पांचवीं गर्भवती महिला एनीमिया की शिकार है। यह स्थिति वाकई चिंताजनक है क्योंकि गर्भवती महिला के एनीमिया का शिकार होने पर उसके बच्चे के विकास पर बुरा प्रभाव पड़ता है।

Saturday, August 2, 2025

क्रांतिकारी अवनि मुखर्जी की रूस में लेनिन से मुलाकात

अशोक मिश्र 

बैठे ठाले बस यों ही-------------9 रचनाकाल 5 जुलाई 2020

हां, तो कल बात हो रही थी मार्क्सवाद और लेनिनवाद की अन्योनाश्रिता पर। अगर आप इस बात को इस तरह से समझें तो शायद आसानी होगी। अगर मार्क्सवाद एक तलवार है, तो लेनिनवाद उस तलवार को उपयोग करने की कला है। तलवार तब तक बेकार है, जब तक उस तलवार को चलाने की कला में पारंगत तलवार बाज न हो। विल्यादिमीर इल्यीच लेनिन ने यही करके दिखाया। उन्होंने मार्क्सवादी दर्शन और सिद्धांत को आत्मसात करके पहले जनतांत्रिक क्रांति करवाई और उसके बाद नौ-दस महीने बाद समाजवादी क्रांति।
मार्क्सवाद और लेनिनवाद का कुल निचोड़ यही है कि जब तक शोषण पर आधारित बिकाऊमाल की पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का सशस्त्र सर्वहारा समाजवादी क्रांति के जरिये ध्वंस और उन्मूलन नहीं होता, तब तक मानवीय मानव समाज की स्थापना नहीं हो सकती है। अब सशस्त्र सर्वहारा समाजवादी क्रांति को पढ़कर आप यह न समझें कि माओवादियों और नक्सलवादियों की तरह बम, कट्टा, पिस्तौल, आरडीएक्स या दूसरे घातक हथियार लेकर पूंजीवादी राजसत्ता के खिलाफ युद्ध छेड़ना है या पुलिस, फौज और सरकारी कर्मचारियों की हत्या करनी है।…नहीं…माओवादी, स्टालिनवादी, नक्सलवादी जैसे तमाम वादी और मार्क्सवादी-लेनिनवादी होने में यही फर्क है। दरअसल, यहां सशस्त्र का मतलब मार्क्सवादी-लेनिनवादी दर्शन और सिद्धांत को इस तरह आत्मसात और उसका उपयोग करना है कि वह दर्शन और सिद्धांत ही हथियार बन जाए। भौतिक हथियारों की जरूरत ही नहीं है। हां, जब क्रांति का दौर शुरू होगा, तब क्रांतिकारियों का लक्ष्य न्यूनतम रक्तपात होना चाहिए। बिना रक्तपात के कोई व्यवस्था परिवर्तन नहीं होता है।
आप याद करें। प्रख्यात क्रांतिकारी शहीद राम प्रसाद बिस्मिल ने अपने फांसी चढ़ने से कुछ दिन पूर्व तत्कालीन गुलाम भारत के नौजवानों को क्या संदेश दिया था। उन्होंने कहा था कि अब हिंदुस्तान के नौजवानों को ब्रिटिश राज सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिए बम-पिस्तौल लेकर उनसे लड़ने की जरूरत नहीं है। बस, मार्क्सवाद और लेनिनवाद का गहन अध्ययन और उसको आत्मसात करके ब्रिटिश साम्राज्य से लोहा लेने की जरूरत है। आप याद करें, शहीदे आजम भगत सिंह के मार्क्सवादी-लेनिनवादी साहित्य का अध्ययन करने के बाद हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी के सदस्यों ने ब्रिटिश और हिंदुस्तानी नौकरशाहों पर व्यक्तिगत हमले बंद कर दिए थे।
संसद में भी भगत सिंह और उनके साथियों ने जब बम फेंका था, वह पहली बात घातक नहीं था और दूसरा उनका उद्देश्य किसी को क्षति पहुंचाना नहीं था। ब्रिटिश हुकूमत के बहरे कानों को खोलने के लिए संसद में धमाका किया गया था। आप याद करें कि रूस में सात नवंबर उन्नीस सौ सत्रह (रूसी कैलेंडर के मुताबिक 25 अक्टूबर) की समाजवादी क्रांति के बाद लेनिन ने यह कोशिश शुरू की कि पूरी दुनिया में समाजवादी क्रांतियां शुरू करवाई जाएं और इसके लिए उन्होंने गुलाम भारत में भी संपर्क किया।
भारत से क्रांतिकारी अवनि मुखर्जी रूस में जाकर लेनिन से मिले। कार्ययोजना बनी और तय हुआ कि भारत में जाकर क्रांतिकारियों और क्रांतिकारी तत्वों को संगठित कर क्रांतिकारी संगठन तैयार किया जाए। बाद में जब वह अपनी कार्ययोजना लेकर दोबारा रूस पहुंचे, तब तक लेनिन की गोली लगने के बाद कई महीने बीमार रहने से मौत हो चुकी थी। और घोर अवसरवादी स्टालिन रूस की सत्ता पर काबिज हो चुका था। उसके बाद भारत में कम्युनिष्ट पार्टियों का गठन हुआ, कम्युनिष्टों ने भारत के क्रांतिकारी आंदोलन के साथ किस तरह विश्वासघात किया…यह फिर कभी लिखूंगा। हां, चलते-चलते एक बात और बता दूं…कम्युनिष्टों के क्रांतिकारी आंदोलन से विश्वासघात करने वालों में क्रांतिकारी अवनि मुखर्जी की कोई भूमिका नहीं थी। वे आजीवन महान क्रांतिकारी रहे।

