-अशोक मिश्र
अपने बिहार शिरोमणि लालू भाई जब भी बोलते हैं, बिंदास बोलते हैं। उनके बिंदास बोल का मुरीद तो मैं तब से हूं, जब उन्होंने कहा था, ‘तनी कुछ दिन रुका, पटना की सड़कों को हेमामालिनी के गाल की तरह चिकना बना दूंगा।’ हालांकि यह कभी हुआ नहीं। पटना की सड़कें आज भी अपनी किस्मत को रो रही हैं। हां, तब पहली बार लगा था कि चलो, हिंदुस्तान की सियासत में कोई बिंदास बोलने वाला तो पैदा हुआ। जिस समय की बात मैं कर रहा हूं, उस युग में राजनीति की ऐसी भाषा नहीं हुआ करती थी। राजनीतिक दलों पर कड़ी से कड़ी टिप्पणी करने से पहले विरोधी कई बार सोचते थे और तब ‘तोल मोल कर’ बोलते थे। लेकिन लालू भाई ने एक नई भाषा ईजाद की। वैसे अपने लालू भाई जो कुछ भी करते हैं, बिंदास ही करते हैं। चारा घोटाले का आरोप लगा, तो बिंदास बोले, ‘हम कोई पशु-डांगर हैं का, जो चारा खा गए। जावा कहीं और ढूंढा चारा-वारा।’ वैसे तो विश्वास नहीं होता कि लालू भइया ने चारा खाया होगा। लेकिन यह भी उनके कलेजे की बात है कि चारा खाया भी, तो बिंदास खाया। आज तक साबित नहीं हो पाया कि करोड़ों रुपये का चारा कौन खा गया। अब तक तो करोड़ों रुपये यही पता करने में खर्च हो गए कि आखिर वह चारा गया कहां? कौन खा गया, लालू भइया या उनके तबेले में पली भैंसें।
काफी दिनों से मैं लालू भइया के बिंदास बोल का इंतजार कर रहा था। इधर उनके बोलने की आवृत्ति कुछ कम हो गई है। अब उम्र भी हो गई है। जवानी वाली बात रह भी नहीं। वैसे भी वे बिंदास बोल के लिए नई पीढ़ी को मौका देना चाहते हैं। अफसोस की बात तो यह है कि नई पीढ़ी में इतना जिगरा किसी के पास दिखता नहीं है। सो, कभी-कभार लालू जी बोल देते हैं। उनके बोलने से ही पता चलता है कि अभी वे चुके नहीं हैं। उनकी ऊर्जा अभी बरकरार है। अभी कल ही तो उन्होंने पटना में देश के एक नामी गिरामी स्वामी को कहा है कि वे बौरा गए हैं। ये स्वामी जी कोई स्वामी भीमानंद या नित्यानंद जैसे नहीं हैं। योग के बढ़िया कारोबारी हैं। उनकी देश-विदेश में तूती बोलती है। खूब खा-पीकर मुटा गए लोगों को कपालभाति और कंकालभाति क्रिया समझाते हैं। स्वामी जी का दोष सिर्फ इतना है कि उन्होंने बलात्कारियों और भ्रष्टाचारियों को फांसी देने की मांग की थी। हालांकि स्वामी जी के इस बयान के पीछे मंशा चर्चा में बने रहने की थी, लेकिन उनके बौरा जाने की जानकारी देकर भाई लालू बाजी मार ले गए।
वैसे अगर यह मान लिया जाए कि स्वामी जी सचमुच बौरा गए हैं, तो इसमें उनका भी कोई दोष नहीं है। कुछ ही दिनों में फागुन आने वाला है। जिस प्रकार सूर्य निकलने से पहले रश्मियां आकर यह संकेत दे देती हैं कि सूर्य निकलने वाला है। ऐसा ही फागुन का मामला है। फागुन के सारथि ऋतुराज बसंत तो बस दरवाजे पर दस्तक देने वाले हैं। कहते हैं कि फागुन में बाबा भी बौरा जाते हैं। सत्तर-अस्सी वर्षीय बाबा भी देवर लगने लगते हैं। अंग-अंग कथक और भंगड़ा करने लगता है। बासंती बयार उनकी बूढ़ी हड्डियों को कड़कड़ाने पर मजबूर कर देती है। ऐसे में अगर स्वामी जी भी बौरा गए हैं, तो इसके लिए वे कतई दोषी नहीं हैं। निगोड़ी प्रकृति के फंदे में इस बार स्वामी जी फंसे हैं, कल कोई और फंसेगा। बस फाल्गुन आने दीजिए। पोपले मुंह वाली अस्सी वर्षीया भाभियां कुछ ही दिन पहले ब्याही गई नवयौवनाओं को भी मात न दे दें, तो कहना। भई, कोई कुछ भी कहे, स्वामी जी के बौराने में कम से कम मैं तो उनका दोष नहीं मानता। लालू भाई आपका क्या खयाल है?
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