-अशोक मिश्र
हां, तो बात स्वाधीनता
संग्राम में बंगाल के किसान विद्रोह से आगे बढ़कर ईस्ट इंडिया कंपनी (‘द
यूनाइटेड कंपनी आफ मर्चेंट्स आफ इंग्लैंड ट्रेडिंग टू ईस्ट इंडीज’) तक आ
पहुंची थी। सन 1821 में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ भड़की विद्रोह की चिंगारी
धीरे-धीरे सुलगती रही और 1657 में सैनिक विद्रोह के रूप में प्रस्फुटित
हुई। 1857 का सैनिक विद्रोह प्रथम स्वतंत्रता संग्राम था या गदर, इस पर
इतिहासकारों में मतवैभिन्य है। जहां तक मेरी जानकारी है, ज्यादातर
इतिहासकार सन 1857 के विद्रोह को सैनिक विद्रोह ही मानते हैं।
राजे-रजवाड़ों का विद्रोह। लेकिन सबसे पहले सन 1857 के विद्रोह को अगर किसी
ने प्रथम स्वाधीनता संग्राम माना, तो वह थे कार्ल मार्क्स और फेडरिक
एंगेल्स। जिन दिनों अट्ठारह सौ सत्तावन का विद्रोह भारत में चल रहा था,
उन्हीं दिनों लंदन में निर्वासित जीवन बिता रहे कार्ल मार्क्स और उनके
सहयोगी फेडरिक एंगेल्स ने न्यूयार्क डेली ट्रिब्यून में भारत और उसके
सिपाही विद्रोह को प्रथम स्वाधीनता संग्राम के बारे में बताते हुए
सिलसिलेवार लेख लिखा था। बाद में ये सभी लेख ‘द फर्स्ट इंडियन वार आफ
इंडिपेंडेंस 1857-59’ (भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम 1857-59) के नाम
से पुस्तकीय रूप में प्रकाशित हुए। उन दिनों लंदन में निर्वासित जीवन बिता
रहे कार्ल मार्क्स न्यूयार्क डेली ट्रिब्यून से एक पत्रकार के रूप में
(फ्रीलांस जर्नलिस्ट) जुड़े हुए थे। अपनी पुस्तक में कार्ल मार्क्स ने मेरठ
का सैनिक विद्रोह, लखनऊ और कानपुर के सैनिक विद्रोह सहित भारत में होने
वाले तमाम विद्रोहों के बारे में लेख लिख हैं। भारत में कुछ लोग मानते हैं
कि सन 1857 के सैनिक विद्रोह को सबसे पहले सावरकर ने स्वाधीनता संग्राम कहा
था, उन लोगों को यह बात अच्छी तरह से समझ लेनी चाहिए कि पूरी दुनिया में
सबसे पहले भारतीय सैनिक विद्रोह को स्वाधीनता संग्राम कहने वाले कार्ल
मार्क्स और फेडरिक एंगेल्स थे, सावरकर नहीं। सावरकर की किताब सन 1908 में
पूरी हुई थी। नाम था 1857 के प्रथम स्वातंत्र्य समर। एक बात और। कार्ल
मार्क्स और फेडरिक एंगेल्स भारत के स्वाधीनता संग्राम के दौरान जीवित रहे
थे और दामोदर विनायक सावरकर का जन्म ही 28 मई 1883 में हुआ था। यदि हमें
अट्ठारह सौ सत्तावन के सैनिक गदर को अच्छी तरह से समझना हो, तो हमारी दो
पुस्तकें बहुत अधिक मदद कर सकती हैं। पहली पुस्तक तो है द फर्स्ट इंडियन
वार आफ इंडिपेंडेंस 1857-59 और दूसरी पुस्तक है विष्णुभट्ट गोड्से वरसाईकर
की मराठी में लिखी माझा प्रवास। इस पुस्तक का प्रख्यात साहित्यकार अमृतलाल
नागर ने आंखों देखा गदर के नाम से अनुवाद किया है। ये दोनों पुस्तकें भारत
के प्रथम सैनिक विद्रोह के दौरान या उसके एकाध साल के बाद लिखी गई थीं।
वैसे यह भी सही है कि कार्ल मार्क्स और फेडरिक एंगेल्स कभी भारत नहीं आए
थे, लेकिन भारत के इतिहास, यहां से सामाजिक,राजनीतिक और सांस्कृतिक
ताने-बाने का गहन अध्ययन उन्होंने 1850 से 1860 के बीच ही करना शुरू कर
दिया था। उनका मानना था कि भारत में स्वतंत्रता संग्राम की चिन्गारी यदि
प्रस्फुटित होती है, तो उसका प्रभाव यूरोप, अमेरिका और एशिया के उन तमाम
देशों पर पड़ेगा जो अपनी आजादी के लिए भीतर ही भीतर तैयारी कर रहे हैं या
फिर उन देशों में स्वाधीनता संग्राम अभी भीतर ही भीतर हिलोरें ले रहा है।
अपनी पुस्तक इ फर्स्ट इंडियन वार आफ इंडिपेंडेंस में संग्रहीत एक लेख में
न्यूयार्क डेली ट्रिब्यून के 15 जुलाई, 1857 के अंक में स्पष्ट तौर पर मेरठ
में हुई घटना का कार्ल मार्क्स ने पूरा विवरण दिया है। उन्होंने अपनी
रिपोर्ट में लिखा है कि जब 10 मई को मेरठ छावनी में क्रांति फूटी और भारतीय
सिपाही विद्रोह कर अंग्रेजी फौज को चुनौती देते हुए दिल्ली कूच कर गए, तो
रुड़की से नेटिव सैपर्स एंड माइनर्स (गोला दागने वाले, पुल आदि बनाने वाली
रेजीमेंट) को 15 मई को मेरठ छावनी बुला लिया गया। इनकी अस्थायी बसावट
ब्रितानी फौजियों के साथ की गई। अचानक अगले ही दिन 16 मई को इस रेजीमेंट के
एक हिंदुस्तानी सिपाही ने अपने अफसर मेजर फ्रेजर का कत्ल कर दिया। इसके
बाद सभी भारतीय सिपाहियों ने छावनी के पीछे (मौजूदा समय में डिफेंस कालोनी
से होते हुए) काली नदी की तरफ भागे। घोड़े पर सवार ब्रितानी अफसर और
सिपाहियों ने पीछा किया। इनमें से 50-60 को वहीं मौत के घाट उतार दिया। जो
सिपाही बचे थे, वे दिल्ली पहुंच गए और दूसरे क्रांतिकारियों से मिल गए।
Thursday, August 20, 2020
बस यों ही बैठे ठाले-3
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