प्रभु! आप तो जा रहे हैं, मेरा क्या होगा?

बोधिवृक्ष

अशोक मिश्र

कहते हैं कि जो व्यक्ति जीवन और मृत्यु में भेद न करे, वह बुद्धत्व को प्राप्त कर लेता है। ज्ञान प्राप्ति के बाद महात्मा बुद्ध का जीवन एक स्थिर नदी के समान हो गया था। शोक और हर्ष में सदैव एक समान रहा है। वह मृत्यु को यात्रा के दौरान आने वाले एक पड़ाव की तरह मानते थे। उनका मानना था कि यात्रा तो अनंत है, उसमें कई पड़ाव आएंगे, जाएंगे, इन पड़ावों से भयभीत होकर भागना क्या? 

बात उस समय की है, जब महात्मा बुद्ध के जीवन का आखिरी दिन था। उस दिन भी तथागत एकदम शांत और स्थिर थे। मानो उनके शरीर में कोई पीड़ा न हो। हमेशा की तरह चेहरे पर छाई रहने वाली स्निग्ध मुस्कान उस समय भी विराजमान थी। कुटी के बाहर बुद्ध का प्रिय शिष्य आनंद अपने गुरु की मौत की आशंका में बैठा जार-जार रो रहा था, लेकिन उसके मुंह से आवाज नहीं निकल रही थी ताकि महात्मा बुद्ध न जान जाएं। 

अचानक तथागत के नेत्र खुले, उन्होंने शांत चित्त से आनंद को आवाज दी। आनंद अंदर आया और आर्द्र स्वर में बोला, प्रभु! आप तो जा रहे हैं। मेरा क्या होगा? यह सुनकर बुद्ध मुस्कुराए और बोले, आनंद! ऐसा मत कहो। मैं कोई अकेला बुद्ध तो हूं नहीं। अनेक बुद्ध आए और अपना कर्तव्य निभाकर चले गए। भविष्य में भी कई बुद्ध आएंगे। वह भी अपना कर्तव्य निभाकर चले जाएंगे। यह तो यात्रा है जो अनंतकाल तक चलती रहेगी। हो सकता है कि मेरे बाद तुम ही बुद्धत्व प्राप्त कर लो। 

