Wednesday, September 5, 2012

आखिर कब होगा विहान?


अशोक मिश्र   

देश के अन्य राज्यों के अलावा पूर्वी उत्तर प्रदेश के गोण्डा, बलरामपुर, बस्ती, बहराइच, बाराबंकी आदि जिलों में एक जनजाति बसती है थारू। थारू जनजातियों की महिलाओं को न तो अपना अधिकार मांगना पड़ता है, न ही उन्हें इसके लिए किसी पंचायत, न्यायालय या पुलिस के पास जाने की जरूरत होती है। यह उनकी परंपरा में है। यदि पुरुष को मनचाही स्त्री को रखने की इजाजत है, तो स्त्री को भी यह अधिकार मिला हुआ है कि वह जब चाहे अपनी पसंद के पुरुष के साथ रह सकती है ( ठीक लिव इन रिलेशन की तरह), उसके साथ पहले पति को त्यागकर विवाह कर सकती है। हां, इसके लिए बस जातीय पंचायत में अपनी बात रखनी होगी। इस जनजाति में न तो नारी दलित है, उत्पीड़ित है, न शोषित है, और न ही शोषक की भूमिका में है। यहां न दहेज की समस्या है, न ही दैहिक या मानसिक शोषण की। स्त्री और पुरुष जनजातीय मर्यादाओं और परंपराओं में बंधे होने के बावजूद स्वतंत्र होते हैं। इनकी जनजातीय व्यवस्था में शोषण का कहीं कोई स्थान नहीं है। इसका यह मतलब नहीं है कि इनका शोषण, दोहन या उत्पीड़न नहीं होता है। इनका शोषण, दोहन और उत्पीड़न का माध्यम बनती हैं इनकी जातीय व्यवस्था से इतर की व्यवस्थाएं।
ऐसा क्यों है? इसका विश्लेषण करने पर एक बड़ा रोचक तथ्य सामने आता है। वह यह कि थारू और इनकी जैसी अन्य जनजातियां ज्यादातर आज भी घुमंतू ही हैं। इनके पास निजी संपत्ति के नाम पर तंबू, कनात, छेनी, हथौड़ी, कुल्हाड़ी, पेशागत अन्य औजार, बकरी, भैंस आदि ही होते हैं।
खेत या खलिहान जैसी व्यवस्था घुमंतूपन की वजह से इनके किसी काम की नहीं है। परिवार का मुखिया स्त्री या पुरुष दोनों में से कोई भी हो सकता है, लेकिन उस परिवार के सभी सदस्यों का उत्पादन के साधनों यानी निजी संपत्ति पर समान अधिकार होता है। यदि किसी वजह से इस जनजाति की स्त्री या पुरुष के बीच संबंध विच्छेद होते हैं, तो सभी चीजों का बराबर बंटवारा होता है। यही वजह है कि इन जनजातियों में स्त्रियां स्वतंत्र होती हैं। महिलाओं की आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक स्थिति को सुधारने में इस आदिवासी मॉडल को अपनाया जा सकता है। यदि नहीं, तो महिलाओं की राजनीतिक और सामाजिक चेतना और उनकी बदतर स्थिति को सुधारने में महिला आरक्षण विधेयक को पास कर, उसे कानून बनाकर उनमें आत्म विकास की ज्योति जगाई जा सकती है। भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू संसद और विधानसभाओं में महिलाओं की भागीदारी का निहितार्थ समझते थे, तभी तो पहली लोकसभा के गठन के बाद सन 1952 में उन्होंने सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों को पत्र लिखकर राजनीति में महिलाओं की सक्रिय भागीदारी बढ़ाने की अपील की थी। उन्होंने अपने पत्र में लिखा था, ‘आज जब मैं संसद के दोनों सदनों के लगभग सात सौ सदस्यों के साथ मिल रहा था, तो मैंने पाया कि इन सदस्यों में महिलाओं की संख्या बहुत कम है। मैं समझता हूं कि ऐसा ही विधानसभाओं और कौंसिलों में भी होगा। यह किसी का विरोध करने या किसी की तरफदारी करने का मामला नहीं है। यह मेरा विश्वास है कि हमारा वास्तविक और आधारभूत विकास तभी हो सकता है, जब सार्वजनिक जीवन में सक्रिय रहने की पूर्ण स्वतंत्रता महिलाओं को मिले।’ नेहरू की मंशा को न तो तब किसी ने समझने की जरूरत समझी और न ही आज उन्हें समझने का प्रयास किया जा रहा है। यदि राजनीतिक दलों ने आपसी भेदभाव भुलाकर महिलाओं की उन्नति की दिशा में प्रयास किया होता, तो शायद आज महिलाओं की यह दयनीय दशा नहीं हुई होती।
