Tuesday, September 8, 2020

बस यों ही बैठे ठाले-4

-अशोक मिश्र
हां, तो मैंने पिछली पोस्ट में दो पुस्तकों का जिक्र किया था। एक थी कार्ल मार्क्स और फेडरिक एंगेल्स की ‘द फर्स्ट इंडियन वार आफ इंडिपेंडेंस’ और दूसरी विष्णुभट्ट गोड्से वरसाईकर की ‘माझा प्रवास’ (आंखों देखा गदर-अनुवाद अमृत लाल नागर)। मेरे ख्याल से (मेरे ख्याल से आप इत्तफाक ही रखे, यह किसी पुस्तक में लिखा तो नहीं है) इन दोनों पुस्तकों में अट्ठारह सौ सत्तावन की घटनाओं का सटीक वर्णन और विश्लेषण मौजूद है। इन दोनों पुस्तकों से कम से कम 1857 के सैनिक विद्रोह की बहुत सी बातों का खुलासा हो जाता है। विष्णुभट्ट की पुस्तक माझा प्रवास क्यों लिखी गई, इसकी एक बहुत ही मजेदार कहानी है। वे अपने बारे में बताते हुए कहते हैं कि हमारा गोड्सों का घराना भिक्षुकों का था। जब श्रीमंत पेशवा महाराष्ट्र छोड़कर ब्रह्मावर्त (कानपुर के बिठूर) जाने के लिए निकले, तो उनके पिता बालकृष्ण पंत भी उनके साथ जाने के लिए निकले, नर्मदा के तट तक गए भी, लेकिन बुढ़ापे के कारण शरीर जर्जर होने और बुखार आ जाने के कारण उन्हें लौटना पड़ा। बाद में उन्होंने विन्चूर (यह कौन थे, यह उनकी पुस्तक में स्पष्ट नहीं है) के यहां की कारकूनी छोडकर वरसई में बसने का निश्चय किया। यहां उनकी आय का साधन एक मात्र ब्रह्मयज्ञ (पुरोहिताई) और भिक्षुकी ही था। ऐसे माहौल में पले-बढ़े विष्णुभट्ट का बचपन बहुत ही गरीबी में बीता। भिक्षुकी से बहुत सी आय होती नहीं थी क्योंकि उस समय भी गृहस्थ होने के चलते भिक्षा मांगने में बहुत सी सामाजिक बाधाएं थीं। ब्रह्मयज्ञ और थोड़ी सी खेती ही थी, जिससे उनके परिवार का गुजर बसर होती थी। वे लिखते हैं कि हालात तब और बिगड़ गए जब उनके काका कृष्ण भट्ट और राम भट्ट उनसे अलग हो गए। तब विष्णु भट्ट की उम्र दस वर्ष थी। प्रात:काल से सायंकाल पर्यंत स्नान, सन्ध्या, ब्रह्मयज्ञ, रुद्र की एकादशणी, देवपूजा, भागवत पाठ, श्री बैजनाथेश्वर का षोडशोपचार पूजन, भोजन के बाद अष्टाध्याय गीता का पाठ इत्यादि ऋषि कर्मों में उनके निमग्न रहने से गृहस्थों की तरह भी रोजी-रोजगार का कोई साधन न रहा। पिता जी गृहस्थ कर्मों में कुशल थे। उन्होंने मोड़ी, बालबोध लिखना, बांचना, ब्याज का हिसा फैलाना, जमा-खर्च वगैरह की बावत मुझे शिक्षण देकर कहीं नौकरी पर लगाने का विचार कर रहे थे कि एक दिन विष्णुभट्ट के बड़े काका (चाचा) उनके पिता के पास आए और बोले कि मेरे कोई लड़का नहीं है। राम भट्ट की पत्नी मर गई है। इसलिए हमारे पच्चीस यजमानों के घर का कोई कुल गुरु नहीं रहेगा, सो उचित नहीं है। मैं दो-तीन विद्यार्थी जमा करके विष्णु को संहिता पाठ कराने का मुहूर्त करता हूं। लड़के को गृहस्थ बनाकर किसी परधर्मी राजा के यहां द्रव्य (पैसा) कमाने के लिए भेजने से बेहतर है कि उसे ब्रह्म कर्म में तैयार करके यजमानी से जो कुछ मिले, उससे पेट पालना लाख गुना बेहतर है। इसके बाद वे संहिता पढ़ने के लिए अपने काका के साथ रहने लगे। दुर्योग से संहिता का अध्ययन पूरा हो पाता, उससे पहले उनके काका कृष्ण भट्ट शके 1768 के ज्येष्ठ मास में काल कविलत हो गए। इतना ही नहीं, उनके दूसरे काका राम भट्ट जो धर्मशास्त्र में काफी प्रवीण और विद्वान माने जाते थे, वह हिंदुस्तान ब्रह्मावर्त (बिठूर) में श्रीमंत पेशवा के यहां होमशाल के अध्यक्ष थे, वह भी दूसरा विवाह करके वरसई आकर रहने लगे।

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