इतना कहकर तथागत हमेशा के लिए मौन हो गए। बुद्ध की मौत के बाद आनंद की चेतना जाग्रत हुई। उसने बुद्ध के उपदेशों को न केवल याद रखा, बल्कि जीवन में भी उतारना शुरू कर दिया। वह तप, साधना, आत्मपरीक्षण में पूरी तरह लीन हो गया। और एक दिन वह भी आया जब उसने परमज्ञान प्राप्त कर लिया। बुद्ध के जीवित रहते वह बहुत ज्यादा ज्ञान अर्जित नहीं कर सका था।

धूम्रपान नहीं करने वालों को भी अपनी गिरफ्त में लेता जा रहा कैंसर

अशोक मिश्र

पिछले कुछ दशक से लोगों की प्रतिरोधक क्षमता घट रही है। लोग थोड़े से मौसम में बदलाव आने से ही बीमार पड़ रहे हैं। प्रदूषण और ग्लोबल वार्मिंग ने इंसान को संकट में डाल दिया है। हालत तो इतनी बदतर हो गई है कि पूरी जिंदगी में कभी एक भी सिगरेट न पीने वाले लोग भी फेफड़ों के कैंसर का शिकार हो रहे हैं। गला, त्वचा, फेफड़ा सब कैंसर का शिकार बन रहे हैं। इसका सीधा सा कारण है, वायु, जल और मृदा प्रदूषण। औद्योगिक विकास के नाम पर हमने अपने पूरे वायुमंडल को ही प्रदूषित कर दिया है। हवा, मिट्टी, पानी से लेकर खाद्यान्न तक प्रदूषित हो गए हैं।  नदियों, झरनों और भूगर्भजल में इतना रसायन घुल चुका है कि यह जल हमें जीवन की जगह हमारा जीवन ही छीनने के लिए तैयार दिखाई देता है। 

प्रदूषित जल का उपयोग करने से लोग असमय ही मौत के मुंह में समा रहे हैं। इस पानी से फसलों और सब्जियों की सिंचाई की जाती है जिसकी वजह से पानी में घुले विषैले तत्व अनाजों में भी पाए जाने लगे। इन अनाजों और सब्जियों का लंबे समय तक सेवन करने से शरीर का कोई न कोई हिस्सा कैंसरग्रस्त होने लगता है। कुछ इलाकों में नदियों और भूगर्भ जल में इतना ज्यादा फ्लोराइड जैसे तमाम रसायन इतनी ज्यादा मात्रा में घुली रहती है कि इस पानी का सेवन करने से लोगों की हड्डियां असमय गल रही हैं, दांत कमजोर होकर बीस-बाइस साल में ही गिर जा रहे हैं। हड्डियां खोखली हो रही हैं जिसकी वजह से थोड़ा सा भी दबाव पड़ने पर हड्डियां टूट जा रही हैं। 

दूषित अनाज-सब्जी और पानी का सेवन करने से छोटे-छोटे बच्चे तक फेफड़ा, त्वचा, आमाशय आदि के कैंसर से पीड़ित पाए जाने लगे हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार, जहां धूम्रपान करने वाले लोग कैंसर जैसी जानलेवा बीमारियों से पीड़ित पाए जा रहे हैं, वहीं बीते पांच साल में ऐसे लोगों की भी संख्या चालीस से पचास फीसदी बढ़ रही है जिन्होंने कभी धूम्रपान नहीं किया है। इसमें भी युवाओं की संख्या अच्छी खासी है। डॉक्टरों की मानें तो शहरी क्षेत्र में वायु प्रदूषण बड़े पैमाने पर फेफड़े के कैंसर का कारण बनता जा रहा है। 

जो लोग खुद तो सिगरेट, बीड़ी या हुक्का नहीं पीते हैं, लेकिन इनका सेवन करने वालों के साथ उठते बैठते हैं, ऐसी स्थिति में भी उनके फेफड़े में कुछ न कुछ धुआं जरूर जाता है। ऐसे लोगों में भी फेफड़े का कैंसर होने की आशंका बनी रहती है। यह समस्या केवल पुरुषों में ही नहीं, बल्कि महिलाओं में भी देखने को मिल रही है। फेफड़े के रोग से जुड़े दस लोगों में से औसतन तीन लोग कैंसर के रोगी पाए जा रहे हैं। डॉक्टरों का कहना है कि खांसी या गले में घरघराहट ज्यादा दिन रहे, तो तुरंत चिकित्सक को दिखाएं।