काफी जद्दोजहद के बाद 73वें और 74वें संविधान संशोधन अधिनियम 1993 में पारित कर सरकार ने पंचायतों में महिलाओं को आरक्षण देकर उनकी प्रगति का मार्ग प्रशस्त किया। नतीजा सबके सामने है। आज देश में लगभग साढ़े सात लाख ग्राम पंचायतें हैं जिनमें से लगभग साढ़े चार लाख चुनी गई महिला सरपंच गांव और समाज के विकास में अहम भूमिका अदा कर रही हैं। महिला सशक्तिकरण के क्षेत्र में सरकार का यह कदम मील का पत्थर साबित हो रहा है।
अगर हम इन पंचायतों में चुनी गई महिलाओं की गणना करें, तो यह विश्व में संसद, विधानसभाओं और अन्य क्षेत्रों में निर्वाचित महिलाओं की संख्या से बहुत ज्यादा है। इसके बावजूद स्थिति संतोषजनक नहीं है। आजादी के पैंसठ सालों में देश ने कई मामलों में उल्लेखनीय प्रगति की। दूरसंचार, सैन्य, औद्योगिक विकास और अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में हमारे देश की प्रगति ने अमेरिका, चीन, रूस जैसी महाशक्तियों के समकक्ष लाकर खड़ा कर दिया है, लेकिन महिलाओं की सामाजिक और आर्थिक सशक्तिकरण के मामले में हमने कोई उल्लेखनीय सफलता नहीं हासिल की है। राजनीतिक पार्टियां संसद से बाहर तो महिला आरक्षण विधेयक को पास करने की तरफदारी करते हुए नहीं अघाती हैं, लेकिन संसद सत्र के दौरान उनका हृदय परिवर्तन हो जाता है। आम राय के नाम पर महिला आरक्षण बिल आज तक लटका हुआ है।
ऐसी स्थिति सिर्फ हमारे देश में ही हो, ऐसा भी नहीं है। संसद में महिलाओं को प्रतिनिधित्व देने के मामले में रवांडा, स्वीडेन, क्यूबा, फिनलैंड, नेपाल, अफगानिस्तान और साउथ अफ्रीका जैसे पिछड़े और अविकसित देश दुनिया की महाशक्ति कहे जाने वाले अमेरिका, रूस, चीन और भारत से कहीं आगे हैं। अविकसित   और पिछड़े देशों में शुमार साउथ अफ्रीका सन 2004 में निम्न सदन के लिए हुए चुनाव में 400 में से 132 महिलाएं और सर्वोच्च सदन के लिए हुए चुनाव में 54 में से 22 महिलाएं चुनी गई थीं। वहीं संयुक्त राज्य अमेरिका में सन् 2006 में हुए राष्ट्रपति चुनाव में 435 सीटों में से महिलाओं की भागीदारी सिर्फ 73 थी, वहीं उच्च सदन में सौ सीटों के मुकाबले 16 महिलाएं ही पहुंची थी। सन 2009 में हुए आम चुनाव में भारतीय महिलाओं के लोकसभा में पहुंचने का आंकड़ा इन देशों के मुकाबले तो और भी कम रहा। 543 सीटों के लिए हुए चुनाव में सिर्फ 59 महिलाएं ही संसद में पहुंच सकीं, उस पर भी इस देश की नेताओं ने यह कहकर अपनी पीठ थपथपाई कि सन 1952 से लेकर आज तक इतनी महिलाएं लोकसभा में नहीं पहुंची थीं। यदि महिलाओं को संसद और विधानसभाओं में एक तिहाई आरक्षण मिल जाता है, तो भी उनकी स्थिति में बहुत ज्यादा फर्क पड़ने वाला नहीं है। आज भी हमारे देश की महिलाओं की दशा कई पिछड़े और अविकसित कहे जाने वाले देशों के मुकाबले बदतर है।

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