Tuesday, August 27, 2013

मुस्टंडा डॉलर, पिलपिला रुपइया

-अशोक मिश्र 
भाई डॉलर! इन दिनों आप हमारे देश में बहुत भाव खा रहे हैं। सुना है, जब तक आपके आका इशारा नहीं करेंगे, आप इसी तरह भाव खाते रहेंगे। आपको शायद पता हो कि हमारे देश में एक बहुत पुरानी कहावत है, ‘खुदा मेहरबान, तो गधा पहलवान।’ ठीक है साहब! खा लीजिए भाव, जब तक आपके खुदा आप पर मेहरबान हैं। हां, एक बात आपको बतानी थी कि आपके भाव खाने से हमारे देश की अर्थव्यवस्था का हाजमा जरूर बिगड़ गया है। खाया-पिया सब कुछ बाहर आ रहा है। कहने का मतलब यह है कि हमारी अर्थव्यवस्था ने अब तक जितना भी डॉलर कबीरदास की सीख ‘खाए खर्चे जो बचे, तौ जोरिये करोर’ मानते हुए खाने-खर्चने के बाद बचा रखा था, वह भी खर्च होता जा रहा है। घर की भूजी-भांग भी खर्च होती जा रही है, इसी चिंता में बेचारी अर्थव्यवस्था दुबली होती जा रही है। मेरे प्यारे भाई डॉलर! आज तुमारे भाव चढ़ रहे हों, तो तुम इतरा रहे हैं, भाव खा रहे हो, खाओ। तुम्हारा समय है। आज तुम मुस्टंडों की तरह सीना तान कर इस देश में दनदनाते घूम रहे हो और मैं पिलपिलाया हुआ एक कोने में पड़ा सिसक रहा हूं।
भाई! एक बात बताऊं। यह वक्त-वक्त की बात है। कभी नाव पानी पर, तो कभी पानी नाव पर। यह वही देश है, जिसे तुम दुनिया वाले ‘सोने की चिड़िया’ कहते नहीं अघाते थे। हमारे यहां भिखमंगों की तरह आते थे और हम उदारतापूर्वक सोना, चांदी आदि को मिट्टी समझते हुए तुम्हें उपहार में देते थे। हमारे देश में इतना सोना, चांदी, जवाहरात भरा पड़ा था कि हमारे देश के बच्चे सोने-चांदी की गोलियां बनाकर खेलते थे। फिल्म ‘उपकार’ में मनोज कुमार ने जब गाया कि ‘मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे मोती।’ तब तुम पश्चिमी देशों को पता चला कि तुम कितने गिरे हुए हो। तुम कितने गरीब हो। डॉलर भाई! एक बार सोचकर देखो, जब हमारे देश के खेतों में सोना, चांदी, हीरे-जवाहरात पाए जाते थे, तो क्या हमारे देश के लोग घर उठा ले जाते थे? नहीं...वे उसे भी मिट्टी समझकर खेतों में ही छोड़ आते थे। हमारे देश के लोग तुम पश्चिम वालों की तरह लालची नहीं हैं और न कभी थे। हमने सोने-चांदी में अन्न उगाए हैं। भाई मुस्टंडे डॉलर! यह बात तुम्हें शायद पता नहीं होगी? अगर पता होती, तो मैं निश्चित तौर पर कह सकता हूं कि तुम अपनी औकात में रहते और हमें भी योगियों की तरह अलमस्त होकर भगवान का भजन करने देते। अगर हमारे देश का इतिहास उठाकर देखो, तो तुम अपने चढ़ते भाव पर इतराना छोड़ दोगे या अपने आका से बगावत कर जाओगे। यह देश वैसे भी ‘माया’ से दूर रहने वाला रहा है। हमारे यहां तुम्हारी क्या औकात रही है, इसको तुम इस बात से समझ सकते हो। हमारे देश में जितने भी समझदार लोग हैं, वे अपने रुपये-पैसे को पास रखकर अपने दीन-ईमान को खराब नहीं करना चाहते हैं, इसीलिए खाने और खर्च करने से जो भी माया अर्थात रुपये-पैसे बच जाते हैं, वह स्विस बैंक में एक दानखाता खोलकर जमा करा देते हैं। न रहेगी बांस, न बजेगी बांसुरी। जब माया-मोह का कारण बनने वाला रुपया-पैसा अपने देश में रहेगा ही नहीं, तो वे मोहग्रस्त कैसे होंगे। मोह-माया से बचने का इतना धांसू आइडिया आपके देश वालों को कभी सूझा? या कभी सूझ पाएगा? नहीं...न!
दरअसल, बात यह है कि आप थोड़े में ही इतरा जाने वाले लोगों के साथ रहते-रहते बिगड़ गए हैं। साठ पार क्या पहुंचे, सठियाने लगे? हमारे यहां साठ साल का आदमी जवान माना जाता है। विश्वास न हो, तो हमारे देश के साठ पार नेताओं, अभिनेताओं, साधु-संतों की करतूतों को देख लो। वे जवानों को भी मात करते हैं। हमारे देश के नौजवान जिन बातों और करतूतों पर शर्म महसूस करते हैं, उसे करने में हमारे ये साठ वर्षीय जवान तनिक भी नहीं लजाते। तुम पश्चिम वालों की यही तो खराबी है कि जरा सी बात पर इतराना शुरू कर देते हो। मुझे याद है, तुम्हारे एक राष्ट्रपति जरा-सा बौराए, तो तुम अमेरिकियों ने आसमान सिर पर उठा लिया था। हमारे यहां देखो। तुम्हारे राष्ट्रपति के भी बाप बैठे हैं। हमने कभी हो-हल्ला मचाया? यह सब तो हमारे जीवन का हिस्सा है। हमारे देश में यह कहावत सदियों पुरानी है कि ‘साठा, तब पाठा’ अर्थात आदमी जब साठ साल का होता है, तो वह किसी बछड़े-सा नौजवान हो जाता है। इस उक्ति को चरितार्थ करने वाले सिर्फ आपको हमारे ही देश में मिलेंगे। अगर बाकी देशों में कोई ऐसा करता है, तो जरूर उसके वंशज भारतीय रहे होंगे या फिर उन्होंने किसी भारतीय से ही प्रेरणा ली होगी। भाई डॉलर! इसलिए आपको बहुत ज्यादा इतराने की जरूरत नहीं है। मुझे साठ-सत्तर के स्तर तक पहुंचाकर कोई तीर नहीं मार लिया है। यह तो मेरी स्वाभाविक जवानी है। कभी अपने को जवान समझकर भिड़ने की कोशिश की, तो मुंह की खाओगे। इसलिए मेरी सलाह है, अब इतराना बंद करके अपनी औकात में आ जाओ, वरना अगर मैं तुम्हें औकात बताने पर तुल गया, तो तुम पर और तुम्हारे आका पर भारी पड़ेगा।

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