Friday, August 1, 2025

मार्क्सवाद-लेनिनवाद का रामनामी दुपट्टा

 बस, बैठे ठाले यों ही----------7 रचनाकाल----चार जुलाई 2020

नथईपुरवा गांव में मेरे एक पट्टीदार थे। पुराने जमाने में किसी तरह अर्थशास्त्र से एमए पास हो गए थे। प्राचीन नगरी श्रावस्ती (स्थानीय बोलचाल में सहेट-महेट) के पास स्थित एक इंटर कालेज में पढ़ाते थे। वैसे तो पट्टीदारी के नाते बाबा लगते थे। लेकिन उनसे एक रिश्ता और था। उनको मेरी बड़ी चाची की बहन ब्याही थीं। तो हम सभी उनको बाबा बोलते थे और उनकी पत्नी को मौसी। भइया ने तीस-बत्तीस साल पहले उनके बारे में एक बड़ा मजेदार बात बताई थी। भइया बोले तो आनंद प्रकाश मिश्र (महामंत्री,आरएसपीआई (एमएल), क्रांतियुग साप्ताहिक के प्रधान संपादक)। भइया ने बताया कि एक बार वे लखनऊ से गांव गए, तो रास्ते में बाबा मिल गए। उनके साथ जय शंकर प्रसाद मिश्र उर्फ करुणेश भैया (एकता मांटेसरी स्कूल, पुरैनिया तालाब के प्रिंसिपल और शायद संस्थापक कभी) भी थे।
पैलगी-वैलगी होने के बाद बातचीत होने लगी। बातचीत पता नहीं कैसे मार्क्सवाद की ओर घूम गई। बाबा ने कहा कि बड़कू (गांव जंवार के पुरनिया आज भी भइया को इसी नाम से पुकारते हैं)…मार्क्सवाद मैंने भी पढ़ा है। यह जो मार्क्सवाद है यही पूंजीवाद है। भइया हंस पड़े। अब आप कहेंगे कि भला…आज इतने साल बाद इस किस्से की क्या जरूरत आ पड़ी है। तो बात यह है कि जब से चीन और भारत के बीच गलवान और अन्य क्षेत्रों में सीमा विवाद को लेकर तनाव बढ़ा है, एक बार फिर भारत की कम्युनिष्ट पार्टियां की भूमिका चर्चा में है।
दक्षिणपंथी पार्टियां कम्युनिष्टों को कोस रही हैं और वे चुप हैं। दरअसल, दक्षिणपंथियों की नजर में सब धान बाइस पसेरी है। मार्क्सवाद, लेनिनवाद, माओवाद, स्टालिनवाद, ट्रास्टस्कीवाद, लोहिया का समाजवाद, ख्रुश्चेववाद, नक्सलवाद में दक्षिणपंथियों की नजर में कोई फर्क नहीं है। दरअसल, इसमें इनका दोष बस इतना है कि कम्युनिष्टों के प्रति घृणा इनमें चरम सीमा तक है। इसलिए कम्युनिष्ट साहित्य पढ़ना तो दूर देखना भी इनके लिए पाप है।
वहीं भारत की तमाम कम्युनिष्ट पार्टियों ने मार्क्सवाद-लेनिनवाद के नाम पर इतनी गंद मचाई है कि लोग इनसे दूर होते गए। अधकचरा ज्ञान इन्हें ले डूबा। मार्क्सवाद-लेनिनवाद का रामनामी दुपट्टा ओढ़कर इन कम्युनिष्ट पार्टियों के नेता आजीवन स्टालिनवाद, ट्रास्टस्कीवाद, लोहिया का समाजवाद, ख्रुश्चेववाद, नक्सलवाद और माओवाद को पालते पोसते रहे। इन्हें खुद नहीं मालूम कि मार्क्सवाद-लेनिनवाद और माओवाद, स्टालिनवाद, ट्रास्टस्कीवाद, लोहिया का समाजवाद, ख्रुश्चेववाद, नक्सलवाद में क्या फर्क है। मार्क्सवाद-लेनिनवाद ही नहीं, इन तमाम वादों का अधकचरा ज्ञान इन्हें ले डूबा। जबकि सच तो यह है कि जिन कम्युनिष्ट पार्टियों ने अपने नाम के साथ मार्क्सवाद या लेनिनवाद जोड़ रखा है, वह दुनिया को बेवकूफ बनाने के लिए भर है।
मार्क्सवाद या लेनिनवाद से उतना ही नाता है जितना दक्षिण पंथियों का मार्क्सवाद और लेनिनवाद से। दरअसल, अगर दुनिया के सभी दार्शनिक विचारकों को ठीक से पढ़े, तो मार्क्सवादी दर्शन दुनिया का सबसे मानववादी दर्शन है। दुनिया के सभी विचारकों ने अपने दर्शन में दुख क्या है इसकी व्याख्या की। मार्क्स पहले विचारक थे जिन्होंने दुख क्यों है? इसकी व्याख्या की। दुनिया भर के दार्शनिक जो सिर के बल दुनिया को देख रहे थे, उन्हें कार्ल मार्क्स ने पैरों के बल खड़ा कर दिया। लेनिन ने सिर्फ इतना किया कि मार्क्सवाद को आत्मसात कर उसके उपयोग की कला विकसित की। मार्क्सवाद दर्शन को वैज्ञानिक तरीके से समाज पर लागू करने की कला लेनिनवाद है। लेनिनवाद के बिना मार्क्सवाद अधूरा है, तो मार्क्सवाद के बिना लेनिनवाद का कोई मतलब नहीं है।

फर्श से अर्स तक पहुंचे हेनरी फोर्ड

बोधिवृक्ष

अशोक मिश्र

अमेरिका के प्रसिद्ध उद्योगपति और कार व्यवसायी हेनरी फोर्ड का जन्म मिशिगन के स्प्रिंगवेल्स टाउनशिप में 30 जुलाई 1863 को हुआ था। उनके पिता उन्हें किसान बनाना चाहते थे, लेकिन उनका मन खेती-किसानी में नहीं लगता था। उनका मन मशीनों में लगता था। यही वजह है कि वह ज्यादा पढ़-लिख भी नहीं सके। उन्होंने स्प्रिंगवेल्स मिडिल स्कूल से केवल आठवीं कक्षा पास की। 

एक दिन उनके पिता ने उन्हें एक घड़ी दी, तो उन्होंने उसको खोल दिया। थोड़ी देर बाद जब उनके पिता लौटे तो घड़ी को खुला देखकर नाराज हुए। उन्होंने तुरंत उस घड़ी को पहले जैसा कर दिया। इसके बाद तो उन्होंने अपने दोस्तों और पड़ोसियों की घड़ियों को ठीक करना शुरू कर दिया। सोलह साल की उम्र में ही वह भागकर शहर आ गए। क्योंकि उनका गांव में मन नहीं लगता था। शहर में काफी भटकने के बाद रेल के डिब्बे बनाने वाले कारखाने में हेनरी फोर्ड को काम मिला। 

वहां एक मशीन खराब हो गई थी जिसे फोर्ड ने आधे घंटे में ही ठीक कर दिया। लेकिन उम्र कम होने की वजह से कुछ ही दिनों बाद फोर्ड को काम से निकाल दिया गया। काम की तलाश में वह भटक ही रहे थे कि एक दिन वह एक लड़के से टकरा गए जिसके थैले में काफी घड़ियां रखी हुई थीं। उनमें से कुछ टूट गई थीं। फोर्ड ने उस लड़के को घड़ियों को ठीक करने का आश्वासन दिया और उसके पिता की दुकान पर जाकर सभी घड़ियां ठीक कर दीं। 

जीवन संघर्ष के दौरान उन्होंने पेट्रोल से चलने वाली गाड़ी बनाई जो उस साल अमेरिका में होने वाली कार रेस में जीत गई। इसके बाद तो हेनरी फोर्ड ने पीछे घूमकर नहीं देखा। बाद में उन्होंने एक आटोमोबाइल कंपनी की स्थापना की और फिर उनकी कारों ने पूरी दुनिया में धूम मचा दी। उन्होंने अपनी कंपनी में काम करने वाले कर्मचारियों का हमेशा ख्याल रखा।

एक महीने में पशुविहीन हो जाएंगी हरियाणा की सड़कें?

अशोक मिश्र

हरियाणा के मुख्यमंत्री नायब सिंह सैनी के निर्देश पर कल से पूरे प्रदेश की सड़कों को बेसहारा पशु मुक्त करने की योजना की शुरुआत होने जा रही है। इस बात की घोषणा मुख्यमंत्री के अतिरिक्त सचिव ने की है। योजना के मुताबिक, एक अगस्त से 31 अगस्त तक प्रदेश की सड़कों पर घूमने वाले बेसहारा पशुओं को पकड़कर उन्हें गौशालाओं को सौंपा जाएगा। सड़कों पर बेसहारा घूमने वाले पशुओं के कारण आए दिन दुर्घटनाएं होती रहती हैं। सड़कों पर वाहनों या पैदल आने जाने वाले लोगों पर कई बार बेसहारा पशु हमला कर देते हैं। कई बार तो यह आपस में लड़ने लगते हैं जिसकी वजह से लोग घायल हो जाते हैं। 

कई बार इनकी आपसी लड़ाई में घायल या कुचले गए लोगों को अपनी जान तक गंवानी पड़ती है। सड़कों पर बेपरवाह घूमते पशुओं को देखकर लोग भयभीत हो जाते हैं और उसके आसपास से गुजरते समय वह इसी आशंका में रहते हैं कि पता नहीं कब पशु हमला कर दे या आपस में लड़ पड़ें। रात में हालत तो और भी खराब हो जाती है। लोग अपने पालतू पशु को भी खुला छोड़ देते हैं और सुबह होने पर वह अपने यहां फिर बांध लेते हैं। वैसे सड़कों को बेसहारा पशुओं से मुक्त करने का अभियान कोई पहली बार नहीं चलाया जा रहा है। 

पिछले साल भी पांच अगस्त को सीएम सैनी ने बेसहारा पशुओं को गौशालाओं में भेजने की घोषणा की थी। तब उन्होंने कहा था कि सभी गौशालाओं को चारे के लिए अनुदान राशि पांच गुना करके प्रति गाय 20 रुपये प्रतिदिन दिए जाएंगे। नंदी के लिए 25 रुपए प्रतिदिन और बछड़ा/बछड़ी के लिए 10 रुपये प्रतिदिन चारा अनुदान मिलेगा। उन्होंने बेसहारा गाय/बछड़ा/बछड़ी पकड़कर अपनी गौशाला में लाने के लिए 600 रुपये प्रति गाय और 800 रुपये प्रति नन्दी की दर से तुरंत नगद भुगतान करने की भी घोषणा की थी। यही नहीं, सीएम सैनी ने कहा था कि राज्य सरकार द्वारा 70 मोबाइल पशु चिकित्सालयों की व्यवस्था की गई है। 

मोबाइल पशु चिकित्सालय सप्ताह में एक दिन केवल गौशालाओं के गौवंश के उपचार, टैगिंग, टीकाकरण, गिनती आदि के लिए उपलब्ध होंगी। इन घोषणाओं पर कितना अमल हुआ, यह सरकार अच्छी तरह बता सकती है। हर सरकार साल में एक बार सड़कों को बेसहारा पशु मुक्त करने के लिए अभियान चलाती है। यह सच है कि प्रदेश में गाय छोटे और सीमांत किसानों की आजीविका का एक मुख्य साधन रही है।  इसके गोबर से खाद बनाकर प्राकृतिक खेती भी की जा सकती है। वहीं दूध को बेचकर अपनी अर्थव्यवस्था को किसान सुधार सकता है। वैसे भी गाय के दूध को अमृत के समान माना गया है।